Thursday 18 December, 2008

कसाब का मुकदमा लाइव ब्रॉडकास्ट हो

मुंबई पुलिस की पकड़ में आए पाकिस्तानी आतंकवादी अजमल आमिर कसाब के खिलाफ खुली अदालत में मुकदमा चलाया जाना चाहिए। इसमें प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को बुलाया जाए। साथ ही टीवी चैनलों को इसके लाइव ब्रॉडकास्ट की अनुमति दी जानी चाहिए ताकि पूरा देश, पूरी दुनिया जान सके कि हकीकत क्या है। इससे हम लश्करे तैयबा और दूसरे आतंकवादी संगठनों और उनके आकाओं को बेनकाब कर सकते हैं। मुकदमा बिना किसी विलंब के हर दिन चलाकर कसाब को भारतीय कानून के मुताबिक सख्त से सख्त सज़ा दी जानी चाहिए।

अगर हम सैकड़ों साल पुराने किसी कबीलाई समाज में रह रहे होते तो शिवसेना सुप्रीमो बाल ठाकरे का कहना सही था कि कसाब को बिना कोई मुकदमा चलाए वीटी स्टेशन पर ले जाकर फांसी चढ़ा देना चाहिए या गोली मार देनी चाहिए, जहां 26 नवंबर की रात आतंकवादियों की गोलियों से 63 मासूम भारतीय मारे गए थे। लेकिन हम एक लोकतांत्रिक देश में रह रहे हैं जहां घनघोर अपराधी को भी कानूनी बचाव का हक है। और, अपराधी का कोई देश नहीं होता। जो लोग कह रहे हैं कि कसाब अगर पाकिस्तानी नागरिक न होकर भारतीय होता तो उसे वकील दिया जा सकता था, वे लोग असल में मूर्ख और लोकतंत्र-विरोधी ही नहीं, कायर भी हैं। उनमें लोकतांत्रिक अधिकारों के लिए लड़ने की हिम्मत नहीं है। ये लोग देशभक्त भी नहीं हैं क्योंकि लोकतंत्र के बिना देश को ज्यादा देर तक बचाया नहीं जा सकता। लोकतंत्र चला गया तो भारत को पाकिस्तान बनते देर नहीं लगेगी।

इसलिए दोस्तों, मैं तो यही मानता हूं कि कसाब को वकील जरूर मिलना चाहिए। लेकिन उस पर खुली अदालत में मुकदमा चलाया जाए और मुकदमे की सारी कायर्वाही टीवी चैनलों पर लाइव दिखाई जाए। हमें किसी बाल ठाकरे या उनके गणों के बहकावे में नहीं आना चाहिए क्योंकि वे लोकतंत्र के, हमारी-आपकी की आजादी के, स्वतंत्र वजूद और सोच के कट्टर दुश्मन हैं।

Saturday 13 December, 2008

ऐसे ज्ञानी भी न बनो!

एक जंगल में बहुत ऊंचे स्तर की आईक्यू वाला चीता रहा करता था। बड़ा विद्वान, बुद्धिजीवी, आत्मज्ञानी। दिक्कत बस इतनी थी कि वह दूसरे चीतों की तरह 120 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार से नहीं दौड़ पाता था। इसके चलते हिरन कुलांचे भरते निकल जाते और वह उन्हें पकड़ नहीं पाता। तेजी से दौड़ते-भागते जानवरों का शिकार उसके लिए नामुमकिन हो गया तो क्या करता वह बुद्धिजीवी बेचारा। चूहों, खरगोश, सांप और मेढक जैसे जानवरों को खाकर किसी तरह गुजारा करने लगा। लेकिन उसे यह सब छिपकर करना पड़ता क्योंकि अगर कोई और चीता देख लेता तो यह शर्म के मारे डूब मरनेवाली बात हो जाती। है कि नहीं। आप ही बताएं।

वह अक्सर सोचता रहता कि दुनिया का सबसे तेज दौड़नेवाला जानवर होने से आखिर क्या फायदा? मैं तो कुलांचे मारते हिरन तक का शिकार नहीं कर पाता। इसी सोच और उधेड़बुन में डूबा वह एक दिन जंगल के दूसरे चीते के पास जा पहुंचा जो अपनी शानदार रफ्तार के लिए आसपास के सभी जंगलों में विख्यात था। दुआ-सलाम के बाद फटाक से बोला – मेरे पास विकासवादी अनुकूलन की वे सारी खूबियां हैं जिसने हमारी प्रजाति को सबसे तेज दौड़नेवाला जानवर बनाया है। मेरी नाक की नली काफी गहरी है जो मुझे ज्यादा ऑक्सीजन सोखने की क्षमता देती है। मेरे पास काफी बड़ा हृदय और फेफड़े हैं जो ऑक्सीजन को पूरे शरीर में बेहद दक्षता से पहुंचा देते हैं। इसके साथ ही जब दौड़ने के दौरान मैं मात्र तीन सेकंड में इतना त्वरण हासिल कर लेता हूं कि मेरी रफ्तार शून्य से 100 किलोमीटर प्रति घंटे तक पहुचाती है, तब मेरी सांस लेने की गति 60 से बढ़कर 150 प्रति सेकंड हो जाती है।

दौड़ने में मेरे अर्ध-आयताकार पंजे बड़े उपयोगी हैं। ऊपर से अपनी लंबी पूंछ का इस्तेमाल मैं रडर की तरह कर सकता हूं और दौड़ते-दौड़ते बड़ी तेजी से मुड़ सकता हूं। यानी शिकार को हर दिशा से दबोच सकता हूं। फिर भी...उसने लंबी सांस भरकर कहा – मैं चाहे जितनी कोशिश कर लूं, 120 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार नहीं हासिल कर पाता। सामनेवाला चीता आंख फाड़कर उसकी बात सुनता रहा और जब उसकी बात खत्म हो गई तो बोला – वावो, बड़ी दिलचस्प जानकारियां आपने दीं। मैं तो अभी तक यही समझता था कि मेरी नाक केवल सूंधने के लिए है। मेरे हृदय और फेफड़े मुझे जिंदा रखने के लिए हैं। और शिकार का पीछा करने के दौरान तो मुझे कुछ और दिखता ही नहीं कि पूंछ कहां जा रही है, पंजे कहां उठ रहे हैं। पता ही नहीं चलता। हां, सांस फूल जाती है, इसका अहसास रहता है। लेकिन तब तक तो शिकार मेरे जबड़े में आ चुका होता है।

दूसरा चीता बोलता रहा – बड़ा मजा आया आपकी दिलचस्प और चौंकानेवाली बातें सुनकर। वाकई आप तो बड़े आत्मज्ञानी हैं। तो ऐसा करते हैं कि हम अब एक साथ रहते हैं। मैं आपके हिस्से का भी शिकार करता रहूंगा और आप मुझे मेरे स्व और जगत का ज्ञान कराते रहना ताकि मैं भी आपकी तरह ज्ञानवान और विद्वान बन जाऊं। बुद्धिजीवी बन जाऊं। आत्मज्ञानी बन जाऊं।

पहले चीते ने उसकी बात मान ली। दोनों चीते एक साथ रहने लगे। धीरे-धीरे इस तरह उस जंगल में दो चीते हो गए जो 120 किलोमीटर प्रति घंटे की अधिकतम रफ्तार नहीं हासिल कर पाते थे और दूसरों की नजरों से छुपते-छिपाते खरगोश, चूहे, सांप, नेवले, मेढक, गोजर, केकड़े, कॉकरोच, बिच्छू आदि-इत्यादि खाकर जिंदा रहते थे। यह कहानी एक बनारसी ने सुनी तो फटाक से बोल पड़ा – अरे धत! बड़े-बड़े विद्वान, तुम्हारी...
आधार : इकनॉमिक टाइम्स

Thursday 11 December, 2008

नगई महरा पानी भरो, रोती है नयका नाउनि

कमर से झुकी, दाएं हाथ में दंड पकड़े उस सांवली औरत ने अपने बाएं हाथ से मेरे बंधे हुए हाथों को बस छुआ भर था कि जादू हो गया। अंबेडकरनगर ज़िले के देवलीपुर गांव में बाबू राम उदय सिंह के जिस नए-नवेले घर के बरामदे के बाहर यह वाकया हुआ, वह घर गायब हो गया। पूरे गांव-जवार के घर-बार, पेड़-पौधे, खेत-खलिहान, गाय-बछरू सब गायब हो गए। बस बचा तो मैं और वह सांवली औरत जिसका नाम है नयका नाउनि। सत्तर के पार की नयका नाउनि। नयका मेरे हाथों पर अपना हाथ बड़ी नरमी से रखे रहीं और बोलीं – भइया सब भुलाइ दिह्या। फिर बह निकली आंसुओं की अजस्र धारा। नयका नाउनि रोने लगीं। मेरी भी आंखें पहले नम हुईं, फिर बहने लगीं। सारी धरती, सारा इलाका मां और बेटे के आंसुओं में डूब गया। ताल-तलैया, गढ्ढे-गढ़ही, कच्चे-पक्के तालाब सभी गले तक भरकर बहने लगे। लगा जैसे घाघरा से निकली मडहा नदी में भयंकर बाढ़ आ गई हो।

क्षितिज तक जिधर भी नजर फेरो, पानी ही पानी। दिग-दिगंत तक पानी ही पानी। उसी के बीच चार गज जमीन के द्वीप पर खड़े थे हम दोनों। असली मां और बेटे तो नहीं। लेकिन वह मुझमें एक-एक कर मरते गए अपने चौदह पुत्रों को देख रही थी और मैं उसमें अथाह ममता की आदर्श प्रतिमूर्ति, जो मुझे सांसारिक समीकरणों में उलझे अपनों से नहीं मिली। नयका के आंसुओं की वजह जो भी रही हो, लेकिन मुझे पता है कि मैं अपनों की उलाहना के दंश से रो रहा था। पहले तो मामी ने उलाहना दी कि तुम न पप्पू के मरने पर आए, न ही मामा के गुजरने पर, जबकि मामा तुमको सबसे ज्यादा मानते थे और पप्पू तो तुम पर जान छिड़कता था। उनको कैसे समझाता कि इन दोनों के जाने से मैं कितना तड़पा था। अभी तक पप्पू और मामा सपने में आते रहते हैं। जब उन्हें कोई शिकायत नहीं है तो यह 56 साल की फैशनेबल औरत कौन होती है यह कहनेवाली कि मैं तो सोचकर आई थी कि तुमसे बात ही नहीं करूंगी। अब बगल में बैठे हो तो बोल ले रही हूं।

मामी की इस उलाहना पर बुआ ने तेजाब उड़ेल दिया। उस बुआ ने, जिसने मुझे रातों में अपने बगल में सुलाकर सीत-बसंत जैसे सैकड़ों किस्से सुनाए थे, उसी ने मेरे दुनियादार न हो पाने को झूठ मानकर ताना मारा। जिस मां के लिए मैं सब कुछ कुर्बान करने की अंधश्रद्धा रखता हूं, उस मां ने मुझसे पूछा कि छोटे भाई की बहू को क्या मुंह-दिखाई दे रहे हो। मैंने कहा – तुम बताओ क्या देना है, मैं दे दूंगा। मुझे नहीं पता कि क्या दिया जाता है। मां ने मुंह बिचकाया तो बुआ ने ताना मार दिया। नहीं पता कि किस चाची-ताई ने बचाव किया कि बच्चा दस साल का था तभी से तो बाहर है क्या जाने रीति-रिवाज। लेकिन मां के मुंह घुमाने और बुआ के ताने की चोट इतनी गहरी थी कि नाश्ता बीच में छोड़कर थाली झनाक से फेंकी और बाहर निकल गया। वहीं बरामदे में दिख गईं नयका नाउनि। और, फिर घट गया वह वाकया।

सोचिए, जब हर तरफ पानी ही पानी हो, आंसुओं का हाहाकार हो, तब जानवरों और इंसानों के रुदन की आवाजें गूंजने लगें तो आपकी मनस्थिति क्या हो जाएगी। मैं भी संज्ञाशून्य होते-होते कहीं गुम गया। पहुंच गया उस अतीत में जब नयका मुझे बुकुआ (सरसों का उबटन) लगाकर नहलाती भी थीं। तब तो मैं बकइया-बकइयां भी नहीं चल पाता था। दसई नाऊ की नई बहू आई तो सब उसे नयका-नयका कहने लगे और अधेड़ से बूढ़ी होने तक वह नयका (नई) ही बनी रही। हमारे गांवों में ऐसा ही चलन है। मेरी बुआ का नाम सुरजा है, लेकिन उनकी ससुराल में उन्हें भी नयका ही कहते हैं। यहां तक कि जेठ और देवर के लड़के आज भी उन्हें नयका माई कहते हैं। उनकी कोई आद-औलाद नहीं है।
गंगा ने बिना शिकन अपने सात नवजात पुत्रों को नदी में बहा दिया था। आठवां पुत्र शांतनु के टोकने से बच गया तो भीष्म बन गया। लेकिन दसई नाऊ का दुख तो शांतनु से भी बड़ा था, जिसने अपनी आंखों के सामने अपने चौदह पुत्रों को बिना किसी बीमारी के बिछुड़ते देखा था।

नयका नाउनि की भी कोई आल-औलाद नहीं है। लेकिन उनकी कोख से चौदह बच्चों ने जन्म लिया था। कोई जन्मते ही मर गया, कोई दो-चार महीने में और कोई पांच-सात साल का होकर। नयका का चौदहवां बेटा तेरह साल का होकर मरा। दसई और नयका उसे बड़ा होता देखकर हमेशा चहकते रहते। टोना-टोटका जाननेवाले बड़े-बूढ़ों के कहने पर पैदा होने के कुछ महीने बाद ही नाक और कान दोनों छेदा दिया और तभी से उसका नाम पड़ गया छेदी। मुझसे छह साल चार महीने ही छोटा था छेदी। वह बात तो मैंने खुद अपनी आंखों से देखी थी और मुझे वो दृश्य यादकर आज भी हंसी छूट जाती है। दसई नाऊ उसे हाथ में लेकर उछाल रहे थे। दोनों हाथों में अपने सिर के ऊपर तक उठाकर लू-लू कर रहे थे कि छेदी ने ऊपर से सू-सू कर दिया और उसकी धार सीधे दसई की आंखों और खुले मुंह में जा पड़ी। दसई बोले – का सारे, मूति दिहे। नयका फौरन आकर छेदी को गोद में भरकर दुलारने लगीं।

नयका नाउनि की आंखों से अब कम दिखता है। लेकिन उन्हें इन्ही आंखों से मुझमें अपने एक-एक बिछुड़े चौदह पुत्रों को देखने में कोई दिक्कत नहीं आई। मुझे लगा कि नयका के आगे गंगा को भी पानी भरना पड़ेगा। गंगा ने बिना शिकन अपने सात नवजात पुत्रों को नदी में बहा दिया था। आठवां पुत्र शांतनु के टोकने से बच गया तो भीष्म बन गया। लेकिन दसई नाऊ का दुख तो शांतनु से भी बड़ा था, जिसने अपनी आंखों के सामने अपने चौदह पुत्रों को बिना किसी बीमारी के बिछुड़ते देखा था। वैसे, दसई नाऊ थे बड़े विचित्र। पता नहीं आंखें कमजोर थीं या अटेंशन डेफिसिट डिसऑर्डर के शिकार थे, सभी के बाल चाईं-चूआं ही काटते थे। कटे हुए बालों में कैची की हर हरकत अपना अलग निशान छोड़ जाती थी। मां-बाप को जिस बच्चे को भी सजा देनी होती, उसे बाल कटाने दसई नाऊ के पास भेज देते थे। मुझे भी दो-चार बार दसई से बाल कटाने पड़े थे। दसई नाऊ को मरे हुए सत्ररह साल हो चुके हैं यानी मेरे पिछली बार गांव जाने से दो साल पहले वे नयका नाउनि और डीह पर बने अपने घर को अकेले छोड़कर चले गए। आज होते तो आमिर खान की गजिनी स्टाइल को मात कर देते। सभी उन्हीं से हेयर-स्टाइलिंग कराने पहुंच जाते अंबेडकरनगर जिले के देवलीपुर गांव में।

तेजतर्रार नयका नाउनि को जीते जी दसई की खास परवाह नहीं थी तो मरने के बाद क्या होगी। लेकिन बच्चों की कसक इन्हें आज भी सालती है। तभी तो मुझ जैसे निर्मोही शख्स में अपने पुत्रों को खोज रही हैं। तो, नयका मेरे बंधे हांथों पर अपना बायां रखकर रो रही थीं, तभी उनके चचेरे देवर अलगू नाऊ की आवाज आई – भइया, कैसे अह्या। यह आवाज आते ही सारा जादू गायब हो गया, सारा तिलिस्म टूट गया। सब कुछ वापस आ गया। घर-बार, खेत-खलिहान, लोग-बाग, गाय-बछरू सब कुछ। बाढ़ का सारा पानी अपने-अपने सोतों में लौट गया। सब कुछ पूर्ववत हो गया। लेकिन मैं अभी तक पूर्ववत नहीं हो पाया हूं। एक अमिट छाप बनकर दर्ज हो गया है यह वाकया मेरे जेहन में।
पुनश्च : मुझे लगता है कि मैं कभी इतमिनान से लिख पाऊंगा तो नयका नाउनि का चरित्र त्रिलोचन शास्त्री के नगई महरा को भी मात कर सकता है। शायद इसी तरीके से मैं अपनी मां तो नहीं, लेकिन उससे भी बहुत-बहुत बड़ी, विराट नयका नाउनि को वाजिब सम्मान दे पाऊंगा।
फोटो सौजन्य: danny george

Wednesday 10 December, 2008

अजी हां, मारे गए गुलफाम

ब्लॉग की दुनिया से वनवास के इस दौर में रेणु की कहानी मारे गए गुलफाम और उस पर बनी फिल्म तीसरी कसम का वह अंश बराबर याद आ रहा है जहां कहानी का नायक हीरामन महुआ घटवारिन की कहानी सुनाता है। जिस तरह महुआ घटवारिन को सौदागर उठा ले गया था, वही हालत मुझे अपनी हो गई लगती है। एक मीडिया ग्रुप ने चंद हजार रुपए ज्यादा देकर मुझे उस दुनिया से छीन लिया है जहां मैं चहकता था, लहकता था, बहकता था। लिखना तो छोड़िए, देख भी नहीं पाता कि हिंदी ब्लॉग की दुनिया में चल क्या रहा है। नहीं पता कि समीर भाई कितने सक्रिय है, ज्ञानदत्त जी के मन की हलचल क्या है, कोलकाता वाले बालकिशन क्या कर रहे हैं, कोई टिप्पणियों में समीरलाल को फतेह करने की मुहिम पर निकला कि नहीं? मुंबई में रहते हुए भी न अजदक, न निर्मल आनंद, न ठुमरी और न ही विनय-पत्रिका का हाल मिल पाता है। हां, गाहे-बगाहे विस्फोट की झलक जरूर देख लेता हूं क्योंकि यकीन है कि वहां कोई विचारोत्तेजक बहस चल रही होगी।

क्या करूं? लिखना भी चाहता हूं और पढ़ना भी। लेकिन नौकरी के चक्कर में फुरसत ही नहीं मिल रही। पहले अपना हफ्ता दो दिन का और काम का हफ्ता पांच दिन का था। अब अपना हफ्ता एक दिन का और काम का हफ्ता छह दिन का हो गया है। अपने हिस्से के एक दिन में हाईस्कूल की बोर्ड परीक्षा की तैयारी में लगी बेटी को पढ़ाना पड़ता है। फिर, क्योंकि काम सीखने और सिखाने का है, टीम को बनाने और निखारने का है तो दिन में कम से कम 10 घंटे देने पड़ते हैं। कभी-कभी तो 12 घंटे चाकरी में निकल जाते हैं। आने-जाने के दो घंटे ऊपर से। सुबह उठते ही आर्थिक घटनाक्रमों की थाह लेने का सिलसिला शुरू हो जाता है जो सोते वक्त तक जारी रहता है। सपने में भी रिजर्व बैंक के किसी सर्कुलर का जोड़-घटाना, सेबी की किसी पहल की पड़ताल या बैंकों के किसी कदम की ताल गूंजती रहती है।

मन को यह समझाकर तसल्ली देता हूं कि आर्थिक और वित्तीय जगत में गहरे पैठकर थाह ले रहा हूं। बीमारी चरम पर है तो सारे रहस्य को तार-तार करने का यही मौका है। इसी से वह समझ हासिल होगी कि इसे बदला कैसा जाए। अब मैं कोई वामपंथी विचारक या लिख्खाड़ तो हूं नहीं जिसके पास सारे जवाब तैयार रहते हैं और जो सवालों को आमंत्रित करता फिरता है। न ही मैं अपने रुपेश श्रीवास्तव की तरह हूं कि नब्ज पर हाथ रखते ही जिद्दी से जिद्दी बीमारी का निदान कर दूं। तो, कोशिश में लगा हूं कि कॉरपोरेट जगत से लेकर बैंकिंग की दुनिया की अद्यतन समझ हासिल कर सकूं। उसी हिसाब से अपने अखबार बिजनेस भास्कर में लिखता भी हूं। इन रिपोर्टों को ब्लॉग पर डाल नहीं सकता क्योंकि ऑफिस में विंडोज एक्सपी होते हुए भी उस पर यूनिकोड नहीं चढ़ा पा रहा हूं। कई बार आईटी विभाग की मदद ली, लेकिन कामयाबी नहीं मिली।

काम के दौरान द्वंद्व, संघर्ष और टकराव की स्थितियां भी आती हैं। लेकिन अपने ही लेख कण-कण में संघर्ष की याद कर तनावमुक्त हो जाता हूं। दोस्तों! नई-नई अनुभूतियों और संवेदनाओं का आना पहले की तरह अनवरत जारी है। बस, ब्लॉग पर दर्ज कर आप लोगों का सानिध्य नहीं ले पा रहा हूं। लेकिन यह स्थिति स्थाई नहीं है। यही बात आपसे ज्यादा खुद को जताने के लिए आज जिद करके लिखने बैठ गया। न लिख पाने की सफाई पूरी हुई। आगे से कोई गिला-शिकवा नहीं। ठोस बातें लिखूंगा, जिससे मेरी और आपकी दुनिया थोड़ी ज्यादा धवल और विस्तृत हो सके।
फोटो सौजन्य: m.paoletti