Friday 18 June, 2010

व्योम भाई, आप हिंदुवादी मानव-विरोधी क्यों हो?

वाकई यह मेरे गले नहीं उतरता कि जितने भी ‘हिंदुवादी’ हैं वे दबे-कुचले गरीब लोगों के साथ खड़े होने से इतने बिदकते क्यों हैं? एक गरीब महिला जो शायद माओवादी न रही हो, उसकी लाश को अर्ध-सैनिक बल के दो जवान किसी ढोर-डांगर की तरह लटका कर ले जा रहे हैं। कहां तो घुघुती जी और शायदा की तरह इसके मानवीय पक्ष को महसूस करना चाहिए था और कहां हमारे ये तथाकथित ‘हिंदू’ लोग इसे देखकर फुंकारने लगे।

नहीं समझ में आता कि इसे देखकर सुरेश चिपलूनकर को क्यो कहना पड़ता है कि भारत के वीर सैनिकों को एक बार बांग्लादेश की सेना ने भी ऐसे ही लटकाकर भेजा था। संजय बेंगाणी अपना बेगानापन तोड़कर क्यों पूछ बैठते हैं कि माओवादी हमारे सैनिकों के साथ कैसा व्यवहार करते हैं? कोई इसी बहाने मानवतावादियों को गद्दार बता बैठता है।

एक व्योम जी हैं। मुझ पर उनका स्नेह रहा है। लेकिन कल लगाई दो तस्वीरों से ऐसे विचलित हुए कि अपनी स्थिति साफ़ करने लगे कि “हम तो भारत की ही तरफ थे, हैं और रहेंगे। आप इस देश का नमक खाकर जारी रखें गद्दारी। आपकी मर्जी। हां ब्लॉग का नाम ‘एक नक्सलवादी की डायरी’ रखें तो ज्यादा सार्थक रहेगा। डर-डर कर क्या समर्थन करना।” बेचारे इतने तिममिलाए कि बोल बैठे कि कभी समय मिले तो 76 शहीदों की लाशों के चित्र देखना। उस समय तो आपकी जबान नहीं खुली। हम सब समझते हैं।

व्योम जी, बडी विनम्रता से कहना चाहता हूं कि आप कुछ नहीं समझते। महान व सुदीर्घ परंपरा वाले इस देश को नहीं समझते। असली राष्ट्रवाद और लोकतंत्र को नहीं समझते। किसी भयानक भ्रम के शिकार हैं आप और आप जैसे लोग। सत्ता के सामने दुम हिलाना और जनता के सामने दहाड़ लगाना आपका स्वभाव है। मुंह में राम, बगल में छूरी जैसी कहावत शायद इसी समुदाय के लिए बनाई गई थी। मुझे आप जैसे लोगों से देशभक्त या गद्दार होने का प्रमाणपत्र नहीं चाहिए। मेरी मां, मेरा घर-परिवार, मुझे नजदीक से जाननेवाले लोग और मैं खुद जानता हूं कि आज के इस दौर में अपने मुल्क और अवाम से मेरे जैसे निष्कपट व निःस्वार्थ प्रेम करनेवाले लोग गिने-चुने ही होंगे।

बंधुगण, मुझे जो काम करना है, मै करता रहूंगा। छात्र जीवन से कर रहा हूं और मरते दम तक करूंगा। लेकिन बुरा मत मानिएगा, मुझे आपका हिंदूवाद कतई समझ में नहीं आता। मैं भी एक धर्मनिष्ठ हिंदू परिवार से हूं। हालांकि मैं बाहरी पूजा-अर्चना या अनुष्ठानों में यकीन नहीं रखता, लेकिन गौतम बुद्ध और कबीर से लेकर विवेकानंद तक बराबर मुझे राह दिखाते रहते हैं। मेरा बस इतना कहना है कि इंसान और अवाम से प्रेम कीजिए, सारे धर्म अपने-आप सध जाएंगे। क्यों अंदर इतनी नफरत भरकर खुद का ही खून जलाते हैं?

Thursday 17 June, 2010

माओवादी इंसान नहीं, जानवर से भी बदतर!

मुझे अलग से कुछ नहीं कहना है। बस दो तस्वीरें लगा रहा हूं। पहली तस्वीर बुधवार की है जिसमें हमारे सिपाही पश्चिम बंगाल में इनकाउंटर के दौरान मारी गई एक महिला माओवादी को ढोकर ले जा रहे हैं। दूसरी तस्वीर देश की नहीं, विदेश की है जिसमें एक मरे हुए सुअर को दो लोग ढोकर ले जा रहे हैं।



Thursday 1 April, 2010

वादा पूरा, अर्थकाम शुरू

बस, इतनी सी सूचना देनी है कि आगे और ज्यादा व्यस्त हो रहा हूं क्योंकि वायदे के मुताबिक आज आधी रात के कुछ घंटे बाद वित्तीय साक्षरता से जुडी़ वेबसाइट अर्थकाम मैंने शुरू कर दी। अभी पिछले ही हफ्ते कॉरपोरेट मामलात मंत्रालय ने भी निवेशकों को समझदार बनाने के लिए हिंदी में वेबसाइट शुरू की है। अच्छा है हर तरफ से कोशिशें हो रही हैं। रंग यकीनन निखरेगा। अभी नहीं तो साल-दो साल बाद सही।
अर्थकाम को देखिए, पढिए और बताइए कि अभी कितने काम की बन पाई है यह साइट...
बस इतना ही....

Tuesday 9 March, 2010

समाज को प्रभुतासंपन्न बनाने की कोशिश है अर्थकाम

अर्थकाम हिंदी समाज का प्रतिनिधित्व करता है। यह 42 करोड़ से ज्यादा की आबादी वाले उस समाज को असहाय स्थिति से निकालकर प्रभुतासंपन्न बनाने का प्रयास है जो घोड़ा बना है लेकिन जिसका घुड़सवार कोई और है। इसका अधिकांश हिस्सा ग्राहक है, उपभोक्ता है, लेकिन वह क्या उपभोग करेगा, इसे कोई और तय करता है। वह अन्नदाता है किसान के रूप में, वह निर्यातक है सप्लायर है छोटी-छोटी औद्योगिक इकाइयों (एमएसएमई) के रूप में, लेकिन वह कितना और कौन-सा अनाज पैदा करेगा, कौन-सा माल किसको सप्लाई करेगा, इसे कोई और तय करता है। इसका बड़ा हिस्सा नौकरी-चाकरी करता है, मालिक-मुख्तार नहीं है। वह कमाई करता है, वर्तमान से, भविष्य की अनहोनी से डरकर पैसे भी बचाता है। वह कभी-कभी इतना जोखिम भी उठा लेता है कि लॉटरी खेलता है। शेयर बाजार में सट्टेबाजी का मौका मिले तो डे-ट्रेडर भी बन जाता है। निवेश करता है, लेकिन हमेशा टिप्स के जुगाड़ में रहता है। जानता नहीं कि देश का वित्तीय बाजार उसे सुरक्षित निवेश के मौके भी देता है। जानता नहीं कि देश का वित्तीय बाजार किसी के बाप की बपौती नहीं है।

अभी भले ही यह सच हो कि अंग्रेजी में बोलने-सोचने वाले पांच-दस करोड़ लोग ही उद्योग-व्यापार, बाजार और कॉरपोरेट दुनिया की बागडोर संभाले हुए हैं। लेकिन यह एक औपनिवेशिक तलछट है जो बाजार व लोकतांत्रिक चाहतों के विस्तार के साथ एक दिन बहुरंगी, देशज भारतीयता में समाहित हो जाएगी। अर्थकाम इस प्रक्रिया को तेज करने का माध्यम है। यह वित्तीय साक्षरता के जरिए जहां देश में वित्तीय बाजार की पहुंच को बढ़ाएगा, वहीं महज उपभोक्ता, अन्नदाता, कच्चे माल व पुर्जों के निर्माता की अभिशप्त स्थिति से निकालकर हिंदी समाज को उद्यशीलता के आत्मविश्वास से भरने की कोशिश भी करेगा। हम भारतीय व्यापार व उद्योग के पारंपरिक ज्ञान की कड़ी को आधुनिक आर्थिक व वित्तीय पद्धतियों से जोडेंगे।

हमें यकीन है कि हिंदी समाज में वो सामर्थ्य है, यहां ऐसे लोग हैं जो अंदर-ही-अंदर विराट सपनों को संजोए हुए हैं, लेकिन मौका व मंच न मिल पाने के कारण कहीं किसी कोने में दुबके पड़े हैं। उन्हें किसी मौके व मंच का इंतजार है। यकीनन हिंदी समाज के खंडित आत्मविश्वास को लौटाना, यहां घर कर चुकी परम संतोषी पलायनवादी मानसिकता को तोड़ना, जनमानस में छाए दार्शनिक खोखलेपन को नए सिरे से भरना, उसे हर तरह के ज्ञान से लबरेज करना पहाड़ को ठेलने जैसा मुश्किल काम है। लेकिन हमारा इतिहास बताता है कि हम हमेशा ऐसे संधिकाल से, संक्रमण के ऐसे दौर से विजयी होकर निकले हैं। आजादी की 75वीं सालगिरह यानी 2022 तक अगर भारत को दुनिया की प्रमुख ताकत बनना है तो हिंदी ही नहीं, तमिल, तेलगु, मलयाली, मराठी, गुजराती से लेकर हर क्षेत्रीय समाज को कम से कम ज्ञान व सूचनाओं के मामले में प्रभुतासंपन्न बनाना होगा। नहीं तो तमाम बड़े-बड़े राष्ट्रीय ख्बाव महज सब्जबाग बनकर रह जाएंगे।
नोट: 1 अप्रैल 2010 से शुरू हो रहा है अर्थकाम, तैयारियां जोरों पर हैं।

Friday 26 February, 2010

किसान और कृषक कैसे एक हो गए!!...

वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी ने अपने बजट भाषण के अंत में कहा है कि यह बजट आम आदमी का है। यह किसानों, कृषकों, उद्यमियों और निवेशकों का है। इसमें बाकी सब तो ठीक है, लेकिन किसान और कृषक का फर्क समझ में नहीं आया। असल में वित्त मंत्री ने अपने मूल अंग्रेजी भाषण में फार्मर और एग्रीकल्चरिस्ट शब्द का इस्तेमाल किया है। लेकिन वित्त मंत्रालय के अनुवादक बाबुओं ने शब्दकोष देखा होगा तो दोनों ही शब्दों का हिंदी अनुवाद किसान, कृषक और खेतिहर लिखा गया है तो उन्होंने बजट भाषण के हिंदी तर्जुमा में इसमें से एक के लिए किसान और दूसरे के लिए कृषक चुन लिया। वैसे तो फार्मर और एग्रीकल्चरिस्ट का अंतर भी साफ नहीं है क्योंकि अपने यहा फार्मर बड़े जोतवाले आधुनिक खेती करनेवाले किसानों को कहा जाता है और एग्रीकल्चरिस्ट भी वैज्ञानिक तरीके से खेती करनेवाले हुए।

हो सकता है कि प्रणब मुखर्जी अपने मंतव्य में स्पष्ट हों क्योंकि जब वे उद्यमियों और निवेशकों के साथ इनका नाम ले रहे हैं तो जाहिर है उनका मतलब बड़े व आधुनिक किसानों से होगा। नहीं तो वे स्मॉल व मार्जिनल फार्मर/पीजैंट कह सकते थे। लेकिन बाबुओं ने तो बेड़ा गरक कर दिया। कोई उनसे पूछे कि किसान और कृषक में अंतर क्या है तो लगेंगे संस्कृत या अंग्रेजी बतियाने।

जमीनी स्तर की बात करें तो अपने यहां मूलत: काश्तकार शब्द का इस्तेमाल होता है। आधुनिक काश्तकार फार्मर कहे जाते हैं तो छोटे व औसत काश्तकारों को किसान कहा जाता है। रिजर्व बैंक के एक अधिकारी के मुताबिक देश में कुल 12.73 करोड़ काश्तकार और 10.68 करोड़ खेतिहर मजदूर हैं। कुल काश्तकारों में से 81.90 फीसदी लघु व सीमांत (स्मॉल व मार्जिनल) किसान हैं जिनकी जोत का औसत आकार क्रमश: 1.41 हेक्टेयर (3.53 एकड़) व 0.39 हेक्टेयर (0.98 एकड़) है। साफ है कि वित्त मंत्री लगभग इन 82 फीसदी काश्तकारों को फार्मर या एग्रीकल्चरिस्ट कहकर उनका मज़ाक तो नहीं उड़ाएंगे। इसका मतलब वे बाकी 18 फीसदी काश्तकारों की बात कर रहे थे।

इनमें से भी पूरी तरह वर्षा पर आधारित असिंचित इलाकों में गरीबी के बावजूद काश्तकारों की जोत का आकार बड़ा है और गणतंत्र के 60 सालों के बावजूद देश की 58 फीसदी खेती अब भी वर्षा पर निर्भर है। इसका मतलब प्रणव दा देश के बमुश्किल दो करोड़ काश्तकारों की बात कर रहे थे। अब सवाल उठता है कि ऐसी सूरत में यह बजट आम आदमी का बजट कैसे हो गया? कृषि के विकास के लिए वित्त मंत्री ने बजट में चार सूत्रीय रणनीति पेश की है। इसमें पहला है हरित क्रांति को बिहार, छत्तीसगढ़, झारखंड, पूर्वी उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल और उड़ीसा जैसे पूर्वी राज्यों तक पहुंचाना। ...
पूरी खबर और बजट के कर प्रस्ताव अर्थकाम पर

बजट में चलता है लॉबियों का खेल

उदय प्रकाश की एक कहानी है राम सजीवन की प्रेमकथा। इसमें खांटी गांव के रहनेवाले किसान परिवार के राम सजीवन जब दिल्ली के जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में पढ़ने जाते हैं तो वहां कोई लड़की कानों में सोने का बड़ा-सा झुमका या गले में लॉकेट पहनकर चलती थी तो वे बोलते थे कि देखो, वह इतना बोरा गेहूं, सरसों या धान पहनकर चल रही है। ऐसा ही कुछ। मैंने वो कहानी पढ़ी नहीं है। लेकिन इतना जानता हूं कि हम में से अधिकतर लोग शहरों में पहुंचकर किसान मानसिकता से ही सारी चीजों को तौलते हैं। देश का बजट भी इसका अपवाद नहीं है।

जैसा अपना या अपने घर का बजट होता है वैसा ही देश के बजट को समझते हैं। अंदर से मानते हैं कि यह जिसे हम देश का बजट मान रहे हैं कि वह असल में सरकार का बजट है। वैसे, बात कुछ हद तक सही भी है क्योंकि सत्तारूढ़ सरकार ही समूचे देश का प्रतिनिधित्व करती है, ऐसा मानने का कोई तुक नहीं है। यहां तो लॉबीइंग का खेल चलता है, ताकतवर समूहों का खेल चलता है, जो देश के भी हो सकते हैं और विदेशी भी। इसीलिए वित्त मंत्री बजट बनाने के कई महीने पहले ही समूहों की राय लेने का क्रम शुरू कर देते हैं। कुछ बैठकें सार्वजनिक तौर पर होती हैं और कुछ का काम परदे के पीछे चलता है। समाज के जो वंचित तबके हैं, जिनकी कोई संगठित आवाज़ नहीं होती, उनका भी ध्यान रखा जाता है ताकि उन्हें चुप रखा जा सके और देश-समाज में सामंजस्य व संतुलन बना रहे। इससे इतर इन वंचित तबकों को सशक्त बनाने की कोशिश कम ही होती है।
(पूरा लेख अर्थकाम पर)

Wednesday 24 February, 2010

रेल बजट पर पहली नजर

ममता के रेल बजट पर सांसदों ने कई बार हल्ला-गुल्ला मचाया। लेकिन रेल मंत्री ने अपने बंगाल को उपकृत किया। अवाम को रिझाया। साथ ही उद्योग जगत को भी निराश नहीं किया। उन्होंने न तो मालभाड़ा बढाया है और न ही यात्री किराया। एसी और स्लीपर के किराए पर सर्विस चार्ज घटा दिया गया है। 54 नई ट्रेनें चलाई जाएंगी तो जुलाई 2009 में घोषित 120 में से 117 ट्रेनें इसी मार्च तक चलने लगेंगी। पूरी खबर पढ़े अर्थकाम पर....

Tuesday 16 February, 2010

पहली अप्रैल से बचत खाते पर रोजाना ब्याज

नए वित्त वर्ष 2010-11 के पहले दिन यानी 1 अप्रैल 2010 से देश के करीब 62 करोड़ बचत खाताधारकों के लिए एक नई शुरुआत होने जा रही है। इस दिन से उन्हें अपने बचत खाते में जमा राशि पर हर दिन के हिसाब से ब्याज मिलेगा। ब्याज की दर तो 3.5 फीसदी ही रहेगी। लेकिन नई गणना से उनकी ब्याज आय पर काफी फर्क पड़ेगा। इस समय महीने की 10 तारीख से लेकर अंतिम तारीख तक उनके खाते में जो भी न्यूनतम राशि रहती है, उसी पर बैंक उन्हें ब्याज देते हैं। इससे आम आदमी को काफी नुकसान होता रहा है।

मान लीजिए आपके सेविंग एकाउंट में 10 नवंबर को 1000 रुपए है और 11 नवंबर को आप उसमें एक लाख रुपए जमा करा देते हैं। लेकिन 30 दिसंबर को आप ये एक लाख रुपए निकाल लेते हैं तो आपको इन 51 दिनों के लिए केवल 1000 रुपए पर ही ब्याज मिलेगा क्योकि 10 नवंबर से 30 नवंबर तक आपके बचत खाते में न्यूनतम राशि 1000 रुपए ही थी और उसके बाद 10 दिसंबर से 31 दिसंबर के दौरान भी न्यूनतम राशि 1000 रुपए ही रह गई। जबकि इस दौरान आपके एक लाख एक हजार रुपए बैंक को 49 दिनों के लिए उपलब्ध रहे। यह नियम बैंकों के फायदे में रहा है। ऐसा इसलिए भी क्योंकि ज्यादातर लोग महीने के खर्च के लिए बचत खाते से 10 तारीख के पहले ही पैसा निकाल लेते हैं। लेकिन रिजर्व बैंक ने 1 अप्रैल 2010 से नया नियम बनाकर आम बचत खाताधारियों का फायदा कर दिया है। अब उन्हें बैंकों के लिए फंड के सबसे सस्ते साधन से की गई कमाई का अपेक्षाकृत ज्यादा हिस्सा मिलने लगेगा।

(पूरी खबर पढ़ें अर्थकाम पर)

Thursday 4 February, 2010

क्या हिंदी एक मरती हुई भाषा है?

करीब दो महीने हो गए। जानेमाने आर्थिक अखबार इकोनॉमिक टाइम्स के संपादकीय पेज पर 19 नवंबर को टी के अरुण ने एक लेख लिखा था जिसका शीर्षक था - Hindi an endangered language? इसके प्रमुख अंश मैं पेश कर रहा हूं ताकि हम सभी इन मुद्दों पर सार्थक रूप से सोच सकें। जब हिंदी के प्रखर अनुभवी पत्रकार व संपापक राहुल देव जैसे लोग भारतीय भाषाओं के विनाश पर चिंता जता रहे हों तब समझना ज़रूरी है कि अंग्रेज़ी के शीर्ष पत्रकार हिंदी के भविष्य को लेकर क्या सोचते हैं। इसलिए जरा गौर से देखिए कि अरुण जी की सोच में कितना तथ्य और कितना सच है।

उन्होंने पहले कुछ तथ्य पेश किए हैं। जैसे, हिंदी अपेक्षाकृत नई और कृत्रिम भाषा है। झांसी की रानी लक्ष्मीबाई ने डलहौजी को हिंदी में नहीं, फारसी में पत्र लिखा था। इसके दो सदी बाद जवाहरलाल नेहरू ने अपनी बेटी को फारसी से मिलती-जुलती अंग्रेजी भाषा में पत्र लिखे, हिंदी में नहीं। आज हिंदी राज्यों में हिंदी कवियों से लेकर उनके घरों की नौकरानियां तक हर कोई अपने बच्चों को अग्रेजी सिखाना चाहता है। हर तरफ अंग्रेजी माध्यम के स्कूल देर से आए मानसून के बाद खर-पतवार को तरह उगते जा रहे हैं। लेखक ने लखनऊ के प्रकाशक के हवाले यह भी बताया है कि हिंदी कविताओं की किसी किताब का प्रिंट ऑर्डर महज 500 के आसपास रहता है। जिस हिंदी भाषा को बोलनेवालों की संख्या के 42.2 करोड़ से ज्यादा होने का दावा किया जाता है, उसके लिए यह संख्या बड़ी नहीं है।

आगे अरुण जी ने बताते हैं कि हिंदी के साथ समस्या यह भी है कि भोजपुरी और मैथिली जैसी उसकी तथाकथित बोलियां धीरे-धीरे अपना दावा जताने लगी हैं। भोजपुरी और मैथिली बोलनेवाले अपनी मातृभाषा को हिंदी की बोली मानने को तैयार नहीं हैं। भोजपुरी फिल्मों की लोकप्रियता इस हकीकत को रेखांकित करती है। संविधान के आठवें अनुच्छेद में दर्ज 22 भाषाओं में मैथिली को पहले से ही अलग भाषा के रूप में मान्यता मिली हुई है। हिंदी की बोलियां कही जानेवाली तमाम दूसरी भाषाएं समय के साथ अपनी स्वतंत्र अस्मिता का दावा कर सकती हैं और हिंदी की छतरी से बाहर निकल सकती हैं। तब हिंदी के पास आखिर क्या बचेगा?

वे बताते हैं कि सच्चाई यह है कि आकाशवाणी टाइप की उस हिंदी के बचे रहने की संभावना बेहद कम है जो समूचे उत्तर भारत में व्यापक तौर पर बोली जानेवाली फारसी मूल की हिंदुस्तानी के शब्दों की जगह सचेत रूप से संस्कृत शब्द ठूंसती है। भाषाएं किसी स्टूडियो में नहीं, बल्कि गलियों-मोहल्लों में विकसित होती हैं। आकाशवाणी टाइप की हिंदी संस्कृत की तरह बहुत ही सिकुड़े आभिजात्य की भाषा है और वह अवाम की भाषा नहीं बन सकती। संस्कृत का मतलब परिष्कृत होना है और परिष्कृत जुबान केवल आभिजात्य द्वारा ही बोली जा सकती है। संस्कृत के नाटकों में यह कोई असाधारण-सी बात नहीं है कि महिलाएं और छोटे-मोटे चरित्र अवाम की अपरिष्कृत जुबान प्राकृत बोलते हैं, जबकि मुख्य चरित्र देवभाषा में बात करते हैं। बुद्ध को अपनी बात व्यापक लोगों तक पहुंचानी थी तो उन्होंने संस्कृत को त्यागकर स्थानीय भाषाओं को अपनाया।

अगर साहित्यिक हिंदी को स्वीकार करनेवाले लोग कम हैं और हिंदी फिल्मों के पोस्टर तक हिंदी में नहीं लिखे जाते हैं तो हिंदी का क्या भविष्य हैं? उसकी क्या गति होनी है? यह सबको संमाहित करनेवाले विकास और ग्लोबीकरण पर निर्भर है। किसी भाषा का अवरुद्ध विकास उस समाज के अवरुद्ध विकास को दर्शाता है जो उसे बोलता है। यह कोई संयोग नहीं है कि बीमारू शब्द देश के सबसे पिछड़े राज्यों के लिए इस्तेमाल किया गया और ये राज्य हिंदी भाषाभाषी राज्य हैं।

जब कोई छोटा-सा आभिजात्य आधुनिकता अपनाता है, तो वह आधुनिकता की भाषा को अंगीकार करता है और अपनी मातृभाषा को छोड़ देता है। यही हिंदी के साथ हुआ है। जब कोई पूरा समाज नई जीवन पद्धति को अपनाता है तो उसकी भाषा विकसित होती है। इसीलिए आर्थिक बदलाव हिंदी के लिए बहुत अहमियत रखता है। जब इन इलाकों में संरचनागत तब्दीलियां होंगी, लोग गैर-पारंपरिक पेशों को अपनाएंगे तो जाति के रिश्ते बदलेंगे, सामाजिक सत्ता का वितरण बदलेगा और भाषा बदलेगी क्योंकि लोग अपनी जिंदगी के कारोबार के लिए नए शब्द गढ़ेंगे। इसमें कुछ शब्द अग्रेजी से भी उधार लिए जाएंगे और ऐसा होने में कुछ गलत भी नहीं है। इसी प्रक्रिया में लोग नई भाषा रचेंगे और वही नई हिंदी होगी। लेकिन ऐसा बड़े पैमाने पर होने के लिए जरूरी है कि व्यापक अवाम को विकास की प्रक्रिया में शामिल किया जाए। और, ऐसा हिंदी इलाकों में बुनियादी राजनीतिक सशक्तीकरण और प्रशासनिक सुधारों के बगैर संभव नहीं है। समावेशी विकास का संघर्ष, माओवाद के खिलाफ लड़ाई और हिंदी के लिए लड़ाई काफी हद तक एक ही लक्ष्य को हासिल करने के रास्ते हैं।

इस लेख को पढ़ने के बाद गेंद हम हिंदी भाषाभाषी लोगों के पाले में है। मूल सवाल भाषा के इस सवाल में छिपी राजनीति और अर्थनीति का है। कैसे? आप बताइये। मैं तो फुरसत पाते ही लिखूंगा ही।

Friday 29 January, 2010

ला रहा हूं अर्थकाम, सहयोग जरूरी है

दोस्तों, एक नई वेबसाइट शुरू करने जा रहा हूं। जीवन को सुंदर बनाने की कोशिश का हिस्सा है यह वेबसाइट - अर्थकाम। यह अभी बनने की प्रक्रिया में है। मकसद है 42 करोड़ से ज्यादा हिंदीभाषी भारतीयों तक अर्थ व वित्त की दुनिया को पहुंचाना ताकि वे भी विकास की मुख्यधारा, इंडिया ग्रोथ स्टोरी का हिस्सा बन सकें, ताकि वे वित्तीय रूप से इतने साक्षर हो जाएं कि सीना ठोंककर बाजार के जोखिम को उसी तरह नाथ सकें जैसे नंदगोपाल ने उफनती यमुना में कालिया नाग को नाथा था। बस, थोड़ा इंतजार कीजिए। हिंदी में वित्तीय साक्षरता के नए अभियान की शुरुआत होने ही वाली है। आपका सहयोग अपेक्षित है।

आपसे गुजारिश है कि आप www.arthkaam.com पर जरूर एक बार जाएं। आज यूं ही मौद्रिक नीति पर कुछ लिखकर चिपका दिया है। अपनी राय से जरूर अवगत कराएं। लक्ष्य है कि नए वित्त वर्ष की शुरुआत यानी 1 अप्रैल 2010 से इसे विधिवत लांच कर दिया जाए।