Thursday 20 August, 2009

बदलाव तो शतरंज का खेल है, शह और मात

सामाजिक बदलाव, व्यवस्था परिवर्तन। सिस्टम बदलना होगा। बीस-पच्चीस साल पहले नौजवानों में यह बातें खूब होती थीं। अब भी होती हैं, लेकिन कम होती हैं। कितनी कम, नहीं पता क्योंकि बड़े शर्म की बात है कि हम अब बुजुर्ग होने लगे हैं। हालांकि मानने को जी नहीं करता, लेकिन चेहरा और शरीर सब बता देता है। काफी समय से, समझिए कि अरसे से सोच रहा था कि बदलाव में आखिर ठीक-ठीक बदलना क्या है? हम बदलेंगे, युग बदलेगा - जैसी गुरु सूक्तियां भी सिर चढ़कर बोलती रहीं। लेकिन जरा-सा सोचा तो पाया कि हम तो अनवरत बदलते ही रहते हैं। शरीर से, मन से और विचार से।

जो कल थे, आज नहीं हैं। जो आज हैं, कल नहीं होंगे। हमें अपने इस बदलाव का अहसास नहीं होता। लेकिन कोई पुराना दोस्त, यार, रिश्तेदार सालों बाद मिलता है तो यही प्रभाव लेकर जाता है कि जनाब, पहले जैसे नहीं रहे। हालांकि शुरुआत में यही कहता है कि आप तो एकदम नहीं बदले, बस थोड़ा-सा मोटे हो गए हो, आवाज भारी हो गई है, बाकी सब वैसे का वैसा ही है। लेकिन यह अतीत-प्रेम या नास्टैल्जिया का आवेग होता है, सच नहीं है। समय की चकरी और रिश्तों की चक्की हमें पीसती-बदलती रहती है। इस हकीकत को कोई हठी, आत्ममुग्ध और जिद्दी विक्रमादित्य ही ठुकरा सकता है।

अब बचा समाज, जो हम सभी का सुपरिभाषित, नियत लेकिन परिवर्तनशील समुच्चय है। संस्थाएं हैं, रिवाज हैं। जकड़बंदियां हैं, घुटन है। बगावत है, दमन है। कुछ लोग पुराने का महिमामंडन करते हैं, यथास्थिति को यथावत रखने का चिंतन चलाते हैं। कुछ लोग हर चीज को बस गरियाते रहते हैं, चिड़चिड़ापन उनका शाश्वत स्वभाव बन जाता है। बहुत से लोग तो जिन्हैं न व्यापै जगत गति वाले होते हैं। बस बहे चले जाते हैं, जिए चले जाते हैं। लेकिन हर समय, दी गई काल-परिस्थिति में तमाम लोग ऐसे होते हैं जो विकल्प बुनते रहते हैं। उनके पास वैकल्पिक सोच होती है जो सही सिंहासन मिलते ही सब कुछ बदल देती है। बराक ओबामा पड़ा था, कहीं समाज में। राष्ट्रपति चुन लिया गया तो लगा जैसे अमेरिका में कोई मिनी-क्रांति हो गई।

यही सच है। हर वक्त, हर दौर में बदलाव की इंसानी शक्तियां समाज में मौजूद रहती हैं। पलती रहती हैं, बढ़ती रहती हैं। शतरंग की गोटों की तरह जहां-तहां पड़ी रहती हैं। बस उनकी सही प्लेसिंग कर दी जाए तो पूरा सीन बदल जाता है। क्या आप ऐसे लोगों को नहीं जानते जो वैकल्पिक सोच रखते हैं? जो पुराने और नए के बीच की अटूट कड़ी को सही से पहचानते हैं? जो लोकतांत्रिक मूल्यों से लवरेज हैं? जो अपने देश को अपनी मां से भी ज्यादा प्यार करते हैं? जो ज़िंदगी में जनक से बड़े योगी हैं? जैसे कृष्ण के विराट स्वरूप में सारी दुनिया समाई थी, सारी सृष्टि समाहित थी, वैसे ही वे भी पर्यावरण से लेकर दुनिया के रग-रग से वाकिफ हैं? चलिए एक-दो नहीं, पचास-सौ लोगों को मिलाकर तो एक सेट बनाया ही जा सकता है जिनको सही जगह पहुंचा दिया जाए तो सारा परिदृश्य बदल सकता है, सारी सत्ता बदल सकती है, सिस्टम बदल सकता है, व्यवस्था बदल सकती है, समाज बदल सकता है।

बस, सही गोट को सही जगह रखिए। चाल सही चलिए। शह और मात का खेल खेलिए, आनंद आएगा। लेकिन इस खेल में निर्जीव गोटें नहीं, जीवित इंसान शामिल हैं, इंसानी जिद शामिल है। इसलिए फर्क यह पड़ता है कि यहां शह और मात का खेल शोर और मौत का खेल बन सकता है। विनय न मानय जलधि जड़, गए कई दिन बीति, बोले राम सकोपि तब, भय बिनु होय न प्रीति।

Monday 11 May, 2009

मरूं तो समय के सबसे उन्नत विचारों के साथ

एक अभिन्न मित्र से बात हो रही थी। कहने लगे कि इधर दुनिया भर के पचड़े, कामकाज का झंझट, असुरक्षा और रिश्तों के तनाव ने इतनी खींचोंखींच मचा रखी है कि मन करता है सो जाओ तो सोते ही रहो। अतल नींद की गहराइयों में इतना डूब जाओ कि कुछ होश न रहे। एक सुदीर्घ नींद। जब उठो तो छलकती हुई ताज़गी के मानिंद। आखिर मौत भी तो एक सुदीर्घ नींद की तरह है जिससे आप जगते हो तो ओस की तरह ताज़ा, कोंपल की तरह मुलायम, कुंदन की तरह पवित्र, छह महीने-साल भर के बच्चे की आंखों की तरह निर्दोष होते हो।

मुझे समझ में आ गया कि यह संघर्षशील व्यक्ति भागकर आत्महत्या जैसी बात नहीं कर रहा, बल्कि उस ऊर्जा स्रोत की तलाश में है जो उसे हर प्रतिकूलता से जूझने में समर्थ बना दे, उस ज्ञानवान विवेक की तलाश में है जो उसे जटिल से जटिल निजी व सामाजिक उलझन को सुलझाने में सक्षम बना दे।

अब मैं अपनी तरफ मुड़ा तो अचंभे से भर गया। दस साल पहले मेरी भी तो यही अवस्था थी। फुरसत मिलते ही सोता था तो सोता ही रहता था। हद से ज्यादा सोने के बावजूद उठता था तो एकाध घंटे बाद ही फिर नींद की ढलवा स्लाइड पर सरक जाता था। फिर भी कभी वह ताजगी नहीं मिली थी जिसकी शिद्दत से तलाश थी। हां, इतना ज़रूर हुआ कि शरीर का पित्त निकलकर चेहरे पर आ गया। कोई देखता तो बोलता – जनाब, चुपके-छिपके गोवा गए थे, सन-बर्न सारा भेद खोले दे रहा है। उनको क्या बताता कि कौन-सा सन-बर्न झेल रहा हूं। मुस्कराकर उनकी बात मान लेता। कई बार मरने की इच्छा हुई तो उसे भी आजमा के देख लिया।

लेकिन आज स्थिति भिन्न है। आज तो ज़िंदगी को गन्ने की तरह चीरने और चूसने की इच्छा होती है। अनसुलझे को सुलझाने के कुछ सूत्रों की पूंछ भर पकड़ में आई तो बाहर की प्रकृति ने अंदर की प्रकृति को अदम्य जिजीविषा से भर दिया। लगता है पूरे सूत्र तक पहुंचने के लिए तो सौ साल की उम्र भी कम है। भौतिक रूप से कुछ खास पाने की इच्छा नहीं है। बस, यही चिंता सताती है कि कहीं मैं अपने समय के सबसे उन्नत विचारों से दूर न रह जाऊं। जिस तरह गौतम बुद्ध ने अपने समय को नांथा था, जिस तरह कबीर ने अपने समय पर सवारी गांठी थी, उसी परंपरा से जुड़ने की ख्वाहिश है।

मुझे लगता है कि हर युग की समस्याओं का स्तर पहले युग से ज्यादा उन्नत, ज्यादा जटिल होता है। हम बुद्ध, कबीर या गांधी से प्रेरणा ले सकते हैं। लेकिन उनकी कही बातों को सूक्तियों की तरह नहीं इस्तेमाल कर सकते। हां, सुलझाने की जो खुशी कबीर को मिलती थी, वह खुशी उतनी ही सघनता से हमें भी मिल सकती है। हम भी अनुभूति के उस स्तर पर पहुंच कर कह सकते हैं – संतो आई ज्ञान की आंधी, भ्रम की टाटी सबै उड़ानी माया रहै न बांधी रे। या, साधो देखो जग बौराना। मजे की बात यह है कि इधर मुझे कबीर की उलटबांसियों के अर्थ का भी थोड़ा-थोड़ा आभास होने लगा है। बस, चाहत यही है कि सभी आभास और अनुभूतियां किसी तर्कसंगत नतीजे तक पहुंच जाएं और मैं अनंत आह्लाद की उस अवस्था में जा पहुंचूं जिसकी कल्पना हमारे मनीषियों ने कुंडलिनी जागरण के रूप में की है। इसके अलावा न तो मुझे धन चाहिए, न सत्ता चाहिए, न स्वर्ग चाहिए और न ही पुनर्जन्म। खैर, इसमें नया कुछ नहीं है। पहले भी तो यह बात कही जा चुकी है कि ...

न त्वहं कामये राज्यम्, न स्वर्ग, नापुनर्भवम्।
कामये दु:ख-ताप्तानाम् प्राणिनाम् आर्ति-नाशनम्।।

Thursday 30 April, 2009

नेता को नुमाइंदा नहीं, आका मानते हैं हम

एक तरफ हम राजनीति में पढ़े-लिखे काबिल लोगों के अभाव का रोना रोते हैं, दूसरी तरफ पढ़े-लिखे काबिल लोग चुनावों में खड़े हो जाते हैं तो उनकी जमानत जब्त हो जाती है। साफ-सी बात है कि ‘हम’ चुनावों में किसी की जीत-हार का फैसला करने की स्थिति में नहीं हैं। गांवों ही नहीं, शहरों में भी। एक तो किसी भी संसदीय या विधानसभा क्षेत्र में मध्य वर्ग के हम जैसे लोगों की संख्या मुठ्ठी भर होती है। ज्यादा से ज्यादा दस हजार, बीस हजार। दूसरे, हम शक्तिसंपन्नता हासिल करने के लिए नहीं, बल्कि नैतिक आग्रह के चलते राजनीति के बारे में सोचते हैं। राजनीति को गर्त से निकालने के लिए सोचते हैं।

पहले तो हम वोट तक देने नहीं जाते थे। इस बार स्थिति थोड़ी बदली है। टाटा टी जैसी कंपनियों से लेकर तमाम एनजीओ और आमिर खान जैसे अभिनेता तक हमें इस बार वोट डालने के लिए प्रेरित कर रहे हैं। मैं भी इस बार पहली बार वोट डालने जा रहा हूं। अब से चंद घंटे बाद मेरी भी उंगली पर पहली बार काली स्याही का निशान लगा होगा। होता यह रहा कि गांव की वोटर लिस्ट में मेरा नाम तो है। लेकिन गांव से शहर, फिर इस शहर से उस शहर, किराए के मकान में जब भी जहां रहा, वहां का मतदाता नहीं बन पाया। इस बार भी मतदाता पहचान पत्र नहीं बना है। लेकिन स्थाई निवास हो जाने के कारण एक प्रक्रिया चल निकली और मैं मतदाता बन गया। तो, यकीनन वोट भी डालूंगा।

मुश्किल यह है कि वोट डालूं तो किसको? मुंबई उत्तर-पूर्व से शिवसेना-बीजेपी के प्रत्याशी हैं किरीट सोमैया। साफ-सुथरी छवि। इतने आम कि बोलते समय हकलाते हैं। अवाम से जुड़े मुद्दे उठाते रहते हैं। सांप्रदायिकता या क्षेत्रीयता को हवा नहीं देते। इनके मुकाबले में खड़े हैं कांग्रेस-एनसीपी के संजय पाटिल। विभाजन की राजनीति करनेवाला एक प्रत्याशी है महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना का शिशिर शिंदे। लेकिन पाटिल और शिंदे दोनों के नाम काफी खोजने पर मिले हैं तो आप उनके प्रचार-प्रसार और साख का अंदाजा आसानी से लगा सकते हैं। सोमैया ने दस बड़े स्थानीय किस्म के वादे किए हैं। छह लेन का ट्रेन कोरिडोर, हर तीन मिनट पर लोकल ट्रेन, लोड शेडिंग की समाप्ति, जगह-जगह फ्लाईओवर, साल्ट कमिश्नर की 1200 एकड़ जमीन पर एक लाख घरों का निमार्ण आदि-इत्यादि।

अगर स्थानीय निकाय का चुनाव होता तो मैं आंख मूंदकर सोमैया को ही वोट देता। लेकिन क्या राष्ट्रीय स्तर पर बीजेपी को गलत मानने के बावजूद उसके लोकसभा प्रत्याशी को वोट देना इसलिए सही होगा क्योंकि स्थानीय स्तर पर उसने अच्छे काम किए हैं? ये माया किसलिए, यह छलावा किसलिए? कोई दादी की साड़ी पहनकर छल कर रहा है, कोई दलालों की बूढ़ी पार्टी का युवा चेहरा बनकर। कोई अंग्रेजी को गाली देकर तो कोई अभिनेताओं, अभिनेत्रियों का मजमा जमाकर। अरे भाई, खुलकर क्यों नहीं सामने आते? नकाब क्यों लगाकर आते हो?

परसों ही टाइम्स ऑफ इंडिया में जाने-माने अर्थशास्त्री ज्यां द्रेज का एक लेख पढ़ा जिसमें उन्होंने बीजेपी के घोषणापत्र में छिपे ‘धोखा दो-राज करो की नीति’ के रहस्य की परतें खोली हैं। सोचता हूं तो पाता हूं कि कांग्रेस से लेकर बीजेपी और समाजवादियों का छल इसीलिए चल रहा है क्योंकि हम नेता को अपना नुमाइंदा नहीं, बल्कि आका मानते हैं, माई-बाप समझते हैं। हम में से हर कोई मौका पाते ही जताने लगता है कि किस एमपी या मंत्री या बड़े नेता की उसकी खास पहचान या रिश्तेदारी है। काम निकलवाने के लिए हम भी ‘आका’ के आगे खीस निपोर देते हैं। मुश्किल यही है कि नेता को आका मानने की यह मानसिकता खत्म कैसे की जाए? नहीं तो हम दलित की बेटी, प्राइमरी स्कूल की बहनजी को मुख्तार अंसारी जैसे खूंखार अपराधी को गरीबों का मसीहा बताने से कभी नहीं रोक पाएंगे। तब तक हमारे नेतागण ऐसा ही मायाजाल फैलाकर हमें फांसते रहेंगे और हित साधते रहेंगे अपराधियों, दलालों और देश व अवाम के दुश्मनों का।

Monday 27 April, 2009

चार साल पहले खारिज दवाएं बिक रही हैं धड़ल्ले से

चिदंबरम व रामदौस की अध्यक्षता में बने आयोग ने बीकासूल और डाइजीन समेत दस दवा दवाओं को अगस्त 2005 में ही फालूत करार दिया था। डाइजीन, कॉम्बीफ्लेम, डेक्सोरेंज, बीकासूल, लिव-52, कोरेक्स जैसी दस दवाओं को अगस्त 2005 में केंद्रीय वित्तमंत्री पी. चिदंबरम व स्वास्थ्य मंत्री डॉ. ए. रामदौस की अगुवाई में बने एक आयोग ने बेतुकी और गैर जरूरी, यहां तक कि खतरनाक बताया था। इस आयोग की रिपोर्ट सरकार स्वीकार भी कर चुकी है। लेकिन करीब चार साल बाद भी वे दवाएं धड़ल्ले से देश भर के बाजारों में बेची जा रही हैं और हम आप सभी इनका जमकर इस्तेमाल करते हैं। उपभोक्ता संरक्षण संस्थाओं द्वारा सरकार का ध्यान बार-बार इस मुद्दे पर आकर्षित कराए जाने के बावजूद इन दवाओं पर कोई रोक नहीं लग पाई है।

नेशनल कमीशन ऑन माइक्रो इकनॉमिक्स एंड हेल्थ ने सरकार को सौंपी एक रिपोर्ट में दर्द निवारक, खांसी, लीवर, विटामिन, खून बढ़ाने, अपच वगैरह के इलाज के लिए बिकने वाली 25 प्रमुख दवाओं में से दस दवाओं को बेकार, अनुपयोगी व घातक बताया था। इनके उपयोग से वह बीमारी या तकलीफ तो दूर होती नहीं, उल्टे ग्राहक की जेब पर हल्की हो जाती है और किसी-किसी दवा का तो खतरनाक दुष्प्रभाव भी पड़ता है।

रिपोर्ट में फाइजर कंपनी की बीकासूल व कोरेक्स, हिमालया ड्रग्स की लिव-52, रैनबैक्सी की रिवाइटल, फ्रेंक्रो-इंडियन की डेक्सोरेंज, एबोट की डाइजीन, अवेंटिस की कॉम्बीफ्लेम, ईमर्क की पॉलीबियन व एवियन और हाइंज की ग्लूकोन-डी को फालतू पाया गया है। इसके बावजूद ये दवाएं देश भर में काफी लोकप्रिय है और डॉक्टर धड़ल्ले से इनका नुस्खा लिखते हैं।

उपभोक्ता संरक्षण संस्था कंज्यूमर वॉयस के सीईओ असीम सान्याल ने बताया कि इस विषय पर सरकार ने अब तक कोई कार्रवाई नहीं की है और वे आम चुनावों के बाद बनने वाली नई सरकार का ध्यान इन मुद्दे पर खींचेंगे। इस विषय पर ड्रग्स कंट्रोलर जनरल ऑफ इंडिया (डीसीजीआई) से जुड़े अधिकारियों ने टिप्पणी करने से मना कर दिया। लेकिन महाराष्ट्र स्टेट ड्रग्स कंट्रोल आर्गेनाइजेशन के सहायक आयुक्त एम.जी. केकतपुरे के मुताबिक रिपोर्ट में जिन-जिन दवाओं का नाम शामिल है उन पर मरीजों का पैसा खर्च तो हो जाता है लेकिन इनसे उन्हें कोई लाभ नहीं पहुंचता है।

Wednesday 25 March, 2009

बड़े किसानों को राहत, केंद्र सरकार ने तोड़ी आचार संहिता

न कोई विज्ञप्ति, न कोई सार्वजनिक घोषणा। रिजर्व बैंक ने चुपचाप एक अधिसूचना जारी कर यूपीए सरकार की सर्वाधिक लोकलुभावन किसानों की कर्जमाफी योजना में नई राहत दे दी। वह भी उन किसानों को जिनके पास दो हेक्टेयर या पांच एकड़ से ज्यादा जमीन है। कर्जमाफी योजना के तहत इन किसानों को बकाया कर्ज में एकल समायोजन (वन टाइम सेटलमेंट) के तहत 25 फीसदी छूट देने का प्रावधान है, बशर्ते ये लोग बाकी 75 फीसदी कर्ज तीन किश्तों में अदा कर देते हैं।

पांच एकड़ से ज्यादा जोत वाले इन किसानों को बकाया कर्ज की पहली किश्त 30 सितंबर 2008 तक, दूसरी किश्त 31 मार्च 2009 तक और तीसरी किश्त 30 जून 2009 तक चुकानी है। लेकिन रिजर्व बैंक ने दूसरी किश्त की अंतिम तिथि से आठ दिन पहले सोमवार को अधिसूचना जारी कर पहली किश्त को भी अदा करने की तिथि बढ़ाकर 31 मार्च 2009 कर दी है। दिलचस्प बात यह है कि रिजर्व बैंक के मुताबिक तिथि को आगे बढ़ाने का फैसला भारत सरकार का है। जाहिर है, इससे सीधे-सीधे देश के उन सारे बड़े किसानों को फायदा मिलेगा, जिन्होंने अभी तक पहली किश्त नहीं जमा की है।

2 मार्च को आम चुनावों की तिथि की घोषणा हो जाने के बाद देश में आचार संहिता लागू हो चुकी है। ऐसे में रिजर्व बैंक या किसी भी सरकारी संस्था की ऐसी घोषणा को आचार संहिता का उल्लंघन माना जाएगा जो आबादी के बड़े हिस्से को नया लाभ पहुंचाती हो। शिवसेना के राज्यसभा सांसद संजय राउत कहते हैं कि साढ़े पांच महीने से केंद्र सरकार सोई हुई थी क्या? चुनावों की तिथि घोषित हो जाने के बाद वित्त मंत्रालय की पहले पर की गई यह घोषणा सरासर आचार संहिता का उल्लंघन है। आदित्य बिड़ला समूह के प्रमुख अर्थशास्त्री अजित रानाडे कहते है कि वैसे तो रिजर्व बैंक एक स्वायत्त संस्था है। लेकिन चूंकि अधिसूचना में भारत सरकार के फैसले का जिक्र किया गया है, इसलिए यकीनन यह चुनाव आचार संहिता का उल्लंघन है।

असल में केंद्र सरकार की कर्जमाफी योजना के तहत पांच एकड़ से कम जमीन वाले लघु व सीमांत किसानों को 31 मार्च 1997 के बाद 31 मार्च 2007 तक वितरित और 31 दिसंबर 2007 को बकाया व 29 फरवरी 2008 तक न चुकाए गए सारे बैंक कर्ज माफ कर दिए थे। लेकिन पांच एकड़ से ज्यादा जोतवाले किसानों को कर्ज में 25 फीसदी की राहत दी गई थी। इस कर्ज की रकम की व्याख्या ऐसी है कि इसकी सीमा में ऐसे किसानों के सारे कर्ज आ सकते हैं। वित्त मंत्रालय की अधिसूचना के मुताबिक इन किसानों के लिए कर्ज छूट की रकम या 20,000 रुपए में से जो भी ज्यादा होगा, उसका 25 फीसदी हिस्सा माफ कर दिया जाएगा। लेकिन यह माफी तब मिलेगी, जब ये किसान अपने हिस्से का 75 फीसदी कर्ज चुका देंगे। इसकी भरपाई बैंकों को केंद्र सरकार की तरफ से की जाएगी। दूसरे शब्दों में 30 जून 2009 तक बड़े किसानों द्वारा कर्ज की 75 फीसदी रकम दे दिए जाने के बाद उस कर्ज का बाकी 25 फीसदी हिस्सा केंद्र सरकार बैंकों को दे देगी।

रिजर्व बैंक ने सोमवार, 23 मार्च को जारी अधिसूचना में कहा है कि समयसीमा केवल 31 मार्च तक बकाया किश्तों के लिए बढ़ाई गई है और तीसरी व अतिम किश्त के लिए निर्धारित 30 जून 2009 की समयसीमा में कोई तब्दीली नहीं की गई है। तब तक अदायगी न होने पर बैंकों को ऐसे कर्ज को एनपीए में डाल देना होगा और उसके मुताबिक अपने खातों में प्रावधान करना होगा।

Thursday 12 March, 2009

लेफ्ट यूनियन सीटू की डाकिया बनी रिलायंस इंडस्ट्रीज

देश की सबसे बड़ी वामपंथी ट्रेड यूनियन और देश के सबसे बड़े पूंजीपति में जाहिरा तौर पर रिश्ता तो टकराव का ही होना चाहिए। लेकिन इन दिनों मुकेश अंबानी की कंपनी रिलायंस इंडस्ट्रीज सीपीएम से जुड़ी ट्रेड यूनियन सीटू की डाकिया बनी हुई है। वह सीटू की तरफ से प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह को लिखी गई एक ऐसी चिट्ठी मीडिया में बंटवा रही है जिसमें छोटे भाई अनिल अंबानी की कंपनियों को निशाना बनाया गया है और मांग की गई है कि अनिल अंबानी की कंपनी रिलायंस कैपिटल को दिया गया कर्मचारी भविष्यनिधि कोष के शेयर बाजार में निवेश का काम उससे छीन लिया जाए।

सीटू के पत्र को मीडिया तक पहुंचाने का काम रिलायंस इंडस्ट्रीज के प्रचार विभाग द्वारा बड़े गोपनीय अंदाज में किया जा रहा है। उनके लोग यह पत्र फैक्स या ई-मेल के जरिए नहीं भेज रहे हैं, बल्कि बंद लिफाफा सीधे मीडियाकर्मियों तक पहुंचा रहे हैं। पूछने पर कहते हैं कि यह पत्र इतना संवेदनशील है कि हम फैक्स या ई-मेल से नहीं भेज सकते। लेकिन लिफाफे में बंद पत्र को पढऩे पर पता चलता है कि वह एक सामान्य पत्र है और उसमें ऐसी कोई सनसनी नहीं है।

सीटू के लेटरहेड पर उसके अध्यक्ष एम के पंधे द्वारा लिखा गया यह पत्र 2 मार्च 2009 का है। पत्र में प्रेस में छपी खबरों के आधार पर कहा गया है कि सत्यम और मेटास जैसा ही घोटाला अनिल अंबानी की कंपनियों - रिलायंस इंफ्रास्ट्रक्चर, रिलायंस कम्युनिकेशंस और रिलायंस नेचुरल रिसोर्सेज में चल रहा है। इन कंपनियों ने विदेशी कॉरपोरेट उधार (ईसीबी) से जुटाई गई भारी-भरकम राशि का निवेश भारतीय म्यूचुअल फंडों और शेयर बाजार में किया है। ये कंपनियां अब घरेलू वित्तीय संस्थाओं और सरकारी बैंकों से कर्ज जुटाने में लगी हुई हैं। सीटू का आरोप है कि बैंकों व वित्तीय संस्थाओं से जुटाई गई रकम अनिल अंबानी की कंपनियां वाजिब मकसद के बजाय शेयर बाजार मे लगाएंगी और यह सारा ऋण एक दिन बैंकों के लिए एनपीए (गैर-निष्पादित आस्तियां) बन जाएगा।

रिलांयस इंडस्ट्रीज की तरफ से बंटवाए जा रहे इस पत्र के बाबत जब अनिल अंबानी समूह के लोगों से पूछा गया तो उन्होंने कहा कि हमारे पास भी मुकेश अंबानी के खिलाफ 18,000 करोड़ रुपए के घोटाले की खबर है और हम भी इसे प्रचारित करवा सकते हैं। सीटू का यह पत्र काफी महत्वपूर्ण बन गया है क्योंकि इसी तरह का एक पत्र रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया (आरपीआई) के अध्यक्ष व सांसद रामदास अठावले ने 18 अगस्त 2003 को सेबी के तत्कालीन चेयरमैन जी एन बाजपेयी को लिखा था, जिसमें सत्यम के प्रवर्तकों के बेनामी खातों और घोटालों की शिकायत की गई थी। सीबीआई इस समय सेबी से अठावले का यह पत्र हासिल करने में जुटी हुई है।

Tuesday 17 February, 2009

गूगल ‘हिंदी’ का अंग्रेजी अनुवाद ‘इंग्लिश’ करता है!!

मेरे एक मित्र है, सहयोगी हैं। नया-नया ब्लॉग वंदे मातरम बनाया है। कुछ दिनों पहले उन्होंने एक पोष्ट लिखी जिसका शीर्षक है – क्यों न हिंदी के लिए बने सत्याग्रह का प्रारूप। अचंभा तब हुआ जब गूगल ने इसका अनुवाद किया – Why not English made for the format of Satyagraha?

जाहिर है कि यह यंत्रवत अनुवाद है। लेकिन यह बात समझ से परे है कि हिंदी का यंत्रवत अनुवाद इंग्लिश कैसे हो सकता है। ऐसी बात तो है नहीं कि हिंदी में सर्च से लेकर ब्लॉगिंग को प्रोत्साहित करनेवाले गूगल का अनुवादक सॉफ्टवेयर बनानेवाले को इतना भी नहीं पता हो कि हिंदी एक स्वतंत्र देश के कम से कम 42 करोड़ लोगों की मातृभाषा है? हकीकत जो भी हो। लेकिन अंग्रेजी के जिस साम्राज्य के खिलाफ मेरे सहयोगी अजीत सिंह मुहिम चलाकर हिंदी के लिए सत्याग्रह का प्रारूप बनाना चाहते हैं, गूगल उन्हीं के लेख को अंग्रेजी का पक्षधर बना दे रहा है? इसके पीछे गूगल का कोई गुप्त एजेंडा तो नहीं है?

बात जो भी हो। इस पोस्ट के जरिए मैं हिंदी, हिदुस्तान के अनुरागी अजीत का ब्लॉगिंग की दुनिया में स्वागत करता हूं। यकीन है कि आप भी उनका उत्साहवर्धन करेंगे।

Wednesday 11 February, 2009

साथ में अपना भी भला हो जाता है, क्या बुरा है?

अंग्रेजों ने गुलाम देश में रेल बिछा दी। इसलिए कि माल के आने-जाने में आसानी हो जाए। दूरदराज तक पहुंचना सुगम हो जाए। ज्यादा भला उनका हुआ, ब्रिटेन में बैठी उनकी कंपनियों का हुआ। लेकिन हम भारतवासियों का भी कुछ भला हो गया है। अच्छा है, क्या बुरा है?

इधर मुंबई की बेस्ट बसों में सीसीटीवी कैमरे के साथ फ्लैट स्कीन टीवी भी लग गए हैं। किस कंपनी के हैं, ध्यान से देखा नहीं है। शायद सैमसंग के हैं। लेकिन बस में टीवी के दो स्क्रीन देखने पर अच्छा लगा। दस मिनट का सफर पांच मिनट में कट गया। मंदी के दौर में कंपनी के फ्लैट टीवी स्क्रीन बिक गए। कई करोड़ की कमाई हो गई होगी। अपना क्या जाता है, जो गया बेस्ट और महाराष्ट्र सरकार के बजट से। सुरक्षा के साथ-साथ मनोरंजन का इंतजाम भी! खांसी को फांसी, सर्दी को तड़ीपार। एक रुपए में दो, दो रुपए में पांच। क्या बुरा है? कंपनी को फायदा हुआ तो अपन को भी तो कुछ मिल गया।

दिल्ली में फ्लाईओवर बन गए, सड़कें चौड़ी और चकाचक हो गईं। रेल सेवाएं बढ़ रही हैं। बिजली की उपलब्धता बढ़ाई जा रही है। ये सच है कि सारा कुछ प्रति किलोमीटर लागत घटाने के लिए हो रहा है। इंफ्रास्ट्रक्चर दुरुस्त हो रहा है। मुंबई किसी दिन शांघाई बन जाएगा। विदेशी निवेशकों को भारत आने पर होम-सिकनेस नहीं महसूस होगी। ज्यादा फायदा उनका होगा। लेकिन अपुन को भी बहुत कुछ मिल जाएगा। अच्छा है। क्या बुरा है।

अपने गांव में चंद घंटों को बिजली आती है। काश, उद्योग-धंधे लग जाते। जमीन जाए तो चली जाए। सबको नहीं तो कुछ को तो रोज़गार मिलेगा। बाकी बहुत सारे उनको रोज़गार मिलने से बारोज़गार हो जाएंगे। हो सकता है कि उद्योग के लिए आ रही बिजली सबको मिलने लगे। क्या बुरा है। अच्छा है। रही-सही ज़मीन को रखकर क्या करेंगे? उसके न रहने से क्या फर्क पड़ेगा? कुछ होता-हवाता तो है नहीं। बहिला गाय या भैंस की तरह उसे पालते जाने का क्या फायदा। अब छोटी खेती-किसानी का ज़माना लद चुका है। हरिऔध ने कहा था कि उत्तम खेती, मध्यम बान, निपट चाकरी भीख निदान। लेकिन आज तो नौकरी-चाकरी में ही भलाई है। आखिर, औद्योगिकीकरण के अलावा कोई चारा भी तो नहीं है। मालिक बनने का हुनर है नहीं तो नौकरी ही सही। इसी में अपना भला है। क्या बुरा है?

Tuesday 10 February, 2009

हिंदी में साहित्यकार बनते नहीं, बनाए जाते हैं

शुरू में ही साफ कर दूं कि यह तीव्र प्रतिक्रियात्मक पोस्ट नहीं है। कई महीने हो गए। बनारस के एक काफी पुराने मित्र से फोन पर बात हो रही थी। वे बीएचयू में हिंदी के प्राध्यापक हैं। नामवर सिंह के अंडर में जेएनयू से पीएचडी किया है। कई कॉलेजों में पढ़ाने के बाद आखिरकार बीएचयू में जम गए हैं। हिंदी साहित्य की पत्र-पत्रिकाओं में बतौर आलोचक लिखते रहते हैं। खुद भी एक पत्रिका निकालते हैं। मैंने उन्हें बताया कि इधर गुमनाम से हिंदी ब्लॉगर ऐसी-ऐसी कविताएं-कहानियां लिख रहे हैं कि दिल खुश हो जाता है। बातों ही बातों में मैंने यह भी कहा कि मुझे अगर इजाजत दी जाए और मौका मिले तो मैं कई ब्लॉगरों की कहानियों और बातों मिलाकर ऐसा उपन्यास लिख सकता हूं जो बहुत लोकप्रिय हो सकता है, संक्रमण से गुजरते हमारे आज के समाज का अद्यतन आईना होने के साथ ही उलझनों को सुलझाने का माध्यम बन सकता है।

मित्रवर बोले – तो यहां से, वहां से उठाकर लिख डालो। यही तो उत्तर-आधुनिकता का तरीका है। मैं आधुनिकता का बिंब तो बना ले जाता है, लेकिन उत्तर-आधुनिकता को अभी तक रत्ती भर भी नहीं समझ पाया हूं। खैर, मैंने पूछा कि न तो ब्लॉगर साहित्यकार हैं और उनकी रचनाओं का कोलॉज बनानेवाला मैं कोई साहित्यकार हूं। बोले – बंधु, घबराते क्यों हो? हिंदी में साहित्यकार होते नहीं, बनाए जाते हैं। उनकी यह बात सुनकर मैं चौंक गया। वे फोन पर तफ्सील से समझा नहीं सकते थे। मैंने भी अपने अज्ञान को छिपाते हुए अंदाजा लगा लिया कि हिंदी में कविता-कहानियां लिखनेवालों को साहित्यकार की मान्यता दिलाना कुछ आलोचको के पेट से निकली डकार जैसा आसान काम बना हुआ है।

ज़रा-सा और सोचा तो पाया कि हर साल अंग्रेजी में नए-नए नाम बुकर पुरस्कार पा जाते हैं। अंग्रेजी में पहला ही उपन्यास लिखने वाला/वाली चर्चा में आ जाता/जाती है। लेकिन हिंदी में ऐसा नहीं होता। यहां तो किसी आलोचक का ठप्पा ज़रूरी होता है। आलोचकों-प्रकाशकों का ऐसा उलझा हुआ वणिक तंत्र फैला हुआ है कि कोई रचना अपनी मेरिट के आधार पर नहीं, नेटवर्किंग के दम पर चर्चा में आती है। यह अलग बात है कि इस चर्चा का दायरा इतना सीमित होता है कि हिंदी समाज के आम पाठकों को इसका पता ही नहीं चलता। ऐसे साहित्यकारों की रचनाएं हिंदी के सक्रिय समाज की नब्ज़ को कितना पकड़ पाती हैं, इसका पता तब चलता है जब ऐसे मूर्धन्य साहित्यकार अपना ब्लॉग बनाते हैं।

कितना दुखद है कि आज हिंदी के पाठकों को अपने समाज के सच को समझने किसी अडीगा का अंग्रेजी उपन्यास पढ़ना पड़ता है। यहीं पर लगता है कि हिंदी समाज के मानस में छाया सामंतवाद हिंदी साहित्य की दुनिया पर भी हावी है। मजे की बात यह है कि इस सामंतवाद ने वामपंथ का चोंगा पहन रखा है।
कलाकृति: जगदीश स्वामीनाथन

Thursday 5 February, 2009

उत्तर भारत के छह राज्यों की जमा औरों के हवाले

बिहार, उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, झारखंड, छत्तीसगढ़ और हिमाचल की आधी से लेकर दो-तिहाई तक जमाराशि बैंक दे रहे हैं पहले से आगे बढ़े राज्यों को
उत्तराखंड, बिहार, उत्तर प्रदेश, झारखंड, हिमाचल प्रदेश और छत्तीसगढ़ के आर्थिक पिछड़ेपन की और जो भी वजहें हों, लेकिन उनमें से एक प्रमुख वजह यह है कि इन राज्यों में आनेवाली जमाराशि का आधे से लेकर दो-तिहाई से ज्यादा हिस्सा यहां निवेश नहीं हो रहा है। बैंक इन राज्यों से मिलनेवाली राशि के अनुपात में यहां ऋण नहीं दे रहे हैं। रिजर्व बैंक द्वारा जारी चालू वित्त वर्ष 2008-09 की सितंबर में समाप्त तिमाही के आंकड़ों के मुताबिक पूरे देश का औसत ऋण-जमा अनुपात 74.93 फीसदी है। लेकिन उत्तर भारत के इस छह राज्यों का ऋण-जमा अनुपात 50 फीसदी से नीचे है। यह अनुपात देश के सभी बैंकों द्वारा हासिल जमा और बांटे गए ऋण के आधार पर निकाला जाता है। इससे पता चलता है कि बैंक किसी राज्य या जिले के लोगों से हासिल की गई जमाराशि का कितना हिस्सा उस राज्य या जिले में औद्योगिक गतिविधियों के लिए कर्ज के रूप में दे रहे हैं।

देश में तमिलनाडु और चंडीगढ़ ही ऐसे क्षेत्र हैं जहां पर बैंक कुल मिली जमाराशि से ज्यादा कर्ज दे रहे हैं। तमिलनाडु में ऋण-जमा अनुपात 113.6 फीसदी और चंडीगढ़ में 107.4 फीसदी है। यह अनुपात आंध्र प्रदेश में 95.02 फीसदी और महाराष्ट्र में 97.88 फीसदी है। यानी, इन राज्यों में आनेवाली जमा कमोवेश उनके उद्योग या व्यापार क्षेत्र को मिल जाती है। राजस्थान में यह अनुपात 80.51 फीसदी और कर्णाटक में 78.10 फीसदी है। बाकी सभी प्रमुख राज्यों में यह अनुपात 70 फीसदी से कम है।

उत्तर पूर्वी क्षेत्र में पडऩेवाले सात राज्यों की हालत अच्छी नहीं है। फिर भी इस क्षेत्र का औसत ऋण-जमा अनुपात 49.71 फीसदी है। लेकिन उत्तराखंड में कैसे औद्योगिक विकास हो सकता है, जब वहां का ऋण-जमा अनुपात महज 25.78 फीसदी है। इस मामले में उत्तराखंड के ठीक ऊपर आता है बिहार, जहां का ऋण-जमा अनुपात 27.57 फीसदी है। प्राकृतिक संसाधनों में समृद्ध झारखंड की स्थिति भी खास अच्छी नहीं है। वहां से आनेवाली जमाराशि का 34.65 फीसदी हिस्सा बैंक राज्य की औद्योगिक या व्यापारिक गतिविधियों को ऋण के रूप में दे रहे हैं।

देश में सबसे ज्यादा आबादी वाले राज्य उत्तर प्रदेश से सितंबर 2008 में खत्म तिमाही में बैंकों को 2.33 लाख करोड़ रुपए जमाराशि के रूप में हासिल हुए, लेकिन 96,596 करोड़ रुपए के ऋण वितरण के साथ वहां का ऋण-जमा अनुपात 41.40 फीसदी है। हिमाचल प्रदेश का ऋण-जमा अनुपात 40.73 फीसदी और छत्तीसगढ़ का ऋण-जमा अनुुपात 47.66 फीसदी है। देश के गरीब माने जानेवाले राज्य उड़ीसा तक की स्थिति इन सभी राज्यों से बेहतर है क्योंकि वहां का ऋण-जमा अनुपात 51.29 फीसदी है।

उत्तर भारत के उक्त छह राज्यों में से अगर छत्तीसगढ़ को छोड़ दें तो बाकी पांच राज्यों में ऋण-जमा अनुपात की हालत पिछले दो वित्त वर्षों में कमोबेश ऐसी ही रही है। उत्तराखंड का ऋण-जमा अनुपात वित्त वर्ष 2006-07 में 26.98 और वित्त वर्ष 2007-08 में 26.64 फीसदी रहा है। इन्हीं दो सालों के दौरान बिहार में यह अनुपात 30.14 व 29.69, झारखंड में 33.95 व 35.15, हिमाचल प्रदेश में 41.52 व 43.63 और उत्तर प्रदेश में 45.14 व 44.92 फीसदी रहा है। छत्तीसगढ़ में जरूर यह अनुपात वित्त वर्ष 2006-07 में 53.01 फीसदी और वित्त वर्ष 2007-08 में 52.28 फीसदी रहा है।

चालू साल 2008-09 की सितंबर में समाप्त तिमाही के आंकड़ों के मुताबिक मध्य प्रदेश, हरियाणा और पंजाब से लेकर गुजरात और पश्चिम बंगाल बेहतर स्थिति में हैं। राजनीतिक रूप से दो ध्रुवों पर खड़े गुजरात और पश्चिम बंगाल में ऋण-जमा अनुपात लगभग बराबर है। गुजरात में यह 62.30 फीसदी और पश्चिम बंगाल में 60.52 फीसदी है। केरल का ऋण-जमा अनुपात 65.28 और पंजाब का ऋण-जमा अनुपात 67.15 फीसदी है। मध्य प्रदेश में ऋण-जमा अनुपात 56.05 फीसदी और हरियाणा में 58.05 फीसदी रहा है।

अगर हम बैंकों द्वारा हासिल जमाराशि और ऋण-वितरण की क्षेत्रवार स्थिति पर नजर डालें तो एक क्षेत्रीय असंतुलन साफ नजर आता है। पिछले दो वित्त वर्षों में उत्तरी क्षेत्र का बैंकों की कुल जमा में हिस्सा 23 फीसदी के आसपास है, जबकि वितरित ऋण में इसका हिस्सा 21 फीसदी है। मध्य भारत का कुल जमा में योगदान लगभग 11.5 फीसदी है, जबकि उन्हें बैंकों के ऋण का सात फीसदी हिस्सा ही मिल पा रहा है। पूर्वी और उत्तर-पूर्वी क्षेत्र की हालत इससे जुदा नहीं है। लेकिन देश के पश्चिमी और दक्षिणी क्षेत्र अपनी जमा से अधिक हिस्सा ऋण के बतौर हासिल कर रहे हैं। पश्चिमी क्षेत्र का बैंकों की कुल जमा में योगदान 31 फीसदी के आसपास है, जबकि वे बैंकों के ऋण का तकरीबन 37 फीसदी हिस्सा हासिल कर रहे हैं। दक्षिणी राज्यों का जमा में योगदान लगभग 22 फीसदी है, जबकि बैंकों से मिले ऋण में उनका हिस्सा करीब 26 फीसदी है।

लेकिन भारतीय अर्थव्यवस्था पर नजर रखनेवाली प्रमुख संस्था सीएमआईई (सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकनॉमी) के प्रबंध निदेशक व सीईओ महेश व्यास का कहना है कि इसमें क्षेत्रीय असंतुलन जैसी कोई बात नहीं है। बचत का आना एक बात है, लेकिन बैंकों तो उन्हीं राज्यों या इलाकों में ऋण देंगे, जहां निवेश के बेहतर अवसर हैं। बैंकों का यह रुख एकदम स्वाभाविक है। क्रेडिट रेटिंग एजेंसी क्रिसिल के प्रमुख अर्थशास्त्री डी के जोशी का भी मानना है कि हमेशा से ऐसा ही होता आया है और जमाराशि के रूप में आया पैसा वहीं निवेश होगा जहां बेहतर सुविधाएं हैं। तमिलनाडु में ज्यादा ऋण वितरण के बारे में उनका कहना था कि यह तेजी से प्रगति कर रहा राज्य है। इसलिए वहां जमा से अधिक निवेश हो रहा है।
फोटोशॉप छवि सौजन्य: DesignFlute

Wednesday 4 February, 2009

फंड की लागत का रोना, बैंकों का डर छिपाने का बहाना

बैंकों ने कर्ज पर ब्याज दरें घटाने का सिलसिला शुरू कर दिया है। देश के सबसे बड़े बैंक भारतीय स्टेट बैंक ने हर तरह के होमलोन पर एक साल के लिए 8 फीसदी ब्याज दर घोषित करके सबको चौंका दिया है। बैंकों ने सरकार से वादा भी कर दिया है कि वे ब्याज दरों में दो फीसदी कमी कर सकते हैं, बशर्ते उनके फंड की लागत घट जाए। दूसरे शब्दों में बैंकों का कहना है कि वे इस समय जमा पर ज्यादा ब्याज दे रहे हैं। इसलिए जब तक वे जमा पर ब्याज घटाने की स्थिति में नहीं आते, तब तक कर्ज पर ब्याज घटाना उनके लिए घाटे का सौदा रहेगा। देश के दूसरे सबसे बड़े बैंक पंजाब नेशनल बैंक के चेयरमैन के सी चक्रवर्ती का कहना है कि बैंक उधार पर ब्याज दर घटाने को तैयार है, बशर्ते फंड की लागत और घट जाए।

लेकिन क्या सचमुच ऐसी ही स्थिति है या बैंक झूठ-मूठ का रोना रो रहे हैं और वे असल में देश की सुस्त पड़ी आर्थिक गतिविधियों में जान डालने के लिए कर्ज देने के जोखिम से यथासंभव बचना चाहते हैं। शायद यही वजह है कि स्टेट बैंक के चेयरमैन ओ पी भट्ट को कहना पड़ता है कि बड़े और मझोले उद्योगों को कर्ज देने पर बैंक की गैर-निष्पादित परिसंपत्तियां (एनपीए) बढ़ सकती हैं। लेकिन बैंकों के फंड की वास्तविक लागत पर नजर डालने पर दूसरी ही बात सामने आती है।

अभी ज्यादातर बैंकों में कुल जमा धन का लगभग 35 फीसदी हिस्सा चालू और बचत खातों से आता है। बैंकों के लिए रकम जुटाने का यह सबसे सस्ता जरिया है क्योंकि बचत खातों पर उसे महज 3.5 फीसदी सालाना ब्याज देनी पड़ती है जो सात-आठ सालों से जस की तस है। इसके अलावा फर्में और कंपनियां अपना धन चालू खाते में रखती हैं जिस पर बैंकों को एक धेला भी ब्याज नहीं देना पड़ता। अगर फिक्स्ड डिपॉजिट की बात करें तो इस समय बैंक इस पर अवधि के हिसाब से 4 फीसदी से शुरू करके ज्यादा से ज्यादा 9 फीसदी सालाना ब्याज दे रहे हैं। जैसे एचडीएफसी बैंक 3.75 फीसदी से लेकर 8.5 फीसदी सालाना ब्याज दे रहा है। स्टेट बैंक ने 12 जनवरी से जमा पर ब्याज दरें एक बार फिर घटा दी हैं और वह पांच साल से दस साल तक की जमा पर अधिकतम 8.5 फीसदी सालाना ब्याज दे रहा है। बल्क डिपॉजिट यानी एक करोड़ रुपए से ज्यादा की जमा पर बैंक अब केवल 7.5 फीसदी ब्याज दे रहा है।

जाहिर-सी बात है कि बैंकों के लिए जमा का औसत खर्च इस समय 6 फीसदी से ज्यादा नहीं है। यह अलग बात है कि बैंक दिसंबर तक सावधि जमा पर लगभग 10 फीसदी ब्याज दे रहे थे। लेकिन पुरानी जमा पर अगर ब्याज दर ज्यादा है तो बैंकों ने पुराने कर्ज पर ब्याज दर भी नहीं घटाई है। जैसे, आईसीआईसीआई बैंक अब भी पुराने होम लोन पर 12.75 फीसदी सालाना ब्याज ले रहा है। सरकारी बैंकों की प्राइम लेंडिंग रेट (पीएलआर) घटकर 12-13 फीसदी हो गई है, जबकि निजी बैंकों की पीएलआर अब भी 14 से 16 फीसदी बनी हुई है। ऐसे में फंड की लागत और कर्ज पर ब्याज का अंतर अब भी बैंकों के लिए 3 फीसदी से ज्यादा ही बैठता है जिसे एक अच्छा लाभ मार्जिन कहा जा सकता है।

इसके अलावा बैंकों ने अपनी जमा का तकरीबन 29 फीसदी हिस्सा सरकारी प्रतिभूतियों में लगा रखा है, जबकि एसएलआर (वैधानिक तरलता अनुपात) की अनिवार्यता के तहत उन्हें केवल 24 फीसदी निवेश करना है। इस तरह उन्होंने 1.80 लाख करोड़ रुपए सरकारी प्रतिभूतियों में ज्यादा लगा रखे हैं, जिसे जमानत (कोलैटरल) के बतौर रखकर वे रिजर्व बैंक से महज 5.5 फीसदी की रेपो दर पर तात्कालिक जरूरत के लिए उधार ले सकते हैं। अगर उन्हें और भी रकम की जरूरत पड़ती है तो अंतरबैंक बाजार से कॉलमनी के जरिए ले सकते हैं जहां इस समय दरें 2.5 से 4.30 फीसदी चल रही है। साथ ही रिजर्व बैंक ने बैंकों को अपने एसएलआर निवेश के 1.5 फीसदी हिस्से के एवज में 5.5 फीसदी ब्याज पर 60,000 करोड़ देने की सहूलियत दे रखी है। बात एकदम साफ है फंड की लागत बस रोना है। असली बात यही है कि बैंक अब भी जोखिम लेने से घबरा रहे हैं।

Tuesday 27 January, 2009

निरर्थक है निरर्थकता का बोध

अपने बहुत सारे पुराने साथियों में देखता हूं कि वे अब भी अजीब किस्म के अपराध-बोध और ग्लानि के भाव के साथ जिए जा रहे हैं कि देश-समाज के लिए जो कभी करने की सोची थी, अब कुछ नहीं कर पा रहे हैं। एकाध धरना-प्रदर्शन में हिस्सेदारी, और कुछ नहीं। बस, नौकरी-चाकरी और बीवी-बच्चे। घर से दफ्तर और दफ्तर से घर। कभी-कभी लगता है कि हमारे सपने भी मर रहे हैं, तब हम पाश की लाइनें याद करके दुखी हो जाते हैं कि सबसे खतरनाक होता है हमारे सपनों का मर जाना। अक्सर सोचने लगते हैं कि अब तक क्या किया, जीवन क्या जिया।

कल की बात सोचता हूं तो मैं भी एक चमकीली उदासी से भर जाता हूं। लेकिन उन अनुभवों को अतीतजीविता के आभासी सुख से मुक्त कर सोचता हूं तो लगता है कि बाहरी और आंतरिक संघर्ष वहां भी था, यहां भी है। तब भी था और आज भी है। यह भी लगता है कि हमारी-आपकी ज़िंदगी ही असली और मूर्त है। देश तो महज एक अमूर्तन है। कहीं वह माता बन जाता है तो कहीं पिता। मुश्किल यह है कि यह अमूर्तन हर किसी को हमारी भावनाओं के दोहन का भरपूर मौका दे देता है। कोई हमें तकरीर के तीरों से बेधता है तो कोई भावनात्मक ब्लैकमेल करता है।

मुझे लगता है कि पहले हमें साफ-साफ समझ लेना चाहिए कि हमें बदलना क्या है। आप कहेंगे कि सरकार को बदलना है। तो, हर पांच साल पर सत्ता के खिलाफ वोट दे दीजिए। आप कहेंगे कि केवल सरकार बदलना पर्याप्त नहीं है। 1977 के बाद तो लगातार यही हो रहा है। नई सरकार भी या तो पुरानी जैसी निकलती है या उससे भी बदतर। इसलिए तंत्र को भी बदलना है। तो, असली सवाल यह है कि तंत्र को कैसे बदला जाएगा? लेकिन इससे भी अहम सवाल है कि इस तंत्र की जगह कौन-सा तंत्र लाना चाहते हैं हम? क्या इसकी तस्वीर हमारे जेहन में साफ है? नहीं है तो पहले इसे साफ करने की जरूरत है।

मुझे लगता है कि इस तस्वीर को साफ करने के लिए हमें किसी किताब या विचारधारा के शरणागत होने की ज़रूरत नहीं है। बस एक सूत्र होना चाहिए कि सामूहिकता के जो भी साधन हैं उन्हें व्यक्ति के प्रति जवाबदेह होना पड़ेगा। गांव के प्रधान, ब्लॉक के प्रमुख और जिलाधिकारी तक की जवाबदेही तय होनी चाहिए। हम जिस सोसायटी में रहते हैं उसके सचिव व अध्यक्ष की कमान हमारे साथ में रहनी चाहिए। सोचता हूं कि जिस सोसायटी में रहता हूं उसमें दखल तो छोड़िए, उसके कामों से मुंह चुराता हूं तो देश-समाज के लिए कुर्बान हो जाने का जज्बा क्या सचमुच सच्चा था? क्या वह व्यावहारिकता से दूर एक खोखला आदर्शवाद नहीं था?

एक समय निरर्थकता का बोध मुझ पर भी इतना हावी हुआ था कि लगा कि इस तरह जीने से तो अच्छा है मर जाना। लेकिन अब लगता है कि असली वीरता यह है कि हम संघर्षों को दरी के नीचे खैनी की तरह दबा देने के बजाय उन्हें शांत मन से सुलझाएं, चाहे वे संघर्ष घर के हों, दफ्तर के हों या सभा-सोसायटी के हों। खुद ही पैमाने बनाकर, नैतिकता के मानदंड बनाकर उनके सामने खुद को बौना या निरथर्क समझने की कोई ज़रूरत नहीं है। असल में हर नैतिकता के पीछे एक अंधापन होता है, आंख मूंदकर उसे सही मानने की बात होती है। यह सच है कि नैतिकता को एक सिरे से नकार कर हम पूरी मानव सभ्यता को नकार देंगे, इंसान के सामूहिक वजूद को नकार देंगे, बर्बरता ओर जंगलीपन के पैरोकार बन जाएंगे।

लेकिन नैतिकता भी काल-सापेक्ष होती है। स्थिर हो गई नैतिकता यथास्थिति की चेरी बन जाती है, सत्ताधिकारियों का वाजिब तर्क बन जाती है। जड़ हो गई नैतिकता मोहग्रस्तता बन जाती है जिसे तोड़ने के लिए कृष्ण को गांडीवधारी अर्जुन को गीता का संदेश देना पड़ता है। मेरा मानना है कि हर किस्म की ग्लानि, अपराधबोध, मोहग्रस्तता हमें कमजोर करती है। द्रोणाचार्य एक झूठ में फंसकर, पुत्र-मोह के पाश में बंधकर अश्वथामा का शोक करने न बैठ होते तो पांडव उनका सिर धड़ से अलग नहीं कर पाते। हम जैसे हैं, जहां हैं, अगर सच्चे हैं तो अच्छे हैं।

हमें न तो अपने से छल करना चाहिए और न अपनों से। इसके बाद हम रोजमर्रा के संघर्षों से लोहा लेते रहें तो समझिए हम अपना काम कर रहे हैं। कभी भी किसी अफसोस या निरथर्कता बोध की ज़रूरत नहीं है। कभी भी हमें ऐसे लकीर नहीं बना लेनी चाहिए जिसके सामने हम खुद को बहुत-बहुत छोटा महसूस करने लगें क्योंकि यह भाव हमारे अंग-प्रत्यंग को शिथिल कर देता है। यह निष्क्रियता की सोच है और साथियों, हम न तो कल निष्क्रिय थे और न आज रहेंगे। हम सक्रिय थे और मरते दम तक सक्रिय ही रहेंगे। आमीन!!!
फोटो साभार: cobalt123

Saturday 24 January, 2009

दशानन के चेहरे चिढ़ते बहुत हैं

रावण की लंका सोने की थी। बहुत सारा निवेश आया होगा तभी तो बनी होगी सोने की लंका। उसके हित-मित्र, चाटुकार बड़े मायावी थे। स्वर्ण-मृग बनकर अपने यार के लिए वनवासियों की बीवियों को रिझाकर छल से उठा लिया करते थे। दशानन चिढ़ता बहुत था। निंदा तो छोड़िए, अपनी जरा-सा आलोचना भी बरदाश्त नहीं कर पाता था। इसी बात पर अपने भाई विभीषण को निकाल फेंका। पौराणिक आख्यान गवाह हैं कि रावण का सर्वनाश हो गया। विभीषण को लंका का राजपाट मिला। लंका सोने की ही रही। लेकिन उस सोने पर राजा का ही नहीं, प्रजा का भी हक हो गया। लंका में रामराज्य आ गया।

एडोल्फ हिटलर, रहनेवाला ऑस्ट्रिया का। आगे नाथ, न पीछे पगहा। अंदर से बड़ा ही भीरु किस्म का शख्स। अपने अलावा और किसी को कुछ नहीं समझता था। मंच पर ऐसा बमकता था कि लगता था कि धरती और आकाश के बीच उसके अलावा कुछ है ही नहीं। सत्ता लोलुप और शातिर इतना कि पराए मुल्क में जाकर राष्ट्रवाद का नारा दे दिया। यहूदियों को निशाना बनाया। उनके खिलाफ नफरत भड़का कर बाकियों को अपने पीछे लगा लिया। जर्मन लोग उसके दीवाने हो गए। लेकिन जर्मनी के वही लोग आज उससे बेइंतिहा नफरत करते हैं।

वहां किसी को हिटलर कह दो तो वह आपके खिलाफ मानहानि का मुकदमा ठोंक देगा। मुट्ठी भर सिरफिरों को छोड़ दें तो जर्मनी का बच्चा-बच्चा हिटलर से नफरत करता है। अपने इतिहास से हिटलर को मिटाने के लिए अभी साल भर पहले उस नगरपालिका ने पुराने रजिस्टर से हिटलर का नाम काट दिया जिसने इस ऑस्ट्रिया-वासी को जर्मन नागरिकता दी थी। हिटलर का भी सबसे बड़ा दोष यही था कि वह चिढ़ता बहुत था। अपनी किसी भी तरह की आलोचना को बरदाश्त नहीं कर पाता था। इतिहास गवाह है कि एक सुनसान बंकर में उसका मृत शरीर पाया गया।

कहने का मंतव्य यह है कि आलोचना न सह पाना, मामूली बात पर चिढ़ जाना बहुत बड़ा दुर्गुण है। इतना बड़ा कि आपका सत्यानाश तक कर सकता है। अपने यहां राजा जनक को सबसे बड़ा योगी इसीलिए माना गया है कि वे सब कुछ के बीच रहते हुए भी असंपृक्त रहते थे। राग-द्वेष, वैर-प्रीति, यश-अपयश से ऊपर थे। गीता में योगिराज कृष्ण ने स्थितिप्रज्ञता का बखान किया है। तो, अपने पंगेबाज टाइप बंधुओं से मैं विनती करना चाहता हूं कि दशानन के चेहरे मत बनो। यह मत साबित करो कि उसमें और तुम में नाभिनाल संबंध है क्योंकि उसकी नाभि को भेदकर कोई भी राम उसका विनाश कर सकता है। तुम और हम आम नागरिक हैं भाई जो अपने देश, अपनी माटी और अपनी परंपरा से बेपनाह मोहब्बत करते हैं। हम उस मायावी का पाप अपने ऊपर क्यों लें?

आखिर में एक बात और। नाम पंगेबाज रखा है तो उसकी मर्यादा का पालन करो। पंगेबाज नाम का मतलब है कि वह बड़े संयत भाव से, शांत मन से पंगा लेगा। चिढ़ेगा नहीं। अरे, मेरी बात का जवाब देना ही था तो आलोक नंदन की तरह देते। चिढ़ जाने से बुद्धि और विवेक का नाश हो जाता है। बंधुवर, मर्यादा पुरुषोत्तम राम की परंपरा को अपनाओ। दशानन का दसवां चेहरा मत बनो।

Thursday 22 January, 2009

नरेन्द्र भाई का एक सद्गुण

संजय भाई ने नरेन्द्र मोदी के दस अवगुण गिनाये तो मुझे लगा कि क्यों न उनका एक सद्गुण गिना दिया जाए। आज ही इंडियन एक्सप्रेस में एक रिपोर्ट छपी है जो बताती है कि वे झूठ बोलने में ज़बरदस्त महारत रखते हैं। उनके सत्य की कलई ख़ुद उन्हीं के सरकारी विभाग ने खोली है। आप भी यह रिपोर्ट पढ़ें और उनके इस सद्गुण की दाद दें। शुक्रिया।

देखो, टूट रही हैं राष्ट्रवाद की सरहदें

बराक ओबामा को अमेरिका का 44वां राष्ट्रपति बनते दुनिया के करोड़ों लोगों ने टीवी पर लाइव देखा। मैंने भी सपरिवार देखा। शायद आपने भी देखा होगा। मेरी पत्नी ने इस समारोह को देखने के बाद सहज भाव से पूछा – क्या मार्केटिंग और नेटवर्किंग के इस युग में ओबामा जैसे साधारण आदमी के रूप में पूरी दुनिया में नई आशा और उम्मीद का पैदा होना चमत्कार नहीं है? यह एक भावना है जो युद्ध और आर्थिक मंदी के संत्रास से घिरे अमेरिका के लोगों में नहीं, सारी दुनिया के लोगों में लहर मार रही है। बराक जब चुने गए थे, तभी हमारे देश में भी पूछा जाने लगा था कि अपने यहां कोई बराक ओबामा नहीं हो सकता। बहुतों के भीतर अपने देश में किसी बराक ओबामा के न होने की कचोट सालने लगी। ओबामा का कहा हुआ वाक्य – yes we can, सबकी जुबान और मानस पर चढ़ गया। इसी माहौल में कुछ मीडिया पंडितों और कॉरपोरेट हस्तियों ने राहुल गांधी से लेकर नरेंद्र मोदी में भारतीय ओबामा की शिनाख्त शुरू कर दी।

सच यही है कि सारी दुनिया के लोग अंदर ही अंदर बराक को अपना नेता मानने लगे हैं। कहने का मौका मिले तो वे कह भी सकते हैं कि अमेरिका का राष्ट्रपति हमारा राष्ट्रपति है। इसी बात पर मुझे साठ के दशक के आखिरी सालों की सुनी-सुनाई बात याद आ गई, जब देश के लाखों तो नहीं, लेकिन हज़ारों नौजवानों ने नारा दिया था – चीन के चेयरमैन हमारे चेयरमैन। लेकिन सत्तर और अस्सी का दशक आते-आते यह नारा उलाहना और हिकारत का साधन बन गया। हिंदू राष्ट्रवाद के चोंगे में सतरंगी राष्ट्र की कंबल परेड करनेवाले स्वयं-सेवक जवाब मांगने लगे – चाओ माओ कहते तो भारत में क्यों रहते हो। लेकिन वही लोग आज ओबामा को अपना नेता माननेवालों से हिकारत की इस जुबान में बात नहीं कर सकते।

उस समय के दौर के बारे में मैं अपने अनुभव से यही कहना चाहता हूं कि चीन के चेयरमैन को अपना चेयरमैन कहनेवाले अपनी मातृभूमि से बेइंतिहा प्यार करते थे। वे अपनी मातृभूमि की मुक्ति का स्वप्न देखनेवाले समर्पित नौजवान थे। इंजीनियरिंग संस्थानों से लेकर विश्वविद्यालयों के मेधावी छात्र थे। वे गीत गाते थे – हे मातृभूमि, तुम्हारी मुक्ति का दिन अब दूर नहीं है। देखो, पूर्व के समुद्र के पार लाल सूरज उग रहा है। उसकी लाल आभा में, लाल आलोक में सारा जग जगमग हो रहा है। वे गीत गाते थे – तोहार बाड़ी सोने के बाड़ी, तोहार बाड़ी रुपे के बाड़ी, हमार बाड़ी हे हो नक्सलबाड़ी। जी हां, मैं नक्सलबाड़ी के संघर्ष से उठे मुक्तिकामी योद्धाओं की बात कर रहा हूं, बलिदानी नौजवानों की बात कर रहा हूं। ये सच है कि उन्होंने भारतीय परिस्थितियों की विशिष्टता को नहीं समझा। लेकिन उनकी भावना पर शक करना, उन्हें चीन का दलाल बताना, उनकी देशभक्ति पर सवाल उठाना गौ-हत्या या ब्रह्म-हत्या से भी बड़ा पाप है।

मुझे तो ऐसा ही लगता है। आप कुछ भी मानने-सोचने के लिए आज़ाद हैं। इतिहास के पहिए को वापस नहीं मोड़ा जा सकता। लेकिन आज वे हज़ारों नौजवान होते तो हज़ारों के हज़ारों भारत का ओबामा बनने की संभावना लिए होते। वैसे, दिक्कत यह है कि परछाइयों के पीछे भागने के आदी हो गए हैं। किसी बाहरी उद्धारक या अवतार की बाट जोहने में लगे रहते हैं। यह नहीं देखते कि एक साधारण-सा शिक्षक ओबामा कैसे बन जाता है। ओबामा को राष्ट्रपति बनने पर हम मुदित हैं। लेकिन यह नहीं समझते कि डेमोक्रेटिक पार्टी का तंत्र नहीं होता तो ओबामा को इतना उभार नहीं मिलता।

क्या अपने यहां कोई भी ऐसी पार्टी है जिसमें ओबामा जैसे आम आदमी को उभारनेवाला आंतरिक लोकतंत्र है? कांग्रेस की तो बात ही छोड़ दीजिए, बीजेपी में किसी नए नेता की तारीफ होते ही प्रधानमंत्री की कुर्सी के दावेदार बुजुर्ग घबरा जाते हैं। सीपीएम तक गुजरात के विकास कार्यक्रमों को समझने की कोशिश में लगे नेता को निकाल बाहर करती है। नैतिकता की अलंबरदार पार्टी के नेता और उत्तर प्रदेश जैसे राज्य के मुख्यमंत्री रह चुके नेता अपनी प्रिया और प्रिय पुत्र के लिए धृतराष्ट्र बन जाते हैं, मातृघात कर डालते हैं। हमारी पार्टियों में आतरिक लोकतंत्र का अभाव है तो ओबामा की तलाश में लगे हमारे कॉरपोरेट जगत में कॉरपोरेट गवर्नेंस का। कंपनियों के प्रबंधन में न तो कर्मचारियों और न ही बाहरी स्वतंत्र निदेशकों की आवाज़ सुनने की व्यवस्था है। अभी तो एक सत्यम का खुलासा हुआ है, न जाने कितनों का सत्य अभी सामने आना बाकी है। राजनीतिक पार्टियों के खातों का स्वतंत्र ऑडिट हो जाए तो लेफ्ट के अलावा सारी की सारी पार्टियां सत्यम की अम्मा निकलेंगी।

ऐसे में मेरा बस इतना कहना है कि राजनीतिक दलों में आंतरिक लोकतंत्र की स्थापना के बगैर भारत में कोई ओबामा नहीं उभर सकता। हमारे यहां आज भी ओबामा की कमी नहीं है। लेकिन एक सच्ची लोकतांत्रिक पार्टी के विकास के बिना ऐसे ओबामा अपनी-अपनी चौहद्दियों में चीखते-चिल्लाते, बाल नोंचते, पैर पटकते मिट जाने को अभिशप्त हैं। अच्छी बात यह है कि यह बात अब महज बात नहीं रही है। कहीं-कहीं, धीरे-धीरे एक सुगबुगाहट शुरू हो चुकी है। देखो, रंग बदल रहा है आसमान का..
फोटो साभार: tsevis