Tuesday 28 October, 2008

कुछ जानते हैं तो कितना कुछ नहीं जानते हम

चोर से लेकर जुआरी तक दीवाली जगाते हैं तो लिखने का ‘धंधा’ करनेवाले हम कैसे पीछे रह सकते हैं!! पूरे दो हफ्ते हो गए, कुछ नहीं लिखा। लेकिन आज एक नई शुरुआत का दिन है, विक्रम संवत् 2065 की शुरुआत की बेला है तो लिखना ज़रूरी है। लेकिन लिखने के लिए जानना ज़रूरी है और मैं शायद अब भी जानने के मामले में सिफर के काफी करीब हूं। लोग कहते हैं कि मैं आर्थिक मामलों की कायदे की समझ रखता हूं। लेकिन हिंदी के एक नए बिजनेस अखबार में मुंबई ब्यूरो प्रमुख का काम संभाला तब पता चला कि अर्थ के बारे में अभी तक कितना कम जानता हूं मैं। फिर यह सोचकर तसल्ली हुई कि लेहमान ब्रदर्स से लेकर एआईजी के लिए फाइनेंशियल इंस्ट्रूमेंट तैयार करनेवाले लोग भी इतना नहीं जानते थे कि वित्तीय संकट को पास फटकने से कैसे रोका जा सकता है। खैर, उन लोगों जैसी जटिल समझ हासिल करने के लिए मुझे एवरेस्ट की फतेह जैसा उपक्रम करना होगा।

एक बात और बता दूं कि साढ़े पांच साल इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में काम करने के बाद प्रिंट में वापस लौटने पर मुझे लगा, जैसे कोई मछली सूखे किनारे से उछलकर दोबारा पानी में पहुंच गई हो। आपको अगर गांव का अनुभव होगा तो ज़रूर जानते होंगे कि तालाब के पानी में छिछली खिलाना क्या होता है। हाथ तिरछा करके फेंका गया खपड़ा या पतले पत्थर का टुकड़ा सतह को छूता-छूता उड़ा चला जाता है, कहीं गहरे नहीं उतरता। मुझे लगता है कि आज हमारी टेलिविजन न्यूज़ में छिछली खिलाने जैसा ही काम हो रहा है। पूरी शिफ्ट में आप छिछली खिलाते रहते हैं। पारी खत्म कर जब घर लौटते हैं तो लगता है न कुछ किया, न कुछ पाया।

जैसे कोई भिखारी किसी स्टेशन की सीढियों पर दस घंटे बैठकर सौ-दो सौ कमा लेता है, वैसे ही हम हफ्ते में पांच दिन दस-दस घंटे की चाकरी कर महीने में 70-80 हज़ार कमा लेते हैं। लेकिन इस काम से पैसे के अलावा हमें कुछ नहीं मिलता। न बदलते जमाने की समझ, न राजनीति या अर्थनीति की समझ। न अपनी समझ, न परायों की समझ। सत्ता की लिप्सा में डूबे चंद लोग अपना हिसाब-किताब लगाकर आपको सेट करते रहते हैं और आप उनकी फौज के घुघ्घू या सियार बन गए तो ठीक है, नहीं तो बस समय काटते रहिए, ऊर्जा-विहीन होते रहिए, दिन-ब-दिन चुकते चले जाइए। लेकिन मुझे लगता है कि न तो हम इतने फालतू हैं और न ही हमारे पास इतना फालतू समय है।

हां, इतना ज़रूर है कि आज मीडिया, खासकर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया सत्ता समीकरण का अनिवार्य हिस्सा बन गया है तो जिन्हें इन समीकरणों से खेलने का मौका मिला है और जिन्हें इस खेल का हुनर आता है उनके लिए यहां मौजा ही मौजा है। बाकी सब तो फुरसत मिलने ही इमारत के स्मोकिंग एरिया में छल्ले उड़ाने चले जाते हैं। कल के चंद विद्रोहियों को मैंने इस हालत में देखा है। और, उनकी यह हालत देखकर मुझे लगा कि मैं इस हश्र को कतई प्राप्त नहीं हो सकता। अंत में मैं वे पंक्तियां पेश करना चाहता हूं जो अपने ताज़ा इस्तीफे में मैंने लिखी थीं...
The moment you feel stagnant, the moment you feel that you are becoming redundant, immediately you should say, quit. That’s why I support euthanasia. Always new challenges are waiting for you somewhere outside.
क्या करूं, अपने यहां इस्तीफे अब भी अंग्रेज़ी में लिखने का चलन है। वैसे, आज का लिखा यह सारा कुछ एकालाप ही है। लेकिन अक्सर लगता है कि अपने से संवाद बनाने की कोशिश में बहुतों से संवाद बन जाता है क्योंकि एक की हद टूटकर कब अनेक से मिल जाती है, पता ही नहीं चलता। इसीलिए कभी-कभी लगता है कि मैं अनाम ही रहता तो अच्छा रहता।

Tuesday 14 October, 2008

अपराध की राह पर हैं लोग मेरे गांव के

इधर कुछ दिनों से अपने गांव आया हुआ हूं। करीब छह साल बाद आया हूं तो सब कुछ बदला-बदला सा लग रहा है। लेकिन सबसे चौंकानेवाली बात यह पता लगी कि लखनऊ से लेकर बलिया तक पूर्वी उत्तर प्रदेश का शायद ही कोई ऐसा गांव होगा जिसके कम से कम दो-तीन नौजवान जेल में न बंद हों। इनमें से किसी पर अपहरण का इल्जाम है, किसी पर हत्या का तो किसी पर राहजनी का। बलात्कार जैसे जघन्य आरोप इन पर नहीं हैं। ये भी चौंकानेवाली बात है कि जेल गए ज्यादातर नौजवान सवर्ण जातियों के हैं। आसानी से पैसा कमाने की चाह ने उन्हें अपराध की राह पर धकेल दिया है।

मेरे गांव के पास के एक रिटायर्ड प्रिसिंपल साहब हैं जो कभी कांग्रेस के टिकट पर विधानसभा का चुनाव भी लड़ चुके हैं। पहले उनका बेटा अपहरण और हत्या के मामले में रंगेहाथों पकड़ा गया। वह अभी जेल में ही था कि घरवालों ने उसके छोटे भाई को मेरठ में पढ़ाई करने के लिए भेज दिया। कुछ ही दिन बाद उसने एक क्वालिस गाड़ी को ड्राइवर समेत अगवा किया और फिर ड्राइवर को मार कर फेंक दिया। लेकिन बदकिस्मती से घर आते वक्त शक के आधार पर पुलिस ने पकड़ लिया तो वह भी सलाखों के पीछे पहुंच गया।

दो दिन में ही अपने इलाके के ऐसे तमाम किस्से सुनकर मेरा माथा भन्ना गया। समाजशास्त्री होता तो इसकी वजह बता देता। लेकिन नहीं पता, असली वजह या वजहें क्या हैं। सवर्ण लोग इसके लिए जाति-आरक्षण की व्यवस्था को दोषी मानते हैं। उनका कहना है कि पिछड़ी जाति या अनसूचित जाति के नौजवानों को किसी न किसी तरह, कोई न कोई नौकरी मिल जाती है। लेकिन सवर्ण किसान परिवार का युवक बीए, एमए या पीएचडी करने के बाद नौकरी की आस अगोरता रह जाता है। ऊपर से पुरानी ठसक उसे छोटा-मोटा काम करने नहीं देती। ऐसे में उसके पैर आसानी से अपराध की तरफ मुड़ जा रहे हैं।

इस पर मैं गहराई से सोचकर कभी विस्तार से लिखूंगा। अभी तो मेरे दिमाग में बल्ली सिंह चीमा की कविता की लाइनें गूंज रही हैं कि ... अब अंधेरा जीत लेंगे लोग मेरे गांव के। इस कविता में चीमा ने क्या-क्या बातें कही थी कि कफन बांधे हैं सिरों पर हाथ में तलवार है, ढूंढने निकले हैं दुश्मन लोग मेरे गांव के। मुझे समझ में नहीं आ रहा है कि वो दुश्मन कहां है और कौन है, जिन्होंने मेरे गांवों की हालत ऐसी बना दी है कि हर तरफ अंधेरा ही अंधेरा और वीरानगी ही नज़र आ रही है।

Friday 3 October, 2008

पाखंड का प्रतिफल है अमेरिका पर घहराती ये मंदी

जोसेफ स्टिग्लिट्ज़ साल 2001 में अर्थशास्त्र का नोबेल पुरस्कार जीत चुके हैं। इस समय कोलंबिया यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर हैं। कुछ दिनों पहले गार्डियन अखबार में छपे लेख में उन्होंने अमेरिका में छाए मौजूदा आर्थिक संकट को पाखंड के टूटने का नतीजा बताया है। इसमें उन्होंने और भी कई बड़ी दिलचस्प बातें कही हैं। इन दिनों कुछ फालतू कामों में फंसा हूं तो अपना कुछ लिखने के बजाय जोसेफ स्टिग्लिट्ज़ का यह लेख प्रस्तुत कर रहा हूं। मुलाहिज़ा फरमाइए...
ताश के महल ढह रहे हैं। आर्थिक संकट ऐसा कि इसकी तुलना 1929 की महामंदी से की जा रही है। लेकिन असल में यह संकट वित्तीय संस्थाओं की परले दर्जे की बेईमानी और नीतियां बनानेवालों की अक्षमता का नतीजा है। हुआ यह है कि हम अजीब तरह के पाखंड के आदी हो गए हैं। किसी तरह के सरकारी नियंत्रण की बात होती है तो बैंक हल्ला मचाने लगते हैं, एकाधिकार बढ़ाने के खिलाफ उठाए गए कदमों का विरोध करते हैं, लेकिन हड़ताल होने पर फौरन सरकारी दखल की मांग करने लगते हैं। आज भी वो पुकार लगा रहे हैं कि उन्हें संकट से उबारा जाए क्योंकि वे इतने बड़े और महत्वपूर्ण हैं कि उन्हें डूबने नहीं दिया जा सकता!!!

बड़ा सवाल हमेशा इसी व्यवस्थागत जोखिम के इर्दगिर्द मंडराता रहा है कि किसी संस्था का धसकना पूरी वित्तीय प्रणाली को किस हद तक बरबाद कर सकता है? दिक्कत यह है कि अमेरिका का वित्तीय तंत्र व्यवस्थागत जोखिम को फटाक से पलीता बना देता है। इसका उदाहरण है मेक्सिको का 1994 का वित्तीय संकट। लेकिन वह अपने कर्मों की तरफ नहीं देखता। अमेरिकी वित्त मंत्री हेनरी पॉलसन ने Fannie Mae and Freddie Mac के सरकारी उद्धार को तो जायज बता डाला, लेकिन लेहमान ब्रदर्स के डूबने में उन्हें पर्याप्त व्यवस्थागत जोखिम नहीं नज़र आया।

मौजूदा (अमेरिकी) आर्थिक संकट भरोसे के भयानक रूप से भसकने का प्रतिफल है। बैंक अपने कर्जों और धंधे को लेकर एक-दूसरे से भारी दांव लगा रहे थे। परिसंपत्तियों के गिरते मूल्य को छिपाने और जोखिम को टालने के लिए बेहद जटिल सौदों का सहारा ले रहे थे। ये ऐसा खेल है जिसमें कुछ लोग जीतते हैं तो कुछ हारते हैं। लेकिन इसमें कर्ज देनेवाले बैंक और उनके कर्ज़ों का जोखिम उठाने के धंधे में लगी मॉर्टगेज कंपनियां ही नहीं, आम लोग भी शामिल हैं। इसलिए यह हिसाब-किताब बराबर करनेवाला खेल नहीं है। इसमें आम लोगों का भरोसा टूटता है। वे जब देखते हैं कि वित्तीय प्रणाली से धुआं उठ रहा है तो हिसाब-किताब ऋणात्मक हो जाता है, पूरा बाज़ार धराशाई हो जाता है और नुकसान हर किसी को उठाना पड़ता है।

दरअसल, वित्तीय बाज़ार भरोसे पर टिके होते हैं और वही भरोसा अब टूट चुका है। लेहमान ब्रदर्स का ढहना इस भरोसे के तलहटी पर पहुंच जाने का द्योतक है और ये सिलसिला बढ़ता ही जा रहा है। इस भरोसे का ताल्लुक बैंकों तक सीमित नहीं है, बल्कि वैश्विक संदर्भ में देखें तो आज अमेरिकी नीति-नियामकों के ऊपर लोगों का भरोसा डगमगा गया है। जुलाई में जी-8 की बैठक में अमेरिका ने ढांढस बंधाया था कि सब कुछ अब ठीक हो रहा है। लेकिन हाल की घटनाओं ने साबित कर दिया है कि ऐसा कहना महज छलावा था।

आखिर हम किस हद तक इस संकट की तुलना 1929 की महामंदी से कर सकते हैं? ज्यादातर अर्थशास्त्री मानते हैं कि हमारे पास वो मौद्रिक व राजकोषीय उपाय और समझ है जिनसे हम संकट को उस हद तक पहुंचने से रोक सकते हैं। लेकिन आईएमएफ और अमेरिकी वित्त मंत्रालय समेत दुनिया के तमाम देशों के केंद्रीय बैंकों और वित्त मंत्रियों के ऐसे ही बचाव ‘उपायों’ ने इंडोनेशिया में 1998 का आर्थिक भूचाल पैदा कर दिया था। फिलहाल बुश प्रशासन ने इराक युद्ध से लेकर कैट्रीना चक्रवात का जैसा सामना किया है, उससे तो यही लगता है कि वो मौजूदा आर्थिक संकट को यकीनन मंदी के हश्र तक पहुंचाने का पूरी ‘काबिलियत’ रखता है।

अमेरिका की वित्तीय व्यवस्था न तो जोखिम को साध सकी और न ही पूंजी का सही नियोजन कर सकी। ऐसे तरीके निकाले जा सकते था कि लोगबाग ब्याज दरों के बढ़ने और कीमतों के गिरने के बावजूद कर्ज पर लिए गए अपने घरों में बने रहते। लेकिन अपने जोखिम को बांटने के चक्कर में पूरा उद्योग एक दुष्चक्र पैदा करता गया। यहां तक कि अमेरिका की मॉर्टगेज कंपनियों ने अपना जहरीला जोखिम बाकी दुनिया को एक्सपोर्ट कर दिया। यह सब कुछ नई-नई तजबीज़ों को आजमाने के नाम पर किया गया। लेकिन इन तजबीज़ों ने अर्थव्यवस्था को मजबूत करने के बजाय उसका भठ्ठा बिठा दिया। और, अब उनके किए की कीमत चुका रहे हैं हम जैसे लोग जिन्होंने घर खरीदे थे, जो मजदूर है, निवेशक है और करदाता हैं।