क्या होता है मत्यु के समय?
इसे समझने से पहले थोड़े में यह समझ लें कि मृत्यु है क्या? मृत्यु लगातार बहती व बदलती नदी जैसी भवधारा का एक मोड़ है, घुमाव है। लगता है कि मृत्यु हुई तो भवधारा ही खत्म हो गई। लेकिन बुद्ध या
अरिहन्त हों तो बात अलग है। अन्यथा सामान्य व्यक्ति की भवधारा मरने के बाद भी बहती
रहती है। मृत्यु एक जीवन की लीला समाप्त करती है और अगले ही क्षण दूसरे जीवन की
लीला शुरू कर देती है। मृत्यु एक ओर इस जीवन का अन्तिम क्षण तो दूसरी ओर अगले जीवन
का प्रथम क्षण, मानो सूर्यास्त होते ही तत्काल सूर्योदय हो
गया। बीच में रात्रि के अन्धकार का कोई अन्तराल नहीं आया। या यूं कहें कि मृत्यु
के क्षण अनगिनत अध्यायों वाली भवधारा की किताब का एक जीवन / अध्याय
खत्म हुआ, लेकिन अगले ही क्षण दूसरा अध्याय शुरू हो गया।
जीवन के प्रवाह और मृत्यु को ठीक-ठीक समझने समझाने के लिए कोई सटीक उपमा
ध्यान में नहीं आती। फिर भी कह सकते हैं कि भवधारा पटरी पर चलने वाली उस रेलगाड़ी
के समान है जो कि मृत्यु रूपी स्टेशन तक पहुंचती है। वहां क्षण भर के लिए अपनी गति
जरा धीमी कर अगले ही क्षण उसी रफ्तार से आगे बढ़ जाती है। स्टेशन पर गाड़ी पूरे एक
क्षण भी रुकती नहीं। इसे कहीं रुकने की फुरसत नहीं। साधारण व्यक्ति के लिए मृत्यु
का स्टेशन कोई टर्मिनस नहीं है बल्कि एक जंक्शन है जहाँ से भिन्न-भिन्न दिशा में
जाने वाली 31 पटरियां फूटती हैं। जीवन की रेलगाड़ी जंक्शन पर
पहुंचते ही इनमें से किसी एक पटरी पर मुड़कर आगे बढ़ चलती है। कर्म-संस्कारों के
विद्युत बल से चलती रहने वाली इस बेगवती जीवन वाहिनी के लिए मृत्यु का जंक्शन कोई
पड़ाव नहीं है। वह बिना रुके गुजरती हुई आगे बढ़ चलती है। हर जीवन एक जंक्शन से दूसरे
जंक्शन तक की रेल-यात्रा है। ऐसी यात्रा जो इन जंक्शनों से गुजरती हुई आगे बढ़ती
ही रहती है।
यूं भी कह सकते हैं कि जीवन-दीपक की एक लौ बुझती है और अगले ही क्षण
दूसरी जल उठती है। एक लौ क्यों बुझी? या तो जीवन-दीपक का
तेल खत्म हो गया या बाती खत्म हो गई या दोनों एक साथ खत्म हो गए। अथवा दोनों के
रहते हुए हवा का कोई ऐसा तेज झोंका आया जिससे कि लौ बुझ गयी। यानी, आयुष्य पूरा हो
गया अथवा भव कर्म पूरे हो गए अथवा दोनों एक साथ पूरे हो गए अथवा ऐसी कोई कार्मिक
दुर्घटना घटी कि दोनों के रहते हुए भी जीवन लौ बुझ गई। परन्तु यदि व्यक्ति भव-मुक्त
अर्हत नहीं है और उसके भव-कर्म समाप्त नहीं हुए हैं तो बुझते ही नई लौ फिर जल उठती
है।
शरीर की च्युति हुई परन्तु भवधारा का प्रवाह नहीं रुका। अगले क्षण
किसी अन्य शरीर को वाहन बनाकर क्षण-क्षण उत्पाद-व्यय स्वभाव वाली चित्त की चेतन
भवधारा प्रवाहमान बनी रही। यही हुआ, गाड़ी चलती रही, पर
जंक्शन वाले स्टेशन पर आकर बिना रुके पटरी बदल ली। यह
पटरी बदलने का काम प्रकति के बंधे-बंधाए नियमों के अनुसार अपने आप हो जाता है।
जैसे दिन डूबता है और रात शुरू हो जाती है, रात डूबती है और
दिन शुरू हो जाता है, बर्फ गरमाती है, पानी
बन जाता है, पानी ठण्डाता है, बर्फ बन
जाता है। कुदरत के बंधे-बंधाए नियम हैं। पटरी बदलने का काम प्रकृति करती है या यूं
कहें कि प्रकृति के नियमों के अनुसार स्वयं गाडी ही करती है। गाड़ी स्वयं अपने लिए
अगली पटरी का निर्माण कर लेती है। वर्तमान जीवन की पटरी इस जीवन की पटरी में से ही
निकलेगी। भवधारा की इस रेलगाड़ी के लिए पटरी बदलने वाली मृत्यु रूपी जंक्शन का एक
विशिष्ट महत्व है।
यहां गाड़ी की एक पटरी छूटती है जिसे शरीर-च्युति कहते हैं, और
तत्क्षण दूसरी पटरी आरम्भ हो जाती है जिसे प्रतिसन्धि कहते हैं। हर प्रतिसन्धि
क्षण शरीर के च्युति क्षण का ही परिणाम है। हर शरीर च्युति-क्षण प्रतिसन्धि रूपी
अगली पटरी का निर्माण करता है, चुनाव करता है। व्यक्ति स्वयं
अपने पूर्वजन्म की सन्तान है और अगले जन्म का जनक है। हर मृत्यु का क्षण अगले जन्म
का प्रजनन करता है। इसलिए मृत्यु-मृत्यु ही नहीं, जन्म भी
है। इस जंक्शन पर जीवन, मृत्यु में बदल जाता है और मृत्यु,
जन्म में बदल जाती है। यहां रेलगाड़ी की यात्रा पूरी नहीं होती।
गाड़ी में जब तक कर्म-संस्कारों की स्टीम है या इलेक्ट्रिक करंट है, तब तक वह आगे
बढ़ती ही जाएगी और हर जंक्शन पर उसके लिए पटरियां बिछी हुई तैयार मिलेंगी, जिनमें से एक पर सवार होकर वह आगे बढ़ती रहेगी। भवयात्रा पूरी नहीं होती।
हर मृत्यु नए जीवन का आरम्भ है। हर जीवन अगली मृत्यु की तैयारी है।
समझदार व्यक्ति हो तो अपने जीवन का अच्छा उपयोग करे। अच्छी मृत्यु की
तैयारी करे। सबसे अच्छी मृत्यु तो वह है जो कि अंतिम हो। जंक्शन न हो, बल्कि टर्मिनस हो, अन्तिम स्टेशन हो। भव-यात्रा
समाप्ति हो। उसके आगे गाड़ी चलने के लिए पटरियों का बिछावन हो ही नहीं। परन्तु जब
तक ऐसा टर्मिनस प्राप्त नहीं होता, तब तक इतना तो हो कि आने वाली मृत्यु आगे के
लिए अच्छी पटरियां लेकर आए और कुछ एक जंक्शनों के बाद गाड़ी टर्मिनस पर पहुच जाए।
यह सब स्वयं हम पर निर्भर करता है। हम स्वयं अपने मालिक हैं, कोई दूसरा नहीं। हम स्वयं अपनी गति बनाने वाले हैं - दुर्गति, सुगति अथवा गति-निरोध टर्मिनस। कोई दूसरा हमारे लिए कुछ नहीं बनाता। अतः
हम अपने प्रति अपनी जिम्मेदारी को समझें और उसे समझदारी के साथ पूरा करें।
भवधारा को आगे गति देने वाली पटरियां कैसे हम स्वयं ही अपने कर्मों
द्वारा बनाते रहते हैं, इसे समझें। कर्म क्या है? चित्त
की चेतना ही कर्म है। मन, वाणी और शरीर से कोई कर्म करने के
पूर्व चित्त में जो चेतना जागती है, वही कर्म बीज है, वही
कर्म-संस्कार है। ये कर्म-संस्कार अनेक अनेक प्रकार के होते हैं। चेतना कितनी
तीव्र, कितनी मन्दी, कितनी गहरी, कितनी छिछली, कितनी हल्की?
उसी अनुपात से सघन कर्म-संस्कार बने, पानी या
बालू या पत्थर की लकीर वाले। चेतना पुण्यमयी है याने चित्त को पुनीत बनाने वाली है
तो कर्म-संस्कार कुशल है, अच्छा है, शुभ
फलदायी है। चेतना पापमयी है यानि चित्त को दूषित करने वाली है तो कर्म-संस्कार
अकुशल है, अशुभ फलदायी है।
सभी कर्म-संस्कार नया जन्म देने वाले भव-संस्कार नहीं होते। कुछ तो
इतने हल्के होते हैं कि जिनका कोई महत्वपूर्ण फल ही नहीं आता। कुछ उससे जरा भारी,
जिनका फल तो आता है पर इसी जीवन में आकर पूरा हो जाता है, अगले जीवन तक भवंग के साथ नहीं चलता। कुछ और अधिक भारी जो नया जन्म देने
की शक्ति तो नहीं रखते, पर भवधारा के भवंग में साथ-साथ चलते हैं और अगले जन्म अथवा
जन्मों में अन्य किन्हीं कारणों से जो सुख-दुख आते हैं उनका ‘संवर्धन, विवर्धन करने में सहायक होते हैं।
लेकिन अनेक कर्म ऐसे हैं जो कि भवकर्म हैं; नया जन्म, नया भव निर्माण करने में समर्थ। हर
भव-कर्म में एक चुम्बकीय शक्ति होती है जिसकी तरंगें किसी एक भव लोक की तरंगों से
मेल खाती हैं। जिस भव-कर्म की तरंगों का जिस भव लोक की तरंगों से पूर्ण सामंजस्य
होता है, विश्वव्यापी विद्युत चुम्बकीय शक्तियों के अटूट नियमों
के आधार पर वे दोनों एक-दूसरे की ओर खिंचते रहते हैं। हम जैसे ही कुछ भव-कर्म करते
हैं, हमारी भवधारा की रेलगाड़ी उन विद्यत तरंगों द्वारा 31
पटरियों की तत्सम्बन्धित पटरी से संयुक्त हो जाती है। काम भव लोक की
11 भूमियां - चार दुर्गति की और 7 मनुष्य
व देव योनियों वाली सुगति की, रूप ब्रह्म भव लोक की 16
भूमियां, अरूप ब्रह्म लोक की 4 भूमियां। तीन भव लोको की यह 31 भूमियां। इन्हें ही हम 31 पटरियाँ कहते हैं।
इस जीवन के अन्तिम क्षण के समय चित्त धारा के भवंग में समाए हुए जिस
भव-कर्म की उदीर्णा होगी, यानी जो भव-संस्कार प्रकट होगा, चित्त धारा उसकी विद्युत चुम्बकीय तरंगों से तरंगित हो उठेगी और वैसी ही
तरंगों से तरंगित पटरियों वाले प्रभाव केन्द्र के गुरुत्वाकर्षण से खिंचती हुई
उनसे जा जुड़ेगी। मृत्यु के क्षण जीवन की रेलगाड़ी के सामने 31 पटरियों का विशाल क्षेत्र उपस्थित है। परन्तु उस क्षण हमारी गाड़ी जिन
विद्युत तरंगों से संचालित हो रही है उन्हीं तरंगों के अनुकूल तरंगों वाली पटरी से
आकर्षित होकर उसी से प्रतिसन्धि होगी, अन्य से नहीं। भवधारा रूपी रेलगाड़ी की उसी
पटरी से शंटिंग हो जाएगी और वह उसी पटरी पर आगे चल पडेगी। गाड़ी की शंटिंग का यह
क्षण बड़ा महत्त्वपूर्ण है। इस समय जो तरंगें रेलगाड़ी को तरंगित करती है, वही तरंगें
अगली पटरी का चुनाव करती हैं। दोनों एक दूसरे से स्वतः खिंचती हैं, आकर्षित होती हैं। ऐसा कुदरत का नियम है। ये कारण उपस्थित हों तो ऐसा
कार्य स्वतः सम्पन्न हो ही जाएगा ।
मसलन क्रोध या द्वेष की चेतना वाला भव-कर्म-संस्कार उत्तापन और पीड़ा
के स्वभाव का होने के कारण अधोगति वाली किसी भूमि से ही जुड़ेगा। इसी प्रकार मंगल
मैत्री की चेतना वाला भव-कर्म संस्कार शान्ति और शीतलता की तरंगों के स्वभाव वाला
होने के कारण ब्रह्म लोक की किसी भूमि से ही जुड़ेगा। यह कुदरत का स्वतः संचालित बंधा
बंधाया नियम है। विशाल प्रकृति के निर्धारित नियम का सारा पैटर्न इस कदर
आश्चर्यजनक ढंग से सुपर कम्प्यूटराइज्ड है कि इसमें कहीं कोई भूल नहीं होती।
मरणासन्न अवस्था में सामान्यतया कोई अत्यन्त गुरु कर्म ही उभर कर आता
है। अच्छा या बुरा। जैसे इसी जीवन में माता-पिता या सन्त-अर्हत की हत्या की हो, उस घटना की याद चित्त पर उभरेगी अथवा बहुत गहरी ध्यान साधना की हो तो उसकी
याद चित्त पर उभरेगी; परन्तु जब कोई इतना गहरा भव कर्म न हो
तो उससे जरा कम सघन भव-कर्म प्रकट होगा। मरणासन्न अवस्था में जिस भव-कर्म की याद
उभरती है। बहुधा उसके चिन्ह दिखते हैं अथवा अन्य पांचों इन्द्रियों में से किसी पर
उभरते हैं। उन्हें कर्म और कर्म-निमित्त याने कर्म-चिन्ह कहते है। उस समय जिस अगले
भव लोक से प्रतिसन्धि होने वाली है मानो उन पर प्रकाश पड़ता है और मरणासन्न व्यक्ति
को बहुधा वह गति निमित्त यानी गति का चिन्ह भी दिखता है या किसी अन्य इन्द्रिय पर
भी उभरता है।
कर्म निमित्त और गति निमित्त की विद्युत चुम्बकीय तरंगें एक जैसी होती
हैं। या यूं कहें, मरणासन्न चित्त पर उभरे कर्म की ओर अगली भव-भूमि की
तरंगें एक जैसी होती हैं। इस भव की गाड़ी उस समय प्रकट हुए अगले भव की पटरी से जा
जुड़ती हैं। अच्छा विपश्यी साधक हो तो मरणासन्न अवस्था में प्रतिकूल भूमि वाली
पटरी से बचने की क्षमता प्राप्त कर लेता है।
अच्छा विपश्यी साधक प्रकृति के इन अटूट नियमों को समझता हुआ हर अवस्था
में मृत्यु के लिए तैयार रहने की साधना करता है। प्रौढ़ अवस्था को पहुँच गया हो तो
और अधिक सजग रहने की तैयारियाँ शुरू कर देता है। क्या तैयारी करता है? विपश्यना द्वारा अपने शरीर और चित्त पर प्रकट होने वाली हर प्रकार की
संवेदना को तटस्थ भाव से देखने का अभ्यास करता है तो अपने मानस के उस स्वभाव को
तोड़ता है जो कि अप्रिय संवेदनाओं के उत्पन्न होने पर नए-नए अकुशल संस्कार बनाने
का आदी हो गया था। बहुधा मृत्यु के समीप की अवस्था में स्वभाव-जन्य संस्कार ही
बनाते हैं। और जैसा नया संस्कार बन रहा है, उसी से मेल खाता हुआ कोई पुराना भव-संस्कार
उभरने का मौका पाता है। मृत्यु समीप आने लगती है तो अप्रिय संवेदनाओं में से ही गुजरने
की अधिक सम्भावना रहती है। जरा, व्याधि और मरण दुःखदायी हैं
यानी दु:ख संवेदना वाले हैं। यदि कोई असाधक हो अथवा कच्चा साधक हो तो इनसे व्याकुल
होकर क्रोध, द्वेष या चिड़चिड़ाहट की प्रतिक्रिया करता है और
उसी प्रकार के किसी पुराने अकुशल भव-संस्कारों को जागने का अवसर देता है।
लेकिन गहरा साधक इन असह्य पीड़ाजनक संवेदनाओं को भी तटस्थ भाव से
देखने का काम करता है तो मरणासन्न अवस्था में ऐसे अधोगति की ओर ले जाने वाले
भव-संस्कार भवंग में दबे हों तो भी उन्हें उभरने का मौका नहीं मिलता। इसी प्रकार
सामान्य व्यक्ति भविष्य के प्रति सदा आशंकित, आतंकित रहने के
स्वभाव वाला होता है तो मृत्यु की सम्भावना से भयभीत हो उठता है और भय संम्बन्धित
किसी भव-संस्कार की उर्दीणा का अवसर पैदा करता है अथवा स्वजनों की संगति से
बिछुड़ने की कल्पना मात्र से दु:खित हो उठता है तो मृत्यु के समय बिछोह का दुःख
जागता है जो कि उस जैसे अकुशल भव-संस्कार जगाने में सहायक होता है। विपश्यी साधक
दुःख और भय की संवेदनाओं को साक्षी भाव से देखता हुआ इन संस्कारों को दुर्बल बनाता
है, मृत्यु के भय को उभरने नहीं देता।
मृत्यु की सही तैयारी यह है कि बार-बार अपने चित्त और शरीर पर जगी हुई
संवेदनाओं को अनित्य बोध के आधार पर समता से देखने के आदी बनें तो मरणासन्न अवस्था
में चित्तधारा पर यही समता का स्वभाव स्वतः प्रकट होगा और गाड़ी ऐसी पटरी से ही
जुड़ेगी जिस पर सवार होकर साधक अगली भव-भूमि में भी विपश्यना करता रह सके। इस
प्रकार अधोगति से बचता हुआ सद्गति प्राप्त कर लेगा, क्योंकि अधोगति की
भूमियों में विपश्यना नहीं की जा सकती। ऐसी मंगल मृत्यु प्राप्त करने में मरणासन्न
साधक के निकटस्थ परिवार वाले भी सहायक बनते हैं। उस समय साधना का धर्ममय वातावरण
बनाए रखते हैं। न कोई रोता है, न विलाप करता है, न ही बिछुड़ने के सन्ताप की तरंगें पैदा करता है। विपश्यना और मंगल मैत्री
की तरंगें वातावरण को मंगलमरण के अनुकूल बनाती हैं।
कभी विपश्यना न करने वाला व्यक्ति भी मृत्यु के समय दान, शील आदि कुशल भव-संस्कारों की उदीर्णा होने पर सद्गति तो प्राप्त कर लेता है;
परन्तु विपश्यी की विशेषता यह है कि वह उस भूमि में प्रतिसन्धि
प्राप्त कर विपश्यना के अभ्यास को कायम रख सकने में सफल होता है और इस प्रकार
चित्तधारा के भवंग में संग्रहित अनेक भव-संस्कारों की राशि को शनैः शनैः क्षय करता
हुआ अपनी भव-यात्रा को ओछी कर लेता है और देर-सबेर टर्मिनस पर जा पहुंचता हैं।
(भारत में विपश्यना विद्या को वापस लानेवाले आचार्य
सत्यनारायण गोयनका के लेख का संपादित अंश)
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