जाति बिना सब सून है साथी...
संसदीय राजनीति में जाति की अपरिहार्यता-1
उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों के पहले चरण में अब चंद दिन ही बचे हैं। सर्वेक्षण बता रहे है कि दलित और पिछड़ी जातियों के नुमाइंदे ही सरकार बनाएंगे, बाकी जातियां हाथ मलती रह जाएंगी। सवाल उठता है कि आखिर विकास की बातों के बावजूद पिछड़े हुए उत्तर प्रदेश में जाति की राजनीति ही क्यों हावी है? ये सोच-सोचकर मेरे जैसे लोग ही नहीं, लोहिया अगर जिंदा होते तो वे भी बेहद दुखी होते। वैसे, ये भी विडंबना है कि जाति को खत्म करने की राजनीति करनेवाले लोहिया के चेले-चापट आज जाति की ही राजनीति के अलंबरदार बन गए हैं। राजनीति में जाति की ये महिमा क्यों है, आइये समझने की कोशिश करते हैं। लेकिन पहले जाति को लेकर अपने कुछ साथियों की सोच के स्पेक्ट्रम पर एक नजर...
आज जातिगत चेतना को कौन-सी पार्टी नई मंजिल पर ले जाने का दावा कर सकती है? जाति को तोड़ने का प्रयास नहीं है, जाति के खिलाफ राजनीति नहीं है।
जाति के आधार पर राजनीति करनेवाले दल जिन जातियों को अपना दुश्मन बताकर राजनीति करते रहे हैं, उन्होंने अब उन्हीं से हाथ मिला लिया है।
देश में जाति को राजनीति से हटाकर डेमोक्रेसी का स्वरूप बदलना संभव नहीं लगता, जाति की राजनीति से तो बिलकुल ही नहीं।
दिक्कत नेताओं से ज्यादा आम जनता की है जिसमें जाति को लेकर इतना अभिमान भरा हुआ है।
अभी और सड़ने दो इस व्यवस्था को। रोग और बढ़े, हद से बाहर निकले। फिर खत्म हो जाए।
कुछ भाई तो लोगों के जाति से चिपके रहने पर अपना माथा पीटते हुए कहते हैं कि भारत के गांव मर गए हैं, उनकी आत्मा मर गई है। ऐसे वोटरों का क्या करें? लेख लिखें या उनको जाकर जूते मारें!
अब अपनी बात। नोट कर लीजिए कि दलित जातियों में जमीन के टुकड़े से ज्यादा बड़ी भूख आत्मसम्मान की है। बिहार में सत्तर के दशक में नक्सलवादियों ने हरिजनों-दुसाधों में काम की शुरुआत की तो उन्होंने सबसे पहले इन लोगों को मूंछ रखना सिखाया। सवर्ण इन्हें मूंछ नहीं रखने देते थे। मूंछ पर लड़ाई हुई, कई सवर्णों का सफाया हुआ और दलित शान से मूंछ रखने लगे तो वे नक्सलियों के मुरीद बन गए। उनके बीच से कई शानदार योद्धा पैदा हुए।
उत्तर प्रदेश में डीएस-4 का शुरुआती नारा था - ठाकुर, बाभन, बनिया छोड़, बाकी जनता डीएस-फोर। फिर कांशीराम ने नारा दिया - वोट हमारा राज तुम्हारा, राज तुम्हारा नहीं चलेगा, नहीं चलेगा। बीएसपी ने दलितों के सम्मान को आवाज दी और वे उसके पीछे चले गए। चंद सालों में प्राइमरी स्कूल की बहनजी मायावती आज सौ करोड़ से ज्यादा की संपत्ति की मालिक हैं, ताज कॉरिडोर में उन पर भ्रष्टाचार का आरोप है। लेकिन दलित मतदाता कहते हैं कि बहनजी भ्रष्ट हुईं तो क्या, हैं तो अपनी ही। आखिर दूसरी पार्टियों के नेता क्या कम भ्रष्ट हैं?
अब कोयरी, काछी, अहीर, गड़ेरिया और कुर्मी जैसी पिछड़ी जातियों की बात। इन जातियों की हमेशा से एक स्वतंत्र हैसियत और सम्मान रहा है। ये कभी भी दलितों की तरह किसी के हरवाह-चरवाह नहीं थे। आजादी के बाद शिक्षा, व्यवसाय और बाजार के अवसरों का इन्होंने अच्छी तरह फायदा उठाया। इनके लोग मुंबई, कोलकाता से लेकर दिल्ली तक कमाने गए। इस कमाई से इन्होंने सवर्ण खेतिहरों की जमीनें भी खरीदीं। धीरे-धीरे आर्थिक रूप से मजबूत होने के बाद इन मेहनतकश जातियों ने पंचायतों से लेकर प्रादेशिक और राष्ट्रीय स्तर पर अच्छी-खासी राजनीतिक ताकत हासिल कर ली है। मंडल आयोग की सिफारिशों का लागू होना इन्हीं के दबाव के चलते संभव हुआ है। अब ये तबके उच्च शिक्षा में भी आरक्षण चाहते हैं। इन्हीं की आवाज वी पी सिंह से लेकर अर्जुन सिंह जैसे नेता मुखर करते रहे हैं। ये अलग बात है कि इस आवाज की तर्कसंगतता पर अब सुप्रीम कोर्ट ने सवाल खड़ा कर दिया है। (जारी)
उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों के पहले चरण में अब चंद दिन ही बचे हैं। सर्वेक्षण बता रहे है कि दलित और पिछड़ी जातियों के नुमाइंदे ही सरकार बनाएंगे, बाकी जातियां हाथ मलती रह जाएंगी। सवाल उठता है कि आखिर विकास की बातों के बावजूद पिछड़े हुए उत्तर प्रदेश में जाति की राजनीति ही क्यों हावी है? ये सोच-सोचकर मेरे जैसे लोग ही नहीं, लोहिया अगर जिंदा होते तो वे भी बेहद दुखी होते। वैसे, ये भी विडंबना है कि जाति को खत्म करने की राजनीति करनेवाले लोहिया के चेले-चापट आज जाति की ही राजनीति के अलंबरदार बन गए हैं। राजनीति में जाति की ये महिमा क्यों है, आइये समझने की कोशिश करते हैं। लेकिन पहले जाति को लेकर अपने कुछ साथियों की सोच के स्पेक्ट्रम पर एक नजर...
आज जातिगत चेतना को कौन-सी पार्टी नई मंजिल पर ले जाने का दावा कर सकती है? जाति को तोड़ने का प्रयास नहीं है, जाति के खिलाफ राजनीति नहीं है।
जाति के आधार पर राजनीति करनेवाले दल जिन जातियों को अपना दुश्मन बताकर राजनीति करते रहे हैं, उन्होंने अब उन्हीं से हाथ मिला लिया है।
देश में जाति को राजनीति से हटाकर डेमोक्रेसी का स्वरूप बदलना संभव नहीं लगता, जाति की राजनीति से तो बिलकुल ही नहीं।
दिक्कत नेताओं से ज्यादा आम जनता की है जिसमें जाति को लेकर इतना अभिमान भरा हुआ है।
अभी और सड़ने दो इस व्यवस्था को। रोग और बढ़े, हद से बाहर निकले। फिर खत्म हो जाए।
कुछ भाई तो लोगों के जाति से चिपके रहने पर अपना माथा पीटते हुए कहते हैं कि भारत के गांव मर गए हैं, उनकी आत्मा मर गई है। ऐसे वोटरों का क्या करें? लेख लिखें या उनको जाकर जूते मारें!
अब अपनी बात। नोट कर लीजिए कि दलित जातियों में जमीन के टुकड़े से ज्यादा बड़ी भूख आत्मसम्मान की है। बिहार में सत्तर के दशक में नक्सलवादियों ने हरिजनों-दुसाधों में काम की शुरुआत की तो उन्होंने सबसे पहले इन लोगों को मूंछ रखना सिखाया। सवर्ण इन्हें मूंछ नहीं रखने देते थे। मूंछ पर लड़ाई हुई, कई सवर्णों का सफाया हुआ और दलित शान से मूंछ रखने लगे तो वे नक्सलियों के मुरीद बन गए। उनके बीच से कई शानदार योद्धा पैदा हुए।
उत्तर प्रदेश में डीएस-4 का शुरुआती नारा था - ठाकुर, बाभन, बनिया छोड़, बाकी जनता डीएस-फोर। फिर कांशीराम ने नारा दिया - वोट हमारा राज तुम्हारा, राज तुम्हारा नहीं चलेगा, नहीं चलेगा। बीएसपी ने दलितों के सम्मान को आवाज दी और वे उसके पीछे चले गए। चंद सालों में प्राइमरी स्कूल की बहनजी मायावती आज सौ करोड़ से ज्यादा की संपत्ति की मालिक हैं, ताज कॉरिडोर में उन पर भ्रष्टाचार का आरोप है। लेकिन दलित मतदाता कहते हैं कि बहनजी भ्रष्ट हुईं तो क्या, हैं तो अपनी ही। आखिर दूसरी पार्टियों के नेता क्या कम भ्रष्ट हैं?
अब कोयरी, काछी, अहीर, गड़ेरिया और कुर्मी जैसी पिछड़ी जातियों की बात। इन जातियों की हमेशा से एक स्वतंत्र हैसियत और सम्मान रहा है। ये कभी भी दलितों की तरह किसी के हरवाह-चरवाह नहीं थे। आजादी के बाद शिक्षा, व्यवसाय और बाजार के अवसरों का इन्होंने अच्छी तरह फायदा उठाया। इनके लोग मुंबई, कोलकाता से लेकर दिल्ली तक कमाने गए। इस कमाई से इन्होंने सवर्ण खेतिहरों की जमीनें भी खरीदीं। धीरे-धीरे आर्थिक रूप से मजबूत होने के बाद इन मेहनतकश जातियों ने पंचायतों से लेकर प्रादेशिक और राष्ट्रीय स्तर पर अच्छी-खासी राजनीतिक ताकत हासिल कर ली है। मंडल आयोग की सिफारिशों का लागू होना इन्हीं के दबाव के चलते संभव हुआ है। अब ये तबके उच्च शिक्षा में भी आरक्षण चाहते हैं। इन्हीं की आवाज वी पी सिंह से लेकर अर्जुन सिंह जैसे नेता मुखर करते रहे हैं। ये अलग बात है कि इस आवाज की तर्कसंगतता पर अब सुप्रीम कोर्ट ने सवाल खड़ा कर दिया है। (जारी)
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