
माहौल को हल्का करने के लिए मैंने पूछ डाला – समीर भाई आपके दांतों से लगता है कि आप नियमित पान खाते हैं तो आप कनाडा में पान पाते कहां से हैं? बोले – घर से 60 किलोमीटर एक दुकान है जहां पान भी मिलता है और दुकानदार इसके साथ ही माणिकचंद गुटखा भी चुपके से बेचता है। फिर तो बर्फ में कार के डूब जाने की बात हुई, घर से ऑफिस के 70 किलोमीटर के ट्रेन-सफर के दौरान टिप्पणियां करने की बातें हुईं, जबलपुर शहर और घर की बातें हुईं, मूलत: गोरखपुर के होने और भोजपुरी बोलने की अड़चनों की भी बातें हुईं। लेकिन वह बात नहीं हुई जिसे घर से तय मुकाम पर पहुंचने तक मैं बस में बैठा-बैठा सोचता आया था।
असल में जब अनूप शुक्ला के मुंबई आने पर पहली बार किसी ब्लॉगर-मीट में मेरा जाना हुआ था, तब अभय ने सभी से बड़ा मौजूं सवाल किया था कि आप लोग ब्लॉग क्यों लिखते हैं। मुझे लगा कि अगर इस बार बात हुई तो मैं अपनी पहली पोस्ट का जिक्र करते हुए कहूंगा कि मैं ऐसा कुछ लिखना चाहता हूं जिससे हमारे दौर की हर समस्या को सही-सही समझने की दृष्टि मिल सके। मैं इसे जीवन की प्रयोगशाला से निकालूंगा, जहां प्रयोग की वस्तु मैं खुद हूं। कुछ ऐसी रचना लिखना चाहता हूं जैसी रामचरित मानस है जिसकी पंक्तियां गांव के बुजुर्ग लोग आज भी उद्धृत करते रहते हैं। मैं मानव मन की, खुशी की, गम की, अवसाद की, उल्लास की हर हद को छूकर समझूंगा। बाहरी दुनिया के हर पेंच का, इकोनॉमिक्स से लेकर नानो-टेक्नोलॉजी की जटिलताओं को समझकर जीवन से जुड़ी भाषा में पेश कर दूंगा।
इतना कहने के बाद सभी को प्रेरित करूंगा कि हम सभी अपनी सोच और समस्याओं को सैंपल मानकर उनका समाधान तलाशें और ऐसी भाषा में पेश करें कि पढ़नेवाले को लगे कि हां, यही तो उसकी समस्या है और यही तो उसका समाधान है। लेकिन मेरे साथ सबसे बड़ी समस्या क्या है कि मैं चीजों के खुद-ब-खुद हो जाने का इंतज़ार करता हूं, खुद आगे बढ़कर हस्तक्षेप नहीं करता। इस चक्कर में बहुत-सी चीजें छूट जाती हैं। समय मुंह चिढ़ाता हुआ टाटा-बाय-बाय करके आगे निकल जाता है। खैर, तो रविवार 9 दिसंबर 2007 को आरे कॉलोनी की खूबसूरत वादियों में भी यही हुआ। विमल ने चलते-चलते हल्के से कुछ ऐसा कहा जैसे ब्लॉगर मिलन में स्पिरिट तो बढ़ रही है, लेकिन सार घट रहा है।
और हां, उस दिन एक और मसले पर काफी देर तक गिला-शिकवा, थुक्का-फजीहत हुई थी। लेकिन क्योंकि इसे सर्वसम्मति से ‘संसदीय कार्यवाही’ से निकाल देने का फैसला हो चुका है, इसलिए उसके बारे में मैं एक शब्द भी नहीं लिखूंगा। वैसे भी ईमानदारी के लेखन से उसका कोई वास्ता नहीं है।
13 comments:
जिस घटना के बारे में बताना ही न था तो उसका जिक्र भी नहीं करना था. :) हममें इसके बारे में भारी जिज्ञासा बन गई है, उसका क्या?
अनिलजी,आपने लिखा सही है पर फिर भी कुछ अधूरा सा लग ही रहा था कि आखिरी में एक बात आप कहते कहते रह गये,और संजयजी कि बात वाजिब भी है,पर उस बात को लगता है अनिलजी ब्लॉगरमीट की मर्यादा को ध्यान में रखकर ही आपने छोड़ दिया , वैसे कोई बड़े ब्लॉगर मीट में शायद उस बात पर गहरी बात हो,सस्पेन्स बना रहे यही उचित है, वैसे समीरजी से मिलना सुखद था,इसी बहाने हमारी भी तो मुलाकात हो गई, शुक्रिया
ब्लोगेरस मिलन कि बहुत से बातें और तस्वीरें हमसे शेयर करने के लिए आपको भी साधुवाद.
पर ये क्या कि आपने और अभय जी दोनों ने एक उत्सुकता मन मे छोड़ दी हमारे.
ये अच्छी बात नही है.
बहुत अच्छा लिखा है और समीर जी की ये बात कि हर शहर में मित्र बन गए हैं बिल्कुल सही है ।
घुघूती बासूती
आप के स्टाइल की छाप है इस रपट में
बहुत बढ़िया बातें लिखी अनिल भाई आपने। और जिसका उल्लेख मात्र किया वह शायद वही प्रसंग था जो पिछले पखवाड़े छिड़ा था और जिसकी जानकारी मुझे कल हो पाई। रहा नहीं गया सो मोहल्ला पर कुछ लिख ही दिया।
काफी कुछ खाया भी आप लोगों ने इस बात की गवाह है फोटो. तो पार्क साफ करके लौटे या बीएमसी के भरोसे रह गयी सारी सफाई?
तभी तो मैं बड़े दिनों से परेशान था कि उड़त तश्तरी गयी कहां? अरे यह तो बंबई में मंडरा रही है.... आगे क्या योजना है?
बड़े दिनो बाद इसी बहाने समीर जी का हाल मिला।
संजयजी,
आपका सवाल जायज है!
मेरा विचार है के अनिलजी राज को अपने मन में छिपाकर रखने में पीड़ा महसूस कर रहें हैं और बात उगलना चाहते हैं।
जरा नजदीक जाइए, शायद आपके कान में कुछ फुसफुसा दें!
हो सकता है कि अनिलजी किसी से न कहने की भी शर्त रेखेंगे।
आप भी वादा कीजिए कि आप किसी को यह बात नहीं बताएंगे जब तक सुनने वाला भी कसम नहीं खाता कि वह किसी को नहीं बताएगा!
यदि हिन्दी चिट्ठाजगत के महारथी कभी बेंगळूरु में मिलने का प्रोग्राम बनाते हैं तो आप सब से मिलने में मुझे बडी खुशी होगी।
आशा है कि मुझ जैसे टिप्पणीकारों को भी आमंत्रित किया जाएगा।
G विश्वनाथ, जे पी नगर, बेंगळूरु
अरे कोई बात नही अगली बार बात कर लीजियेगा।
सही है। दुआ है कि आप् अपना मनमाफ़िक रामचरित मानस जैसा लेखन कर पायें।
अगली बार बात शुरु करने का सूत्र आप के हाथों में थमा देगें, आप के मन में जो चल रहा है, हम उससे सहमत हैं कि खुद को ही प्रयोगशाला बना दें। आप ने बड़िया विवरण लिखा है। अगली बार कोई गीत भी सोच कर आइएगा। हमें लगता है गीत महफ़िल को जमा देते हैं। हम तो विमल जी का और आप का गीत सुनने को फ़िर से तैयार बैठे है।
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