राम भजो राजनाथ, सत्ता तो माया है
संसदीय राजनीति में जाति की अपरिहार्यता-2
दलित और पिछड़ी जातियां इस समय उत्तर प्रदेश की राजनीति में सबसे प्रखर हैं। उनकी ये प्रखरता मुलायम, मायावती, बेनीप्रसाद वर्मा और सोनेलाल पटेल में प्रतिनिधित्व पा रही है। मायावती पर भ्रष्टाचार का आरोप हो, मुलायम सरकार के दामन पर निठारी के बच्चों के खून और मेरठ में ढाई सौ से ज्यादा हत्याओं का दाग लगा हो या सोनेलाल पटेल का अपना दल बबलू श्रीवास्तव और अबू सलेम जैसे अपराधियों का स्वागत करता हो, इससे दलित और पिछड़ी जातियों के मतदाताओं पर कोई फर्क नहीं पड़ता।
अब ठाकुर, बाभन, बनिया और कायस्थ जैसी सवर्ण जातियों की बात। इन सभी जातियों की अलग-अलग महासभाएं आपको मिल जाएंगी, लेकिन इनकी राजनीतिक हैसियत आज दो कौड़ी की भी नहीं है। परिवारो के विभाजन या पुरानी आदतों के चलते इनकी जमीनें बिकती रहीं। बाभन तो वैसे भी पराश्रयी थे, उनके पास ज्यादा जमीन भी नहीं रही है। आजादी के बाद के बीस-पच्चीस सालों तक उत्तम खेती, मध्यम बान, निपट चाकरी भीख निदान की सोच के चलते किसानी से चिपके रहे। फिर लड़के नौकरी करने निकले तो मास्टरी और क्लर्की तक निपट गए। जोत घटती गई, खेती के खर्च बढ़ते गए। लड़के पुरानी आन-बान-शान को बनाए रखने के लिए पढ़कर दारोगा से लेकर आईएएस, पीसीएस और डॉक्टर-इंजीनियर बनने का ख्वाब देखने लगे। जो बन गए, उनके परिवार सही-सलामत रहे। और जो ज्यादा नहीं पढ़ सके, वो ईंट भठ्ठे के मालिक या ठेकेदार बन गए। बुलेट के बाद हीरो होंडा और फिर बजाज पल्सर पर चलने लगे। लेकिन खेती लगातार घाटे का सौदा बनती गई। बाहर से नकद नोट न आएं तो जरूरत भर का गेहूं-दाल-धान तक उपजाना दूभर हो गया। एक लड़के की पढ़ाई का खर्चा उठाना तक मुश्किल हो गया।
इस बीच पिछड़ी जातियां इतनी तेजी से आगे बढ़ीं कि इनके हाथों के तोते उड़ गए। कल के मलिकार आज किसी तरह अपनी हैसियत बचाये रखने को मजबूर हैं। जो सत्ता में आता दिखेगा, ये उन्हीं के साथ जाएंगे, चाहे वह मुलायम हों या मायावती। इनको इतना यकीन हो गया है कि राजनाथ सिंह या लालजी टंडन के साथ जाने में इनका भविष्य सुरक्षित नहीं है। ठाकुरों और बाभनों का जातीय दंभ अब टूट चुका है। राजनीति के मामले में ये पूरी तरह अवसरवादी हो गए हैं। इनकी ताजा सोच यही है कि जैसे बहै बयार, पीठ वाहे को कीजै। बनिया तो वैसे भी मलिकार के कंधों की सवारी करते रहे हैं। जब मलिकार ही नहीं रहे तो उनकी फितरत मौकापरस्ती के लिए आजाद हो गई।
कायस्थ लंबे समय तक खुद को नवाब समझते रहे। अंग्रेजी राज का उन्होंने भरपूर फायदा उठाया था। लेकिन बाद में अपनी श्रेष्ठता बनाए नहीं रख सके। राजनीति के मामले में वे औरों का मुंह जोहने लगे। ये सभी जातियां एक समय कांग्रेस का आधार हुआ करती थीं। लेकिन जब इनका ही आधार नहीं रहा तो ये कांग्रेस को क्या आधार देतीं। लिहाजा, इनके साथ ही उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की निर्णायक स्थिति खत्म होती गई।
बीजेपी की हालत तो न घर की, न घाट की जैसी है। राम जन्मभूमि आंदोलन में उसके साथ सबसे ज्यादा पिछड़ी जातियां ही आई थीं। लेकिन बीजेपी के साथ मुश्किल ये है कि वह कल्याण सिंह को आगे करने के बावजूद खुद को पिछड़ी जातियों के चैंपियन के बतौर नहीं पेश कर सकती। आज पिछड़ी जातियों के पास सत्ता तक पहुंचने के दूसरे रास्ते हैं तो उन्हें किसी रामनामी की जरूरत नहीं है। बाभन और ठाकुर तो चाहकर भी रामनाम का जाप करके बीजेपी को नई ताकत नहीं दे सकते। (जारी)
दलित और पिछड़ी जातियां इस समय उत्तर प्रदेश की राजनीति में सबसे प्रखर हैं। उनकी ये प्रखरता मुलायम, मायावती, बेनीप्रसाद वर्मा और सोनेलाल पटेल में प्रतिनिधित्व पा रही है। मायावती पर भ्रष्टाचार का आरोप हो, मुलायम सरकार के दामन पर निठारी के बच्चों के खून और मेरठ में ढाई सौ से ज्यादा हत्याओं का दाग लगा हो या सोनेलाल पटेल का अपना दल बबलू श्रीवास्तव और अबू सलेम जैसे अपराधियों का स्वागत करता हो, इससे दलित और पिछड़ी जातियों के मतदाताओं पर कोई फर्क नहीं पड़ता।
अब ठाकुर, बाभन, बनिया और कायस्थ जैसी सवर्ण जातियों की बात। इन सभी जातियों की अलग-अलग महासभाएं आपको मिल जाएंगी, लेकिन इनकी राजनीतिक हैसियत आज दो कौड़ी की भी नहीं है। परिवारो के विभाजन या पुरानी आदतों के चलते इनकी जमीनें बिकती रहीं। बाभन तो वैसे भी पराश्रयी थे, उनके पास ज्यादा जमीन भी नहीं रही है। आजादी के बाद के बीस-पच्चीस सालों तक उत्तम खेती, मध्यम बान, निपट चाकरी भीख निदान की सोच के चलते किसानी से चिपके रहे। फिर लड़के नौकरी करने निकले तो मास्टरी और क्लर्की तक निपट गए। जोत घटती गई, खेती के खर्च बढ़ते गए। लड़के पुरानी आन-बान-शान को बनाए रखने के लिए पढ़कर दारोगा से लेकर आईएएस, पीसीएस और डॉक्टर-इंजीनियर बनने का ख्वाब देखने लगे। जो बन गए, उनके परिवार सही-सलामत रहे। और जो ज्यादा नहीं पढ़ सके, वो ईंट भठ्ठे के मालिक या ठेकेदार बन गए। बुलेट के बाद हीरो होंडा और फिर बजाज पल्सर पर चलने लगे। लेकिन खेती लगातार घाटे का सौदा बनती गई। बाहर से नकद नोट न आएं तो जरूरत भर का गेहूं-दाल-धान तक उपजाना दूभर हो गया। एक लड़के की पढ़ाई का खर्चा उठाना तक मुश्किल हो गया।
इस बीच पिछड़ी जातियां इतनी तेजी से आगे बढ़ीं कि इनके हाथों के तोते उड़ गए। कल के मलिकार आज किसी तरह अपनी हैसियत बचाये रखने को मजबूर हैं। जो सत्ता में आता दिखेगा, ये उन्हीं के साथ जाएंगे, चाहे वह मुलायम हों या मायावती। इनको इतना यकीन हो गया है कि राजनाथ सिंह या लालजी टंडन के साथ जाने में इनका भविष्य सुरक्षित नहीं है। ठाकुरों और बाभनों का जातीय दंभ अब टूट चुका है। राजनीति के मामले में ये पूरी तरह अवसरवादी हो गए हैं। इनकी ताजा सोच यही है कि जैसे बहै बयार, पीठ वाहे को कीजै। बनिया तो वैसे भी मलिकार के कंधों की सवारी करते रहे हैं। जब मलिकार ही नहीं रहे तो उनकी फितरत मौकापरस्ती के लिए आजाद हो गई।
कायस्थ लंबे समय तक खुद को नवाब समझते रहे। अंग्रेजी राज का उन्होंने भरपूर फायदा उठाया था। लेकिन बाद में अपनी श्रेष्ठता बनाए नहीं रख सके। राजनीति के मामले में वे औरों का मुंह जोहने लगे। ये सभी जातियां एक समय कांग्रेस का आधार हुआ करती थीं। लेकिन जब इनका ही आधार नहीं रहा तो ये कांग्रेस को क्या आधार देतीं। लिहाजा, इनके साथ ही उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की निर्णायक स्थिति खत्म होती गई।
बीजेपी की हालत तो न घर की, न घाट की जैसी है। राम जन्मभूमि आंदोलन में उसके साथ सबसे ज्यादा पिछड़ी जातियां ही आई थीं। लेकिन बीजेपी के साथ मुश्किल ये है कि वह कल्याण सिंह को आगे करने के बावजूद खुद को पिछड़ी जातियों के चैंपियन के बतौर नहीं पेश कर सकती। आज पिछड़ी जातियों के पास सत्ता तक पहुंचने के दूसरे रास्ते हैं तो उन्हें किसी रामनामी की जरूरत नहीं है। बाभन और ठाकुर तो चाहकर भी रामनाम का जाप करके बीजेपी को नई ताकत नहीं दे सकते। (जारी)
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