Wednesday 2 March, 2022

मोदी, भाजपा व संघ को भारत से इतनी दुश्मनी क्यों?

अक्सर खुद से बात करता हूं तो बड़ी संजीदगी से सोचता हूं कि मोदी सरकार, भाजपा व संघ को आखिर भारत से इतनी दुश्मनी क्यों है? आखिर क्यों वे भारत को हर स्तर पर खोखला करते जा रहे हैं? भारत आज अंदर से जितना विभाजित है, उतना तो शायद बंटवारे के वक्त भी नहीं था। मोदी सरकार ने दो साल पहले अचानक लॉकडाउन लगाकर लाखों मजदूरों को मरने के लिए क्यो छोड़ दिया? अभी उसने यूक्रेन में फंसे हज़ारों छात्रो को क्यों इस कदर असहाय छोड़ दिया? आखिर क्यों वह ऊपर से दिखावा करती है, मगर अंदर से तोड़ने का काम करती है? इसका सबसे बड़ा सबूत है कि नोटबंदी में उसे अर्थव्यवस्था को फॉर्मल बनाने के नाम पर करोड़ों छोटी इकाइयों व उद्यमियों को बरबाद कर दिया। जिस इन्फॉर्मल क्षेत्र या छोटे-छोटे कारोबारियों का योगदान 2016 से पहले तक देश की अर्थव्यवस्था में 80-82 प्रतिशत हुआ करता था, वह अब घटकर मात्र 18-20 प्रतिशत रह गया है। इससे हमारी अर्थव्यवस्था की कमर ऐसी टूटी कि सारा आर्थिक आधार ही चकनाचूर हो गया। असल में मोदी सरकार, भाजपा व संघ के इस भारत-विरोधी चरित्र का स्रोत उस आक्रमणकारी आर्य या ब्राह्मण धारा में है जो हमारे जम्बू द्वीपे भारतखंडे में ईसा-पूर्व 1800 से 2000 के दौरान मध्य-पूर्व से आई।

हाल ही में मैंने मध्य-पूर्व देशों की पुरानी सभ्यता व मिथकों पर केंद्रित एक किताब पढ़कर खत्म की है – From the Ashes of Angels: The forbidden Legacy of a Fallen Race। इसके लेखक है Adrew Collins। महंगी किताब है पेपरबैक में करीब 2000 रुपए और हार्डकवर 20,000 रुपए से ज्यादा। जर्मनी में रहने के दौरान सस्ते में सेकंड-हैंड किताबों की एक दुकान से खरीद ली थी।

इसे पढ़ने पर पता चला कि कानून निर्माता मनु से लेकर कंस, देवकी व कृष्ण, अहिरावण, गरुण, विष्णु और समुद्र मंथन, महाप्रलय व सुमेर पर्वत जैसी घटनाओं, जगहों व चरित्रों से जुड़े ब्राह्मणी या हिंदू मिथक ईरान, इराक, मिस्र, सीरिया, अजरबैजान व इस्राइल जैसे देशों में प्रचलित मिथकों से लिए गए हैं। इनका वास्ता यहूदी, पारसी, ईसाई व बाद के मुस्लिम धर्म के साथ ही तमाम छोटे-छोटे सम्प्रदायों की मान्यताओं से है। इनमें यह भी है कि उनके यहां के सिद्ध व शक्तिशाली लोग ऊंचे-ऊंचे पहाड़ों की कंदराओं में जाकर रहते व साधना करते थे। तब के फारस या ईरान में अयरयाना वैजह (Airyana Vaejah) नाम की एक जगह भी थी, जहां से संभवतः आर्य शब्द निकला होगा।

दूसरी तरफ भारत की मूल संस्कृति में मिथकों का नितांत अभाव रहा है। भारत अनीश्वरवादी समाज था। सिंधु घाटी की खुदाई में कहीं कोई मंदिर वगैरह नहीं मिला है। हड़प्पा की खुदाई में मिला सबसे बड़ा मकान तीन मंजिला है और वह किसी कारीगर का बताया जाता है। हमारे यहां जो भी पुराण लिखे गए. वे सभी ईस्वी की शुरुआत के आसपास या उसके काफी बाद लिखे गए। भारत के ऋषि-मुनि तक हिमालय की कंदराओं या गुफाओ में नहीं, बल्कि अरण्य या जंगलों में जाकर रहते और साधना करते थे। मध्य-पूर्व के मिथकों के अनुसार अहुर बड़े सभ्य व सज्जन लोग थे, जबकि देव बेहद दुष्ट, दुर्जन व व्यभिचारी थे। इनके बीच हुए संघर्षों में बार-बार देवों को पराजित कर बाहर धकेला गया। लगता है वही देव या देवता भागते-भागते ईसा-पूर्व 1800 के आसपास पहले अफगानिस्तान पहुंचे। देव या देवता बने रहे। साथ ही पुरोहिती का काम करनेवालों ने वेदों के कर्मकांडों को एकट्ठा करके ब्राह्मण ग्रंथों की रचना की और बाद में उनका प्रचार-प्रसार करने के कारण खुद ब्राह्मण (यह शब्द मूलतः अब्राहम से निकला है) कहलाने लगे।

देव और ब्राह्मण युद्ध में पराजित भगाए गए लोग थे तो उनके साथ स्त्रियां नहीं थी। कद-काठी में बड़े थे। चमड़ी का रंग मध्य-पूर्व के विदेशियों जैसा गोरा था। मंत्र-तंत्र के सारे फ्रॉड में माहिर थे। उत्तर भारत में पहुंचने पर उन्होंने ऐसी शानपट्टी बघारी होगी कि भोले-भाले भारतीय उन्हें भरपूर भाव देने लगे। यहां तक कि हज़ार सालों में वे हमारे समाज में इतने स्थापित व समाहित हो गए कि बुद्धवाणी तक में देव व ब्रह्माओं का नाम अलग से और काफी सम्मान से लिया गया है। लेकिन इस दौरान ये देव व ब्राह्मण अग्नि, सूर्य पूजा, यज्ञ, पशु हिंसा व व्यभिचार का प्रकोप फैला चुके थे तो भारत के सभ्य व शांत श्रमणों को इनसे बौद्धिक स्तर पर लड़ना पड़ा।

तब तक भारत दो प्रमुख समुदायों – ब्राहमण व श्रमण में बंट चुका था। अरिया सभ्य, सज्जन व बुद्धिमान लोगों को कहा जाता था, जबकि अनरिया असभ्य, दुर्जन व मूर्ख लोगों को कहा जाता था। शायद वही से आज का अनाड़ी शब्द निकला होगा। देव व ब्राह्मण खुद को अरिया या आर्य से भी महान प्रचारित व स्थापित करने में सफल रहे।

आज जिस तरह भाजपा व संघ के लोग बड़ी बेबाकी से झूठ बोल लेते हैं, उसका भी उत्स मध्य-पूर्व के एक सम्प्रदाय में मिलता है। असल में ईरान के उत्तर-पश्चिमी पहाड़ी इलाके में एक कबीला हुआ करता था जिसका नाम था मेडिया। इसमें पुरोहिती का काम करनेवाली जाति या समुदाय को मागी कहा जाता था। मागी लोग झूठ के अनुयायी थे और झूठ बोलना उनका सबसे बड़ा जीवन मूल्य था। क्या सदियों से बहता चला आया वही डीएऩए या संस्कार नहीं है जिसके दम पर मोदी, कोई भी संघी या भाजपाई बड़े से बड़ा झूठ बेहिचक सार्वजनिक मंच से बोल लेता है। भारत का संस्कार तो हमेशा मरते दम तक सत्य बोलने और उसी का पक्ष लेने का है।

Monday 25 May, 2020

क्या होता है मत्यु के समय?


इसे समझने से पहले थोड़े में यह समझ लें कि मृत्यु है क्या? मृत्यु लगातार बहती व बदलती नदी जैसी भवधारा का एक मोड़ है, घुमाव है। लगता है कि मृत्यु हुई तो भवधारा ही खत्म हो गई। लेकिन बुद्ध या अरिहन्त हों तो बात अलग है। अन्यथा सामान्य व्यक्ति की भवधारा मरने के बाद भी बहती रहती है। मृत्यु एक जीवन की लीला समाप्त करती है और अगले ही क्षण दूसरे जीवन की लीला शुरू कर देती है। मृत्यु एक ओर इस जीवन का अन्तिम क्षण तो दूसरी ओर अगले जीवन का प्रथम क्षण, मानो सूर्यास्त होते ही तत्काल सूर्योदय हो गया। बीच में रात्रि के अन्धकार का कोई अन्तराल नहीं आया। या यूं कहें कि मृत्यु के क्षण अनगिनत अध्यायों वाली भवधारा की किताब का एक जीवन / अध्याय खत्म हुआ, लेकिन अगले ही क्षण दूसरा अध्याय शुरू हो गया।
जीवन के प्रवाह और मृत्यु को ठीक-ठीक समझने समझाने के लिए कोई सटीक उपमा ध्यान में नहीं आती। फिर भी कह सकते हैं कि भवधारा पटरी पर चलने वाली उस रेलगाड़ी के समान है जो कि मृत्यु रूपी स्टेशन तक पहुंचती है। वहां क्षण भर के लिए अपनी गति जरा धीमी कर अगले ही क्षण उसी रफ्तार से आगे बढ़ जाती है। स्टेशन पर गाड़ी पूरे एक क्षण भी रुकती नहीं। इसे कहीं रुकने की फुरसत नहीं। साधारण व्यक्ति के लिए मृत्यु का स्टेशन कोई टर्मिनस नहीं है बल्कि एक जंक्शन है जहाँ से भिन्न-भिन्न दिशा में जाने वाली 31 पटरियां फूटती हैं। जीवन की रेलगाड़ी जंक्शन पर पहुंचते ही इनमें से किसी एक पटरी पर मुड़कर आगे बढ़ चलती है। कर्म-संस्कारों के विद्युत बल से चलती रहने वाली इस बेगवती जीवन वाहिनी के लिए मृत्यु का जंक्शन कोई पड़ाव नहीं है। वह बिना रुके गुजरती हुई आगे बढ़ चलती है। हर जीवन एक जंक्शन से दूसरे जंक्शन तक की रेल-यात्रा है। ऐसी यात्रा जो इन जंक्शनों से गुजरती हुई आगे बढ़ती ही रहती है।
यूं भी कह सकते हैं कि जीवन-दीपक की एक लौ बुझती है और अगले ही क्षण दूसरी जल उठती है। एक लौ क्यों बुझी? या तो जीवन-दीपक का तेल खत्म हो गया या बाती खत्म हो गई या दोनों एक साथ खत्म हो गए। अथवा दोनों के रहते हुए हवा का कोई ऐसा तेज झोंका आया जिससे कि लौ बुझ गयी। यानी, आयुष्य पूरा हो गया अथवा भव कर्म पूरे हो गए अथवा दोनों एक साथ पूरे हो गए अथवा ऐसी कोई कार्मिक दुर्घटना घटी कि दोनों के रहते हुए भी जीवन लौ बुझ गई। परन्तु यदि व्यक्ति भव-मुक्त अर्हत नहीं है और उसके भव-कर्म समाप्त नहीं हुए हैं तो बुझते ही नई लौ फिर जल उठती है।  
शरीर की च्युति हुई परन्तु भवधारा का प्रवाह नहीं रुका। अगले क्षण किसी अन्य शरीर को वाहन बनाकर क्षण-क्षण उत्पाद-व्यय स्वभाव वाली चित्त की चेतन भवधारा प्रवाहमान बनी रही। यही हुआ, गाड़ी चलती रही, पर जंक्शन वाले स्टेशन पर आकर बिना रुके पटरी बदल ली। यह पटरी बदलने का काम प्रकति के बंधे-बंधाए नियमों के अनुसार अपने आप हो जाता है। जैसे दिन डूबता है और रात शुरू हो जाती है, रात डूबती है और दिन शुरू हो जाता है, बर्फ गरमाती है, पानी बन जाता है, पानी ठण्डाता है, बर्फ बन जाता है। कुदरत के बंधे-बंधाए नियम हैं। पटरी बदलने का काम प्रकृति करती है या यूं कहें कि प्रकृति के नियमों के अनुसार स्वयं गाडी ही करती है। गाड़ी स्वयं अपने लिए अगली पटरी का निर्माण कर लेती है। वर्तमान जीवन की पटरी इस जीवन की पटरी में से ही निकलेगी। भवधारा की इस रेलगाड़ी के लिए पटरी बदलने वाली मृत्यु रूपी जंक्शन का एक विशिष्ट महत्व है।
यहां गाड़ी की एक पटरी छूटती है जिसे शरीर-च्युति कहते हैं, और तत्क्षण दूसरी पटरी आरम्भ हो जाती है जिसे प्रतिसन्धि कहते हैं। हर प्रतिसन्धि क्षण शरीर के च्युति क्षण का ही परिणाम है। हर शरीर च्युति-क्षण प्रतिसन्धि रूपी अगली पटरी का निर्माण करता है, चुनाव करता है। व्यक्ति स्वयं अपने पूर्वजन्म की सन्तान है और अगले जन्म का जनक है। हर मृत्यु का क्षण अगले जन्म का प्रजनन करता है। इसलिए मृत्यु-मृत्यु ही नहीं, जन्म भी है। इस जंक्शन पर जीवन, मृत्यु में बदल जाता है और मृत्यु, जन्म में बदल जाती है। यहां रेलगाड़ी की यात्रा पूरी नहीं होती। गाड़ी में जब तक कर्म-संस्कारों की स्टीम है या इलेक्ट्रिक करंट है, तब तक वह आगे बढ़ती ही जाएगी और हर जंक्शन पर उसके लिए पटरियां बिछी हुई तैयार मिलेंगी, जिनमें से एक पर सवार होकर वह आगे बढ़ती रहेगी। भवयात्रा पूरी नहीं होती। हर मृत्यु नए जीवन का आरम्भ है। हर जीवन अगली मृत्यु की तैयारी है।
समझदार व्यक्ति हो तो अपने जीवन का अच्छा उपयोग करे। अच्छी मृत्यु की तैयारी करे। सबसे अच्छी मृत्यु तो वह है जो कि अंतिम हो। जंक्शन न हो, बल्कि टर्मिनस हो, अन्तिम स्टेशन हो। भव-यात्रा समाप्ति हो। उसके आगे गाड़ी चलने के लिए पटरियों का बिछावन हो ही नहीं। परन्तु जब तक ऐसा टर्मिनस प्राप्त नहीं होता, तब तक इतना तो हो कि आने वाली मृत्यु आगे के लिए अच्छी पटरियां लेकर आए और कुछ एक जंक्शनों के बाद गाड़ी टर्मिनस पर पहुच जाए। यह सब स्वयं हम पर निर्भर करता है। हम स्वयं अपने मालिक हैं, कोई दूसरा नहीं। हम स्वयं अपनी गति बनाने वाले हैं - दुर्गति, सुगति अथवा गति-निरोध टर्मिनस। कोई दूसरा हमारे लिए कुछ नहीं बनाता। अतः हम अपने प्रति अपनी जिम्मेदारी को समझें और उसे समझदारी के साथ पूरा करें।
भवधारा को आगे गति देने वाली पटरियां कैसे हम स्वयं ही अपने कर्मों द्वारा बनाते रहते हैं, इसे समझें। कर्म क्या है? चित्त की चेतना ही कर्म है। मन, वाणी और शरीर से कोई कर्म करने के पूर्व चित्त में जो चेतना जागती है, वही कर्म बीज है, वही कर्म-संस्कार है। ये कर्म-संस्कार अनेक अनेक प्रकार के होते हैं। चेतना कितनी तीव्र, कितनी मन्दी, कितनी गहरी, कितनी छिछली, कितनी हल्की? उसी अनुपात से सघन कर्म-संस्कार बने, पानी या बालू या पत्थर की लकीर वाले। चेतना पुण्यमयी है याने चित्त को पुनीत बनाने वाली है तो कर्म-संस्कार कुशल है, अच्छा है, शुभ फलदायी है। चेतना पापमयी है यानि चित्त को दूषित करने वाली है तो कर्म-संस्कार अकुशल है, अशुभ फलदायी है।
सभी कर्म-संस्कार नया जन्म देने वाले भव-संस्कार नहीं होते। कुछ तो इतने हल्के होते हैं कि जिनका कोई महत्वपूर्ण फल ही नहीं आता। कुछ उससे जरा भारी, जिनका फल तो आता है पर इसी जीवन में आकर पूरा हो जाता है, अगले जीवन तक भवंग के साथ नहीं चलता। कुछ और अधिक भारी जो नया जन्म देने की शक्ति तो नहीं रखते, पर भवधारा के भवंग में साथ-साथ चलते हैं और अगले जन्म अथवा जन्मों में अन्य किन्हीं कारणों से जो सुख-दुख आते हैं उनका संवर्धन, विवर्धन करने में सहायक होते हैं।
लेकिन अनेक कर्म ऐसे हैं जो कि भवकर्म हैं; नया जन्म, नया भव निर्माण करने में समर्थ। हर भव-कर्म में एक चुम्बकीय शक्ति होती है जिसकी तरंगें किसी एक भव लोक की तरंगों से मेल खाती हैं। जिस भव-कर्म की तरंगों का जिस भव लोक की तरंगों से पूर्ण सामंजस्य होता है, विश्वव्यापी विद्युत चुम्बकीय शक्तियों के अटूट नियमों के आधार पर वे दोनों एक-दूसरे की ओर खिंचते रहते हैं। हम जैसे ही कुछ भव-कर्म करते हैं, हमारी भवधारा की रेलगाड़ी उन विद्यत तरंगों द्वारा 31 पटरियों की तत्सम्बन्धित पटरी से संयुक्त हो जाती है। काम भव लोक की 11 भूमियां - चार दुर्गति की और 7 मनुष्य व देव योनियों वाली सुगति की, रूप ब्रह्म भव लोक की 16 भूमियां, अरूप ब्रह्म लोक की 4 भूमियां। तीन भव लोको की यह 31 भूमियां। इन्हें ही हम 31 पटरियाँ कहते हैं।
इस जीवन के अन्तिम क्षण के समय चित्त धारा के भवंग में समाए हुए जिस भव-कर्म की उदीर्णा होगी, यानी जो भव-संस्कार प्रकट होगा, चित्त धारा उसकी विद्युत चुम्बकीय तरंगों से तरंगित हो उठेगी और वैसी ही तरंगों से तरंगित पटरियों वाले प्रभाव केन्द्र के गुरुत्वाकर्षण से खिंचती हुई उनसे जा जुड़ेगी। मृत्यु के क्षण जीवन की रेलगाड़ी के सामने 31 पटरियों का विशाल क्षेत्र उपस्थित है। परन्तु उस क्षण हमारी गाड़ी जिन विद्युत तरंगों से संचालित हो रही है उन्हीं तरंगों के अनुकूल तरंगों वाली पटरी से आकर्षित होकर उसी से प्रतिसन्धि होगी, अन्य से नहीं। भवधारा रूपी रेलगाड़ी की उसी पटरी से शंटिंग हो जाएगी और वह उसी पटरी पर आगे चल पडेगी। गाड़ी की शंटिंग का यह क्षण बड़ा महत्त्वपूर्ण है। इस समय जो तरंगें रेलगाड़ी को तरंगित करती है, वही तरंगें अगली पटरी का चुनाव करती हैं। दोनों एक दूसरे से स्वतः खिंचती हैं, आकर्षित होती हैं। ऐसा कुदरत का नियम है। ये कारण उपस्थित हों तो ऐसा कार्य स्वतः सम्पन्न हो ही जाएगा ।
मसलन क्रोध या द्वेष की चेतना वाला भव-कर्म-संस्कार उत्तापन और पीड़ा के स्वभाव का होने के कारण अधोगति वाली किसी भूमि से ही जुड़ेगा। इसी प्रकार मंगल मैत्री की चेतना वाला भव-कर्म संस्कार शान्ति और शीतलता की तरंगों के स्वभाव वाला होने के कारण ब्रह्म लोक की किसी भूमि से ही जुड़ेगा। यह कुदरत का स्वतः संचालित बंधा बंधाया नियम है। विशाल प्रकृति के निर्धारित नियम का सारा पैटर्न इस कदर आश्चर्यजनक ढंग से सुपर कम्प्यूटराइज्ड है कि इसमें कहीं कोई भूल नहीं होती।
मरणासन्न अवस्था में सामान्यतया कोई अत्यन्त गुरु कर्म ही उभर कर आता है। अच्छा या बुरा। जैसे इसी जीवन में माता-पिता या सन्त-अर्हत की हत्या की हो, उस घटना की याद चित्त पर उभरेगी अथवा बहुत गहरी ध्यान साधना की हो तो उसकी याद चित्त पर उभरेगी; परन्तु जब कोई इतना गहरा भव कर्म न हो तो उससे जरा कम सघन भव-कर्म प्रकट होगा। मरणासन्न अवस्था में जिस भव-कर्म की याद उभरती है। बहुधा उसके चिन्ह दिखते हैं अथवा अन्य पांचों इन्द्रियों में से किसी पर उभरते हैं। उन्हें कर्म और कर्म-निमित्त याने कर्म-चिन्ह कहते है। उस समय जिस अगले भव लोक से प्रतिसन्धि होने वाली है मानो उन पर प्रकाश पड़ता है और मरणासन्न व्यक्ति को बहुधा वह गति निमित्त यानी गति का चिन्ह भी दिखता है या किसी अन्य इन्द्रिय पर भी उभरता है।
कर्म निमित्त और गति निमित्त की विद्युत चुम्बकीय तरंगें एक जैसी होती हैं। या यूं कहें, मरणासन्न चित्त पर उभरे कर्म की ओर अगली भव-भूमि की तरंगें एक जैसी होती हैं। इस भव की गाड़ी उस समय प्रकट हुए अगले भव की पटरी से जा जुड़ती हैं। अच्छा विपश्यी साधक हो तो मरणासन्न अवस्था में प्रतिकूल भूमि वाली पटरी से बचने की क्षमता प्राप्त कर लेता है। 
अच्छा विपश्यी साधक प्रकृति के इन अटूट नियमों को समझता हुआ हर अवस्था में मृत्यु के लिए तैयार रहने की साधना करता है। प्रौढ़ अवस्था को पहुँच गया हो तो और अधिक सजग रहने की तैयारियाँ शुरू कर देता है। क्या तैयारी करता है? विपश्यना द्वारा अपने शरीर और चित्त पर प्रकट होने वाली हर प्रकार की संवेदना को तटस्थ भाव से देखने का अभ्यास करता है तो अपने मानस के उस स्वभाव को तोड़ता है जो कि अप्रिय संवेदनाओं के उत्पन्न होने पर नए-नए अकुशल संस्कार बनाने का आदी हो गया था। बहुधा मृत्यु के समीप की अवस्था में स्वभाव-जन्य संस्कार ही बनाते हैं। और जैसा नया संस्कार बन रहा है, उसी से मेल खाता हुआ कोई पुराना भव-संस्कार उभरने का मौका पाता है। मृत्यु समीप आने लगती है तो अप्रिय संवेदनाओं में से ही गुजरने की अधिक सम्भावना रहती है। जरा, व्याधि और मरण दुःखदायी हैं यानी दु:ख संवेदना वाले हैं। यदि कोई असाधक हो अथवा कच्चा साधक हो तो इनसे व्याकुल होकर क्रोध, द्वेष या चिड़चिड़ाहट की प्रतिक्रिया करता है और उसी प्रकार के किसी पुराने अकुशल भव-संस्कारों को जागने का अवसर देता है।
लेकिन गहरा साधक इन असह्य पीड़ाजनक संवेदनाओं को भी तटस्थ भाव से देखने का काम करता है तो मरणासन्न अवस्था में ऐसे अधोगति की ओर ले जाने वाले भव-संस्कार भवंग में दबे हों तो भी उन्हें उभरने का मौका नहीं मिलता। इसी प्रकार सामान्य व्यक्ति भविष्य के प्रति सदा आशंकित, आतंकित रहने के स्वभाव वाला होता है तो मृत्यु की सम्भावना से भयभीत हो उठता है और भय संम्बन्धित किसी भव-संस्कार की उर्दीणा का अवसर पैदा करता है अथवा स्वजनों की संगति से बिछुड़ने की कल्पना मात्र से दु:खित हो उठता है तो मृत्यु के समय बिछोह का दुःख जागता है जो कि उस जैसे अकुशल भव-संस्कार जगाने में सहायक होता है। विपश्यी साधक दुःख और भय की संवेदनाओं को साक्षी भाव से देखता हुआ इन संस्कारों को दुर्बल बनाता है, मृत्यु के भय को उभरने नहीं देता। 
मृत्यु की सही तैयारी यह है कि बार-बार अपने चित्त और शरीर पर जगी हुई संवेदनाओं को अनित्य बोध के आधार पर समता से देखने के आदी बनें तो मरणासन्न अवस्था में चित्तधारा पर यही समता का स्वभाव स्वतः प्रकट होगा और गाड़ी ऐसी पटरी से ही जुड़ेगी जिस पर सवार होकर साधक अगली भव-भूमि में भी विपश्यना करता रह सके। इस प्रकार अधोगति से बचता हुआ सद्गति प्राप्त कर लेगा, क्योंकि अधोगति की भूमियों में विपश्यना नहीं की जा सकती। ऐसी मंगल मृत्यु प्राप्त करने में मरणासन्न साधक के निकटस्थ परिवार वाले भी सहायक बनते हैं। उस समय साधना का धर्ममय वातावरण बनाए रखते हैं। न कोई रोता है, न विलाप करता है, न ही बिछुड़ने के सन्ताप की तरंगें पैदा करता है। विपश्यना और मंगल मैत्री की तरंगें वातावरण को मंगलमरण के अनुकूल बनाती हैं। 
कभी विपश्यना न करने वाला व्यक्ति भी मृत्यु के समय दान, शील आदि कुशल भव-संस्कारों की उदीर्णा होने पर सद्गति तो प्राप्त कर लेता है; परन्तु विपश्यी की विशेषता यह है कि वह उस भूमि में प्रतिसन्धि प्राप्त कर विपश्यना के अभ्यास को कायम रख सकने में सफल होता है और इस प्रकार चित्तधारा के भवंग में संग्रहित अनेक भव-संस्कारों की राशि को शनैः शनैः क्षय करता हुआ अपनी भव-यात्रा को ओछी कर लेता है और देर-सबेर टर्मिनस पर जा पहुंचता हैं।
(भारत में विपश्यना विद्या को वापस लानेवाले आचार्य सत्यनारायण गोयनका के लेख का संपादित अंश)

Tuesday 26 January, 2016

राजनीति के दल्ले कहीं के!



संसदीय राजनीति हो या मकान की खरीद, शेयर बाज़ार या किसी चीज़ की मंडी, दलाल, ब्रोकर या बिचौलिए लोगों की भावनाओं को भड़काकर अपना उल्लू सीधा करते हैं। राजनीति में सेवा-भाव ही प्रधान होना चाहिए था। लेकिन यहां भी भावनाओं के ताप पर पार्टी या व्यक्तिगत स्वार्थ की रोटियां सेंकी जाती हैं। इसीलिए इसमें वैसे ही लोग सफल भी होते हैं। जैसे, भाजपा के अध्यक्ष अमित शाह पेशे व योग्यता से शेयर ब्रोकर हैं। पूर्णकालिक राजनीति में उतरने से पहले वे पीवीसी पाइप का धंधा करते थे। मनसा (गुजरात) में उनका करोड़ों का पैतृक निवास और घनघोर संपत्ति है। मां-बाप बहुत सारी ब्लूचिप कंपनियों के शेयर उनके लिए छोड़कर गए हैं।
भावनाओं से खेलने में अमित शाह उस्ताद हैं। अयोध्या में राम मंदिर की शिलाएं भेजने में वे सबसे आगे रहे हैं। 2002 में गोधरा से कारसेवकों के शव वे ही अहमदाबाद लेकर आए थे। सोमनाथ मंदिर के वे ट्रस्टी हैं। बताते हैं कि उनके बहुत सारे मुस्लिम मित्र हैं। अहमदाबाद के सबसे खास-म-खास मुल्ला तो उनके अभिन्न पारिवारिक मित्र हैं। उनके साथ वे शाकाहारी भोजन करते रहते हैं, लेकिन इस बाबत वे सार्वजनिक तौर पर बात नहीं करते।
कांग्रेस तो ऊपर से नीचे तक दलालों की ही पार्टी हैं। भाजपा, कांग्रेस, सपा व बसपा जैसी तमाम पार्टियों के नेतागण समझते हैं कि भारतीय अवाम को भावनाओं और चंद टुकड़ों के दम पर नचाया जा सकता है। चर्चा है कि जब प्रधानमंत्री मोदी से कुछ लोगों ने कहा कि आपकी छवि इधर खराब होती जा रही है तो उनका कहना था कि आखिरी दो साल (2017 से 2019) में सब संभाल लेंगे और उनकी यह रणनीति गुजरात में सफल होती रही है। लेकिन इन तमाम नेताओं को जनता की तरफ से रोहित बेमुला की मां राधिका ने बहुत सही जवाब दिया है।
सरकार की तरफ से दिए जा रहे 8 लाख रुपए को ठुकराते हुए इस 49 साल की स्वाभिमानी महिला ने कहा, हमें तुम्हारे पैसे नहीं चाहिए। आठ लाख क्या, तुम आठ करोड़ रुपए भी दोंगे तो हमें नहीं चाहिए। मुझे बस इतना बता दो कि मेरा बेटा क्यों मरा?”
राधिका वेमुला का यह भी कहना था, जब निर्भया नाम की लड़की से नृशंस बलात्कार व हत्या हुई, तब क्या किसी ने उसकी जाति पूछी थी? फिर रोहित की जाति पर क्यों सवाल उठाए जा रहे हैं?” मालूम हो कि रोहित की जाति पर पहला सवाल मोदी सरकार की चहेती मंत्री व अभिनेत्री स्मृति ईरानी ने बाकायदा प्रेस कॉन्फरेंस करके उठाया था। मोदी ने रोहित को मां भारती का लाल कह कर जनभावना का दोहन करने की कोशिश की है। लेकिन हमें भी राधिका बेमुला की तरह आगे बढ़कर जवाब देना चाहिए – भावनाओं की दुकान कहीं और जाकर खेलो, अब हम तुम्हारे झांसे में आनेवाले नहीं हैं।

Saturday 31 January, 2015

शर्म उनको मगर क्यों नहीं आती?



घरवाले और रिश्तेदार सभी बोलते हैं कि मोदी या भाजपा कुछ भी बोले या करें, उसका विरोध तुम क्यों करते हो! करना है तो कांग्रेस करे या आम आदमी पार्टी करे। तुम्हें इस विरोध से क्या मिल जाएगा? मैं कहता नहीं, पर मानता हूं कि यह देश उतना ही मेरा है जितना किसी नेता या ब्यूरोक्रेट का। इसलिए जहां भी देश के साथ धोखा-फरेब किया जा रहा हो, झूठ बोला जा रहा हो, वहां सच को सामने लाना मेरा भी दायित्व बनता है। 

मोदी जी ने साल भर पहले पहचान की राजनीति को खत्म करके विकास की राजनीति का दम भरा था। यही वजह है कि भारतीय अवाम के मुखर तबके ने उन्हें वोट देकर दिल्ली की कुर्सी तक पहुंचाया। लेकिन आज उन्हीं मोदी जी ने जब दिल्ली को देश की पहचान से जोड़कर जनता का आशीर्वाद मांगा तो मन में सहज सवाल उठा कि विकास की राजनीति इतनी जल्दी कहां और क्यों गायब हो गई? क्या दिल्ली में उसको सत्ता नहीं मिलनी चाहिए जो दिल्ली की समस्याओं को अच्छी तरह समझता है और जिनके समाधान का पूरा ब्लूप्रिंट जिसके पास है!
दूसरों के नारे को चुराने में माहिर मोदी जी ने यह भी कहा कि भ्रष्टाचार के खिलाफ वे बिना हल्ला मचाए शांत भाव से काम कर रहे हैं। इस सिलसिले में उन्होंने 9 करोड़ एलपीजी उपभोक्ताओं के बैंक खाते में कैश सब्सिडी डालने का जिक्र किया। पहली बात यह कि डायरेक्ट कैश ट्रांसफर स्कीम उस कांग्रेस सरकार द्वारा शुरू की हुई है जिसके ज़माने में मोदी जी ने 12 लाख करोड़ रुपए के घोटाले होने की बात की।

दूसरी बात यह कि अभी तय भाव पर उपभोक्ता को गैस सिलिंडर मिल जाता था। अब बाज़ार भाव पर मिलेगा और बाज़ार भाव हमेशा ऊपर-नीचे होता रहता है। ऐसे में किस मूल्य को आधार बनाकर सरकार उपभोक्ता के बैंक खाते में सब्सिडी डालेगी? इस स्कीम से तो गैस के ब्लैक होने का नया ज़रिया खुल जाएगा और दुकानदार को उपभोक्ता से अनाप-शनाप दाम वसूलने का मौका मिल जाएगा।
कितने शर्म की बात है कि हमारी राष्ट्रीय राजधानी के 33.41 लाख घरों में से केवल 20 लाख घरों तक पानी पाइपलाइन से पहुंचता है। बाकी 13.41 लाख घरों के 50 लाख से ज्यादा लोग हैंड पम्प, बोरिंग, टैंकर, प्रदूषित यमुना, नहरों या तालाबों से पानी पीने को मजबूर हैं। मोदी जी को दिल्ली में जमे हुए आढ़े आठ महीने हो चुके हैं। अगर उनमें अवाम के प्रति ज़रा-सा भी संवेदनशीलता होती तो इस दौरान दिल्ली में कम के कम पानी की समस्या को वे हल कर चुके होते। मोदी जी! क्या इससे देश और सरकार की छवि खराब नहीं होती कि वह अपनी राजधानी में ही 40.13% घरों तक पानी नहीं पहुंचा सकी है?