Thursday 13 December, 2007

अहा! अद्भुत आनंद है भीड़ की सुरक्षा में

भीड़ से घिरे रहने में किसको आनंद नहीं आता। नेता टाइप लोगों को चेले-चापटों की भीड़ चाहिए होती है। आसपास दस-पांच लोग न रहें तो उन्हें मज़ा नहीं आता। भीड़ जितनी बढ़ती जाती है, उनके भाषण में उतना ओज आता जाता है। लेकिन इनसे इतर बाकी असंख्य लोगों को भीड़ का हल्ला नहीं, उसका एकांत बेहद सुकून देता है। घर में या दफ्तर में तो आप हमेशा सतर्क रहते हैं, सचेत रहते हैं। हमेशा बचाव की मुद्रा में ही रहते हैं। कछुए का कवच बराबर आप पर चढ़ा रहता है। आप उतना ही हाथ-पैर, आंख-मुंह बाहर निकालते हैं जितना बेहद ज़रूरी होता है। बाकी आपका 90-95 फीसदी वजूद खोल के भीतर छिपा रहता है। लेकिन भीड़ के भीतर पहुंचते ही आप उसी तरह खुल जाते हैं जैसे कछुआ पानी के भीतर पहुंचते ही मस्त अदा से तैरने लगता है।

भीड़ की यह सुरक्षा अपने गांव, कस्बे या मोहल्ले में नहीं मिल पाती। जहां भी जान-पहचान वाले लोग होते हैं, आप अपनी पहचान के साथ बंधे होते हैं। मास्टर साहब है, बाबूजी है, पत्रकार हैं, अफसर हैं, फलाने के पापा है, फलनवां के बेटे हैं, बड़के लम्बरदार के नाती हैं। इसीलिए इन जगहों पर कभी आप खुल नहीं पाते, अपने में नहीं आ पाते। जी खोलकर गाने का मन हो तो नहीं गा सकते। नाक में उंगली डालने की इच्छा हो तो नहीं कर सकते क्योंकि सभ्यता का तकाज़ा है। बच्चों की तरह कुलांचे भरने की चाहत हो तो भी नहीं कर सकते क्योंकि लोग देख लेंगे तो क्या कहेंगे!

लेकिन हमारे महानगर भीड़ के इस एकांत की भरपूर सहूलियत देते हैं। घर-सोसायटी से निकलिए और भीड़ में गुम हो जाइए। बसों में, ट्रेनों में, बाज़ार में, जुलूस में, जलसों में, सड़कों पर, चौराहों पर, चौपाटी पर। सैकड़ों-हज़ारों सिरों में एक सिर आपका होता है जो आप न चाहें तो औरों से ज्यादा भिन्न नहीं होता। हां, अगर आप मुंबई की लोकल में कोट और टाई पहनकर घुसेंगे तो ज़रूर पानी में तेल की तरह नज़र आएंगे और सबकी निगाहों में चुभ जाएंगे। बाकी बहुत सारी असमानताएं चल जाती हैं क्योंकि अगर आप किसी दिन काली शर्ट और बादामी पैंट पहनकर गए तो बहुत मुमकिन है कि आप से चार कदम दूर खड़ा शख्स भी उसी परिधान में हो।

भीड़ में पहुंचकर अपने डैने खोलकर फैल जाइए। चाहें तो बेझिझक अपने में डूब जाइए और चाहें तो भीड़ की भिन्नता का आनंद लीजिए। महानगरों में इतने सारे लाखों लोग रहते हैं कि कभी भी आपको लोगों का एक समुच्चय नहीं मिलता। ज़रा गिनिए। डेढ़ करोड़ की आबादी में सौ-पचास लोगों के कितने परमुटेशन-कॉम्बिनेशन बन सकते हैं। इसीलिए होता यह है कि सौ की भीड़ में हर दिन आपके अलावा बाकी निन्यानबे लोग नए होते हैं। कभी-कभी अपवादस्वरूप कोई परिचित दिख जाता है, आपको देखकर मुस्कराता है या हाथ हिला देता है तो सारे एकांत में खलल पड़ जाता है। लेकिन यह अपवाद है जो साल में एकाध बार ही हो सकता है। बाकी 360-362 दिन भीड़ में आपका एकांत पूरी तरह महफूज़ रहता है।

वैसे, भीड़ के बीच एकांत के इस सुकून के साथ कुछ शर्तें जुड़ी हैं। शर्त ये है कि आपकी नीयत में कोई खोट नहीं होना चाहिए। ऐसा नहीं होना चाहिए कि आप भीड़ का फायदा उठाने की जुगत में हों। जेबकतरों को भीड़ में कभी सुकून नहीं मिलता क्योंकि उन्हें हमेशा पकड़े जाने का डर सताता रहता है। लेकिन अगर आप अंदर से बेधड़क हैं तो आनंद ही आनंद है। न देखे जाने का डर, न टोके जाने का डर। आपकी पहचान भीड़ में गायब रहती है। न कोई जाति, न कोई धर्म। भीड़ के बीच आप नवजात शिशु की तरह टटके इंसान होते हैं। हर सीमा से पार, हर बंधन से आज़ाद।

लेकिन कहते हैं कि परिवार, समाज और पेशे में मिसफिट लोगों को ही भीड़ में गायब होने से सुकून मिलता है। यहां उनको सुकून मिलता है जो स्वभाव से ही पलायनवादी हैं, खुलकर सच्चाई का सामना करने की जिनमें हिम्मत नहीं होती। बाकी जिन लोगों की फितरत लड़ने की होती है, वो तो हमेशा अपनी पहचान कायम करने के लिए जद्दोजहद करते हैं। हर इंसान अनोखा है तो वे इस अनोखेपन को निखारने के लिए बेचैन रहते हैं। वे दुनिया से लड़कर अपना मुकाम, अपनी जगह हासिल करते हैं, मां-बीवी की गोद या अनाम चेहरों की भीड़ में जाकर अपना चेहरा नहीं छिपाते।

5 comments:

36solutions said...

सुबह सुबह चंचल मन के लिए बढिया चिंतन ।

मॉं : एक कविता श्रद्वांजली

विनीत कुमार said...

भीड़ यानि कई जिंदगियों की कोलॉज, कई रंग, उवासी और उबने के कई ढंग जिसके बीच से कभी-कभी अच्छा अनुभव निकल आता है।

Gyan Dutt Pandey said...

क्या कहें - हम तो भीड़ में वीराने के सहारे रहने वाले जीव हैं!

Srijan Shilpi said...

भीड़ में कभी इस तरह के सुकून का अहसास नहीं हुआ। जब कभी भीड़ में फंसे तो अकुला कर बाहर निकल आने की बेचैनी रही।

भीड़ का कोई सजग विवेक नहीं होता और घबराहट उसी से होती है।

अजित वडनेरकर said...

भीड़ में भी रहता हूं अकेला। बढ़िया चिंतन..