Monday 30 April, 2007

कल ने किया था कल फोन

कल दोपहर की बात है। मानस कुछ उनींदा सा था। तभी मोबाइल की घंटी बजी। नंबर जाना-पहचाना नहीं था। मानस ने सोचा देखा जाए कि कोई परिचित है या रॉन्ग नंबर। उधर से आवाज आई, मैं गोपाल बोल रहा हूं, पहचाना। मानस के मन में गोपाल प्रधान से लेकर गोपाल सरकार के नाम तैर आए। वह आवाज से नहीं पहचान पाया कि दूसरी तरफ से कौन से गोपाल की आवाज है।
- नहीं, आप कौन से गोपाल बोल रहे हैं?
- गोरखपुर से गोपाल बोल रहा हूं। आप साथी किशोर बोल रहे हैं न...
अब मानस के चौंकने की बारी थी। कौन है ये गोपाल जो उसे सालों पीछे छूट गए नाम से बुला रहा है।
- हां, किशोर बोल रहा हूं। लेकिन आप मेरा ये नाम कैसे जानते हैं...
- साथी, याद है आप जहां कभी-कभी शेल्टर लिया करते थे।
अब मानस को पूरा याद आ गया। गोपाल संघर्ष वाहिनी के कार्यकर्ता हुआ करते थे और वह रेलवे मजदूरों या भूमिहीन किसानों के बीच काम से फुरसत पाकर घने पेड़ों के बीच बने उनके घर में दो-चार दिन गुजारने चला जाया करता था। उसे किशोर से मानस बनने की पूरी यात्रा याद हो आई। वह आंकने लगा कि क्या-क्या उसके अंदर बदला है और क्या-क्या बाहर बदल गया।
- साथी, मुझे पता है कि आप अब मानस हो गए हैं। लेकिन मैं तो किशोर से ही बात कर रहा हूं।
बात आगे बढ़ी। पता चला कि हरिद्वार अब फिर बीमार चल रहे हैं। चाची यानी हरिद्वार की मां, जो पूरा प्यार जताते हुए अक्सर उसे घरबार छोड़ने के लिए डांटती रहती थीं, तीन साल पहले गुजर गईं। एक महिला साथी, जिसे किशोर ही पार्टी में लाया था, इस समय कैंसर से पीड़ित हैं। हरिद्वार भाई के बड़े भाई का छोटा सा बेटा अब खुद बाप बन गया है।
गोपाल के फोन ने मानस के लिए गुजरे हुए अतीत को जिंदा कर दिया था। मानस बदल गया है। गोपाल भी अब पत्रकार हो गए हैं। बहुत सारे लोग बदल गए हैं। कल के बच्चे-बच्चियां अब खुद बाप या मां बन गए हैं। लेकिन साथी, हालात बहुत नहीं बदले हैं। नगाइचपार गांव में अब भी हरिजन बस्ती के सामनेवाले तालाब पर ब्राह्मणों का कब्जा है। होलटाइमर बन बिशुन देव कहीं गायब हो गए हैं। अपने बच्चों और बीवी से बेहद प्यार करनेवाले बिशुन देव की दुनिया आठ साल पहले तब उजड़ गई जब एक रात आग में उनका पूरा घर जल गया। इस आग ने उनके पूरे कुनबे को खत्म कर दिया। फिर कुछ समय बाद होलटाइमरी छोड़कर न जाने कहां चले गए। उधर, रेल मजदूर कपिल देव त्रिपाठी को उनके भाई ने ही अपना लीवर देकर नया जीवन दिया। लेकिन कपिल देव नहीं बच पाए तो उसी भाई ने उनकी जमीन और घर पर कब्जा करके भाभी को जवान बेटों समेत घर से निकाल दिया।
मानस को एहसास हो गया कि घटनाएं-दुर्घटनाएं उसके साथ ही नहीं घटी हैं। लेकिन साथ ही ये एहसास भी उसके भीतर फिर सिर उठाने लगा कि दुनिया को बदलने की जरूरत जैसी कल थी, वैसे आज भी है। कल आए कल के फोन ने उसे फिर अपने संसार के बारे में सोचने पर मजबूर कर दिया है।

Friday 20 April, 2007

आरक्षण कटार है, कल्याण नहीं

सरकार ही नहीं, सभी विपक्षी पार्टियां भी उच्च शिक्षा में आरक्षण के पक्ष में हैं, तो इसकी स्पष्ट वजह राजनीतिक नफा-नुकसान है। आज ओबीसी तबका उत्तर भारत में राजनीतिक रूप से सबसे सशक्त है। खुद गिन लीजिए कि कितने राज्यों के मुख्यमंत्री और शिक्षा मंत्री इन्हीं जातियों के हैं। और, विश्वनाथ प्रताप सिंह या अर्जुन सिंह कोई ओबीसी के सगे नहीं हैं। उन्हें अपनी राजनीतिक जमीन बनानी या बचानी थी, इसलिए वो आरक्षण का डंका पीट रहे हैं।
एक बात और साफ समझ लेनी चाहिए कि आरक्षण कोई कल्याणकारी कार्यक्रम नहीं है, ये सत्ता में हिस्सेदारी का जरिया है। इसलिए पहली दो किश्तों में मैंने जो आंकड़े पेश किए हैं, वो सत्ता की इस लड़ाई में निरर्थक साबित हो जाएंगे क्योंकि यहां तर्कों की नहीं, ताकत की जुबान, राजनीतिक हैसिय़त की जुबान चलेगी। यहां वोटों की ताकत ही असली तर्क और ताकत है। ये महाभारत जैसा 'धर्म-युद्ध' है, जहां नियम से नहीं, नरोवा कुंजरोवा की चाल से जीत होती है।
बात अगर देश के पिछड़ों को शिक्षा और उच्च शिक्षा में आगे बढ़ाने की होती तो पहले सरकारी स्कूलों में पढ़ाई का स्तर सुधारा जाता। कम से कम सौ नए आईआईटी और आईआईएम जैसे संस्थान खोले जाते। अभी एक अरब की आबादी पर आईआईटी की 6000 सीटें और आईआईएम की करीब 2000 सीटें हैं, जबकि हर साल इनमें बैठनेवालों की संख्या दो लाख से ज्यादा होती है। विकास के लिए आज सभी चीन का गुणगान करते हैं, लेकिन चीन सौ नए इंजीनियरिंग संस्थान खोलने का अभियान चला रहा है और हम आरक्षण के नाम पर सौ-दो सौ सीटें बढ़ाने का झुनझुना बजा रहे हैं।
फिर... आरक्षण के नाम पर टकराव होने लगते हैं। लाठियां चलती हैं, आंसू गैस के गोले छोड़े जाते हैं। मेरिट के खराब हो जाने के तर्क दिए जाते हैं, जबकि इंजीनियरिंग और मेडिकल संस्थानों को लाख-दो लाख का डोनेशन मिल जाने पर मेरिट को लेकर कोई समस्या नहीं होती। आईआईटी और आईआईएम में एडमिशन के नाम पर सरकार हमसे लॉटरी खिलवा रही है और हम हैं कि आपस में गालियां देने में लगे हैं। यकीनन जिन्होंने पांच हजार सालों से जातिप्रथा का दंश झेला है, उन्हें आगे बढ़ने के मौके दिए जाने चाहिए। लेकिन पहले ये तो सोचिए कि पांच हजार सालों का नाम लेकर कोई साठ सालों की अपनी नाकामी और लूट पर परदा तो नहीं डाल रहा है।
बस, थोड़ा कहा, ज्यादा समझना। घर जाने की जल्दी है, देर हो रही है।

ताकते रह जाएंगे 80% ओबीसी

हिंदुस्तानी नाक और जूते की नाप के साथ ही 1931 की इस जनगणना में देश में फैली तमाम जातियों की गणना भी की गई थी। लेकिन आजादी के 60 साल बाद हमारी सरकार इस जनगणना को सामाजिक न्याय के अहम फैसले का आधार बना रही है, ये हास्यास्पद ही नहीं, शर्मनाक है। वैसे तो जैसा मैंने शुरू में कहा था कि उच्च शिक्षण संस्थानों में 27% ओबीसी आरक्षण का मसला राजनीति से जुड़ा है, इसका आंकड़ों या तर्कों से कोई लेना-देना नहीं है। फिर भी मजा लेने के लिए कुछ ताजा आंकड़ों पर नजर डालने में कोई हर्ज नहीं है।
साल 2004-05 के नेशनल सैंपल सर्वे (याद रखें, ये सर्वे है जनगणना नहीं) के मुताबिक देश की आबादी में ओबीसी का हिस्सा सबसे ज्यादा 40.23%, एससी का हिस्सा 19.75%, एसटी का हिस्सा 8.61% और सवर्ण जातियों का हिस्सा 31.41% है।
औसत मासिक उपभोग के आधार पर देखें तो 24.88% ओबीसी सबसे गरीब हैं, जबकि सवर्णों में सबसे गरीबों की संख्या 13.09% है। इसी आधार पर 20.07% ओबीसी सबसे अमीर है, जबकि सवर्णों में सबसे अमीरों की संख्या 42.29% है। जाहिर है सवर्ण अमीरों का अनुपात सवर्ण ओबीसी से लगभग दोगुना है। भूमि के मालिकाने के आधार पर देखें तो जहां 23.22% ओबीसी सबसे गरीबों में शुमार हैं, तो 23.43% सवर्ण भी सबसे गरीबों की श्रेणी में शामिल हैं। इसी आधार पर सबसे अमीर श्रेणी में 24.88% ओबीसी और 30.28% सवर्ण शामिल हैं। साफ है कि भू-स्वामित्व के मामले में अब ओबीसी और सवर्ण जातियों में ज्यादा अंतर नहीं रह गया है।
अब शुरू करते हैं उच्च शिक्षण संस्थानों में ओबीसी आरक्षण पर सुप्रीम कोर्ट के दूसरे ऐतराज, क्रीमी लेयर को शामिल करने की बात। अगर ओबीसी की क्रीमी लेयर को 27 फीसदी आरक्षण से बाहर नहीं किया जाता तो इस तबके के 20.07% सबसे अमीर ही सारी मलाई खा जाएंगे क्योंकि इसी हिस्से में 73.69% डिप्लोमाधारक, 69.81% ग्रेजुएट और 74.01% पोस्ट-ग्रेजुएट है। ओबीसी का बाकी लगभग 80% हिस्सा उच्च शिक्षा में आरक्षण के लाभ से महरूम रह जाएगा क्योंकि इनमें ग्रेजुएशन तक पहुंचनेवाले लोग 3.88% से 17.02% के बीच हैं।
केंद्र सरकार अगर 80 फीसदी ओबीसी को उच्च शिक्षा का लाभ दिलाना चाहती है तो वह कानून में संशोधन जोड़कर क्रीमी लेयर को आसानी से इससे बाहर कर सकती है। वह सरकारी नौकरियों में ऐसा करती भी है और उसके पास क्रीमी लेयर की पूरी परिभाषा है। लेकिन वह ऐसा करने को कतई तैयार नहीं है। इसकी कुछ दीगर वजहें हैं। (अभी अधूरी है बात)

Thursday 19 April, 2007

ये राजनीति है राजा! यहां तर्क का क्या तुक

केंद्र सरकार को ही नहीं, पूरे देश को सोमवार 23 अप्रैल का इंतजार है क्योंकि इस दिन सुप्रीम कोर्ट उच्च शिक्षण संस्थानों में 27 फीसदी ओबीसी आरक्षण पर लगी रोक पर सुनवाई करने वाला है। इससे पहले सुप्रीम कोर्ट ने सरकारी कानून के औचित्य पर ही सवाल उठा दिया था। उसे दो मुद्दों पर ऐतराज है। एक, आबादी में ओबीसी का 52 फीसदी अनुपात 1931 की जनगणना पर आधारित है, जबकि उसके बाद देश में जातियों की स्थिति में बहुत ज्यादा बदलाव आ चुका है। इस पर केंद्र सरकार की तरफ से सफाई दी गई है कि साल 2004-05 के नेशनल सैंपल सर्वे के मुताबिक भी आबादी में ओबीसी का हिस्सा 41 फीसदी है। इसलिए 50 फीसदी अधिकतम आरक्षण की कानूनी सीमा के भीतर ओबीसी के लिए 27 फीसदी आरक्षण रखना कहीं से भी गलत नहीं है। वैसे भी, देश में 1931 के बाद जाति आधारित कोई जनगणना नहीं हुई है। इसलिए जातियों पर उसकी फाइंडिंग्स को कैसे नजरअंदाज किया जा सकता है?
सुप्रीम कोर्ट को दूसरा ऐतराज इस बात पर था कि केंद्रीय शिक्षण संस्थान (दाखिले में आरक्षण) कानून में ओबीसी की क्रीमी लेयर को आरक्षण के दायरे से बाहर नहीं किया गया है। इस तरह उसमें जाति को ही सामाजिक और शैक्षणिक पिछड़ेपन का आधार माना गया है जो संविधान के खिलाफ है। साल 1992 में ही इंदिरा साहनी बनाम संघ सरकार के मुकदमे में स्पष्ट किया जा चुका है कि क्रीमी लेयर को आरक्षण से बाहर रखा जाना चाहिए। उस वक्त नौ जजों की बेंच ने अपने फैसले में कहा था, 'इनको हटाने से ही किसी वर्ग की सही स्थिति बनती है और ऐसा करने से ही सचमुच के पिछड़ों को फायदा मिलेगा।' लेकिन सरकार का कहना है कि क्रीमी लेयर को बाहर निकाल देने से इस कानून का मकसद ही खत्म हो जाएगा। आखिर ये मकसद है क्या?
सुप्रीम कोर्ट ने उच्च शिक्षा में आरक्षण के कानून पर रोक लगाते हुए जाहिर कर दिया था कि उसे केंद्र सरकार की नीयत पर ही संदेह है। उसे नहीं लगता कि सरकार इस कानून के जरिए सचमुच के पिछड़ों को फायदा पहुंचाना चाहती है। कहीं न कहीं वो भी मानता है कि शिक्षा में आरक्षण का ये सारा खेल राजनीति का है। शायद इसीलिए वाम लेकर मध्य और दक्षिण तक कोई भी राजनीतिक पार्टी इस कानून का विरोध नहीं कर रही। मध्यवर्गीय सवर्ण ही इसकी मुखालफत कर रहे हैं और उनकी आवाज ही सुप्रीम कोर्ट के ऐतराज में आवाज पा रही है।
केंद्र सरकार की नीयत को समझने के लिए पहले 1931 की जनगणना की ही थाह ली जाए। इस जनगणना में अंग्रेजों ने हिंदुस्तानियों के बारे में क्या-क्या पता लगाया था, जरा इस पर गौर फरमा कर थोड़ा हंस लिया जाए।
- उन्होंने पता लगाया था कि हिंदुस्तानियों की नाक की ऊंचाई और मोटाई में क्या अनुपात है। पतली और नुकीली नाक वो है जिसकी मोटाई ऊंचाई से 70 फीसदी कम हो, मोटी नाक वो है जिसमें ये अनुपात 85 फीसदी से ज्यादा हो और औसत नाक वह है जिसकी मोटाई ऊंचाई से 70 से 85 फीसदी के बीच हो। (वाकई कमाल की बात है। कैसे की होगी अंग्रेजों ने हिंदुस्तानी नाक की नापजोख)
- अंग्रेजों ने ये भी पता लगाया कि अब हिंदुस्तानी पहले से बेहतर कपड़े पहनने लगे हैं। वो कलाई घड़ियां और फाउंटेन पेन रखने लगे हैं। ज्यादा लोग जूते पहनने लगे हैं। जेवरात के मामलों में औरते ज्यादा नफीस होने लगी हैं।
- हिंदुस्तानी अंधविश्वासी होते हैं। फरवरी 1930 में दिल्ली के पास एक गढ्ढ़े से गैस निकलकर जलने लगी तो भारी तादाद में लोग वहां एकट्ठा होकर देवी की पूजा करने लगे। उनका दावा था कि छोटी माता (चेचक की देवी) ने उन पर ये कृपा दिखाई है। बाद में पता चला कि ये माता असल में 70 फीसदी मीथेन, 20 फीसदी कार्बन डाई ऑक्साइड और 10 फीसदी मृत गैसों का मिश्रण हैं।
(अगली किश्त आगे)

Thursday 12 April, 2007

कौन है ये भारत भाग्यविधाता?

इधर इनफोसिस के चीफ मेंटर नारायण मूर्ति और भूतपूर्व मास्टर ब्लास्टर सचिन तेंदुलकर की राष्ट्रभक्ति पर सवाल उठाए जा रहे हैं। मूर्ति पर आरोप है कि उन्होंने एक समारोह में जानबूझकर राष्ट्रगान की केवल धुन बजने दी, जबकि सचिन पर आरोप है कि वेस्ट इंडीज में दौरे के दौरान उन्होंने अपने जन्मदिन पर ऐसा केक काटा, जो तिरंगे की शक्ल में बनाया गया था। नारायण मूर्ति और सचिन दोनों ही सफाई दे चुके हैं कि उनका मसकद कहीं से भी किसी की राष्ट्रीय भावना को चोट पहुंचाना नहीं था। लेकिन ये मुद्दा उठा तो मेरे जेहन में एक पुराना सवाल कौंध गया। वो यह कि जनगण अधिनायक जय हे...में भारत का भाग्यविधाता कौन है। वो कौन है जिसकी प्रशस्ति विंध्य हिमाचल यमुना गंगा और सागर की लहरें गाती हैं और जिससे ये सभी आशीष मांगते हैं।
इतिहास साक्षी है कि ये गान 1911 में इंडियन नेशनल कांग्रेस के कोलकाता अधिवेशन में सबसे पहले गाया गया था। एक दिन बाद ही गुलाम 'भारत के भाग्यविधाता' किंग जॉर्ज पंचम भारत आए थे। इसलिए कुछ लोग कहने लगे कि गुरु रवींद्रनाथ टैगोर ने इसे जॉर्ज पंचम के स्वागत में लिखा था। जॉर्ज पंचम के स्वागत में ही उसी साल मुंबई का गेटवे ऑफ इंडिया भी बनाया गया था। हालांकि बाद में टैगोर ने सफाई दी कि जॉर्ज पंचम की सेवा में लगे एक अधिकारी (जो गुरु टैगोर का मित्र भी था) ने उनसे इस तरह का स्वागत गीत लिखने को कहा था, लेकिन उनके लिखे गीत में भाग्य विधाता का अर्थ ईश्वर से है जो भारत के सामूहिक मानस का अधिनायक है और कोई भी जॉर्ज पंचम या षष्टम उसकी जगह नहीं ले सकता।
इसके बाद विवाद को सुलझा हुआ मान लिया गया। लेकिन जहां बच्चे प्रार्थना गाते हों कि जिस जाति धर्म में जन्म लिया, बलिदान उसी पर हो जाएं, जहां अधिकांश लोग अपनी जातिगत या सांस्कृतिक पहचान से आबद्ध हों, वहां कितने लोग हैं जो सचमुच राष्ट्रीय अस्मिता से जुड़ने के लिए खाली हैं? शायद इंडिया के करीब तीस करोड़ लोगों के लिए इस अस्मिता की जरूरत है। यकीनन इन तीस करोड़ लोगों में से भी बहुत से लोग अपनी पुरातन जड़ों की तरफ लौटने की चाहत रखते हैं क्योंकि समृद्धि ने उन्हें पहचान के लिए बेचैन कर दिया है। बाकी 70 करोड़ से ज्यादा लोगों के लिए ये अस्मिता सीमा पर बलिदान हो जाने की भावना भर है। यहीं पर मुझे काफी पहले सुना गया एक शेर याद आता है। मुलाहिजा फरमाइए :
दुर्घटना में मरे शख्स की कब्र पर लिख दिया।
वतन की राह में वतन के नौजवां शहीद हुए।।

Tuesday 10 April, 2007

ये कैसा कोलाहल!

ब्लॉग बनाते वक्त सोचा था कि शांति से अपने अनुभवों को एक कोने में लिखता जाऊंगा। ये भी उम्मीद थी कि दो-चार लोग सार्थक टिप्पणियां करते रहेंगे तो अपने लिखे को उपयोगी बनाने और अंतिम रूप देने में सहूलियत हो जाएगी। लेकिन यहां तो इतना कोलाहल है कि कान नहीं, दिमाग फटने लगा है। टिप्पणियां देखकर लगता है कि 99.9999 फीसदी हिंदी ब्लॉगर्स के पास अपना दिखाने की इतनी व्यग्रता है कि वो बस आह और वाह ही कर सकते हैं। इनसे सार्थक टिप्पणियों की उम्मीद बेमानी है। यहां तो हर कोई कवि है, साहित्यकार है। आपको बता दूं कि नए जमाने के इन कवियों और साहित्यकारों से मुझे यूनिवर्सिटी के दिनों से ही नफरत है। परशुराम ने पचास बार धरती को क्षत्रियों से सूना कर दिया था। मैंने ज्यादा तो नहीं किया, लेकिन यूनिवर्सिटी के दिनों में कम से कम एक दर्जन कवियों-साहित्यकारों की भ्रूण हत्या तो जरूर की होगी। और, आज तक मुझे इसका कोई मलाल नहीं है। फिर भी तथाकथित जनवादी कवियों और साहित्यकारों की दुकानदारी चल ही रही है।
ब्लॉग के इस ग्लोब में मची खींचतान के बीच लिखने का मन ही नहीं करता। लेकिन लिखने की इच्छा है तो लिखूंगा ही। हां, अब मानकर लिखूंगा कि स्वांत: सुखाय ही लिखना है। कोलाहल में नहीं फंसना है। मन करेगा तो लिखूंगा, नहीं तो फालतू का समय जाया नहीं करूंगा। कबीर का एक दोहा याद आता है...रे गंधि मति अंध तू अतर दिखावत काहि, करि अंजुरि को आचमन मीठो कहत सराहि। वैसे मुझे गंधि होने का दर्प नहीं है। लेकिन जो लोग इत्र को आचमन करके मीठा बताते हों, उनसे चिढ़ जरूर है।

Thursday 5 April, 2007

तौबा करो दलाली की राजनीति से

संसदीय राजनीति में जाति की अपरिहार्यता-3
उत्तर प्रदेश में सवर्ण जातियों की राजनीतिक ताकत अब चुक गई है। मायावती ही उनके बचे-खुचे रसूख को बचाने का जरिया बन गई हैं। सवर्णों के बच्चे या तो अपहरण जैसे 'धंधों' से जल्दी से जल्दी पैसा बनाने के चक्कर में लगे हैं या सभ्य और काबिल हुए तो आईएएस, पीसीएस, मेडिकल, आईआईटी या आईआईएम का मंसूबा पाले हुए हैं। इसीलिए 27 फीसदी ओबीसी आरक्षण इनको मिर्ची की तरह लगता है।
गांव-प्रधान देश और राज्य में राजनीति सत्ता का खेल है, सम्मान का खेल है, पहचान का युद्ध है। यहां विकास जैसे नारे नहीं चलते। विकास, भ्रष्टाचार विरोध, सस्ती बिजली-पानी, किसानों की आत्महत्या या दाम बांधों-काम दो जैसे मुद्दे आंदोलन के नारे हो सकते हैं, सत्ता में आने के नहीं। आंदोलन में जाति की सरहदें टूट जाती हैं। लेकिन राजनीति का खेल शुरू होते ही समाज के वंचित तबकों के लिए जाति निर्णायक बन जाती है क्योंकि सत्ता में उन्हें अपना एक्सटेंशन चाहिए, पहचान चाहिए, सम्मान चाहिए। यही वजह है कि माले की रैलियों में पटना का गांधी मैदान से लेकर दिल्ली का बोट क्लब तक खचाखच भर जाता है, लेकिन ये ताकत वोटों में तब्दील नहीं हो पाती।
आज जो लोग राजनीति से जाति को मिटाने की मंशा रखते हैं, उन्हें राजनीति के मौजूदा स्वरूप को ही खत्म करना होगा। दलाली की राजनीति की जगह प्रतिनिधिमूलक राजनीति को स्थापित करना होगा। ऐसी राजनीति शुरू करनी होगी जिसमें चुनने वाले के पास अपने नेता को वापस बुलाने का अधिकार भी हो। गुलाम हिंदुस्तान में 1885 में कांग्रेस की स्थापना के साथ दलाली की जो राजनीति शुरू हुई है, उसकी जगह 1857 के पहले स्वाधीनता संग्राम से शुरू हुई राजनीति को स्थापित करना होगा।
दिक्कत ये है कि हमारे देश में राजनीति ही नहीं, विकास का सारा तंत्र अंग्रेजों का दिया हुआ है। इस तंत्र में जनता को विकास का फल अनुदान में मिलता है, भागीदारी से नहीं। ऊपर से थोपा हुआ विकास समाज में जाति और धर्म जैसी पुरानी संरचनाओं को ही मजबूत करता है, उन्हें मिटाता नहीं। इसमें दलाली की ही राजनीति चलती है, प्रतिनिधिमूलक राजनीति नहीं।
दलाली की राजनीति के खिलाफ प्रतिनिधिमूलक राजनीति से ही इस तंत्र का चरित्र बदला जा सकता है। अभी जो राजनीति है, उसमें जाति का दबदबा बनेगा। ये एक ऐसा सच है जिसे हमें स्वीकार करना होगा। इस पर छाती पीटने से कोई फायदा नहीं है, जनता को जूते मारने की झुंझलाहट बेमानी है और जाति के रोग को हद से बढ़ने और फिर खत्म हो जाने की सोच एक फासीवादी सोच है।
वैसे, आखिर में बता दूं कि जाति व्यवस्था पर मेरा कोई राजनीति शास्त्रीय अध्ययन नहीं है। उत्तर प्रदेश के एक छोटे से गांव के एक सवर्ण किसान परिवार में जन्मा हूं जहां जाति का ज्यादा आग्रह नहीं था। खुद हरिजनों, पासियों, जुलाहों और कोल आदिवासियों के घरों में करीब दस साल गुजारे हैं। इसलिए जाति की सोच और राजनीति पर मेरा विश्लेषण अनुभवजन्य है, देखे हुए पर आधारित है। और, आप जानते ही हैं कि जो दिखता है, वही पूरा सच नहीं होता। (समाप्त)

Tuesday 3 April, 2007

राम भजो राजनाथ, सत्ता तो माया है

संसदीय राजनीति में जाति की अपरिहार्यता-2
दलित और पिछड़ी जातियां इस समय उत्तर प्रदेश की राजनीति में सबसे प्रखर हैं। उनकी ये प्रखरता मुलायम, मायावती, बेनीप्रसाद वर्मा और सोनेलाल पटेल में प्रतिनिधित्व पा रही है। मायावती पर भ्रष्टाचार का आरोप हो, मुलायम सरकार के दामन पर निठारी के बच्चों के खून और मेरठ में ढाई सौ से ज्यादा हत्याओं का दाग लगा हो या सोनेलाल पटेल का अपना दल बबलू श्रीवास्तव और अबू सलेम जैसे अपराधियों का स्वागत करता हो, इससे दलित और पिछड़ी जातियों के मतदाताओं पर कोई फर्क नहीं पड़ता।
अब ठाकुर, बाभन, बनिया और कायस्थ जैसी सवर्ण जातियों की बात। इन सभी जातियों की अलग-अलग महासभाएं आपको मिल जाएंगी, लेकिन इनकी राजनीतिक हैसियत आज दो कौड़ी की भी नहीं है। परिवारो के विभाजन या पुरानी आदतों के चलते इनकी जमीनें बिकती रहीं। बाभन तो वैसे भी पराश्रयी थे, उनके पास ज्यादा जमीन भी नहीं रही है। आजादी के बाद के बीस-पच्चीस सालों तक उत्तम खेती, मध्यम बान, निपट चाकरी भीख निदान की सोच के चलते किसानी से चिपके रहे। फिर लड़के नौकरी करने निकले तो मास्टरी और क्लर्की तक निपट गए। जोत घटती गई, खेती के खर्च बढ़ते गए। लड़के पुरानी आन-बान-शान को बनाए रखने के लिए पढ़कर दारोगा से लेकर आईएएस, पीसीएस और डॉक्टर-इंजीनियर बनने का ख्वाब देखने लगे। जो बन गए, उनके परिवार सही-सलामत रहे। और जो ज्यादा नहीं पढ़ सके, वो ईंट भठ्ठे के मालिक या ठेकेदार बन गए। बुलेट के बाद हीरो होंडा और फिर बजाज पल्सर पर चलने लगे। लेकिन खेती लगातार घाटे का सौदा बनती गई। बाहर से नकद नोट न आएं तो जरूरत भर का गेहूं-दाल-धान तक उपजाना दूभर हो गया। एक लड़के की पढ़ाई का खर्चा उठाना तक मुश्किल हो गया।
इस बीच पिछड़ी जातियां इतनी तेजी से आगे बढ़ीं कि इनके हाथों के तोते उड़ गए। कल के मलिकार आज किसी तरह अपनी हैसियत बचाये रखने को मजबूर हैं। जो सत्ता में आता दिखेगा, ये उन्हीं के साथ जाएंगे, चाहे वह मुलायम हों या मायावती। इनको इतना यकीन हो गया है कि राजनाथ सिंह या लालजी टंडन के साथ जाने में इनका भविष्य सुरक्षित नहीं है। ठाकुरों और बाभनों का जातीय दंभ अब टूट चुका है। राजनीति के मामले में ये पूरी तरह अवसरवादी हो गए हैं। इनकी ताजा सोच यही है कि जैसे बहै बयार, पीठ वाहे को कीजै। बनिया तो वैसे भी मलिकार के कंधों की सवारी करते रहे हैं। जब मलिकार ही नहीं रहे तो उनकी फितरत मौकापरस्ती के लिए आजाद हो गई।
कायस्थ लंबे समय तक खुद को नवाब समझते रहे। अंग्रेजी राज का उन्होंने भरपूर फायदा उठाया था। लेकिन बाद में अपनी श्रेष्ठता बनाए नहीं रख सके। राजनीति के मामले में वे औरों का मुंह जोहने लगे। ये सभी जातियां एक समय कांग्रेस का आधार हुआ करती थीं। लेकिन जब इनका ही आधार नहीं रहा तो ये कांग्रेस को क्या आधार देतीं। लिहाजा, इनके साथ ही उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की निर्णायक स्थिति खत्म होती गई।
बीजेपी की हालत तो न घर की, न घाट की जैसी है। राम जन्मभूमि आंदोलन में उसके साथ सबसे ज्यादा पिछड़ी जातियां ही आई थीं। लेकिन बीजेपी के साथ मुश्किल ये है कि वह कल्याण सिंह को आगे करने के बावजूद खुद को पिछड़ी जातियों के चैंपियन के बतौर नहीं पेश कर सकती। आज पिछड़ी जातियों के पास सत्ता तक पहुंचने के दूसरे रास्ते हैं तो उन्हें किसी रामनामी की जरूरत नहीं है। बाभन और ठाकुर तो चाहकर भी रामनाम का जाप करके बीजेपी को नई ताकत नहीं दे सकते। (जारी)

जाति बिना सब सून है साथी...

संसदीय राजनीति में जाति की अपरिहार्यता-1
उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों के पहले चरण में अब चंद दिन ही बचे हैं। सर्वेक्षण बता रहे है कि दलित और पिछड़ी जातियों के नुमाइंदे ही सरकार बनाएंगे, बाकी जातियां हाथ मलती रह जाएंगी। सवाल उठता है कि आखिर विकास की बातों के बावजूद पिछड़े हुए उत्तर प्रदेश में जाति की राजनीति ही क्यों हावी है? ये सोच-सोचकर मेरे जैसे लोग ही नहीं, लोहिया अगर जिंदा होते तो वे भी बेहद दुखी होते। वैसे, ये भी विडंबना है कि जाति को खत्म करने की राजनीति करनेवाले लोहिया के चेले-चापट आज जाति की ही राजनीति के अलंबरदार बन गए हैं। राजनीति में जाति की ये महिमा क्यों है, आइये समझने की कोशिश करते हैं। लेकिन पहले जाति को लेकर अपने कुछ साथियों की सोच के स्पेक्ट्रम पर एक नजर...
आज जातिगत चेतना को कौन-सी पार्टी नई मंजिल पर ले जाने का दावा कर सकती है? जाति को तोड़ने का प्रयास नहीं है, जाति के खिलाफ राजनीति नहीं है।
जाति के आधार पर राजनीति करनेवाले दल जिन जातियों को अपना दुश्मन बताकर राजनीति करते रहे हैं, उन्होंने अब उन्हीं से हाथ मिला लिया है।
देश में जाति को राजनीति से हटाकर डेमोक्रेसी का स्वरूप बदलना संभव नहीं लगता, जाति की राजनीति से तो बिलकुल ही नहीं।
दिक्कत नेताओं से ज्यादा आम जनता की है जिसमें जाति को लेकर इतना अभिमान भरा हुआ है।
अभी और सड़ने दो इस व्यवस्था को। रोग और बढ़े, हद से बाहर निकले। फिर खत्म हो जाए।
कुछ भाई तो लोगों के जाति से चिपके रहने पर अपना माथा पीटते हुए कहते हैं कि भारत के गांव मर गए हैं, उनकी आत्मा मर गई है। ऐसे वोटरों का क्या करें? लेख लिखें या उनको जाकर जूते मारें!
अब अपनी बात। नोट कर लीजिए कि दलित जातियों में जमीन के टुकड़े से ज्यादा बड़ी भूख आत्मसम्मान की है। बिहार में सत्तर के दशक में नक्सलवादियों ने हरिजनों-दुसाधों में काम की शुरुआत की तो उन्होंने सबसे पहले इन लोगों को मूंछ रखना सिखाया। सवर्ण इन्हें मूंछ नहीं रखने देते थे। मूंछ पर लड़ाई हुई, कई सवर्णों का सफाया हुआ और दलित शान से मूंछ रखने लगे तो वे नक्सलियों के मुरीद बन गए। उनके बीच से कई शानदार योद्धा पैदा हुए।
उत्तर प्रदेश में डीएस-4 का शुरुआती नारा था - ठाकुर, बाभन, बनिया छोड़, बाकी जनता डीएस-फोर। फिर कांशीराम ने नारा दिया - वोट हमारा राज तुम्हारा, राज तुम्हारा नहीं चलेगा, नहीं चलेगा। बीएसपी ने दलितों के सम्मान को आवाज दी और वे उसके पीछे चले गए। चंद सालों में प्राइमरी स्कूल की बहनजी मायावती आज सौ करोड़ से ज्यादा की संपत्ति की मालिक हैं, ताज कॉरिडोर में उन पर भ्रष्टाचार का आरोप है। लेकिन दलित मतदाता कहते हैं कि बहनजी भ्रष्ट हुईं तो क्या, हैं तो अपनी ही। आखिर दूसरी पार्टियों के नेता क्या कम भ्रष्ट हैं?
अब कोयरी, काछी, अहीर, गड़ेरिया और कुर्मी जैसी पिछड़ी जातियों की बात। इन जातियों की हमेशा से एक स्वतंत्र हैसियत और सम्मान रहा है। ये कभी भी दलितों की तरह किसी के हरवाह-चरवाह नहीं थे। आजादी के बाद शिक्षा, व्यवसाय और बाजार के अवसरों का इन्होंने अच्छी तरह फायदा उठाया। इनके लोग मुंबई, कोलकाता से लेकर दिल्ली तक कमाने गए। इस कमाई से इन्होंने सवर्ण खेतिहरों की जमीनें भी खरीदीं। धीरे-धीरे आर्थिक रूप से मजबूत होने के बाद इन मेहनतकश जातियों ने पंचायतों से लेकर प्रादेशिक और राष्ट्रीय स्तर पर अच्छी-खासी राजनीतिक ताकत हासिल कर ली है। मंडल आयोग की सिफारिशों का लागू होना इन्हीं के दबाव के चलते संभव हुआ है। अब ये तबके उच्च शिक्षा में भी आरक्षण चाहते हैं। इन्हीं की आवाज वी पी सिंह से लेकर अर्जुन सिंह जैसे नेता मुखर करते रहे हैं। ये अलग बात है कि इस आवाज की तर्कसंगतता पर अब सुप्रीम कोर्ट ने सवाल खड़ा कर दिया है। (जारी)