बदलाव तो शतरंज का खेल है, शह और मात

सामाजिक बदलाव, व्यवस्था परिवर्तन। सिस्टम बदलना होगा। बीस-पच्चीस साल पहले नौजवानों में यह बातें खूब होती थीं। अब भी होती हैं, लेकिन कम होती हैं। कितनी कम, नहीं पता क्योंकि बड़े शर्म की बात है कि हम अब बुजुर्ग होने लगे हैं। हालांकि मानने को जी नहीं करता, लेकिन चेहरा और शरीर सब बता देता है। काफी समय से, समझिए कि अरसे से सोच रहा था कि बदलाव में आखिर ठीक-ठीक बदलना क्या है? हम बदलेंगे, युग बदलेगा - जैसी गुरु सूक्तियां भी सिर चढ़कर बोलती रहीं। लेकिन जरा-सा सोचा तो पाया कि हम तो अनवरत बदलते ही रहते हैं। शरीर से, मन से और विचार से।

जो कल थे, आज नहीं हैं। जो आज हैं, कल नहीं होंगे। हमें अपने इस बदलाव का अहसास नहीं होता। लेकिन कोई पुराना दोस्त, यार, रिश्तेदार सालों बाद मिलता है तो यही प्रभाव लेकर जाता है कि जनाब, पहले जैसे नहीं रहे। हालांकि शुरुआत में यही कहता है कि आप तो एकदम नहीं बदले, बस थोड़ा-सा मोटे हो गए हो, आवाज भारी हो गई है, बाकी सब वैसे का वैसा ही है। लेकिन यह अतीत-प्रेम या नास्टैल्जिया का आवेग होता है, सच नहीं है। समय की चकरी और रिश्तों की चक्की हमें पीसती-बदलती रहती है। इस हकीकत को कोई हठी, आत्ममुग्ध और जिद्दी विक्रमादित्य ही ठुकरा सकता है।

अब बचा समाज, जो हम सभी का सुपरिभाषित, नियत लेकिन परिवर्तनशील समुच्चय है। संस्थाएं हैं, रिवाज हैं। जकड़बंदियां हैं, घुटन है। बगावत है, दमन है। कुछ लोग पुराने का महिमामंडन करते हैं, यथास्थिति को यथावत रखने का चिंतन चलाते हैं। कुछ लोग हर चीज को बस गरियाते रहते हैं, चिड़चिड़ापन उनका शाश्वत स्वभाव बन जाता है। बहुत से लोग तो जिन्हैं न व्यापै जगत गति वाले होते हैं। बस बहे चले जाते हैं, जिए चले जाते हैं। लेकिन हर समय, दी गई काल-परिस्थिति में तमाम लोग ऐसे होते हैं जो विकल्प बुनते रहते हैं। उनके पास वैकल्पिक सोच होती है जो सही सिंहासन मिलते ही सब कुछ बदल देती है। बराक ओबामा पड़ा था, कहीं समाज में। राष्ट्रपति चुन लिया गया तो लगा जैसे अमेरिका में कोई मिनी-क्रांति हो गई।

यही सच है। हर वक्त, हर दौर में बदलाव की इंसानी शक्तियां समाज में मौजूद रहती हैं। पलती रहती हैं, बढ़ती रहती हैं। शतरंग की गोटों की तरह जहां-तहां पड़ी रहती हैं। बस उनकी सही प्लेसिंग कर दी जाए तो पूरा सीन बदल जाता है। क्या आप ऐसे लोगों को नहीं जानते जो वैकल्पिक सोच रखते हैं? जो पुराने और नए के बीच की अटूट कड़ी को सही से पहचानते हैं? जो लोकतांत्रिक मूल्यों से लवरेज हैं? जो अपने देश को अपनी मां से भी ज्यादा प्यार करते हैं? जो ज़िंदगी में जनक से बड़े योगी हैं? जैसे कृष्ण के विराट स्वरूप में सारी दुनिया समाई थी, सारी सृष्टि समाहित थी, वैसे ही वे भी पर्यावरण से लेकर दुनिया के रग-रग से वाकिफ हैं? चलिए एक-दो नहीं, पचास-सौ लोगों को मिलाकर तो एक सेट बनाया ही जा सकता है जिनको सही जगह पहुंचा दिया जाए तो सारा परिदृश्य बदल सकता है, सारी सत्ता बदल सकती है, सिस्टम बदल सकता है, व्यवस्था बदल सकती है, समाज बदल सकता है।

बस, सही गोट को सही जगह रखिए। चाल सही चलिए। शह और मात का खेल खेलिए, आनंद आएगा। लेकिन इस खेल में निर्जीव गोटें नहीं, जीवित इंसान शामिल हैं, इंसानी जिद शामिल है। इसलिए फर्क यह पड़ता है कि यहां शह और मात का खेल शोर और मौत का खेल बन सकता है। विनय न मानय जलधि जड़, गए कई दिन बीति, बोले राम सकोपि तब, भय बिनु होय न प्रीति।

Comments

Vinay said…
बड़ी सच्चाई से आपने सब कुछ कह दिया
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मानव मस्तिष्क पढ़ना संभव
Batangad said…
बदलाव जरूरी है ... होता भी रहता है अनायास भी .. बस हर बदलाव को कुछ दिन में आंकते जरूर रहना चाहिए। और, आपमें बदलाव ये जरूरी है कि आप पहले जैसे लिखते रहें।
Arshia Ali said…
Is samyak drastikon ke liye badhaayi.
( Treasurer-S. T. )
L.Goswami said…
दिनों बाद नजर आये अनिल जी ..स्वागत है. नियमित रहें, हमे आपकी पोस्टों का इन्तिज़ार रहता है.
बदलाव अवश्यम्भावी है इसे रोका नही जा सकता और रोकने की आवश्यकता भी नहीं लेकिन प्रयास यह रहे कि यह सकारात्मक हो । पुराने और पुरातन मे अंतर है पुरातन से सबक लेकर हम भविष्य के बदलाव की रूपरेखा तय कर सकते हैं । यह वैकल्पिक सोच बेहद ज़रूरी है । शरद कोकास -दुर्ग छ.ग.
Asha Joglekar said…
बदलाव होता ही है चाहे आप चाहे या न चाहें अपने में दूसरों में, शहर में, गांव में और समाज में भी । हम कोशिश करें कि ये बेहतरी के लिये हो ।
अनिल जी बहुत दिनों के बाद आई आप के ब्लॉग पर और बहुत अच्छा लेख पढने को मिला आभार ।
Asha Joglekar said…
क्या आप ऐसे लोगों को नहीं जानते जो वैकल्पिक सोच रखते हैं? जो पुराने और नए के बीच की अटूट कड़ी को सही से पहचानते हैं? जो लोकतांत्रिक मूल्यों से लवरेज हैं? जो अपने देश को अपनी मां से भी ज्यादा प्यार करते हैं? जो ज़िंदगी में जनक से बड़े योगी हैं? जैसे कृष्ण के विराट स्वरूप में सारी दुनिया समाई थी, सारी सृष्टि समाहित थी, वैसे ही वे भी पर्यावरण से लेकर दुनिया के रग-रग से वाकिफ हैं? चलिए एक-दो नहीं, पचास-सौ लोगों को मिलाकर तो एक सेट बनाया ही जा सकता है जिनको सही जगह पहुंचा दिया जाए तो सारा परिदृश्य बदल सकता है, सारी सत्ता बदल सकती है, सिस्टम बदल सकता है, व्यवस्था बदल सकती है, समाज बदल सकता है।

बहुत सही पर क्या यह संभव है, लोग मिलेंगे तो उन्हे सही स्थान पर नही बैठा पायेंगे अगर स्थान पर बैठ गये तो दबाव में आ कर गलत करेंगे या त्यागपत्र दे देंगे । इतना ही कहूंगी कि तथास्तु ।
RAJ SINH said…
बहुत ही सही .बदलाव के बीज और जमीन दोनों मौजूद हैं . हाँ अब तो ये सूरत बदलनी चाहिए . आप मुझे भी जुड़ा मान सकते हैं .
विनय न मानति जलधि .....तुलसी बाबा की जै हो.........
Poonam Misra said…
बदलाव ही एकमात्र शाश्वत सत्य है. फिर वो चाहे प्रकृति में हो,व्यवस्था में हो,समाज में हो, प्रवृत्ति में या काल में हो
ajeetsingh said…
Sach men takat hoti hai or takat hi badlaw lata hai.Desh ko aise lekh ki jaroorat hai.Gote mojood hain koi khiladi chahiye, Marg darshak chhiye. Khiladi koi bhi ho sakta hai aap bhi.Samay aa gaya hai jab soch ko hakeekat me badalne ki koshish ki jaye.
नम्स्कार सर जी। पहली बार आपका लिखा पढ़ा। किसी मित्र ने मेल किया। बदलाव के ऊपर आपका लेख अच्छा लगा। सच कहूं तो बस अच्छा लगा। बहुत अच्छा लगे इसका इंतजार है। मैं उन लोगों में नहीं जो मां से ज्यादा देश को प्यार करे। मैं अपनी मां के लिए देश बदलने को तैयार हूं।

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