Thursday 25 October, 2007

सुहाती नहीं है हिंसा की ये भाषा

मुझे उनके विचारों से एतराज नहीं है। मुझे उनकी बहस से एतराज नहीं है। मुझे एतराज है तो उनकी हिंसक भाषा से। संदर्भ-प्रसंग आप खुद समझ जाएंगे। पहले उनकी भाषा की एक बानगी देख लीजिए।

वे विचारों को ‘बाल विवाह’ की तरह खतरनाक बताते हैं। उनके हिसाब से भगत सिंह पागल थे या ‘बाल विवाह’ किए थे। हे महामहिम मायावी विचारकों, अगर विवाह के ही प्रतीक से आप समझने के आदी हैं तो सुनिए इस विवाह को प्रेम विवाह कहते हैं। और स्वाभाविक रूप से सामंती समाज उसके खिलाफ खड़ा होता है। हां, आप जैसे लोगों को लग सकता है कि आपका बाल विवाह हो गया था। लेकिन आपने तलाक ले लेने के बावजूद लालच और अवसरवाद के दबाव में आकर दहेज हत्या (विचार की) भी कर दी है। और अब दूसरों को उकसा रहे हैं कि ‘बाल विवाह’ से बचो या तलाक लो, हत्याएं करो।
ये है ‘प्रतिरोध की सामाजिक सांस्कृतिक पत्रिका’ समकालीन जनमत के नाम से बने एक ब्लॉग पर लिखी पोस्ट की संपादकीय प्रस्तुति की भाषा। यह भाषा इसकी सामाजिक सोच और संस्कृति का परिचय खुद-ब-खुद दे देती है। इस ब्लॉग के एडमिनिस्ट्रेटर का कहना है कि आपने भी तो अपने लेख में ऐसी ही भाषा का इस्तेमाल किया था। लेकिन कोई भी सुधी पाठक देख सकता है कि मेरे लेख में ऐसी उत्तेजक भाषा का कहीं इस्तेमाल नहीं हुआ है। उसमें बस यह सोच और चिंता रखी गई कि व्यावहारिक समझ के बिना सिर्फ आदर्शवादी उन्माद में अगर कोई नौजवान राजनीतिक-सामाजिक आंदोलन से जुड़ता है तो इससे समाज का तो कोई भला नहीं ही होता, उल्टे उसकी और उसके परिवार की अपूर्णनीय क्षति हो जाती है।

फिर भी चलिए मान लेते हैं कि मेरी बातें आपको गाली जैसी लगी होंगी। लेकिन आप तो नए समाज और संस्कृति के वाहक हैं। क्या गाली का जवाब गाली से देना आपको सुहाता है? इतनी बड़ी ज़िम्मेदारी आपने अपने कंधों पर उठा रखी है तब आपको तो संयत होना चाहिए था, लेकिन आप तो बौखला गए। क्यों? आपकी कौन-सी दुखती रग पर हाथ पड़ गया? आपके कौन-से अहं को ठेस लग गई? या कहीं ऐसा तो नहीं कि अचानक एक वर्ग-शत्रु आपको ललकारता हुआ नज़र आ गया? मैं कुछ नहीं कहता। आप खुद मनन करके इसकी शिनाख्त कीजिए।

नई संस्कृति बनाने चले हैं तो मेरी आपको नेक सलाह है कि पहले तर्क करने का सही तरीका सीख लीजिए। भारतीय तर्क परंपरा बड़ी सुदीर्घ है। उस परंपरा से खुद को जोड़ लीजिए। दिमाग से बौखलाने और हिंसा का अंदाज़ गायब हो जाएगा। मेरी सीधी-सी बात से आपने ‘हिसाब’ लगा लिया कि जैसे मैं कह रहा हूं कि, “भगत सिंह पागल थे या बाल-विवाह किए थे।” ज़नाब, अमर शहीद भगत सिंह के बारे में भारत में आज तक पैदा हुआ एक भी बच्चा ऐसा नहीं सोच सकता तो यह तोहमत आप मुझ पर मढ़कर क्या दिखाना चाहते हैं? तर्क का जवाब तर्क से दीजिए। बालसुलझ भावुकता क्यों दिखा रहे हैं?

मैं मान सकता हूं कि यह समकालीन जनमत नाम का ब्लॉग संभालने वाले ‘बालक’ का निजी विस्फोट हो सकता है। लेकिन तब मेरा सवाल यह है कि 25 साल से ज्यादा पुरानी पत्रिका का नाम किसी और को इस्तेमाल करने की इजाज़त कैसे दे दी गई। समकालीन जनमत सीपीआई (एमएल) से जुड़ी वह पत्रिका है जिसमें अभी ब्लॉग जगत से जुड़े प्रमोद, इरफान और चंद्रभूषण एक समय अपनी निस्वार्थ सेवाएं दे चुके हैं। तो क्या इस संदर्भ के बाद मान लिया जाए कि माले से जुड़े तमाम सांस्कृतिक संगठन और मंच खानदानी सफाखाना बनकर रह गए हैं?

2 comments:

Anonymous said...

मैंने ब्लाग की दुनिया को नया-नया ही जाना है औऱ आपके इस लेख के जरिये मैं जनमत के ब्लाग तक पहुचने औऱ उन लेखों तक औऱ शायद इस सारी बहसों को कुछ हद तक समझ सकने में समर्थ हुई हूं। आपके ब्लाग को ध्यन्यवाद।
एक बात जो मुझे परेशान कर रही है वह यह है कि आपने अपने 'बाल-विवाह' वाले लेख में साफ-साफ लिखा है कि विचारों से बचपन में अवगत कराना अपराध है...'अधकचरी उम्र के आदर्शवादी लड़कों को वो जिस तरह शुरू में अपना आंशिक और बाद में पूर्णकालिक कार्यकर्ता बनाते हैं, मेरी नज़र में वह बाल-विवाह के अपराध से किसी तरह कम नहीं है।'यहां मुझे लगता है कि आप शायद अपने वैचारिक बाल-विवाह को अपराधिक मानते हैं पर आपने जनमत पर मंडल जी के लेख पर अपनी टिप्पणी में इसे गर्व की बात कही है......
मैं बस यह कहना चाहती हूं कि ज्ञान और समझ पर उम्र और जाति का कोइ अधिकार नहीं होता... यहीं देख लिजिए, कुछ दिनों पहले के आपके लेख औऱ आज आपकी टिप्पणी बताती है कि समझदारी की कोइ उम्र नही होती औऱ वह कभी भी आप में आ सकती है।
एक दूसरी बात जो मैं आप सबसे कहना चाहती हूं वह यह है कि भगत सिंह या चन्द्रशेखर के बारे में, उनके संघर्षों के बारे में जानने और समझने के लिए एस.टी.दास जैसे लोगों के लेख पर निर्भर नहीं रहना चाहिए क्यो कि आप लोग, जैसा कि मुझे लगता है, मिडिया के सस्ती लोकप्रियता पाने के हथकण्डों समझने में आम लोगों को ज्यादा सक्षम होगे ।
क्रान्ति पढे-लिखे खाये-अघाये लोगों की मोहताज नहीं होती औऱ ऐसा अक्सर देखा है मैने कि जब ये तथाकथित ज्ञानी अपने सक्रिय जीवन में कुछ नहीं कर पाते तो एक नौकरी पकडकर दूसरे काम करने वालों पर आक्षेप लगाने का कार्य शुरु कर देते हैं। उन्हे किसान तक दंभी लगने लगते हैं और विचार की हत्या दहेज हत्या लगने लगती है। कुल मिलाकर विचार की बहस गौड हो जाती है और व्यक्ति मुख्य हो जाते हैं।

Anonymous said...

पढ़ लिया जी.