Wednesday 31 October, 2007

नक्सली और श्री श्री की राज-नीति कला

इस समय नक्सली समस्या सरकार को ही नहीं, आर्ट ऑफ लिविंग के गुरु श्री श्री रविशंकर को भी परेशान किए हुए है। देश के 600 ज़िलों में से 172 में माओवादी नक्सली पहुंच चुके हैं। ऊपर से करीब 100 ज़िलों में किसान खुदकुशी कर रहे हैं। कहीं इन ज़िलों के किसान भी नक्सलियों की शरण में चले गए तो? श्री श्री रविशंकर किसके कहने पर विदर्भ के किसानों के बीच गए थे, ये तो मुझे नहीं पता, लेकिन यह बात जगजाहिर हो चुकी है कि भरी सभा में उन्होंने किसानों से वचन लिया कि वे कभी भी नक्सली नहीं बनेंगे।

आप कहेंगे कि अहिंसा और प्रेम का संदेश देनेवाले श्री श्री ने ऐसा किया तो इसमें गलत क्या है? गलत है क्योकि वे वहां आध्यात्म का संदेश देने नहीं बल्कि राजनीतिक वक्तव्य देने गए थे। देखिए, गुजरात दंगों के ताज़ा स्टिंग ऑपरेशन पर उनका क्या कहना है।

मैं गुजरात पर खुलासा करनेवाले पत्रकार को बधाई देता हूं। लेकिन मैं उनसे अनुरोध करूंगा कि वे (1984 के) सिख दंगों पर भी ऐसा खुलासा करें।...यह (गुजरात में दंगाइयों का बर्ताव) हमारी संस्कृति में नहीं है। लेकिन हमें समझना पड़ेगा कि एक धर्म के अतिवाद का दूसरे धर्म के अतिवाद में बदलना तय है। आप किसी धर्म के लोगों से हमेशा नरमी से बरतने की उम्मीद नही कर सकते।
आप ही बताइए, श्री श्री रविशंकर किसकी भाषा बोल रहे हैं। उनकी भाषा और भाजपा या संघ परिवार के किसी नेता के बयान का कोई फर्क रह गया है क्या? क्रिया-प्रतिक्रिया का यह सिद्धांत तो सबसे पहले नरेंद्र मोदी ने ही गोधरा के बाद हुए दंगों पर लागू किया था। फिर रविशंकर घोषित क्यों नहीं कर देते कि वो भाजपा और संघ की राजनीति के साथ हैं? वे क्यों दुनिया भर में घूम-घूमकर अहिंसा, प्रेम और जीने की कला का पाठ पढ़ा रहे हैं?

विदर्भ के किसानों के बीच बोले गए उनके कुछ और वचन काबिलेगौर हैं। जब एक किसान नेता ने उनसे कहा कि विदर्भ के किसानों की सबसे बड़ी समस्या कपास की कम कीमतों का मिलना है, तब श्री श्री का कहना था : हम इस देश को इथियोपिया नहीं बनने दे सकते जहां लोग पूरी तरह सरकारी सहायता पर निर्भर हो गए हैं...किसानों को शून्य बजट और रसायनों से मुक्त खेती करनी चाहिए। यानी श्री श्री कह रहे हैं कि किसान खाद और बीज पर पैसा ही क्यों खर्च करते हैं! जब किसान खेती पर पैसा ही खर्च नहीं करेंगे तो उन्हें कर्ज क्यों लेना पड़ेगा और कर्ज नहीं लेगें तो परेशान होकर जान भी नहीं देंगे। धन्य है आप श्री श्री रविशंकर जी और आपका संदेश तो आपसे भी ज्यादा धन्य हैं!!!

श्री श्री अपना यह प्रवचन यवतमाल ज़िले के बोधबोदन गांव में कर रहे थे। इस अकेले गांव में 12 किसान खुदकुशी कर चुके हैं। गुरु जी ने गुरुदक्षिणा के रूप में गांव वालों से यह वचन लिया कि वे कृषि संकट से खुद लड़ेंगे। सरकार की तरफ नहीं देखेंगे और कोई भी आत्महत्या नहीं करेगा। यानी मरो, मगर सरकार के खिलाफ कुछ मत कहो। एक बार फिर धन्य हैं आप श्री श्री रविशंकर जी।

आखिर में श्री श्री की एक और मार्के की बात। उन्होंने कहा : नक्सलवाद इस समय देश की सबसे बडी़ समस्या है। वे (नक्सली) आध्यात्म के विरोधी हैं। वे उद्योग के विरोधी हैं और मानते हैं कि सभी अमीर लोग बुरे हैं। ईसाई और मुस्लिम युवक हिंदुओं की तरह नक्सलवाद की तरफ नहीं जाते क्योंकि उनमें आध्यात्म का इतना अकाल नहीं है। इतना कुछ कहने के बाद श्री श्री ने किसानों को शपथ दिलवाई कि वे कभी भी खुद को नक्सली नहीं बनने देंगे। इस तरह श्री श्री ने साफ कर दिया कि आर्ट ऑफ लिविंग का ये मसीहा कितना ‘निष्पक्ष’ है और उसका ‘एजेंडा’ क्या है।

अजगरी जड़ता पर ऊंघते पत्थर के साथी

विधेयक, अध्यादेश और अधिनियम। कल्पना कीजिए पांच भूमिहीन युवकों की टोली रात के 11 बजे लालटेन की रोशनी में अगर इन शब्दों के अर्थ पर माथापच्ची कर रही हो, तो क्या सीन रहेगा। लेकिन मानस इन्हीं काल्पनिक दृश्यों को जी रहा था। पटना से निकली ‘जनमत’ के लेख अक्सर इस अपढ़, मगर जिज्ञासु टोली में खेल-खेलकर पढ़े और समझे जाते थे। जैसे, एक लेख था जिसमें छपा था कि केंद्र सरकार इस विधेयक को संसद से पास नहीं करा सकी। इसलिए यह अधिनियम नहीं बन सका और सरकार अब इसे अध्यादेश के जरिए लागू करने जा रही है।

इस पर आपस में बहस चल रही थी। मानस ने कहा – आप लोग एक-एक कर बताइए कि अध्यादेश और अधिनियम क्या होता है, इनमें क्या अंतर है। सभी बेहद ईमानदारी और संजीदगी से इसका अर्थ निकालने में जुट गए। आखिर में सबसे समझदार साथी ने बताया कि आदेश अगर आधा ही जारी करके बीच में रोक लिया जाए तो वह अध्यादेश होता है और नियम बन जाए, लेकिन उसके साथ पूरी शर्तें न जोड़ी जाएं तो वह अधिनियम होता है। सब ने अपनी-अपनी बात कह ली तो मानस ने कहा कि आप सभी लोगों की बातों में थोड़ा-थोड़ा सच है। फिर उसने अध्यादेश और अधिनियम के साथ ही विधेयक का अर्थ भी अपनी इस अभिन्न मित्रमंडली को तफ्सील से बताया।

मानस इस तरह किसानों और रेल मजदूरों के बीच खूब मौज लेते हुए काम करता जा रहा था। ये लोग भी उसे घर के सदस्य जैसा समझने लगे थे। बहन अगर अपनी ससुराल जाने से इनकार कर रही हो, तब भी मिस्त्री उसे मानस के पास ही भेजते कि साथी इसको समझाओ। मिस्त्री की मां को वह चाची कहता था और चाची उसे अपने बेटा-बेटी से ज्यादा प्यार करती थीं। लेकिन ऊपर से, नेताओं की तरफ से उसके सवालों की बराबर उपेक्षा जारी थी। हर सवाल को लीपापोती करके और उसकी निजी समस्या बताकर टाल दिया जाता।

मानस को इससे भयंकर परेशानी होने लगी। उसे अजीब-अजीब से सपने आने लगे। अंदर-बाहर के पार्टी नेताओं की बातों और अदाओं को वह याद करता तो उसे लगता कि कोई विशाल अजगर जमीन के भीतर चलता-चलता ठहर गया है। ज़मीन की उठी हुई मिट्टी में उसकी आकृति साफ देखी जा सकती है। मिट्टी के इस उभार को छिपाने के लिए उस पर जगह-जगह बैठे हैं पत्थर के इंसान जिसमें से कोई सोते-सोते अपने पैरों की उंगलियों को बार-बार ऊपर नीचे कर रहा है तो कोई एक ही लय से अपनी आंखें खोल-बंद कर रहा है।

जैसे ही कोई इस सोए हुए अजगर तक पहुंचने या छूने की कोशिश करता है तो ये जड़वत लोग खतरनाक सरीसृप में बदल जाते हैं। इनका मुंह किसी बिचखोपड़ा जैसा (गोह प्रजाति का एक बड़ा जीव जिसके बारे में माना जाता है कि उसके काट लेने पर आदमी की खोपड़ी बीच से फट जाती है) हो जाता है और ये आगे से दो हिस्से में बंटी अपनी लंबी जीभ निकालकर उसे गड़पने की कोशिश करने लगते हैं। लेकिन मजे की बात यह है कि ऐसा करते हुए भी ये अपनी जगह से जरा-सा भी नहीं हिलते-डुलते। इनसे बचने का एक ही तरीका था कि आप अजगर से ही दूर रहो। उसे छेड़ो मत। इनकी ‘कर्तव्यपरायणता’ में कोई दखल न दो।

लेकिन मानस के लिए ऐसा कैसे संभव था? वह तो अपनी दुनिया को विस्तार देने के लिए नया समाज बनाने के संघर्ष में लगी दुनिया में आया था। और, यहां तो उसकी दुनिया आम दुनिया से भी ज्यादा छोटी होती जा रही थी। वह कुएं का मेढक बनता जा रहा था। उसे सोते-जागते लगने लगा कि कोई उसके दिल-दिमाग को निचोड़ रहा है, उसका गला घोंट रहा है।

अभी बाकी है मानस के घुटन को तोड़ने की कथा

Tuesday 30 October, 2007

मैं प्रमोद महाजन का इंटरव्यू करना चाहता था

आज बीजेपी नेता प्रमोद महाजन का 58वां जन्मदिन है। मुझे पता है कि कोई भी हिंदी ब्लॉगर इस लांछित नेता पर कुछ नहीं लिखेगा। लेकिन मैं लिखना चाहता हूं क्योंकि प्रमोद महाजन जीते-जी मेरे लिए एक केस स्टडी थे। साल 2004 में बीजेपी की जबरदस्त हार के बाद किसी चैनल ने उनका लंबा इंटरव्यू लिया था, जिसमें प्राइमरी स्कूल मास्टर के इस बेटे ने अपनी पूरी रामकहानी सुनाई थी। तभी से मैं उनसे लंबा और अंतरंग इंटरव्यू करना चाहता था। मैं प्रमोद महाजन के अंदर की उस यात्रा को जानना-समझना चाहता था, जिससे होते हुए बचपन से ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े एक आदर्शवादी किशोर ने 50 साल की उम्र तक पहुंचते-पहुंचते घाघ राजनेता बनने की मंजिल तय की थी।

उहापोह में लगा रहा कि प्रमोद महाजन मुझे इंटरव्यू का समय क्यों देंगे, फिर समय दे भी दिया तो इस तरह की अंतरंग बातें क्यों करेंगे। मार्च 2005 में मैं मुंबई आ गया तो एक मित्र ने बताया कि तुम आत्मकथा लिखने के बहाने उनसे लंबी बात कर सकते हो। साल भर से ज्यादा वक्त गुजर गया। इसी बीच 22 अप्रैल 2006 को प्रमोद महाजन को उनके उसी छोटे भाई प्रवीण महाजन से गोली मार दी, जिसे उन्होंने अपने बेटे की तरह पाला था। मित्र ने बताया कि प्रमोद महाजन अगर बच गए तो समझो कि उनको दूसरी ज़िंदगी मिलेगी और वे पूरी तरह ठीक होने के बाद तुमको अंतरंग इटरव्यू दे सकते हैं। लेकिन ऐसा कभी नहीं हुआ क्योंकि हिदुजा अस्पताल में 13 दिन मौत से जूझने के बाद वो हार गए।

इंटरव्यू लेने की मेरी इच्छा हमेशा के लिए अधूरी रह गई। मैं उनसे इसलिए इंटरव्यू लेना चाहता था क्योंकि मैं भी मास्टर का बेटा हूं। मेरे आसपास के बहुत सारे हिंदी पत्रकार भी मास्टर के बेटे हैं। गांवों की आबादी का जो हिस्सा शहरों में राजनीति से लेकर नौकरियों में अच्छी जगह बना पा रहा है, उनमें मास्टरों के बेटों की अच्छी-खासी संख्या है। मैं उनसे इसलिए इंटरव्यू करना चाहता था कि मैं भी बचपन में आदर्शवादी था। शाखा में जाकर नमस्ते सदा वत्सले मातृभूमि मैंने भी गाया था। प्रमोद महाजन काफी वक्त तक आदर्शवादी देशभक्त थे, ऐसा मेरा विश्वास है। इमरजेंसी के कठिन दौर से सक्रिय राजनीति में आना दिखाता है कि वो राजनीति में दुनियादारी के लिए नहीं आए थे।

प्रमोद महाजन ने जिस तरह 21 साल की उम्र में पिता के निधन के बाद मां से लेकर भाई-बहनों की ज़िम्मेदारी संभाली, वह मेरे लिए बड़ी अनुकरणीय मिसाल थी। मैं समझना चाहता था कि अचानक हादसों के बाद इतनी आंतरिक मजबूती कहां से आ जाती है। प्रमोद ने साइंस और पत्रकारिता में ग्रेजुएशन किया था। पॉलिटिकल साइंस में पोस्ट-ग्रेजुएशन किया। मेरी भी इच्छा थी बीएससी के बाद पॉलिटिकल साइंस पढ़ने की। नहीं पढ़ पाया।

लेकिन यहीं सारी समानताएं खत्म हो जाती हैं। प्रमोद महाजन की ज़िदगी में 1990 के बाद भयंकर तब्दीली आनी शुरू हो गई। वो राजनीति के घाघ बन गए। शायद मरने के वक्त उनसे बड़ा कोई राजनीतिक मैनेजर नहीं था। अमर सिंह जैसे लोग तो उनके पासंग बराबर भी नहीं ठहरेंगे। प्रमोद महाजन ने रिलायंस जैसे समूह को साध कर रखा था। जिस भी कॉरपोरेट घराने को वो चाहते, अपने इशारे पर नचा सकते थे। प्राइमरी स्कूल के बेटा का इस तरह से राजनीतिक घाघ बन जाना मेरे लिए जबरदस्त जिज्ञासा का विषय रहा है। खैर, इस जिज्ञासा को शांत करने का अब कोई उपाय नहीं है। बस कयास लगाए जा सकते हैं।

एक बात मैं आखिर में साफ कर दूं कि राजनीति तो कुछ सालों में बदल जाती है, बदल सकती है। लेकिन किसी देश की संस्कृति सैकड़ों सालों में बदलती है। राजनीति वालों की चौहद्दी हो सकती है। लेकिन संस्कृति के क्षेत्र में सक्रिय हम जैसे लोगों की कोई चौहद्दी नहीं है और न ही राजनीति का कोई ठेकेदार हम सांस्कृतिक कर्मियों को किसी सीमा में बांध सकता है। हम तो नई आत्मा, नए इंसान की रचना करना चाहते हैं। इसलिए हम कहीं से भी सैंपल उठा सकते हैं, कोई भी केस स्टडी ले सकते हैं। आज प्रमोद महाजन का जिक्र मैंने इसी संदर्भ में किया है।

कहना अच्छा तो नहीं लगता, फिर भी कहता हूं

“लिखने वालों के लिए दुनिया की सबसे कठिन कहानी आत्मकथा ही होती है। … ध्यान रहे, इस अदालत में आप ही जज हैं, आप ही मुलजिम और आप ही वकील। हम जैसे श्रोतागण अभी सुन रहे हैं, अभी उठकर कहीं और चले जाएंगे, लेकिन यह अदालत आपकी आखिरी सांस तक आपके भीतर लगी रहेगी।” कल अपने चंदू की यह टिप्पणी पढ़ने के बाद मैं सोचने लगा कि मैं क्या लिख रहा हूं, क्यों लिख रहा हूं? दस दिन पहले तक कितना मस्त था! रोज़ दफ्तर से आते-जाते मन ही मन कुछ गाता-गुनता रहता और सुबह होते-होते लिख देता था। लगता था कि रोज़मर्रा की ज़िंदगी में हम जिन छोटे-बड़े सवालों से जूझ रहे हैं, मैं उनके समाधान का कोई सूत्र निकाल रहा हूं।

मुझे नहीं पता था कि मेरा यूं गुनना-गुनगुनाना भी किसी के खलल में बाधा डाल सकता है। एक मामूली-सी बात न जाने क्यों उन्हें गैर-मामूली लग गई। उनका पत्थर कलेजा भावुक हो गया। वे बौखला गए। मैं भी दुखी हो गया और गुजरे वक्त के जख्मों को कुरेद-कुरेद कर ताज़ा करने लगा। पुराने लिखे गए रुक्के ढूंढे गए और मैं लिखने लगा। काश, उनका यही पत्थर कलेजा बीस साल पहले पिघला होता तो शायद योगी बनने की राह पर निकल चुका मैं दुबारा सांसारिक नहीं हुआ होता। खैर, अपने तईं किसी काम को पूरा किए बिना उसे बीच में छोड़ देना मेरी फितरत नहीं है। मानस की कथा शुरू कर दी है, तो उसे बीच भंवर में मैं छोड़ नहीं सकता। हां, इतना ज़रूर है कि इसे कहने में खुशी कम, तकलीफ ज्यादा हो रही है तो इसे जितना जल्दी हो सकेगा, खत्म कर दूंगा।

बात कल जहां छोड़ी थी, वहीं से आगे बढ़ाते हैं। साथी विष्णु की सीमाएं थीं। हर समाज और संगठन में ऐसे लोग होते हैं। लेकिन जब पार्टी के राज्य सचिव वर्मा जी उनसे भी चार कदम आगे निकले, तब मानस की घुटन बढ़ने लगी। वर्मा जी दो-चार महीने पर आते तो वह उनसे किसी अमूर्त दर्शन नहीं, बल्कि सोचने के ठोस तरीके के बारे में बात करने की कोशिश करता। लेकिन वर्मा जी झल्ला जाते। कहते – और जगहों के साथी संगठन और संघर्ष की बातें करते हैं। आप हैं कि अपनी ही लेकर बैठ जाते हैं। मानस शांति से कहता – वर्मा जी, संगठन और संघर्ष की बातें तो मैं जनता के बीच में बैठकर सुलझा लेता हूं। क्या करना है ये तय है, तो कैसे करना है, यह तो जहां काम हो रहा है, जो इसे कर रहे हैं, उन्हीं की सहमति से तय होगा। आप और मैं थोड़े ही ऊपर से संघर्ष का कोई तरीका थोप सकते हैं।

मानस एक-दो बार वर्मा जी को किसान और मजदूर साथियों के बीच ले गया। लेकिन वर्मा जी ने जैसी बातें की, जो नुस्खे बताए उससे लगा जैसे चार उम्रकैद काटकर लौटा कोई शख्स पहली बार बाहर के लोगों से बात कर रहा हो। बात का न कोई सिर, न कोई पैर, व्यावहारिक संघर्ष से जिसका दूर-दूर तक कोई नाता नहीं। इसी बीच मानस ने मार्क्स-एंगेल्स की एक किताब, जर्मन आइडियोलॉजी पढ़ी। गौर से पढ़ी, बार-बार पढ़ी। वह जितना पढ़ता, उतना ही आश्चर्य में डूबता जाता क्योंकि मार्क्स-एंगेल्स ने अपने समकालीन चिंतकों और दार्शनिकों की जिन बातों पर खिंचाई की थी, उन्हें द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के खिलाफ बताया था, वही सोच, वही बातें पार्टी के वरिष्ठ साथियों-नेताओं में साफ-साफ नज़र आ रही थीं।

उसे यकीन होने लगा कि जिसे वह क्रांतिकारी पार्टी मान रहा है, उसके कुछ नेताओं के अचेतन में सार्थक बदलाव नहीं, बल्कि जैसा है, उसे वैसा ही बचाए रखने की किसान सोच ज्यादा हावी हो गई है। इसी बीच पटना के एक वरिष्ठ साथी ने जब ये विचार रखा कि भारत के सभी मार्क्सवादी-लेनिनवादी गुट दरअसल सर्वहारा की नहीं, किसानों की पार्टियां हैं, तो उसे इसमें काफी दम नज़र आया। लेकिन उन साथी को विलोपवादी बताकर पार्टी से रुखसत किया गया। और, वह जबरदस्त संत्रास में फंसने लगा। किसी भी सूरत में उसे घर लौटकर जाना गवारा नहीं था। लेकिन उलझे हुए सूत्रों को सुलझाए बिना रुकना भी संभव नहीं था।

अभी बाकी है मानस की अंतर्कथा

Monday 29 October, 2007

अनामियों-बेनामियों से आजकल मोदी भी तंग हैं

अनाम और बेनामी लोग आजकल बेहद चालाक और शातिर होते जा रहे हैं। वर्ल्डप्रेस या ब्लॉगर पर दी गई सुविधाओं का इस्तेमाल करते हुए वे अब अपना नाम भी रखने लगे हैं। यहां तक कि वेबपेज के नाम वे किसी की भी साइट चस्पा कर दे रहे हैं। काकेश भाई के ब्लॉग पर मैं इसका नमूना देख चुका हूं और इधर बराबर अपने ब्लॉग पर भी देख रहा हूं। ऐसे लोग कभी एनॉनिमस के नाम से टिप्पणी करते थे, तो कभी खुद को बेनामी बता देते थे। लेकिन अब तो बाकायदा राजन मुंबई और अजय वर्मा पटना का नाम लिखकर झांसा दे रहे हैं कि वे मुंबई या पटना से टिप्पणी कर रहे हैं। कुछ और कलाकार हैं जो अभिव्यक्ति नाम की लड़की या चापलूसी लाल जैसे बनावटी नाम का ढोंग कर रहे हैं।

मैं समझ नहीं पाता कि इस शुतुरमुर्गी अदा का मतलब क्या है। इनफॉरमेशन टेक्नोलॉजी के इस दौर में कम से कम आपके कंप्यूटर के आईपी एड्रेस से तो पता चल ही जाता है कि आप मुंबई या पटना से नहीं, गाज़ियाबाद और दिल्ली में बैठकर यह प्रपंच कर रहे हैं और नाम बदल-बदल कर रहे हैं। मैं भी अपने साइटमीटर में दर्ज सूचना और आपकी टिप्पणी के समय के मिलान से इसे आसानी से देख सकता हूं। तकनीक में ज्यादा पारंपत नहीं हूं, वरना आपके चेहरे को भी तार-तार कर देता। आप से बचने का एक तरीका यह है कि मैं एनॉनिमस टिप्पणियों का रास्ता ही बंद कर दूं या टिप्पणियों को मॉडरेशन में डाल दूं। लेकिन न तो मेरे पास मॉडरेशन के लिए पर्याप्त समय है और न ही मैं कुछ लोगों के लिए अपने कान बंद करना चाहता हूं।

फिर मैं आपको बंद करके कर ही क्या सकता हूं। आजकल तो आप एक राजनीतिक परिघटना बन गए हैं। आप जैसे अनाम बेनामियों ने नरेंद्र मोदी तक को नहीं छोड़ा है। जैसे-जैसे गुजरात में विधानसभा चुनावों की तारीख नजदीक आती जा रही है, अनामियों की हरकतें बढ़ गई हैं। वो पैंफलेट निकाल रहे हैं, परचे बंटवा रहे हैं, जिनमें मोदी के दावों की कलई खोली गई है। इनमें लिखी बातों से लगता है कि यह भीतरघातियों का काम है क्योंकि इसमें मोदी सरकार की बड़ी क्लासीफाइड जानकारियां हैं।

इन परचों में ब्यौरेवार तरीके से बताया गया है कि कैसे नरेंद्र मोदी और उनके इर्दगिर्द कुंडली मारकर बैठी मंडली ने निजी स्वार्थो के लिए हिंदू वोटों और संघ परिवार की मेहनत का इस्तेमाल किया है। बीजेपी के कुछ नेताओं का कहना है कि या तो मोदी के राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी बौखला गए हैं या गुजरात में इस बार जनता का राजनीतिक मूड बदल गया है।

हिंदी ब्लॉगिंग की दुनिया में पाठकों के राजनीतिक मूड की बात तो नहीं की जा सकती है। लेकिन इतना तो कहा ही जा सकता है कि अनामी-बेनामी टिप्पणियां विरोधियों की बौखलाहट को साफ कर देती हैं।

बड़े-बड़े हिपोक्रेट भी हार जाएं कुछ कॉमरेडों से

मानस की कहानी आगे बढ़ाने से पहले एक बात साफ कर दूं। जहां प्रतिभाओं का अनादर हो, उस देश में लोकतंत्र नहीं हो सकता। और, जो पार्टी प्रतिभाओं की कद्र नहीं कर सकती, वह लोकतंत्र ला ही नहीं सकती। आखिर उपलब्ध मानव और प्राकृतिक संसाधनों का व्यापक अवाम के हित में महत्तम इस्तेमाल ही तो लोकतंत्र है। कुछ ही दिनों के अनुभव से मानस को लगने लगा कि पार्टी के साथियों में विचारधारा और लोकतंत्र को लेकर अजीब-सी जड़ता है, घुटन है, उदासीनता है। खैर, वह तो कबीर की सधुक्कड़ी और बुद्ध की बेचैनी लेकर घर से निकला था और व्यवहार ही उसे असली ज्ञान दे सकता है तो वह इधर-उधर देखने के बजाय व्यवहार में जुट गया।

छात्रों के बीच में वह कभी-कभार ही जाता था। लेकिन कुछ ही दिनों में उसने रेलवे मजदूरों में अपना ठिकाना बना लिया। कुछ गांवों के दलित भूमिहीन किसानों को भी अपना साथी बना डाला। रेलवे के खलासी हामिद भाई पहले कबीरपंथी थे, लेकिन काफी तर्क-वितर्क के बाद वो मानस की राजनीतिक सोच से इतने प्रभावित हुए कि नक्सली भूमिगत कार्यकर्ता होने के बावजूद उसे अपने यहां शेल्टर देने को तैयार हो गए। फिर धीरे-धीरे कई मजदूर उसे अपना मानने लगे। कई गांवों में हालत ये हुई कि पूरा का पूरा चमार टोला उसका अपना हो गया। कई-कई गांव दूर तक लोग उसे बुलाकर छोटे-मोटे विवादों का समाधान करवाने लगे।

शहर में उसने नए लोगों की एक छोटी-सी टीम बनाई। इस टीम की पहल पर शहर के बाहरी छोर पर किसानों को मामूली मुआवजा देकर बन रही परियोजना के खिलाफ जबरदस्त जनांदोलन विकसित किया गया। बीजेपी तक से जुड़े कार्यकर्ता आंदोलन से होते हुए पार्टी में आ गए। कहने का मतलब यह कि दो-चार सालों में ही ज़िले में पार्टी पर छाई जड़ता टूटने लगी। व्यवहार के धरातल पर काम दिखने लगा। पुराने जड़ सदस्यों से निजात पाने के बाद पार्टी में नए लोग खिंचने लगे। हालांकि ऊपर से निर्देश मिलने के बावजूद मानस ने उन्हें सदस्यता देने में हड़बड़ी दिखाना उचित नहीं समझा।

मानस मस्त था। खुश था। उसके मस्तिष्क में सोच और अनुभूति के नए-नए अंकुर हर दिन फूटते थे। खासकर तब, जब वह पैदल दो-चार किलोमीटर का सफर तय करता था। लगता था कि जैसे दिमाग के कंप्यूटर में सुसुप्त पड़े प्रोग्राम खुलते जा रहे हैं, चिप्स खिल रही हैं, अंखुए फूट रहे हैं। लेकिन दिक्कत थी कि वह इन बातों को किससे बांटें। नीचे के कैडर से आप उसकी समस्याएं शेयर कर सकते हैं, अपनी अनुभूतियां तो बराबर के लोगों या बड़ों से ही बांटी जा सकती हैं।

इस मुश्किल से निकलने के लिए उसने किताबों को अपना साथी बना लिया। हर महीने लेवी (टैक्स जो पार्टी के सदस्यों और सहानुभूति-कर्ताओं से वसूला जाता है) का बड़ा हिस्सा तो साथी विष्णु आकर ले जाते थे। बाकी जो बचता था, उससे वह किताबें खरीद लेता था क्योंकि उसका कोई अपना खर्च था नहीं। खाना-पीना किसी न किसी साथी के यहां होता था, कपड़े-लत्ते का खर्च भी वही लोग उठाते थे। मानस जब भी शहर में खाली रहता तो किसी शेल्टर में बैठकर राजनीति, दर्शन या अर्थशास्त्र की किताबें पढ़ता। शहर में रेलवे की लाइब्रेरी काफी शानदार थी तो वह दिन में जाकर वहां भी पढ़ता था।

इस तरह व्यवहार काफी सरपट और दुरुस्त चल रहा था। लेकिन किताबों के पढ़ने के बाद मानस के साथ सिद्धांत में समस्या होने लगी। उसे लगने लगा कि पार्टी के साथी जिन सूत्रों को विचारधारा का नाम देते हैं, वे तो काम करने के व्यावहारिक तरीके हैं। वो किसी का वर्ल्ड-व्यू कैसे बन सकते हैं? उसके सोचने का तरीका कैसे तय कर सकते हैं?

कॉमरेड विष्णु से तो कोई बात हो नहीं सकती थी क्योंकि वो पूरे ‘कपूत’ थे, लीक से हटकर कुछ बोलते और सोचते ही नहीं थे। मानस को उनसे तब से और चिढ़ हो गई जब वो जाड़े की एक रात में आए। रजाई एक ही थी जो उन्हें दे दी गई। मानस और एक दूसरे स्थानीय साथी जब चद्दर और फटहे कंबल में गुडगुडा रहे थे तो रजाई के भीतर से विष्णु जी की आवाज़ आई – साथी, सोचिए इस जाड़े में फुटपाथ पर सो रहे लोगों का क्या हाल होगा। मन तो हुआ कि रजाई खींचकर उन्हें उठाकर बाहर फेंक दे, लेकिन क्या करता? वरिष्ठ साथी थे, तीन ज़िलों के प्रभारी थे।

आगे है - टूटा-टूटा एक परिंदा ऐसा टूटा कि फिर...

Sunday 28 October, 2007

एक भूमिगत कार्यकर्ता की पहली दीक्षा

मानस के लिए ये जिंदगी का सबसे बड़ा फैसला था। एक ऐसा फैसला जो अतीत से उसके सारे रिश्तों को तोड़ देनेवाला था। यहां तक कि यूनिवर्सिटी में जिन छह लोगों की मंडली के साथ उसने समाज को बदलने के सपने देखे-दिखाए थे, ज़िंदगी के गीत गाए थे, उनसे भी उसका नाता टूट रहा था। रह-रह कर मन में कबीर के दोहे का भाव तारी हो जाता था कि पत्ता टूटा डारि से, ले गइ पवन उड़ाइ, अबके बिछुड़े कब मिलैं, दूरि परे हैं जाइ। ऐसा लगता था जैसे एक दुनिया को छोड़कर वह किसी दूसरी अनजान दुनिया में जा रहा हो। हां, ये उसके लिए पूरी तरह से एक अनजान, अपरिचित दुनिया थी क्योंकि वह एक क्रांतिकारी पार्टी का अंडरग्राउंड कार्यकर्ता बनने जा रहा था।

मां-बाप और घर परिवार से तो वह पहले ही विदा ले चुका था। अब उन छह दोस्तों से विदाई लेनी थी, जिनके निजी दायरे पिघलकर एक-दूसरे से मिल चुके थे। शायद ही किसी का कोई राज़ हो जो दूसरा न जानता हो। एकदम पारदर्शी रिश्ता। उन्हें आज की कोई सुविधा, सहूलियत या समझौते ने नहीं जोड़ा था, बल्कि उन्हें कल के सपनों ने जोड़ रखा था। उन्हें ‘जिंदगी नई महान आत्मा नई’ रचने की ख्वाहिश ने बांध रखा था। ऐसे में छह के बीच से एक का निकल जाना शरीर के किसी अंग को बिना एनेस्थीसिया लगाए काटकर अलग कर देने जैसा था। सो बिछुड़ते समय गज़ब का रोना-धोना हुआ।

मानस का दिल बहुत भारी था। ऊपर के साथी ने जहां बताया था, वहां कल तक पहुंचना था। लेकिन किसी को यह नहीं बताना था कि वह कहां जा रहा है तो मित्र-मंडली से छिटक कर वह अकेला ही निकला। कई किलोमीटर पैदल ही पैदल चलकर बस स्टैंड पहुंचा, उसी तरह जैसे वह बचपन में बकइयां-बकइयां चलकर तालाब के किनारे जाकर अकेले बैठ जाया करता था। बस स्टैंड पर विदा करने के लिए न किसी का होना तय था और न ही कोई आया था अलविदा कहने। अगली जो भी बस थी, उसमें बैठकर वह साथी की बताई मंजिल के लिए रवाना हो गया। साथ में एक झोला था जिसमें तौलिया था, लुंगी थी, टूथ-ब्रश था, एक कॉपी और कोई किताब थी।

बस 8-10 घंटे में नियत शहर में पहुंच गई। सुबह के यही कोई नौ-साढ़े नौ बजे होंगे। वह बताए पते पर पहुंचा तो पता चला कि वो शख्स ऑफिस जा चुके हैं। दिन भर जहां-तहां घूमने टहलने के बाद रात आठ बजे फिर वहां पहुंचा तब भी दरवाज़े पर ताला लगा हुआ था। नीचे जाकर मकान-मालिक से पूछा तो उन्होंने बताया कि अखिलेश मिश्रा हो सकता है अपने गांव चले गए हों और अब सोमवार की शाम तक ही यहां आएंगे।

शनिवार, इतवार और सोमवार... मानस ने पूरे तीन दिन शहर के पार्कों वगैरह में बिताए। रात को जाकर रेलवे स्टेशन की बेंच पर सो जाया करता था। इस बीच रविवार की रात एक पुलिस वाले ने पूछ ही लिया, “कल से देख रहा हूं। यहां आकर सो रहे हो। या तो तुम जेबकतरे हो या घर से भागे हुए।” उसने बताया कि वह अपने चाचा के यहां आया हुआ है, लेकिन चाचा बाहर गए हुए हैं, कल रात तक आएंगे। उसने चाचा का नाम और पता भी लिखाया। तब जाकर पुलिसवाले को तसल्ली हुई। हां, यह सच था कि उसी शहर में उसके चाचा-चाची रहते थे और कई सांस्कृतिक दोस्त भी थे। लेकिन उसे किसी से भी मिलने की मनाही थी तो वह कैसे किसी के घर जा सकता था?

सोमवार रात नौ बजे से सब सामान्य हो गया। एक हफ्ते तक खाना-पीना-सोना और पढ़ना-पढ़ाना चलता रहा। अखिलेश ने बताया कि उसे तो पार्टी के किसी साथी ने बताया ही नहीं था कि कोई आनेवाला है और वह भी पूर्णकालिक कार्यकर्ता बनकर। पता होता तो वह कहीं नहीं जाता। खैर, इस इलाके के इंचार्ज साथी विष्णु दो-चार दिन में आएंगे। वहीं बता सकते हैं कि काम कैसे और क्या करना है। इस बीच मानस का प्रारंभिक रोमांटिसिज्म दरकने लगा था। उसे ऊब होने लगी थी।

फिर एक दिन रात के करीब दस बजे साथी विष्णु आ ही गए। खाना-वाना खाकर बोले – मुझे सुबह ही 5 बजे की गाड़ी से निकल लेना है तो चलिए छत पर चलते हैं, वहीं बात होगी। अखिलेश ने छत पर दरी-चटाई बिछा दी। एक टेबल लैंप खींचकर लगा दिया। अखिलेश चले गए क्योंकि गोपनीयता बरती जानी थी। साथी विष्णु आ गए, मानस भी आलथी-पालथी मारकर बैठ गया। भूमिगत कार्यकर्ता की पहली दीक्षा शुरू हो गई।

विष्णु जी ने लोकयुद्ध पत्रिका उठाई। उल्टी तरफ से शुरू किया। बोले ये साथी थे पंजाब के जो कुछ महीने पहले गुजर गए, शहीद हो गए। इसके बाद विष्णु जी को झपकी आ गई और वे बैठे ही बैठे करीब पांच मिनट तक सोते रहे। फिर उठे तो उसी भाव में उल्टी तरफ से पत्रिका का अगला पन्ना खोला। बताते गए। बीच-बीच में दस से लेकर बीस मिनट तक बैठे-बैठे सो जाते थे। मानस उसी तरह ध्यानमग्न मुद्रा में जिज्ञासु शिष्य की तरह बैठा रहा। साथी को ऊंधी हुई अवस्था में सोते-उठते देखता रहा, उनकी बातों को ध्यान से सुनता रहा। उसने सोचा कि साथी कहीं से बहुत काम करके आए होंगे। थके होंगे तो इस तरह ऊंधना स्वाभाविक है।

करीब पांच घंटे बीत चुके थे। सुबह के चार बजने वाले थे। अब साथी को तैयार होकर निकलना था। उन्होंने बताया कि इस पत्रिका को लेकर वह ज़िले के साथियों से जाकर मिले। उनसे प्रारंभिक परिचय अखिलेश जी करा देंगे। फिर जैसा उन्होंने बताया है कि उसी तरह वह साथियों को इस पत्रिका के लेखों को पढ़कर समझाए। इस तरह भूमिगत कार्यकर्ता बने मानस की पहली दीक्षा संपन्न हुई। लेकिन उसे उसी दिन लग गया कि क्रांति इतनी उबाऊ और रूटीन तरीके से नहीं हो सकती है। उसने अगले कुछ महीनों में ज़िले के 22 में से 18 पार्टी सदस्यों से कह दिया कि वे केवल सिम्पैथाइजर बनने लायक हैं, उन्हें पार्टी सदस्य बनाए रखने का कोई तुक नहीं है।

अभी बाकी है मानस के मोहभंग की यात्रा

Saturday 27 October, 2007

ज़िंदगी ने एक दिन कहा...

एक बहुत प्यारा-सा गीत पेश है जो हम लोग 20-22 साल पहले गली-मोहल्लों, चौराहों और गांवों में गाया करते थे। नाटक की एक मंडली थी हमारी, जिसका नाम था दस्ता नाट्य मंच। इसमें विमल और प्रमोद भी शामिल थे। आज यूं ही याद आ गया तो विमल से मदद ली और इसे आप सभी के लिए पेश कर रहा हूं। जो लाइनें याद नहीं आईं, उन्हें अपनी समझ से रफू कर दिया है। जिसको याद हो, वे इसे सही कर सकते हैं। इस गीत को शायद गोरखपुर के शशिप्रकाश ने लिखा था। शशिप्रकाश कहां हैं, कैसे हैं, क्या कर रहे हैं नहीं पता।

ज़िंदगी ने एक दिन कहा कि तुम हँसो, तुम हँसो, तुम हँसो
तुम हँसो कि बंधनों के बंध सब बिखर उठें
तुम हँसो कि जिंदगी चहक उठे, महक उठे
तुम हँसो कि खिलखिला पड़े दिशा-गगन
और फिर प्यार के गीत गा उठें सभी
उड़ चलें असीम आसमान चीरते

ज़िंदगी ने एक दिन कहा कि तुम उठो, तुम उठो, तुम उठो
तुम उठो कि उठ पड़ें असंख्य हाथ
चल पड़ो कि चल पड़ें असंख्य पैर साथ
मुस्करा उठे क्षितिज पर भोर की किरण
और फिर प्यार के गीत गा उठें सभी
उड़ चलें असीम आसमान चीरते

जिंदगी ने एक दिन कहा कि तुम उड़ो, तुम उड़ो, तुम उड़ो
तुम उड़ो कि चहचहा उठें हवा के परिंदे
तुम उड़ो कि आसमान चूम ले ज़मीन को
तुम उड़ो कि ख्बाव-ख्बाव सच बनें
और फिर प्यार के गीत गा उठें सभी
उड़ चलें असीम आसमान चीरते

ज़िंदगी ने एक दिन कहा कि तुम जलो, तुम जलो, तुम जलो
तुम जलो कि रोशनी के पंख फड़फड़ा उठें
कुचल दिये गए दिलों के तार झनझना उठें
सुसुप्त आत्मा कहीं गरज उठे
और फिर प्यार के गीत गा उठें सभी
उड़ चलें असीम आसमान चीरते

ज़िदगी ने एक दिन कहा कि तुम रचो, तुम रचो, तुम रचो
तुम रचो हवा पहाड़ रोशनी नई
जिंदगी नई महान आत्मा नई
सांस सांस भर उठे अमर सुंगध से
और फिर प्यार के गीत गा उठें सभी
उड़ चलें असीम आसमान चीरते

ज़िंदगी ने एक दिन कहा कि तुम हँसो
ज़िंदगी ने एक दिन कहा कि तुम उठो
ज़िंदगी ने एक दिन कहा कि तुम उड़ो
ज़िंदगी ने एक दिन कहा कि तुम जलो
ज़िंदगी ने एक दिन कहा कि तुम रचो....

इस बार विदा कर मां, फिर आऊंगा लौटकर

यह एक ऐसे नौजवान की दास्तां है जिसके लिए समाज बदलने की राजनीतिक लड़ाई महज सामाजिक सम्मान की लड़ाई नहीं थी। वह ठीक सामने दिखनेवाले किसी वर्ग-शत्रु से लड़ने के लिए राजनीति में नहीं उतरा था। वह न तो किसी दलित जाति से था और न ही किसी उभरती पिछड़ी जाति से। एक सामान्य सवर्ण किसान परिवार का बच्चा था वह। उसके मां-बाप ने संयुक्त परिवार के टूटने और बंटवारे के बाद यहां-वहां हाथ मारकर सम्मानजनक गुजर-बसर के लिए सरकारी ट्यूबवेल की ऑपरेटरी और मिडिल स्कूल की मास्टरी जैसी नौकरियां पकड़ी थीं। इसके लिए उन्हें तमाम पुरानी सामाजिक मान्यताएं तोड़नी पड़ी थीं।

मां घर की दहलीज लांघ कर मास्टराइन बनी तो पूरे इलाके में हर तरफ से थू-थू हुई कि देखो लंबरदार अब अपनी पतोहू की कमाई खाएंगे। मानस के मां-बाप के संघर्ष और सर्वग्रासी गंवई समाज में खुद को स्थापित कर ले जाने की लंबी दास्तां है। बाप कैसे ट्यूबवेल ऑपरेटर बने, कैसे अपनी 50 रुपए की तनख्वाह में से हर महीने 48 रुपए अपने छोटे भाई को बेचकर पंतनगर यूनिवर्सिटी से बीएससी-एजी कराया, फिर कैसे बॉम्बे आर्ट की डिग्री लेकर लालसाहब की रियासत के स्कूल में गणित के मास्टर बने, कैसे बड़ी बेटी को डॉक्टर बनाया, इस सबका दायरा बीस-तीस सालों से ज्यादा फैला हुआ है। उसकी बात कभी तफ्सील से बाद में। अभी तो हम केवल मानस की बात करेंगे और वो भी बस वहीं तक कि कैसे उसने राजनीति में छलांग लगाई।

धर्म, नैतिकता और आदर्श के उसूल उसमें कूट-कूट कर भरे थे। ऐसी ही किताबें उसने पढ़ी थीं। इनके ही किस्से उसने अपनी मां से सुने थे। इलाहाबाद विश्वविद्यालय में पहुंचा तो मन की अमूर्त चीजों को एक आकार मिला। यकीन हो गया कि कोई भी बदलाव राजनीति के जरिए ही हो सकता है। उसने नए किस्म की छात्र राजनीति में कदम रख दिया। घर आता तो पिता अपनी सीमित समझ और नेकनीयती की भावना के साथ उसे समझाते कि खुद को बदलने से समाज बदलेगा। व्यक्ति के बदलने से ही समाज बदलेगा। और यह कि आज देश को भगत सिंह या चंद्रशेखर आज़ाद की ज़रूरत नहीं है।

मानस अपने पिता को कभी अपने रास्ते का यकीन नहीं दिला सका। लेकिन मां को वह समझाने में कामयाब रहा। मां ने उसकी बातें सुनने के बाद कहा कि भोला (इसी नाम से उसे उसकी दादी और बुआ बुलाती थीं और मां ने पहली बार उसके लिए यह संबोधन इस्तेमाल किया था), तुम तो वैसी बात कर रहे हो कि मुझे एक किस्सा याद आ गया। किसी विधवा औरत का एक ही बेटा था। बेटा बार-बार उससे कहता – मां मुझे देश के लिए दे दो। मां बार-बार यही कहती – बेटा तुम्ही मेरा इकलौता सहारा हो, मैं ऐसा कैसे कर सकती हूं।

एक बार मां-बेटा गंगा नहाने गए। बेटा नहाते-नहाते डूबने लगा। पहली डूब के बाद बेटे ने फिर वही कहा – मां मुझे देश के लिए दे दो। मां ने पुराना जवाब दोहराया। दूसरी डूब पर भी यही हुआ। लेकिन तीसरी डूब तो आखिरी होती है। तीसरी बार जब बेटा पानी के अंदर से निकलकर बोला कि मां, मुझे देश के लिए दे दो तो मां ने कहा – जाओ बेटा, मैंने तुम्हें देश को दे दिया। और फिर गंगा की धारा ने बेटे को उठाकर बाहर रख दिया। मां उसे निहारती रही, लेकिन बेटा मां की तरफ देखे बिना दूर चला गया। मानस की मां यह कहानी सुनाने के बाद चुप हो गई। लेकिन मानस चहक उठा क्योंकि उसे मां की स्वीकृति मिल चुकी थी। फिर क्या था, असली बंधन तो यही था। बाप का क्या है? उन्हें तो मां समझा ही लेगी।

और फिर मानस चला गया। उसने राजनीति में छलांग लगा दी। वह एक ऐसे सफर पर निकल गया जो उसकी आगामी ज़िंदगी पर बड़ा भारी पड़ा। बाद में उसे यह भी पता चला कि मां ने जो कहानी सुनाई थी, वह शायद किसी शंकराचार्य के घर छोड़ने की कहानी थी। वह एक ऐसी कहानी थी जो इस देश में चंदू जैसे बहुत से नौजवानों के साथ दोहराई गई थी। वह कोई अनोखा नहीं था। न ही उसके मां-बाप अनोखे थे। ये सब उस आम हिंदुस्तानी जमात का हिस्सा थे, जो नए सामाजिक ख्वाबों के लिए, औरों के लिए सरलता में अपनी प्यारी से प्यारी चीज़ बलिदान करने को तैयार रहती है।

आगे है – एक भूमिगत कार्यकर्ता की पहली दीक्षा

Friday 26 October, 2007

कितने निर्मम और निराले हैं राजनीति के खेल!

वाकई राजनीतिक सत्ता के असली खेल कितने निराले और निर्मम होते हैं? ऊपर से जो दिखता है, होता ठीक उसका उल्टा है। जिसे हम विपक्ष का प्रायोजित स्टिंग ऑपरेशन समझते हैं, वह सत्तापक्ष की प्रायोजित चाल हो सकती है। यह सब देखकर तो मुझे लगने लगा है कि राजनीति कमज़ोर दिल वालों के लिए हैं ही नहीं। जो कमज़ोर दिल के हैं, दिमाग के ज्यादा दिल से सोचते हैं, व्यावहारिकता के बजाय आदर्श के तरन्नुम में जीते हैं, उनके लिए तो यही बेहतर होगा कि वे कोई समाज सुधार का संगठन बना लें, एनजीओ बना लें, जुलूस निकालें, मांगों की फेहरिस्त तैयार करें और ज्ञापन देकर घर लौट जाएं।

विधानसभा चुनावों के ठीक सत्रह दिन पहले गुजरात का स्टिंग ऑपरेशन टीवी पर दिखाया जाता है। बाबू बजरंगी बड़े गर्व से बताते हैं कि कैसे उन्होंने गर्भवती महिला का पेट तलवार से चीर दिया था। कैसे पुलिस प्रमुख के आदेश के बाद नरोदा पाटिया से 700-800 लाशों को उठाकर पूरे अहमदाबाद में जगह-जगह डाल दिया गया और कैसे ‘उन्हें’ मारने के बाद उनको महाराणा प्रताप जैसा एहसास हो रहा था और पूरे इलाके को इन लोगों ने हल्दी घाटी बना डाला था। गोधरा के बीजेपी विधायक हरेश भट्ट बताते हैं कि मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने बाकायदा बैठक में कहा था कि तीन दिन में जो चाहे कर लो। तीन दिन में करीब दो हज़ार मुसलमान मारे गए और फिर सब शांत हो गया। गुजरात के एडवोकेट जनरल अरविंद पंड्या कहते हैं कि नरेंद्र मोदी मुख्यमंत्री नहीं होते तो खुद दो-चार बम फोड़ आते।

बीजेपी और संघ परिवार कह रहा है कि ऐन चुनावों के वक्त पांच साल पुराने गढ़े मुर्दों को उखाड़ना कांग्रेस की साजिश है। लेकिन इस ऑपरेशन का राजनीतिक सच यह है कि इससे गुजरात की आबादी के 90 फीसदी हिंदू हिस्से के लिए नरेंद्र मोदी फिर से हृदय-सम्राट बन जाएंगे। कितनी उलटबांसी है कि जब मोदी खुद अपने मुंह से धर्म और संप्रदाय से ऊपर उठकर सारे गुजरातियों की पक्षधरता और सुशासन व विकास के दम पर चुनाव लड़ने का डंका पीट रहे थे और उमा भारती जैसी नेता उन्हें छद्म हिंदूवादी कहने लगी थीं, तब ‘कांग्रेस’ की इस साजिश से मोदी की कट्टर हिंदूवादी छवि फिर से ताज़ा हो गई। विकास के नारे को हिंदूवाद की आजमाई हुई तगड़ी बुनियाद मिल गई!

तहलका के जिस रिपोर्टर आशीष खेतान ने संघ परिवार के दंगा सेनानियों से बात की, उसने उन्हें बताया कि वह खुद हिंदूवादी है और हिदुत्व के उभार पर शोध कर रहा है। सारे सेनानियों को पता था कि वह एक ऐसे शख्स से बात कर रहे हैं जो इस जानकारी का कहीं न कहीं इस्तेमाल करेगा। तकनीक के जानकार लोग बताते हैं कि स्टिंग ऑपरेशन में जुटाई गई फूटेज की ऑडियो-वीडियो क्वालिटी देखकर यही लगता था कि खुलासा करनेवालों को खुद पता था कि उनकी बातों को रिकॉर्ड किया जा रहा है। उफ्फ, ये राजनीति कितनी बेरहम और जालसाज़ है!!

बताते हैं कि स्टिंग ऑपरेशन की सीडी लाखों में न्यूज चैनल को ‘बेची’ गई और चैनल ने इससे कुछ ही घंटों में डेढ़-दो करोड़ कमा लिए। ये भी बताते हैं कि कांग्रेस इसका फायदा आगामी लोकसभा चुनावों में उठाना चाहती है। उसे पता था कि वह गुजरात में नरेंद्र मोदी को इस बार भी हरा नहीं सकती। लेकिन वह मोदी की मुस्लिम-संहारक छवि को ताज़ा करके पूरे देश में मुस्लिम वोटों की गोलबंदी कर सकती है। यानी, एक स्टिंग ऑपरेशन और फायदा अनेक का। हो सकता है कि पक्ष-विपक्ष के राजनीतिक योजनाकार, तहलका के रिपोर्टर और चैनल के आका सभी मिलकर इसी वक्त कहीं जाम से जाम से टकराकर अपने ऑपरेशन की कामयाबी का जश्न मना रहे हों!!!

कुत्ते का ब्रह्मज्ञान

सुबह-सुबह फालतू बहस में समय क्यों खोटी किया जाए! आइए एक कहानी सुनते हैं। बात बहुत पुरानी है। उस समय कुत्ते आदमी की और आदमी कुत्तों की भाषा जानते थे और कुछ कुत्ते तो सामगान करते हुए भौंकते थे। जो लोग कुत्तों की भाषा समझ लेते थे, वे कुत्तों के ज्ञान पर आदमी के ज्ञान से अधिक भरोसा करते थे। एक खास आध्यात्मिक ऊंचाई पर पहुंचे हुए कुत्ते ऐसे लोगों से उसी तेवर और तर्ज में बात करते थे जैसे ऋषियों में अपने को सीनियर माननेवाले नए स्नातकों से किया करते थे। कहते हैं उन्हीं दिनों एक ऋषिकुमार स्वाध्याय के लिए गांव के बाहर एकांत में बने एक जलाशय के पास आया। जब वह जलाशय के किनारे टहलता हुआ रट्टा मार रहा था, उसी समय उसके सामने एक सफेद कुत्ता प्रकट हुआ। वह कुत्ता या तो पिछले जन्म में सामगान की कोई पाठशाला चलाता था या इस जन्म में किसी सामगायक के आश्रम के आसपास मंडराता रहता था। सामगान सुनते-सुनते उसका स्वर इतना सध गया था कि भले ही ऋषियों का सामगान व्यर्थ चला जाए, उसका कभी नहीं जा सकता था।

वह कम से कम अपनी बिरादरी को देखते हुए विद्वान भी इतना हो गया था कि देश-देशांतर में घूमते हुए दूसरे कुत्तों को शास्त्रार्थ के लिए ललकारता रहता था। इस अनुमान का कारण यह है कि उसके प्रकट होने के कुछ ही देर बाद दूसरे कई कुत्ते उसके पास आए और बोले, “भगवन, हमें बहुत भूख लगी है। अत: आप हमारे लिए अन्न का आगान कीजिए।” इस बात की पूरी संभावना है कि ये कुत्ते भी आम कुत्ते नहीं, अपितु उसी के शिष्य थे जो उसके साथ ही भ्रमण कर रहे थे और शास्त्रीय संकट आने पर दूसरे कुत्तों को हूट सकते थे। ये सभी कई दिन से भूखे थे।

उस कुत्ते ने यदि तुरंत अन्नवर्षी सामगान कर दिया होता तो उसकी अपनी हैसियत को बट्टा लग जाता। देखने-सुनने वाले समझते कि वह उन कुत्तों का हुक्म बजा रहा है। इस भ्रामक स्थिति को टालने के लिए उसने इस आयोजन को कम से कम चौबीस घंटे के लिए टाल देना उचित समझा। उसने आदेश के स्वर के कहा, “तुम लोग ठीक इसी समय कल आना।”

यह बात जलाशय के किनारे रट्टा मार रहे उस ऋषिकुमार ने भी सुन ली। यह निश्चय ही भूख मिटाने का एक नायाब तरीका था। गान गाओ, भोजन की थाली सामने आ जाए। खेती-बारी और चूल्हे-चक्की के झंझट से छुट्टी। इसे जानना कुत्तों के लिए जितना ज़रूरी था, उतना ही ज़रूरी ऋषियों के लिए भी था क्योंकि इस एक रहस्य का ज्ञान न होने के कारण आपदा के समय में वामदेव और विश्वामित्र को कुत्तों की अंतड़ियां पकाकर खानी पड़ी थीं और उषस्ति चाक्रायण को महावत के जूठे और घुने हुए उड़द।

उस कुमार को यद्यपि अलग से निमंत्रण नहीं दिया गया था, पर इस मंत्र को जानने की उत्सुकता के कारण वह भी ठीक उसी समय पर वहां उपस्थित हो गया। उसे यह देखकर आश्चर्य हुआ कि कुत्ते ठीक वेदपाठियों की तरह आचरण कर रहे हैं। जिस प्रकार सामगान करनेवाले बहिष्पवान स्तोत्र का पाठ करते हुए एक साथ मिलकर परिक्रमा करते हैं, उसी तरह कुत्तों ने एक दूसरे की पूंछ दांतों में दबाए हुए परिक्रमा की और बैठकर हिंकार करने लगे। वे गा रहे थे : ओम् हम खाते हैं, ओम् हम पीते हैं, ओम् देवता, वरुण, प्रजापति, सूर्यदेव यहां अन्न लाएं। हे अन्नपते, यहां अन्न लाओ, अन्न लाओ, ओम्।

कहानीकार ने यह नहीं बताया है कि अन्न उसके बाद आया भी या नहीं क्योंकि कहानी यहीं पर समाप्त मान ली गई। पर यहां बहुत बड़ा कलात्मक रहस्य छिपा हुआ है। लोग कहते हैं कि कहानी में सब कुछ कहना ज़रूरी नहीं। पाठकों के अनुमान पर भरोसा करते हुए कुछ छोड़ भी दिया जा सकता है।

- भगवान सिंह रचित और नेशनल बुक ट्रस्ट द्वारा प्रकाशित ‘उपनिषदों की कहानियां’ से इसी शीर्षक की कहानी के संपादित अंश

Thursday 25 October, 2007

सुहाती नहीं है हिंसा की ये भाषा

मुझे उनके विचारों से एतराज नहीं है। मुझे उनकी बहस से एतराज नहीं है। मुझे एतराज है तो उनकी हिंसक भाषा से। संदर्भ-प्रसंग आप खुद समझ जाएंगे। पहले उनकी भाषा की एक बानगी देख लीजिए।

वे विचारों को ‘बाल विवाह’ की तरह खतरनाक बताते हैं। उनके हिसाब से भगत सिंह पागल थे या ‘बाल विवाह’ किए थे। हे महामहिम मायावी विचारकों, अगर विवाह के ही प्रतीक से आप समझने के आदी हैं तो सुनिए इस विवाह को प्रेम विवाह कहते हैं। और स्वाभाविक रूप से सामंती समाज उसके खिलाफ खड़ा होता है। हां, आप जैसे लोगों को लग सकता है कि आपका बाल विवाह हो गया था। लेकिन आपने तलाक ले लेने के बावजूद लालच और अवसरवाद के दबाव में आकर दहेज हत्या (विचार की) भी कर दी है। और अब दूसरों को उकसा रहे हैं कि ‘बाल विवाह’ से बचो या तलाक लो, हत्याएं करो।
ये है ‘प्रतिरोध की सामाजिक सांस्कृतिक पत्रिका’ समकालीन जनमत के नाम से बने एक ब्लॉग पर लिखी पोस्ट की संपादकीय प्रस्तुति की भाषा। यह भाषा इसकी सामाजिक सोच और संस्कृति का परिचय खुद-ब-खुद दे देती है। इस ब्लॉग के एडमिनिस्ट्रेटर का कहना है कि आपने भी तो अपने लेख में ऐसी ही भाषा का इस्तेमाल किया था। लेकिन कोई भी सुधी पाठक देख सकता है कि मेरे लेख में ऐसी उत्तेजक भाषा का कहीं इस्तेमाल नहीं हुआ है। उसमें बस यह सोच और चिंता रखी गई कि व्यावहारिक समझ के बिना सिर्फ आदर्शवादी उन्माद में अगर कोई नौजवान राजनीतिक-सामाजिक आंदोलन से जुड़ता है तो इससे समाज का तो कोई भला नहीं ही होता, उल्टे उसकी और उसके परिवार की अपूर्णनीय क्षति हो जाती है।

फिर भी चलिए मान लेते हैं कि मेरी बातें आपको गाली जैसी लगी होंगी। लेकिन आप तो नए समाज और संस्कृति के वाहक हैं। क्या गाली का जवाब गाली से देना आपको सुहाता है? इतनी बड़ी ज़िम्मेदारी आपने अपने कंधों पर उठा रखी है तब आपको तो संयत होना चाहिए था, लेकिन आप तो बौखला गए। क्यों? आपकी कौन-सी दुखती रग पर हाथ पड़ गया? आपके कौन-से अहं को ठेस लग गई? या कहीं ऐसा तो नहीं कि अचानक एक वर्ग-शत्रु आपको ललकारता हुआ नज़र आ गया? मैं कुछ नहीं कहता। आप खुद मनन करके इसकी शिनाख्त कीजिए।

नई संस्कृति बनाने चले हैं तो मेरी आपको नेक सलाह है कि पहले तर्क करने का सही तरीका सीख लीजिए। भारतीय तर्क परंपरा बड़ी सुदीर्घ है। उस परंपरा से खुद को जोड़ लीजिए। दिमाग से बौखलाने और हिंसा का अंदाज़ गायब हो जाएगा। मेरी सीधी-सी बात से आपने ‘हिसाब’ लगा लिया कि जैसे मैं कह रहा हूं कि, “भगत सिंह पागल थे या बाल-विवाह किए थे।” ज़नाब, अमर शहीद भगत सिंह के बारे में भारत में आज तक पैदा हुआ एक भी बच्चा ऐसा नहीं सोच सकता तो यह तोहमत आप मुझ पर मढ़कर क्या दिखाना चाहते हैं? तर्क का जवाब तर्क से दीजिए। बालसुलझ भावुकता क्यों दिखा रहे हैं?

मैं मान सकता हूं कि यह समकालीन जनमत नाम का ब्लॉग संभालने वाले ‘बालक’ का निजी विस्फोट हो सकता है। लेकिन तब मेरा सवाल यह है कि 25 साल से ज्यादा पुरानी पत्रिका का नाम किसी और को इस्तेमाल करने की इजाज़त कैसे दे दी गई। समकालीन जनमत सीपीआई (एमएल) से जुड़ी वह पत्रिका है जिसमें अभी ब्लॉग जगत से जुड़े प्रमोद, इरफान और चंद्रभूषण एक समय अपनी निस्वार्थ सेवाएं दे चुके हैं। तो क्या इस संदर्भ के बाद मान लिया जाए कि माले से जुड़े तमाम सांस्कृतिक संगठन और मंच खानदानी सफाखाना बनकर रह गए हैं?

देखिए, किन्हें कोस रही हैं चंद्रशेखर की मां!!

कौशल्या देवी उन्हीं चंद्रशेखर प्रसाद की मां है जो अपना सब कुछ छोड़कर सीपीआई (एमएल) लिबरेशन के पूर्णकालिक कार्यकर्ता बने और 34 साल की उम्र में शहीद हो गए, दस साल पहले अप्रैल 1997 में जिन्हें आरजेडी के सांसद मोहम्मद शहाबुद्दीन के गुंडों ने गोलियों से भून दिया था और जिनके बारे में एक लेख कल समकालीन जनमत ने छापा है। 1973 में एयरफोर्स में अपने सार्जेंट पति की मौत के बाद कौशल्या देवी के लिए उनका बेटा चंद्रशेखर ही आखिरी सहारा था। पढ़ाया-लिखाया कि बेटा एक दिन बूढ़ी विधवा का सहारा बनेगा। लेकिन बेटे ने जब गरीबों की राजनीति करने का बीड़ा उठा लिया तो इस क्रांतिकारी की मां ने कहा – चलो बेटा, मैं तुम्हें देश को दान करती हूं।
इस मां की आज क्या हालत है, इस बारे में तहलका ने इसी साल जून में उनसे बात की थी। मैंने जब यह रिपोर्ट पढ़ी तो अंदर तक हिल गया था कि अवाम की राजनीति करनेवाले क्या सचमुच इतने असंवेदनशील हो सकते हैं? मुझे यकीन नहीं आया था कि उजाले और सुंदर समाज की बात करनेवालों के दिल और दिमाग में इतना अंधेरा भरा हो सकता है? इसी रिपोर्ट में मुताबिक माले के नेताओं ने कौशल्या देवी की बातों को दुख में डूबी एक मां का ‘emotional outbursts’ बताया था। आइए देखते हैं कि क्या सचमुच ऐसा है या यह ठहराव का शिकार हो चुकी राजनीति के मुंह पर मारा गया एक करारा तमाचा है।

पार्टी कहती है कि हत्यारों का दोषी ठहराया जाना दलितों और सर्वहारा की जीत है। लेकिन ऐसा कुछ नहीं है। शहाबुद्दीन ने राजनीतिक वजहों से हत्याएं की थीं, सत्ता हासिल करने के लिए। शहाबुद्दीन की तरह सीपीआई (एमएल) के लिए भी यह शुद्ध राजनीति थी। वही गंदी राजनीति आज भी चल रही है।

वह (चंद्रशेखर) जब जेएनयू से पढ़ाई पूरी करने के बाद सीपीआई (एमएल) का पूर्णकालिक कार्यकर्ता बनने के लिए सीवान वापस आया तो मुझे तकलीफ हुई। लेकिन देश की राजनीति को लेकर उसके उत्साह और गरीबों के लिए सच्चे प्यार को देखकर मुझे यकीन हो गया कि वह बड़े मकसद के लिए जीना चाहता है। उसका निस्वार्थ काम देखकर मैंने उससे सरकारी नौकरी करने की बात कहनी बंद कर दी। लेकिन अब उसकी हत्या के दस साल बाद मुझे पता चला है कि यह कितनी स्वार्थी पार्टी है।

सीपीआई (एमएल) के लिए राजनीतिक हथियार के रूप में मेरी उपयोगिता खत्म हो गई है। आज पार्टी में किसी को फिक्र नहीं है कि चंद्रशेखर की बूढ़ी मां कैसे रहती है। मेरे बेटे की हत्या के दो-तीन साल बाद तक पार्टी ने मेरा जमकर इस्तेमाल किया। सीपीआई (एमएल) लाशों पर राजनीति कर रही है।

जब शहाबुद्दीन के गैंग की तरफ से मेरे बेटे को लगातार धमकियां और चेतावनियां मिल रही थीं, तब पार्टी के कई कार्यकर्ता शहाबुद्दीन के संपर्क में थे। पार्टी ने कभी उसकी (चंद्रशेखर की) सुरक्षा की चिंता नहीं की। चंद्रशेखर की हत्या के बाद सीपीआई (एमएल) के जिन नेताओं ने एफआईआर दर्ज कराई थी, वो ही बाद में मुकर गए और जाकर शहाबुद्दीन के गैंग में शामिल हो गए। कभी-कभी तो मुझे अपने बेटे की हत्या में पार्टी का हाथ नजर आता है।

Wednesday 24 October, 2007

कहानी से कहीं ज्यादा घुमावदार है ज़िंदगी

नाम – भूपत कानजी भाई कोळी। उम्र – 42 साल। 17 साल से हत्या के मामले में विचाराधीन कैदी। 16 साल से अहमदाबाद के मेंटल हॉस्पिटल में पड़ा विचाराधीन मरीज़ अपराधी। भूपत ने 1990 में एक रात अपने भाई का खून इसलिए कर दिया था क्योंकि वह उस लड़की से शादी करने की कोशिश कर रहा था, जिससे वह प्यार करता था। लेकिन हकीकत यह है कि ऐसी कोई लड़की थी ही नहीं। वह थी तो बस भूपत की कल्पना में। वह दिखती थी तो केवल भूपत को।

जी हां, गुजरात के भावनगर ज़िले का मूल निवासी भूपत कानजी भाई कोळी लंबे अरसे से भयानक विभ्रम और सिजोफ्रेनिया का मरीज़ है। डॉक्टरों के मुताबिक उसकी ये हालत बचपन से ही है। उसका मामला भावनगर के ज़िला एवं सत्र न्यायालय में 1990 से ही अनिश्चितकाल के लिए बंद पड़ा था। अब इसी न्यायालय ने उसे करीब दो महीने पहले 14 अगस्त को ज़मानत दे दी है। लेकिन वह जाए तो कहां जाए? घर वाले 17 साल पहले हुई वारदात के बाद ही उसे छोड़ चुके हैं। खुद उसे न तो अपनी पहचान याद है और न ही अपना गुनाह।

सरकारी वकील भी मानते हैं कि भूपत मानसिक रूप से बीमार है और मुकदमे का सामना करने लायक नहीं हैं। लेकिन मामला चलता रहेगा क्योंकि कानून के प्रावधानों के तहत उसे छोड़ा नहीं जा सकता। जबकि इस बीच डॉक्टर घोषित कर चुके हैं कि भूपत मुकदमे के लिए पूरी तरह अनफिट है। इसी 13 अगस्त को मेंटल हॉस्पिटल के तीन मनोचिकित्सकों ने लिखकर दिया है कि सालों के इलाज़ के बाद वो इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि भूपत कभी भी मुकदमे का सामना करने के काबिल नहीं हो सकता। लेकिन सरकारी वकील कहते हैं, “हो सकता है कोई दैवी कृपा हो जाए और उसकी हालत सुधर जाए। इसलिए उसका केस अनिश्चितकाल तक खुला रखा जाएगा।”

कैसी विडंबना है कि भूपत कानजी भाई कोळी 16 सालों से लगातार न्यायिक हिरासत में है और इस हालत के बावजूद कानून उसे सज़ा दिलाने पर आमादा है। हॉस्पिटल वाले उसे बाहर घुमाने ले जाते हैं। कभी-कभार पिकनिक पर भी ले जाते हैं। लेकिन उनकी पक्की राय है कि उसके समझने और तर्क करने की क्षमता शायद कभी भी सामान्य नहीं हो सकती है। भारतीय दंड संहिता में पागलपन के तहत आरोपी को छोड़ने का प्रावधान है। खुद सुप्रीम कोर्ट भी कह चुका है कि अगर कोई व्यक्ति मुकदमे की कार्यवाही को समझने में अक्षम है तो उसके खिलाफ मुकदमा चलाना अनुचित है।

भूपत कानजी भाई कोळी के छूटने की एक ही सूरत है और वह यह कि सरकार उस पर चल रहा केस वापस ले ले। लेकिन जिस देश में हत्या के आरोपी शिबू सोरेन को बाइज्जत बरी किया जा सकता है, जहां बहुत से लोग पागलपन का नाटक करके बड़े से बड़े गुनाह से बरी हो जाते हैं, उस देश में असली पागल के ठीक होने के दैवी चमत्कार का इंतज़ार किया जा रहा है क्योंकि हमारी ‘न्यायप्रिय’ सरकार मानती है कि दोषी को हर हाल में गुनाह की सज़ा मिलनी ही चाहिए। शुक्र मनाइए कि भूपत कोळी संज्ञाशून्य है। उसे न तो अपने गुनाह की संजीदगी का एहसास है और न ही सज़ा की तकलीफ का। लेकिन हम तो संज्ञाशून्य नहीं हैं। और, प्रजावत्सल नरेंद्र मोदी तो कतई संज्ञाशून्य नहीं हो सकते क्योंकि यह उन्हीं के गुजरात की एक हिंदू प्रजा का मामला है।
खबर का स्रोत : इंडियन एक्सप्रेस

बरहमन ने नहीं कहा, फिर भी ये साल अच्छा है

इस साल फरवरी में कई सालों से टलते आ रहे लेखन की शुरुआत हुई। प्रमोद के कहने पर ब्लॉग बना डाला। फिर अप्रैल में किराएदार से मालिक-मकान बन गया। हालांकि किश्तें हर महीने किराएदार होने जैसा ही एहसास दिलाती हैं। ऊपर से जब से फुरसतिया जी ने अपने घर की शानदार फोटुएं पेश की हैं, तब से तो हम और हीनतर महसूस करने लगे थे। लेकिन आज कोई गिला-शिकवा नहीं क्योंकि आज से अपुन तो ब्लॉगर से कहानीकार भी बन गया! आज ही अभिव्यक्ति में मेरी पहली कहानी ‘मियां तुम होते कौन हो’ छपी है। वैसे तो यह कहानी मैं अपने ब्लॉग पर पहले ही लिख चुका हूं, लेकिन इसे लेकर इतने उत्साह में था कि शनिवार के दिन हर घंटे-दो घंटे में अंतराल पर इसकी सारी किश्तें चढ़ा डालीं। ज़ाहिर है आप इसे पढ़ने की बात तो दूर, ठीक से देख भी नहीं पाए होंगे।

यह कहानी एक हिंदुस्तानी मुस्लिम नौजवान की है जो अपनी पहचान को लेकर बहुत परेशान है। इसी परेशानी में वह अचानक एक दिन हिंदू बनने का फैसला ले लेता है। वह धर्म बदलने की सारी औपचारिकता पूरी कर लेता है। लेकिन पुराने रिश्ते बार-बार उसे पीछे खींचते हैं। नए रिश्तों का अभाव उसे सालता है। एक अजीब-सी रिक्तता उसके भीतर छा जाती है। रागात्मक संबंधों की तलाश में उसका गला सूख जाता है। उसकी इस पूरी यात्रा को मैंने इस कहानी में दर्शाने की कोशिश की है। यह मेरी पहली कहानी है। बताइएगा कैसी लगी। कथाकार बनने की कोई गुंजाइश है भी, या बस यूं ही खाली-पीली की-बोर्ड की खट-खिट चल रही है?

Tuesday 23 October, 2007

मैंने उसे 35 साल पहले मारा था

यह मेरा नहीं, प्रायश्चित में डूबे सुंदर अय्यर का इकबालिया बयान है। वो सुंदर अय्यर जो नाम से ही नहीं, मन और काम से भी उतने ही सुंदर हैं। उनके मन की सुंदरता कैमरे से होते हुए तस्वीरों में उतर जाती है। इन तस्वीरों का उन्होंने एक ब्लॉग बना रखा है। वैसे तो सुंदर जी दक्षिण भारतीय हैं। लेकिन वो नवाबों के शहर लखनऊ में पले-बढ़े हैं। हिंदी पर उनकी अच्छी पकड़ है, लेकिन मुझे नहीं पता कि अंग्रेज़ी में क्यों ब्लॉग लिख रहे हैं। खैर, तो बात उनके 35 साल पुराने ‘गुनाह’ की। इसका मार्मिक चित्रण उन्होंने शनिवार 20 अक्टूबर को अपनी एक पोस्ट में किया है। तब वो 11-12 साल के रहे होंगे। शाम का वक्त था। वो बगीचे में दोस्तों के साथ खेल रहे थे। वहीं पेड़ की टहनी पर एक बुलबुल चहक रही थी। खेल-खेल में उन्होंने एक छोटा-सा पत्थर उस चिड़िया की तरफ फेंका। और वह चिड़िया तड़प कर ज़मीन पर गिर पड़ी। सुंदर जी, घबरा गए। हाय, उनके हाथों ये कैसा पाप हो गया। उन्होंने वहीं बगीचे के एक कोने में बुलबुल को दफ्न कर दिया। लेकिन सुंदर जी आज भी उस दुर्घटना को याद करके सिहर जाते हैं। और, मुझे उनके भीतर बैठा शुद्धोधन का पुत्र राजकुमार सिद्धार्थ नज़र आ गया, जो इसी तरह घायल पक्षी को देखकर व्यथित हो गया था।

ढलते सूरज के सामने टहनियों पर बैठी चिड़िया का ये जो सुंदर फोटो आप ऊपर देख रहे हैं, इसे सुंदर जी ने पुणे के अपने घर के पास खींचा है। लेकिन चिड़िया को देखकर उन्हे अपना पुराना दुख याद आ गया और फिर लिख डाली उन्होंने एक पोस्ट। सुंदर जी से मेरी गुजारिश है कि वो हिंदी में भी लिखा करें। और हम में से जिसको भी सुंदर तस्वीरों से लेकर सुंदर भावों में दिलचस्पी हो, वे नियमित रूप से सुंदर जी के ब्लॉग पर जा सकते हैं।

ठीक नहीं है लिंक देने में भाव खाना

कई ब्लॉगर हैं जो अपने ब्लॉग पर किसी दूसरे का लिंक देने में भाव खाते हैं। उनके ब्लॉगरोल में गिने-चुने पांच-छह नाम ही होते हैं। ई-मेल से अनुरोध करने पर या तो जवाब नहीं देते या कोई न कोई महान बहाना बना देते हैं। अब रवीश कुमार जैसे बड़े पत्रकार ऐसा करें तो बात समझ में आती है कि उनकी फैन फॉलोइंग बड़ी है, लोग अपने आप चले आएंगे। दिक्कत है कि अपने नए-नए हिंदी ब्लॉगर भी गिनती के दो चार लोगों का ही लिंक अपने ब्लॉग पर देते हैं। लेकिन इसी शनिवार को मिंट अखबार में मैने एक लेख पढ़ा – The 4ps of blog marketing, जिसके मुताबिक ऐसा करने में अपना ही नुकसान है।

लिखनेवाले अजय जैन खुद एक ब्लॉगर हैं। उनका कहना है कि हमें अपने ब्लॉग पर दूसरों का लिंक बहुत उदारता से देना चाहिए। बिना यह सोचे कि सामनेवाले ने तो हमारा लिंक दिया नहीं तो हम क्यों दें? हम उससे कम थोड़े ही हैं! लेकिन यह अहंकार ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचने में बाधा है, उनके बीच स्वीकार्य होने की रुकावट है। हमें सोचना चाहिए कि का रहीम प्रभु को घट्यो जो भृगु मारी लात। अजय जैन बताते हैं कि जब भी हम किसी और का लिंक देते हैं तो वह कभी न कभी हमारे ब्लॉग पर आता ही है। इस तरह हमें एक विजिटर मिल जाता है और फिर उस निर्दयी का दिल कभी न कभी तो पसीजेगा तो वह भी आपका लिंक दे देगा।

आप कहेंगे और मेरा भी ये सवाल है कि हम तो उन्हीं का लिंक दे सकते हैं जिन्हें पसंद करते हैं, अपने जैसा समझते हैं, फिर हम बाकी लोगों का लिंक क्यों दें? मुझे लगता है कि हम ब्लॉगरोल में श्रेणियां बना सकते हैं। अपनी पसंद के ब्लॉग अलग श्रेणी में, हिंदी ब्लॉगिंग दुनिया के पुरोधा अलग श्रेणी में, तकनीकी ज्ञान वाले अलग आदि-इत्यादि। फिर भी कुछ लोग कट जाएं तो कटने दीजिए क्योंकि इतनी उदारता भी ठीक नहीं कि बिच्छू को अपने हाथ पर बैठा कर रखा जाए।

एक सवाल यह भी है कि ब्लॉग में जगह की सीमा है तो हम आखिर कितनों का लिंक दे सकते हैं? तो इस मुश्किल को सागरचंद नाहर जी ने सुलझा दिया। उन्होंने लिंक की रोलिंग व्यवस्था का जो तरीका सुझाया है, वह बेहद दिलचस्प है। हालांकि अभी तक इसे मैं लागू नहीं कर पाया हूं, लेकिन फुरसत मिलते ही ज़रूर इस नई जानकारी से अपने ब्लॉग का लुक बदलूंगा। वैसे, ब्लॉग का साफ-सुथरा लुक भी बहुत मायने रखता है। मिंट के लेख में बहुत सारी और भी बातें हैं। हालांकि संदर्भ अंग्रेजी के ब्लॉगों का है, लेकिन इससे हम भी अपने काम की चीजें निकाल सकते हैं।

Monday 22 October, 2007

पटरी पर जान, रिज़वान और अपने ज्ञानवंत

रिज़वान-उर-रहमान को इसलिए मार डाला गया क्योंकि गरीब का बेटा होते हुए उसने अमीर की बेटी से मोहब्बत की, शादी रचाई। लेकिन पुलिस ने इन दोनों को जुदा कर दिया। रिज़वान को इसलिए मरना पड़ा क्योंकि उसने अपनी पत्नी को वापस पाने के लिए कानूनी कार्रवाई करने की योजना बना रखी थी।
हिंदू-मुसलमान, गरीब-अमीर, मोहब्बत और जुदाई। बॉलीवुड की किसी रोमांटिक फिल्म की मसालेदार कहानी। लेकिन ये कहानी नहीं, बयान है कोलकाता के 27 साल के उस कंप्यूटर ग्राफिक्स टीचर रिज़वान के बड़े भाई रुकबान का, जिसकी लाश 21 सितंबर को रेल की पटरियों के किनारे पाई गई थी, जिसने ‘अपना लक पहनकर चलो’ वाले लक्स अंडरवियर व बनियान की निर्माता कंपनी के मालिक अशोक टोडी की 23 साल की बेटी प्रियंका टोडी से 18 अगस्त को शादी रचाई थी। पूरा कोलकाता शहर जिसे हत्या मानता है, उसे पश्चिम बंगाल की सीआईडी और कोलकाता पुलिस आत्महत्या का मामला बताती रही। लेकिन हाईकोर्ट के आदेश के बाद इस मामले की जांच सीबीआई कर रही है और उसने शुक्रवार 20 अक्टूबर को अशोक टोडी को रिज़वान की हत्या के आरोप में गिरफ्तार कर लिया। साथ ही आज अशोक टोडी के भाई प्रदीप टोडी से पूछताछ की।

रिज़वान के साथ आज पूरे देश का मुखर तबका आ खड़ा हुआ है। उसके नाम पर वेबसाइट बन गई है, तमाम अंग्रेज़ी ब्लॉगों ने मुहिम चला रखी है कि उसकी हत्या में शामिल लोगों को कड़ी से कड़ी सज़ा मिले। मैं भी उनकी इस मुहिम का समर्थक हूं। लेकिन मेरे साथ एक समस्या है। इस मामले में शामिल होने के आरोप में कोलकाता के पुलिस कमिश्नर प्रसून मुखर्जी के अलावा जिन चार पुलिस अधिकारियों का ट्रांसफर किया गया है, उनमें से एक हैं डिप्टी कमिश्नर (हेडक्वार्टर्स) ज्ञानवंत सिंह। ज्ञानवंत इलाहाबाद विश्वविद्यालय में छात्र आंदोलन के दौरान हमारे साथ थे। उन्हें मैं बेहद न्यायप्रिय, सच्चे और साहसी नौजवान के रूप में जानता हूं। आईएएस में चुन लिए गए, तब पता चला कि वे पढ़ते-लिखते भी थे और मेधावी छात्र थे।

रिज़वान ने अपनी मौत से पहले जिन चार पुलिस अधिकारियों पर परेशान करने का आरोप लगाया है, उनमें ज्ञानवंत भी शामिल हैं। बताते हैं कि उन्होंने पुलिस हेडक्वार्टर में बुलाकर रिज़वान को ‘समझाया’ था कि वह प्रियंका टो़डी से रिश्ते तोड़ दे। हालांकि ज्ञानवंत से जुड़े लोगों का कहना है कि उन्होंने पुलिस कमिश्नर के कहने पर प्रियंका टोडी से बातचीत की थी और रिज़वान की हत्या या खुदकुशी से उनका कोई वास्ता नहीं है। ज्ञानवंत से पिछले चार साल से मेरी कोई बातचीत नहीं हुई है। लेकिन इलाहाबाद ही नहीं, उनके अब तक के पुलिस करियर को देखकर भी मुझे यकीन नहीं आता कि कभी अपने साथी रहे ज्ञानवंत रिज़वान की हत्या की साज़िश में शामिल हो सकते हैं।

इसमें कोई दो राय नहीं कि ज्ञानवंत सिंह अब भी पहले की तरह दुस्साहसी हैं। मुर्शिदाबाद के एसपी थे, तब 2004 के लोकसभा चुनावों में उन्होंने अपराधी छवि वाले कांग्रेसी उम्मीदवार अधीर चौधरी के खिलाफ जनसभाएं की थीं, जिसमें पुलिस रिकॉर्ड से चौधरी की पूरी हिस्ट्रीशीट पढ़ी गई थी। इसके बाद 2005 में जब वे डिटेक्टिक विंग के प्रमुख थे, तब उनकी देखरेख में निकले कोलकाता पुलिस गजट में घूस का रेट कार्ड छाप दिया गया था, जिसमें पूरा ब्यौरा था कि जेल में बंद किसी अपराधी को महंगी शराब या मोबाइल इस्तेमाल करने के लिए कितनी घूस देनी पड़ेगी। इन दोनों ही मामलों में उनके खिलाफ आवाज़ उठी। लेकिन पिछले रिकॉर्ड को देखते हुए उन्हें बख्श दिया गया।

रिज़वान की हत्या का सच तो हो सकता है कि सीबीआई जांच के पूरा होने के बाद सामने आ जाए। यह भी संभव है कि अपने ज्ञानवंत भी प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से गुनहगारों में गिन लिए जाएं। लेकिन यह सच तो अभी से साबित माना जा सकता है कि शासन तंत्र में शामिल होने के बाद व्यक्ति का कोई अलग वजूद नहीं रह जाता। उसकी हैसियत मशीन के पुर्जे भर की रह जाती है। यह वो सच है जिसे हम लोग (जिसमें ज्ञानवंत भी शामिल थे) छात्र राजनीति के दौरान अक्सर दोहराया करते थे और इसे प्रशासनिक सेवाओं में न जाने का आधार बनाते थे।

Sunday 21 October, 2007

अंश के साथ समग्र को देखता है मार्क्सवाद

मैंने साम्यवाद की कमियां बताई, लेकिन अपनी टिप्पणी में यह भी लिख दिया कि ये इकलौता दर्शन है जो ठहराव के दलदल से निकाल कर गति का रास्ता दिखाता है। मुश्किल इसे अपनाने वालों से है जो इसके विज्ञान को समझने के बजाय इसे बोलकर अपनी दुकान चलाने लगते हैं। तो इस पर संजय बेंगानी का कहना है कि, “अपन भी गतिशील होना चाहता है। समझाया जाए कि कैसे मार्क्सवाद राह दिखाता है।" अनुनाद सिंह ने फरमाइश की कि, “कभी लिखकर हमारा ज्ञानवर्धन करें कि मार्क्सवाद कैसे यह 'एकलौता' दर्शन है जो दलदल से निकालकर गति का रास्ता दिखाता है?”

मैं सहज विश्वासी आदमी हूं। मुझे नहीं पता कि इन बंधुओं ने अपनी बात चुटकी लेने के लिए कही है या गंभीरता में। अगर गंभीरता से जानना चाहते हैं तो राहुल सांकृत्यायन की किताब दर्शन-दिग्दर्शन पढ़ सकते हैं जिसमें सारे भारतीय और विश्व दर्शनों पर विस्तार से बात करते हुए वैज्ञानिक/द्वंद्वात्मक भौतिकवाद यानी मार्क्सवाद को आसान तरीके से पेश किया गया है। फिलहाल मार्क्सवाद को जैसा मैंने समझा है, वैसा प्रस्तुत कर रहा हूं।

हम अपने आसपास की चीजों को अक्सर विपरीत जोड़े में देखते हैं। दुख-सुख, हानि-लाभ, जीवन-मरण, धन-ऋण। हम यह भी जानते हैं कि सृष्टि की हर चीज़ सतत परिवर्तनशील है। यहां तक कि नए-नए अनुभवों के साथ हमारे विचार भी बदलते रहते हैं। लेकिन हमारी सोच के साथ समस्या यह है कि हम एक समय पर जोड़े की केवल एक चीज़ को देखते हैं। दुख तो देखते हैं पर सुख को नहीं देखते। स्थिरता को देखते हैं तो गति को नहीं देखते। पेड़ को देखते हैं तो जंगल को नहीं देखते। व्यक्ति को देखते हैं तो समाज को नहीं देखते। अंश को देखते हैं तो समग्र को नहीं देखते।

मार्क्सवाद कहता है कि ऐसा ठीक नहीं है। अंश के साथ समग्र को देखो और इन्हें स्थिर रूप में मत देखो, गतिशील रूप में देखो। पेड़ पर बैठी चिड़िया पर निशाना लगाना और उड़ती हुई चिड़िया पर निशाना लगाने में फर्क है। हर चीज़ को हमेशा बदलाव के संदर्भ में ही देखो, तब आप वास्तविकता के ज्यादा करीब पहुंच सकते हो। दूसरे, बदलाव सिर्फ मात्रात्मक नहीं होता, बल्कि एक सीमा के बाद यह गुणात्मक हो जाता है। मिट्टी से पौधा, पौधे से कली, कली से फूल और फूल से बीज बनने की प्रक्रिया इसके उदाहरण हैं।

ज़ाहिर है मार्क्सवाद ईश्वर में यकीन नहीं रखता। लेकिन वह प्रकृति की रहस्यमयी शक्तियों को ठुकराता भी नहीं। इंसान भी प्रकृति का हिस्सा है और इंसान अपनी सामाजिक उत्पादक गतिविधियों से प्रकृति पर वश ही नहीं करता, उसे बदलता भी है।

अब सबसे खास बात, जिसे मैंने कहा कि यह इकलौता दर्शन है जो ठहराव के दलदल से निकाल कर गति का रास्ता दिखाता है। मार्क्सवाद ही एकमात्र दर्शन है जिसने दर्शन को इंसान के मस्तिष्क से निकालकर समाज पर लागू किया, निष्क्रिय बहसों से निकालकर उसे संघर्षों को सक्रियता दी। उसने बताया कि घोड़े और घास के रिश्तों की तरह समाज में वर्ग होते हैं; और वर्ग संघर्ष ही समाज की अग्रिम गति को संभव बनाता है। समाज के विकास के क्रम में एक वक्त पर किसी एक वर्ग का हित ही उस समय पूरे समाज का हित बन जाता है। पूंजी ने जिस तरह करोड़ों लोगों से सब कुछ छीनकर मजदूर बना दिया है, उन्हीं मजदूरों में, सर्वहारा वर्ग में पूरे समाज का हित है।

लेकिन सच्चाई हमेशा विचार और दर्शन से चार कदम आगे चलती है। पूंजी की संरचना, उसके मालिकाने का बदलता स्वरूप, विश्व राजनीति के बदलाव... इन सबके बीच कम्युनिस्ट देश हकीकत को नहीं समझ सके। गलत मूल्यांकन किए, गलत नीतियां बनाईं। नतीज़तन जिस व्यापक अवाम और समाज के हितों की बात वो कर रहे थे, उन्हीं का अहित होने लगा और उनका साम्राज्य चिंदी-चिंदी होकर बिखर गया। एक बात साफ है कि जिन लोगों का हित मौजूदा राजनीतिक, सामाजिक हालात से सधता है, वे न तो पहले और न ही कभी आगे मार्क्सवाद को पचा सकते हैं। लेकिन जिन्हें नया चाहिए, बेहतर चाहिए, उनके पास हकीकत को समझने और बदलने का आज भी एक ही दर्शन है और वह है मार्क्सवाद।

जुमलों की झुमरी-तलैया बन गया साम्यवाद

डोरिस लेसिंग को साहित्य का नोबेल पुरस्कार मिलने पर मैंने अपनी पोस्ट में उनके जीवन और रचनाओं का संक्षिप्त देते हुए लिखा था कि डोरिस ब्रिटिश कम्युनिस्ट पार्टी की सदस्य भी रही थी, तो ज्ञानदत्त पांडे जी ने अपनी टिप्पणी में पूछा था कि डोरिस लेसिंग ने साम्यवादी पार्टी क्यों छोड़ी? कहीं पता चलेगा? यह तो अभी तक मुझे नहीं पता चला है। लेकिन इसी 18 अक्टूबर के टाइम्स ऑफ इंडिया के संपादकीय पेज पर साम्यवाद के बारे में उनका 1992 में लिखा हुआ एक लेख छपा था, जिसका लिंक मैं अपनी कल की पोस्ट के साथ नत्थी करना चाह रहा था। पर, टाइम्स ऑफ इंडिया की साइट पर मुझे यह लेख मिला ही नहीं, तो मैंने सोचा क्यों न इस लेख का अनुवाद ही छाप दिया जाए। आइए देखते हैं कि इस लेख के चुनिंदा अंश जो दर्शाते हैं कि डोरिस क्या सोचती हैं कम्युनिस्टों की सोच के बारे में...

हम साम्यवाद की प्रत्यक्ष मौत देख चुके हैं, लेकिन साम्यवाद के अधीन सोचने का जो तरीका पैदा हुआ था या जिसे साम्यवाद से मजबूती मिली, वह अब भी हमारी जिंदगियों को नियंत्रित करता है। पहला बिंदु है भाषा। यह कोई नया विचार नहीं है कि साम्यवाद ने भाषा को भ्रष्ट किया और भाषा के साथ विचार को भी। हर वाक्य के बाद आपको कम्युनिस्ट जुमले मिल जाते हैं। यूरोप में ऐसे कुछ ही लोग होंगे जिन्होंने अपने ज़माने में concrete steps, contradictions, interpenetration of opposites जैसे जुमलों को लेकर मज़ाक न किया हो। तमाम कम्युनिस्ट अखबार ऐसी भाषा में लिखे जाते हैं कि लगता है कि वो आजमा रहे हों कि बिना कुछ कहे कितनी ज्यादा से ज्यादा जगह भरी जा सकती है।

यह हमारे समय की एक बड़ी विडंबना है कि वे विचार जिनमें समाज को बदलने की कुव्वत है, वे विचार जिनमें इंसान के मूल व्यवहार और सोच को समझने की अंतर्दृष्टि है, उन्हें अक्सर अपठनीय भाषा में पेश किया जाता है।

दूसरे बिंदु का ताल्लुक पहले ही बिंदु से है। हमारे व्यवहार को प्रभावित करनेवाले ताकतवर विचार छोटे से वाक्य में या एक मुहावरे तक में अभिव्यक्त हो सकते हैं। लेकिन हर लेखक से इंटरव्यू लेनेवाले लिखने के मसकद और प्रतिबद्धता के बारे में पूछते हैं। क्यों लिखते हैं, किसके लिए लिखते हैं? पूछा जाता है कि फलां लेखक प्रतिबद्ध है या नहीं? बाद में ‘प्रतिबद्धता’ की जगह ‘चेतना बढ़ाने’ ने ले ली। लेकिन इसका सिर्फ और सिर्फ मतलब यह होता था कि आप पार्टी लाइन को बयां कर रहे हैं या नहीं। बाद में जब साम्यवाद भसकने लगा तो political correctness की बात कही जाने लगी। ये सब कहने का मेरा मकसद सिर्फ यह दिखाना है कि हमारा दिमाग कैसे अनजाने में कुछ जुमलों का गुलाम हो जाता है।

क्या political correctness का सकारात्मक पहलू भी है? हां है क्योंकि यह हमें अपने नज़रिये को फिर से जांचने के लिए उकसाता है जिससे हमेशा फायदा ही होता है। लेकिन हकीकत में होता यह है कि अगर कोई एक महिला या पुरुष नज़रिये को ईमानदारी से जांच रहा होता है तो उसके इर्दगिर्द बीस लफ्फाज ऐसे होते हैं जो ऐसा दिखाकर सिर्फ सत्ता हासिल करना चाहते हैं। मुझे तो आज भी यही लगता है कि करोड़ों लोग जिनके नीचे से साम्यवाद की चादर खींच ली गई है, वो शायद आज भी अनजाने में किसी और dogma की तलाश में लगे होंगे।

Saturday 20 October, 2007

125 साल पुरानी मांग है शिक्षा का अधिकार

वाकई आज मैं यह पढ़कर आश्चर्यचकित रह गया कि देश में शिक्षा के अधिकार की मांग 125 साल पुरानी है। समाज सुधारक महात्मा ज्योतिराव फुले ने 19 अक्टूबर 1882 को ब्रिटिश सरकार द्वारा शिक्षा पर बनाए गए हंटर कमीशन को एक ज्ञापन दिया था, जिसमें उन्होंने बच्चों के लिए सार्वभौमिक शिक्षा के अधिकार की मांग की थी। देश की आजादी के 60 साल बाद हालत ये है कि साल 2002 में संविधान संशोधन के बाद 6 से 14 साल के बच्चों के लिए शिक्षा के अधिकार को मौलिक अधिकार तो बना दिया गया, लेकिन इसे अभी तक गजट में नोटिफाई नहीं किया गया है।

शुक्रवार को शिक्षण हक्क अभियान के कार्यकर्ताओं ने महात्मा फुले के योगदान को याद करने के लिए मुंबई के आज़ाद मैदान में प्रदर्शन किया। उन्होंने इस बात पर अफसोस जताया कि सरकार ने 2002 के संविधान संशोधन में 6 साल तक के बच्चों को शिक्षा के अधिकार से बाहर छोड़ दिया है। ऊपर से पांच साल भी इसे नोटिफाई न करने से साफ हो जाता है कि महात्मा फुले की तस्वीरों और मूर्तियों पर माला चढ़ाने वाले हमारे नेता उनकी बातों का कितना आदर करते हैं।

‘बाल-विवाह’ कराते हैं संघी और कम्युनिस्ट

पहले भी लड़की के रजस्वला होने से पहले उसकी शादी कराना वर्जित था। आज भी 18 साल से कम उम्र की लड़की शादी करना अपराध है। लेकिन राजस्थान से लेकर मध्य प्रदेश और दूसरे कई राज्यों के ग्रामीण इलाकों में अब भी ऐसा होता है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जैसे हिंदुवादी संगठन और सभी कम्युनिस्ट यकीनन इसके खिलाफ हैं। लेकिन दूसरी तरफ वो खुद एक तरह का बाल-विवाह कराते रहे हैं। अधकचरी उम्र के आदर्शवादी लड़कों को वो जिस तरह शुरू में अपना आंशिक और बाद में पूर्णकालिक कार्यकर्ता बनाते हैं, मेरी नज़र में वह बाल-विवाह के अपराध से किसी तरह कम नहीं है।

सोचिए, 16 से 20 साल की उम्र में जब ज्यादातर नौजवानों को देश के नाम और अपनी जातीय-धार्मिक पहचान के अलावा समाज की बुनावट, उसके इतिहास के बारे में ठोस कुछ नहीं पता होता, तब संघी और कम्युनिस्ट दोनों ही इनकी बलिदानी मानसिकता का फायदा उठाकर इन्हें अपनी तरफ आकर्षित करते हैं। प्राकृतिक रूप से जो आदर्शवादी भावना इनके अंदर इसलिए पैदा हुई होती है ताकि वे जीवन की आगे आनेवाली ऊबड़-खाबड़ सच्चाइयों से टकरा सकें, उन पर विजय हासिल करने का हुनर सीख सकें, उसे संघी और कम्युनिस्ट एक वायवी, कृत्रिम संसार में ले जाकर खड़ा कर देते हैं। रीयल वर्ल्ड के बजाय वर्चुअल वर्ल्ड में ले जाकर उन्हें एक तरह का वीडियो गेम खेलने का आदी बना देते हैं।

फिर होता यह है कि वह आदर्शवादी नौजवान अपनी तार्किक मेधा का इस्तेमाल करने के बजाय इनकी बनी-बनाई स्थापनाओं को ही वास्तविक दुनिया मान बैठता है। संघी घुट्टी पिलाते हैं कि हम आर्य हैं और म्लेच्छों (मुसलमानों) ने हमारी सभ्यता और संस्कृति को नष्ट कर दिया। कम्युनिस्ट घुट्टी पिलाते हैं कि सामंतवाद और पूंजीवाद ने देश को जकड़ रखा है। हमें वर्ग-संघर्ष के जरिए सर्वहारा अधिनायकवाद की स्थापना करनी है। उत्पादक शक्तियों और उत्पादक संबंधों का द्वंद्वात्मक संघर्ष ही नए समाज की बुनियाद रखेगा। ये सारे जुमले और धारणाएं अनुभव के कच्चे नौजवान के सिर के मीलों ऊपर से गुजरती हैं। लेकिन उसे भरोसा दिलाया जाता है कि वह महान काम करने जा रहा है और वह आंखें मूंदकर भरोसा कर भी देता है। अपना सब कुछ होम करने को तैयार हो जाता है।

वैसे, वयस्क जीवन की शुरुआत में ही यह हादसा गंवई और कस्बाई पृष्ठभूमि से आए किशोरों के साथ ही होता है। जो शहरों के पढ़े-लिखे, संपन्न परिवारों से आते हैं, देश ही नहीं, विदेश तक के अच्छे संस्थानों से डिग्रियां लेकर आते हैं, उनके लिए देश, समाज और वर्ग संघर्ष या द्वंद्वात्मक भौतिकवाद की धारणा वायवी नहीं, यथार्थ होती हैं। वो इन्हें अच्छी तरह से जज्ब कर लेते हैं। इसीलिए वो कम्युनिस्ट पार्टी की विचारधारा को पचा ले जाते हैं। फिर, यही लोग इन पार्टियों के नेता बनते हैं। सीपीएम के सीताराम येचुरी, प्रकाश करात या माले के महासचिव दीपंकर भट्टाचार्य गांव या कस्बे से पढ़कर नहीं निकले हैं।

अब ऐसे लोग तो नेतृत्व की कमान संभाल लेते हैं, लेकिन आदर्श की झोंक में बहकर आए कार्यकर्ता या तो जीवन की सच्चाइयों से टकराते ही वापस लौट जाते हैं या वहीं रहते हुए सांसारिक चालाकी पर अमल करने लगते हैं। बाहर निकल गए तो गज़ब के गीटबाज़ और दुनियादार बन जाते हैं और अंदर रहे तो दुनियादारी के हर फॉर्मूले को पिछले दरवाज़े से पार्टी या संगठन के भीतर ले आते हैं।

निष्कर्ष यह है कि कम उम्र के नौजवानों को आदर्शवाद के नाम पर किसी भी रंग की विचारधारा का गुलाम बनाना समाज की अग्रिम गति के लिए घातक है। इसे आदर्श के तथाकथित ठेकेदारों को भी समझ लेना चाहिए और हमें भी उनकी इस छापामारी को रोकने की हरचंद कोशिश करनी चाहिए।

Friday 19 October, 2007

गेहूं पर तू-तू मैं-मैं और मूर्ख बनते किसान

बीजेपी ने आयातित गेहूं की क्वालिटी को लेकर कृषि मंत्री शरद पवार पर निशाना साधा तो पलटकर पवार ने बीजेपी की बोलती बंद कर दी। लेकिन दो सांड़ों की लड़ाई में कुछ ऐसे सच सामने आए हैं, जिनसे हमारे-आप जैसे लोगों की आंख खुल जानी चाहिए। पवार की मानें तो इस साल गेहूं आयात करने की नौबत अटल बिहारी की अगुआई वाली एनडीए सरकार और बीजेपी शासित राज्यों की नीतियों के चलते पैदा हुई। वाजपेयी सरकार ने एक तो गेहूं का न्यूनतम समर्थन मूल्य नहीं बढ़ाकर किसानों को हतोत्साहित किया, ऊपर से सरकारी गोदामों का गेहूं सस्ती दरों पर व्यापारियों को निर्यात करने के लिए बेच दिया। इस फैसले से केंद्र सरकार को 16,245 करोड़ रुपए का घाटा हुआ है।

बात यहीं तक सीमित नहीं रही। बीजेपी या उसकी साझा सरकारों वाले चार राज्यों – गुजरात, राजस्थान, मध्य प्रदेश और बिहार ने इस साल पीडीएस के लिए गेहूं की बेहद मामूली खरीद की है। गुजरात में 2006-07 में गेहूं का उत्पादन 30 लाख टन हुआ, जबकि सरकारी खरीद रत्ती भर भी नहीं हुई। राजस्थान में 69.25 लाख टन गेहूं उत्पादन के मुकाबले सरकारी खरीद हुई सिर्फ 3.8 लाख टन की। मध्य प्रदेश में कुल गेहूं उत्पादन 71.6 लाख टन रहा, जबकि सरकार ने खरीदे सिर्फ 57,000 टन। इसी तरह बीजेपी और जेडी-यू की साझा सरकार वाले बिहार में 35.8 लाख टन गेहूं उत्पादन में से सरकारी खरीद महज 8,000 टन की हुई।

इन चार राज्यों के असहयोग के चलते पीडीएस के लिए सरकारी गोदामों में कुल 111 लाख टन ही गेहूं आ पाया, जबकि ज़रूरत 150 लाख टन की थी। ध्यान देने की बात यह है कि इन राज्यों ने सरकारी खरीद में सहयोग तो नहीं ही दिया, ऊपर से पीडीएस के लिए गेहूं की मांग बढ़ा दी। वैसे पवार का यह खुलासा राजनीतिक प्रेरित है क्योंकि उन्होंने लगे हाथों उत्तर प्रदेश की पुरानी मुलायम सरकार को भी लपेट लिया है। उनका कहना है कि 2005-06 में उत्तर प्रदेश में 250 लाख टन का गेहूं उत्पादन हुआ था, जबकि सरकारी खरीद महज 5.3 लाख टन ही रही।

कम सरकारी खरीद और पीडीएस की बढ़ती मांग के चलते केंद्र सरकार के सामने बाहर से गेहूं मंगाने के अलावा कोई चारा नहीं बचा। नतीजा यह हुआ कि इस साल भारत दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा गेहूं आयातक देश बन गया। उसने 1 जून 2007 को खत्म विपणन वर्ष में 67 लाख टन गेहूं का आयात किया। 39 लाख टन भंडार में कमी को पूरा करने के लिए और 28 लाख टन आगे के इंतज़ाम के लिए। आपको बता दें कि सरकार को हर महीने पीडीएस के लिए 10 लाख टन गेहूं की ज़रूरत पड़ती है।

इस बार गेहूं की जो भी सरकारी खरीद हुई, उसमें सबसे बड़ा योगदान पंजाब और हरियाणा का रहा। सवाल उठता है कि बाकी राज्यों में पैदा हुआ गेहूं गया कहां? जवाब एकदम साफ है कि इन राज्यों का लगभग सारा गेहूं आईटीसी, हिंदुस्तान यूनिलीवर या कारगिल जैसी बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने खरीद लिया। किसानों को इन कंपनियों ने थोड़ा ज्यादा दाम दिया तो वह अपना गेहूं सरकारी एजेंसियों को क्यों बेचते?

लेकिन पीडीएस के गेहूं की कमी के मनोवैज्ञानिक असर के चलते खुले बाज़ार गेहूं की कीमतें बढ़ गईं। ऊपर से भारत की तरफ से इतनी भारी मांग आने पर अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में इस साल गेहूं 64 फीसदी महंगा हो गया। अब गेहूं की इन बढ़ी कीमतों को देखकर किसानों को लगने लगा है कि वे इस बार गेहूं की खेती से ज्यादा कमाई कर सकते हैं। सो उन्होंने गेहूं की खेती का रकबा बढ़ा दिया है। जहां पिछले साल 285 हेक्टेयर में गेहूं बोया गया था, वहीं इस साल अनुमान है कि गेहूं का रकबा 290 लाख हेक्टेयर से ज्यादा रहेगा।

मगर हकीकत यह है कि भारतीय खाद्य निगम (एफसीआई) के चेयरमैन आलोक सिन्हा के मुताबिक ताज़ा आयात के बाद सरकार के पास 50 लाख टन का आरक्षित भंडार रहेगा, जबकि ज़रूरत 40 लाख टन की ही है। यानी, सरकार की तरह से ज्यादा मांग नहीं आनेवाली। ऊपर से अनुमान यह है कि ज्यादा क्षेत्रफल में बोवाई से गेहूं उत्पादन 755 लाख टन के आसपास रहने का अनुमान है। जाहिर है सप्लाई बढ़ने और मांग घटने से गेहूं की कीमतें ज्यादा रहने के आसार नहीं हैं। ऐसे में जिन किसानों ने ज्यादा कमाई की उम्मीद में गेहूं का रकबा बढ़ा दिया है, उन्हें अपनी उम्मीदों के टूटने के लिए तैयार रहना चाहिए। इसे कहते हैं गेहूं के साथ घुन (किसान) का पिसना।

अंत में दो निष्कर्ष। एक, गरीबों के नाम पर सरकार ने गेहूं आयात के लिए सरकारी खज़ाना खाली किया। और दो, बहुराष्ट्रीय कंपनी को फायदा पहुंचाने के चक्कर में बीजेपी की राज्य सरकारों ने गरीबों की रोटी छीनने के साथ ही मध्यवर्ग की जेब में छेद कर दिया।

भैंसि कूदि गय पानी मां, घाटा लागि...

बचपन में सुनी और बोली गई इस कहावत का अर्थ मैं आज तक नहीं समझ पाया हूं कि भैंसि कूदि गय पानी मां, घाटा लागि जवानी मां। हां, इतना ज़रूर लगता है कि इसमें कुछ गड़बड़ है, कुछ ऐसा है जो बच्चों के मुंह से शोभा नहीं देता। ऐसा इसलिए क्योंकि बाहर से सुनी और रटी-रटाई यह कहावत जब मैंने छुटपन में अम्मा-बाबूजी के सामने बोल दी थी तो अम्मा ने पहले तो अवाक होकर बाबूजी की तरफ देखा और फिर मुझे आंखें तरेर कर डपट दिया था। बाहर अपने से पांच-दस साल बड़े लड़कों से इस कहावत का मतलब पूछा तो वे ऐसे हंस पड़े जैसे मुझसे बड़ा मूर्ख उन्होंने पहले देखा ही न हो।

इसी तरह का एक और वाकया है। मैं आठ-नौ साल का रहा हूंगा। घर में मनोरंजन के साधन के नाम पर फिलिप्स का एक रेडियो था जो चाचा की शादी में मिला था। अम्मा-बाबूजी पढ़ाने चले जाते थे तो मैं उस पर गाने सुनता था। सुनता था तो कुछ गाने याद भी हो जाते थे। और याद हो जाते थे तो खुश होने पर मैं उन्हें गाता भी था। एक दिन शाम को घर के आंगन में सबकी मौजूदगी में मैंने टेर दिया – कजरा मोहब्बत वाला, अंखियों में ऐसा डाला, कजरे ने ले ली मेरी जान, हाय रे मैं तेरी कुर्बान। बाबूजी चाय पीना छोड़कर उठे और खट से मेरे गाल पर एक तमाचा रसीद कर दिया। मैं सुबकने लगा तो अम्मा ने भी चुप नहीं कराया।

इन दोनों ही यादों के ज़रिए मैं कल और आज का एक कॉन्ट्रास्ट दिखाना चाहता हूं। कल को मां-बाप बराबर चौकन्ने रहते थे कि बच्चा कोई गलत बात न सीख ले, उसके संस्कार गलत न पड़ जाएं। मां बचपन में भगत सिंह से लेकर महात्मा गांधी और स्वतंत्रता सेनानियों के किस्से सुनाती थी। आज अक्सर बच्चे मां-बाप के साथ ही बैठकर सस्ते-मद्दे सभी किस्म के टीवी सीरियल और फिल्में देखते हैं। मां मोहल्ले, सोसायटी या स्कूल के कंपटीशन के लिए 8-10 साल की बच्ची को कजरारे-कजरारे, जस्ट चिल जैसे गानों पर बड़ों की अदाओं से नाचना सिखाती है।

ज्यादातर माताएं अपनी सहूलियत और बच्चों की मांग के हिसाब से फैसले करती हैं। टिफिन में कुछ भी अगड़म-बगड़म भर दिया जाता है, बर्गर से लेकर चिप्स और चॉकलेट तक। न बोलने-सोचने के संस्कार पर ध्यान दिया जाता है, न ही खाने-पीने की आदतों पर। महाराष्ट्र और गुजरात में शायद परिवारों में संस्कारों और मूल्यों के प्रति इतनी उपेक्षा का भाव नहीं आया है। लेकिन उत्तर प्रदेश, बिहार, हरियाणा और पंजाब में ज्यादातर ऐसा ही है, खासकर नव धनाढ्य परिवारों में।

दूसरी तरफ इन्हीं परिवारों में बच्चों को मंदिरों में ले जाकर हाथ जोड़वाने और घंटी बजवाने का ढकोसला भी चलता है। घर में हवन और सत्यनारायण की कथा में उनको बैठाया जाता है। कहीं-कही तो ऐसा भी है कि गायत्री और महा-मृत्युंजय जैसे कठिन मंत्र तक बच्चों को रटवा दिए जाते हैं। लेकिन बस दिखावे के लिए कि कभी कोई बाहर से आए तो धाक जमाने के लिए बच्चे से कह दिया – बेटे, अंकल को महा-मृत्युंजय मंत्र सुनाओ, वही त्र्यंबकम यजामहे वाला।

मुझे लगता है कि आज कल मां-बाप या तो बच्चों के प्रति पहले जैसे चौकन्ने नहीं रहे हैं या खुद उन्हें लगता है कि पुराने संस्कारों और मूल्यों का अब कोई मतलब नहीं रह गया है तो बच्चों पर क्यों थोपा जाए। नया कुछ नहीं है तो पुराने अनुष्ठानों और कर्मकांडों का पालन ज़रूर कर लेते हैं। लेकिन, एक तो पुराने में सब कुछ त्याज्य और अप्रासंगिक नहीं है। जैसे, खाने-पीने के नियमों से लेकर लोक और जातक कथाओं तक में कमाल के सबक हैं। दूसरे, नए में डिस्कवरी से लेकर हिस्ट्री चैनल बहुत कुछ ऐसा पेश कर रहे हैं जो बच्चों के क्षितिज को विस्तार दे सकता है। फिर नई चीज़, नई बात तो खुद को छोटे-छोटे रूपों में उद्घाटित करती चलती है। चौकन्ने लोग उसे पकड़ ही लेते हैं।

Thursday 18 October, 2007

बेनज़ीर फोटो, जब रो पड़ीं भुट्टो

आज दोपहर करीब पौने दो बजे पाकिस्तान की पूर्व प्रधानमंत्री बेनज़ीर भुट्टो का विमान दुबई से कराची पहुंचा तो वहां हज़ारों समर्थक उनके स्वागत के लिए पहले से उमड़े हुए थे। बेनज़ीर भुट्टो के पांव विमान से नीचे पड़े तो वे रो पड़ीं। इन पलों को आप इस फोटो में साफ देख सकते हैं। लेकिन परवेज़ मुशर्रफ के साथ हुए जिस करार के तहत आठ साल के स्वघोषित निर्वासन से उनकी मुल्क-वापसी हुई है, उसमें नहीं लगता कि वे खास कुछ करने की जहमत उठाएंगी। बस, कुछ खोखली भावुक बातें होंगी, हवाई वादे होंगे ताकि सत्ता का सुख उनकी झोली में फिर से आ जाए। ऐसे में उनके आंसू और रोने की यह अदा महज दिखावे से ज्यादा कुछ नहीं लगती।

जो अपनी नज़रों में गिरा, समझो मरा

सांप को मारना हो तो उसकी रीढ़ की हड्डी तोड़ देनी चाहिए। और, अगर किसी इंसान को मिटाना हो तो उसके आत्मसम्मान को खत्म कर देना चाहिए। हमारे दफ्तरों में, कामकाजी संगठनों में अक्सर कमज़ोर किस्म के बॉस इसी नीति पर अमल करते हैं। उन्हें अपने नीचे काम करनेवाले सहकर्मी की प्रतिभा से डर लगता है तो वे बार-बार उसके काम में मीनमेख निकालते हैं। सब के सामने चिल्लाकर कहते हैं, “तुमको आता क्या है? तुमको नौकरी किसने दे दी? तुम तो निपट घसियारे हो। यहां कर क्या रहे हो? कहीं और अपने लेवल की नौकरी क्यों नहीं ढूंढ लेते!” वे अच्छी तरह समझते हैं कि सामनेवाले के मजबूत पहलू और कमज़ोरियां क्या हैं, लेकिन वे जान-बूझकर कमज़ोरियों पर नहीं, उसके स्ट्रांग प्वॉइंट्स पर चोट करते हैं।
सहकर्मी अगर अपनी प्रतिभा और काबिलियत को लेकर हठी विक्रमादित्य नहीं हुआ, ज्यादातर लोगों की तरह सहज विश्वासी किस्म का जीव हुआ तो न-न करते हुए भी अपनी आलोचनाओं पर यकीन करना शुरू कर देता है। उसे लगता है कि कहीं तो कुछ होगा जो उसका बॉस उसे इस तरह झिड़कता है। फिर तो वह अपनी हर पहल को संदेह की नज़र से देखने लगता है। सोचता है कहीं कोई गलती न हो जाए। अपने विवेक के बजाय दूसरों की सलाह का मोहताज हो जाता है। धीरे-धीरे उसे अपनी काबिलियत से भरोसा उठ जाता है और वह सबकी नज़रों में बिना काम का साबित हो जाता है।
लेकिन कुछ ठसक वाले लोग होते हैं जो दुत्कारने पर फुंफकार कर खड़े हो जाते हैं। अभी कुछ ही दिन पहले की बात है। मेरे एक सहकर्मी ने दूसरी जगह बेहतर मौका और पैसा मिलने पर इस्तीफा दे दिया। बॉस को बताया तो वो फोन पर ही भड़क गए। बोलने लगे – तुम्हारी औकात क्या है, तुम थे क्या, आज जो कुछ तुम हो, मैंने तुम्हें बनाया है, आइंदा से मुझे फोन भी मत करना, आदि-इत्यादि। बंदा बहुत दुखी हो गया। लेकिन अंदर ही अंदर गहरे क्षोभ से भर गया। और कुछ नहीं कर सका तो अपने ब्लॉग पर पोस्ट लिखकर धिक्कार डाला - तुम करो तो रासलीला, हम करें तो छेड़खानी।
मुझे उसकी ये अदा भली लगी। कम से कम उसने अपने आत्मसम्मान को ठेस नहीं लगने दी। मेरे साथ भी करीब आठ साल पहले ऐसा ही हुआ था, जब मेरे बॉस ने मुझसे यही सब कहा था कि तुमको मैंने नौकरी दी थी, वरना तुम्हें हिंदी की बिंदी के अलावा आता ही क्या है। उस समय मैंने डायरी में यह लिखकर अपने आत्मसम्मान को बचाया था कि मैं सरस्वती-पुत्र, सूर्य का बेटा, मैं किसी के अपमान से क्यों परेशान होऊं। कोई अंधकार, कोई अज्ञान मुझे कैसे रोक सकता है। इसके बाद फिर नई जगह पर ऐसा ही कुछ हुआ और एक दिन जब सहने की हद पार हो गई तो मैंने बॉस के मुंह पर इस्तीफा फेंककर दे मारा। क्या करता? मुझे यही लगा कि अगर मैं आत्मदया का शिकार बन गया तो एक दिन दीनहीन बनता-बनता मिट ही जाऊंगा।
आत्मदया और आत्म-प्रशस्ति पेंडुलम के दो छोर हैं। इन्हीं के बीच कहीं रहता है हमारा आत्मसम्मान। हमें किसी को भी इसे तोड़ने की इजाज़त नहीं देनी चाहिए। न ही किसी की बातों में आकर खुद को अपनी नज़रों में गिरने देना चाहिए। वरना, जिस दिन हम अपनी ही नज़रों में गिरते हैं, उस दिन समझिए हमारी रीढ़ की हड्डी ही टूट जाती है। और आप जानते ही है कि रीढ़ की हड्डी की ज़रा-सा चोट भी लकवे का बड़ा कारण बन जाती है।

Wednesday 17 October, 2007

खास की बपौती और नक्कारखाने की तूती

ये देश कुछ खास लोगों की बपौती है, जिनके एक बार जुबां भर खोल देने से काम हो जाता है। बाकी आम लोगों को अपनी बात सुनवाने के लिए मार्च करना पड़ता है, जुलूस निकालना पड़ता है, धरना-प्रदर्शन करना पड़ता है। जैसे, अमेठी के सांसद राहुल गांधी ने कांग्रेस का महासचिव बनने के बाद कहा कि राष्ट्रीय रोज़गार गारंटी योजना पूरे देश में लागू कर दी जानी चाहिए तो पलक झपकते ही सरकार ने ऐलान कर दिया कि ऐसा किया जा रहा है। जबकि तीन सालों से करोड़ों भूमिहीन किसानों और आदिवासियों की तरफ से गांधीवादी संगठन, एकता परिषद मांग कर रहा है कि देश में राष्ट्रीय भूमि आयोग और नई भूमि सुधार नीति बनाई जाए, लेकिन सरकार बस सुन रही है और टाल रही है।

अब देश के चार राज्यों – मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, बिहार और उड़ीसा के तकरीबन 25,000 भूमिहीन किसान और आदिवासी एकता परिषद के बैनर तले ग्वालियर से दिल्ली तक करीब साढ़े तीन सौ किलोमीटर की जनादेश यात्रा कर रहे हैं। यात्रा 2 अक्टूबर को गांधी जयंती के मौके पर ग्वालियर से शुरू हुई और मोरैना, धौलपुर, आगरा और मथुरा होते हुए आगे बढ़ रही है। यह राष्ट्रीय राजमार्ग से बल्लभगढ़ और फरीदाबाद होते हुए 28 अक्टूबर को दिल्ली पहुंचेगी। रास्ते भर ये लोग जगह-जगह जनसभाएं करते हुए अपनी बात लोगों तक पहुंचा रहे हैं। दिल्ली में ये जत्था दो दिन तक रहेगा। 29 और 30 अक्टूबर को जंतर-मंतर और राजघाट पर जनसभाएं की जाएंगी।

देश में भूमि सुधारों की ज़रूरत को चिह्नित करते हुए मैंने भी चार महीने पहले कल का कर्ज के तहत कई लेख लिखे थे और इस यात्रा से अपनी उम्मीदों का भी इज़हार किया था। लेकिन जब से मुझे एकता परिषद की सॉलिड नेटवर्किंग का पता चला है, तब से ये उम्मीदें कुछ और बढ़ गई हैं। इस संगठन का ताल्लुक पीएसीएस (Poorest Areas Civil Society) नाम के बड़े एनजीओ से है जो साल 2001 से ही छह राज्यों में फैले 93 ज़िलों के लगभग 20,000 गांवों में सक्रिय है। एकता परिषद के अध्यक्ष पी वी राजगोपाल हैं, जिन्होंने सत्तर के दशक में चंबल के नामी डकैतों के आत्मसमर्पण में अहम भूमिका निभाई थी।

इनकी पहुंच का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि दो दिन पहले ही राजगोपाल जानीमानी सामाजिक कार्यकर्ता और राष्ट्रीय सलाहकार परिषद की सदस्य अरुणा रॉय के साथ सोनिया गांधी से मिले हैं, जिन्होंने भूमि सुधार के मसले पर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से बात करने का आश्वासन दिया है। बताते हैं कि खुद ग्रामीण विकास मंत्री रघुवंश प्रसाद एकता परिषद की मांगों के पक्ष में हैं। अचंभे की बात को यह है कि ग्वालियर राजघराने के कांग्रेसी सांसद ज्योरादित्य सिंधिया और मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान तक ने इनकी सभाओं में हिस्सा लिया है और इनकी मांगों का समर्थन किया है।

यही बात मेरे गले नहीं उतरती। जिन लोगों की ‘विकास’ नीतियों के चलते देश में अब तक दो करोड़ से ज्यादा लोग विस्थापित हुए हैं, आदिवासी जीवन के अधिकार से महरूम हो गए हैं, मुसहर और दुसाध से लेकर तमाम दलित भयंकर उत्पीड़न का शिकार हैं, वही लोग कैसे इनका परचम उठानेवाले संगठन का समर्थन कर रहे हैं? इस तरफ राजगोपाल ने एक इशारा जरूर किया है कि, “हमें हिंसा या चुप्पी के बीच चुनाव करना है। प्रशासन को समझना पड़ेगा कि जनादेश यात्रा में बहुत से लोग ऐसे हैं जो भविष्य में नक्सली बन सकते हैं।”

खैर जो भी हो, हमें तो इस बात से उत्साहित होना चाहिए कि इस बहाने ही सही, भूमि सुधारों का जो मसला महात्मा गांधी ने 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन के साथ उठाया था, उस मसले पर देश में एक बार फिर चर्चा शुरू हो सकती है।

45 से काउंट-डाउन और 50-55 तक खल्लास

उम्र बढ़ती है या साफ कहें कि उम्र घटती है तो जीने की इच्छा बढ़ती जाती है। कितनी अजीब बात है कि जब आपके पास जीने को पूरी ज़िंदगी पड़ी होती है तो अक्सर आपके मन में मरने का भाव आता है। और, जब चलाचली की बेला आती है तो आप ज़िंदगी को और कसकर पकड़ लेते हैं। आपने कभी नोटिस किया है कि अपनी जान खुद लेनेवालों में ज्यादातर की उम्र 25 से 35 या अधिक से अधिक 40 के आसपास रहती है। इसके बाद के लोग अपनी मौत मरते हैं बीमारी से या एक्सिडेंट से, खुदकुशी नहीं करते। 65 के ऊपर के तो इक्का-दुक्का लोग ही कहीं कूद-कादकर अपनी जान लेते हैं। वैसे भी ऐसे सीनियर सिटीजन देश की आबादी का महज 4 फीसदी हैं।

सरकारी आंकड़ों के मुताबिक इस समय देश में औसत जीवनकाल 62 साल का है और दस साल बाद 69 तक पहुंच जाएगा। यानी अभी ज्यादातर लोग 62 से पहले ही टपक लेते हैं। वैसे, जहां तक मैं देख पा रहा हूं, इस समय उम्र को लेकर अपने यहां बड़ा घपला चल रहा है। मां-बाप के जमाने में लोग 35 साल के बाद से बूढ़े होना शुरू हो जाते थे, जबकि इस समय 40 के बाद लोगों पर हीरोगिरी चढ़ रही है। आमिर, शाहरुख, सलमान, शेखर सुमन सभी 40 के पार जा चुके हैं। लेकिन उन्हें अब जाकर सिक्स पैक का चस्का लगा है और 20-22 साल के छोरों की तरह बॉडी और एब्स बना रहे हैं।

मगर, दूसरी तरफ जिन काबिल और मेधावी बच्चों ने किसी मल्टीनेशनल या नेशनल कंपनी में 25 साल में अपना करियर शुरू किया था, वो तो 35 साल तक पहुंचते-पहुंचते ही हांफने-डांफने लग रहे हैं। लेकिन यह हिंदुस्तानी होने के नाते इनका जीवट और किसी भी कीमत पर मंजिल हासिल करने की जिद ही है कि ये लोग कामयाबी की सीढ़ियां दनादन चढ़ते हैं। यहां तक कि विदेशी कंपनियों तक में ऐसे भारतीय एग्जीक्यूटिव्स की मांग जबरदस्त तरीके से बढ़ गई है। वैसे, विदेश में तो हमारी क्रूर शिक्षा प्रणाली की भी खूब तारीफ की जाती है।

लेकिन इसी जीवट और जिद के चलते 35 से 40 के बीच के ज्यादातर कामयाब नौजवान डायबिटीज, हाई ब्लडप्रेशर जैसी लाइफस्टाइल-जनित बीमारियों के शिकार होने लगे हैं। 14-14, 18-18 घंटे काम, ऊपर से प्रतिस्पर्धा में लगातार जीतने की फितरत। फिर, खाना-पीना भी फास्ट फूड के हवाले। ऐसे में ये नौजवान 45 साल के होते-होते अपने करियर के शिखर पर पहुंच तो जाते हैं, लेकिन इस दौरान उनका शरीर खोखला हो जाता है। उनके पास अपना घर, गाड़ी, अच्छा-खासा बैंक बैलेंस सब कुछ होता है। पर, कुछ ही वक्त में शिखर की बोरियत उन्हें सताने लगती है।

अब या तो कुछ लोग शिखर को लात मारकर नया रिस्क लेते हैं। कुछ क्रिएटिव करने की ठान लेते हैं। एनजीओ बना डालते हैं। गांवों में, जंगलों में घर ले लेते हैं। अजीबो-गरीब सा धंधा शुरू कर देते हैं। या, फिर 45 साल की उम्र में ही अपनी ज़िदगी की उल्टी गिनती शुरू कर देते हैं। मगर, इन बहादुरों को पस्त या लस्त होना कतई बरदाश्त नहीं होता। तो चाहते हैं कि बुढ़ापा पूरी तरह उन्हें धर दबोचे, वो 50-55 तक पहुंचें, इससे पहले ही दुनिया से कूच कर जाएं तो अच्छा। उन्हें बुढ़ापे की असहायता से भय लगता है। वो इस एहसास के साथ दुनिया से विदा होना चाहते हैं कि जवान ही रहकर जिए और जवान ही रहकर मरे।

आप कहेंगे कि इस तस्वीर से गांव-गिरांव और कस्बे के करोड़ों सामान्य नौजवान गायब हैं। वह नौजवान गायब है जो 20 का होने के बाद अचानक 45 का हो जाता है। हां, यह सच है। लेकिन यहां मैं उनकी बात कर ही नहीं रहा क्योंकि उनका तो पूरा मामला ही अलग है। वो तो इस भारतवर्ष से ही निर्वासित हैं। यहां मैंने मध्यवर्गीय नौजवान की जो तस्वीर पेश की है, उसका मकसद यह दिखाना है कि इसमें जबरदस्त उद्यमशीलता है। मुक्तिबोध के शब्दों में कहूं तो वह, ‘पहाड़ों को तोड़कर, चट्टानी दीवारों को काटकर, कगारों को ढहाकर, गूंजकर और गुंजाकर’ आगे बढ़ रहा है। उसके उतावलेपन पर मत जाइए। उसकी ऊर्जा की दाद दीजिए।

Tuesday 16 October, 2007

नमोनम: सौ मूस खाइकै बिलारि भईं भगतिन

अवधी की इस कहावत का मर्म समझने के लिए कहीं पीछे जाने की ज़रूरत नहीं है। नमो-नमो जपिए और गुजरात के मुख्यमंत्री नरेद्र मोदी का वह ताज़ा बयान याद कर लीजिए जिसमें उन्होंने कहा था कि वे सांप्रदायिक नहीं हैं। वे सबको साथ लेकर चलने की राजनीति में यकीन रखते हैं। वे अल्पसंख्यकवाद के साथ ही बहुसंख्यकवाद के भी खिलाफ हैं और गुजरात विधानसभा के आनेवाले चुनाव में अपने सु-शासन का रिकॉर्ड चलाएंगे, न कि कट्टर हिंदुत्व का कॉर्ड। उनका दावा है कि जहां देश के तमाम नेता जाति और धर्म की भाषा बोलते हैं, वहां वे इकलौते ऐसे मुख्यमंत्री हैं जो अपने राज्य के साढ़े पांच करोड़ गुजरातियों की भाषा बोलते हैं।

दो महीने बाद होनेवाले चुनावों के लिए नरेंद्र मोदी गुजरात शाइनिंग का एजेंडा लेकर उतर पड़े हैं। हालांकि इंडिया शाइनिंग की दुर्गति याद करके उन्होंने शाइनिंग शब्द से परहेज किया है। लेकिन उनकी बात का सार वही है। 45 मिनट की पूरी डॉक्यूमेंट्री उन्होंने जारी कर दी है जिसमें गुजरात के चमत्कार के दम पर कल के भारत को हासिल करने का नारा दिया गया है। एक तरफ निशाने पर पश्चिम बंगाल है जहां तीस सालों से वामपंथियों की सरकार है, तो दूसरी तरफ महाराष्ट्र भी निशाने पर है जो कांग्रेसी शासन में औद्योगिक निवेश के मामले में गुजरात से पिछड़ गया है। इससे पहले मोदी सरकार अपने प्रचार के लिए वंदे गुजरात समेत अलग-अलग मुद्दों पर तीन और सीडी जारी कर चुकी है, जिसे दिखाना राज्य के सभी केबल ऑपरेटरों के लिए अनिवार्य है।

मोदी नहीं चाहते कि कोई उन्हें ऐसे नेता के रूप में याद करे, जिसके दामन पर गोधरा के बाद हुए दंगों में मारे गए हज़ारो बेगुनाहों के खून के दाग लगे हों। वो कह रहे हैं कि उनके लिए महात्मा गांधी के आदर्श और रामराज्य की अवधारणा दोनों ही बेहद प्रासंगिक हैं। मोदी जी को याद ही होगा कि बीजेपी भी एक समय गांधीवादी समाजवाद और एकात्म मानवतावाद की खिचड़ी पका चुकी है। इसका हश्र भी उन्हें याद होगा। फिर भी प्रयोग करना चाहते हैं तो उन्हें कौन रोक सकता है!

एक तरफ मुर्दे मोदी की निर्ममता की गवाही दे रहे हैं तो दूसरी तरफ निर्जीव आंकड़े मोदी की कामयाबी का प्रमाण पेश कर रहे हैं। जहां गुजरात सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की विकास दर के मामले में राष्ट्रीय दर से आगे बढ़ चुका है, वहीं निवेश के मामले में वह महाराष्ट्र को दूसरे नंबर पर धकेल चुका है। कंपनियां अपनी बैठकें करने के लिए गुजरात की तरफ दौड़ रही हैं क्योंकि शराब पीने-पिलाने पर वहां अच्छा खासा इनसेंटिव है। ऊपर से मुख्यमंत्री ने आदिवासियों से लेकर, मछुआरों, महिलाओं, सरकारी कर्मचारियों के लिए चुन-चुनकर स्कीमें पेश की हैं। नवरात्रि के मौसम पर गरबा नाचनेवालों तक पर विशेष कृपा की गई है।

नरेंद्र मोदी ने अपने राजनीतिक विरोधियों को पैदल करने की हरचंद कोशिश की है। ग्रामीण इलाकों में भले ही पटेल समुदाय नाराज़ हो, लेकिन बताते हैं कि शहरी मध्यवर्ग में शामिल पटेल लोग मोदी का गुणगान कर रहे हैं। मोदी को अपने चमत्कार पर यकीन है। लेकिन कांग्रेस ने भी ‘जनमित्र’ जैसे कुछ प्रयोग किए हैं। ऊपर से उसे लगता है कि असंतुष्टों की वजह से बीजेपी के वोट बंट जाएंगे, जिसका फायदा कांग्रेस को मिल सकता है। देखिए, दिसंबर में क्या होता है? लेकिन इतना तो तय है कि मोदी ने गुजरात को एक प्रयोगशाला बना दिया है, जहां फैसला होना है कि राजनीतिक अवसरवाद विकास की ‘शाइनिंग’ को किस हद तक वोटों में भुना सकता है।

अफसोस! न कोई मुस्लिम दोस्त है, न पड़ोसी

यूं तो दोस्तों को जाति या धर्म में बांटकर मैंने कभी नहीं देखा। लेकिन आज तक ऐसा कभी नहीं हुआ था कि ईद की सेवइयां कहीं न कहीं से मिल न गई हों। इस बार ऐसा नहीं हुआ तो अचानक ध्यान गया कि मुंबई में न तो मेरा कोई मुस्लिम दोस्त है और न ही कोई पड़ोसी। देश की लगभग 110 करोड़ की आबादी में करीब 15 करोड़ मुसलमान हैं (पाकिस्तान की पूरी आबादी के बराबर) यानी हर दस हिंदुस्तानियों में कम से कम एक मुस्लिम है। फिर ऐसा क्यों है कि करीब दो सौ परिवारों की हमारी हाउसिंग सोसायटी में एक भी मुस्लिम नहीं है?

हां, ये सच है कि बंटवारे की राजनीति और दंगों ने हमारे शहरों में धार्मिक आधार पर मोहल्लों और बस्तियों का धुव्रीकरण कर दिया है। इसने हम से विविधता का वो चटख रंग छीन लिया है, बचपन से ही हम जिसके आदी हो चुके थे। मैं राम जन्मभूमि और अवध के उस इलाके से आता हूं जहां हमारे चाचा, ताऊ और पिताजी आजी सलाम, बड़की माई सलाम और बुआ सलाम कहा करते थे। ताजिया के मौके पर आजी हम बच्चों को धुनिया (जुलाहों की) बस्ती में भेजती थी, मन्नत मांगती थी। बकरीद पर मुसलमानों के घर से हमारे यहां भी खस्सी का गोश्त आता था।

अम्मा-बाबूजी बाद में कस्बे में रहने चले गए तो वहां भी चुड़िहारिन से लेकर दर्जी और साइकिल का पंचर लगानेवाले तक मुसलमान थे। प्राइमरी स्कूल में पांचवीं क्लास में मौलवी साहब की मार मैंने भी खाई है। हां, ये ज़रूर है कि वसी अहमद के यहां कपड़े सिलाने जाता था तो अम्मा कहती थीं कि उनके यहां चाय-पानी मत पीना क्योंकि उनके घरों की औरतें उसमें थूक देती हैं। लेकिन हम बच्चे इससे बेफिक्र थे और पंडितों की तरह जहां खाने-पीने को मिलता था, मना नहीं कर पाते थे। बड़ा बुजुर्ग चाहे मुसलमान हो या पंडित जी, सबका आदर करने का संस्कार हमारे अंदर कूट-कूट भरा था।

एक ऐसा अपनापा अचेतन में बैठ गया था कि यूनिवर्सिटी में पहुंच गया, तब तक मुझे अजान की आवाज़ बहुत अच्छी लगती थी। किन्हीं क्षणों में तो मुझे यहां तक लगा था कि मैं पिछले जन्म में मुसलमान था और सबीना नाम की कोई महिला मेरी मां, बहन या बीवी हुआ करती थी।

मेरे चाचा-चाची अयोध्या में रहते हैं। 1992 में बाहर से आए रामभक्त उनके भी घर में रुके थे तो कस्बे के मेरे घर में भी रात काटकर गए थे। लेकिन हमारे घरों की रामभक्ति कभी भी मुस्लिम-विरोध में नहीं बदल पाई। रामनाम पर चली राजनीति ने देश भर में जितनी भी नफरत फैलाई हो, लेकिन अयोध्या से लेकर अवध इलाके के गांवों में आम ज़िंदगी पर इसका कोई खास असर नहीं दिखाई पड़ा।

इसलिए मुझे एक बात समझ में आती है कि मुस्लिम-विरोध और दंगों की राजनीति का कोई ज़मीनी आधार नहीं है। ये हमारी राजनीति के लिए एक एलियन जैसी चीज़ है। यह ग्योबेल्स की उस चाल पर आधारित है जो कहता था कि एक झूठ को सौ बार बोलो तो वह सच बन जाता है। इस राजनीति को उन दंगों से खुराक मिलती है जो होते नहीं, कराए जाते हैं। प्रायोजित झूठ के आधार होनेवाली इस राजनीति की नफरत का ज़मीनी आधार न होना साबित कर देता है कि अवाम और राष्ट्र के हितों से इसका कोई वास्ता नहीं है।

फिर यह राजनीति किसका हित कर रही है? अंग्रेजों ने फूट-डालो, राज करो की नीति अपनी लूट को चलाने के लिए चला रखी थी। लेकिन इनकी फूट-डालो की नीति के पीछे कौन-सी लूट छिपी है, कौन-सा खतरनाक इरादा छिपा है, इसको बेनकाब करने की ज़रूरत है। यह बेहद ज़रूरी है क्योंकि इसने हमारे सहज संबंधों की सरसता को छीन लिया है, हमारी मीठी सेवइयों को हमसे छीन लिया है।