Friday 12 October, 2007

गर्भवती स्त्री को सांप भी नहीं छूता

माना जाता है, जैसा मैंने कभी बचपन में सुना था कि सांप के ऊपर अगर गर्भवती स्त्री का पांव पड़ जाए, तब भी वह उसे नहीं डंसता। यह मान्यता कितनी सच है, ये तो नहीं पता। लेकिन इसके भीतर की निहित भावना यह है कि संसार में नए जीवन को ला रही स्त्री इतनी पवित्र होती है कि उसका आदर किया जाना चाहिए। लेकिन कल रात को घर आते वक्त मैंने लोकल ट्रेन में पाया कि भीड़ का फायदा उठाकर एक महाशय गर्भवती स्त्री तक से छू-छा कर रहे थे। मेरा मन गुस्से और जुजुप्सा से भर गया। मुझे बचपन में सुनी बात याद आ गई और मैं सोचने लगा कि आखिर क्या वजह है कि कुछ इंसान अपने प्राकृतिक स्वभाव से भी दूर हो गए हैं?

मुझे करीब बीस साल पुराना वह किस्सा भी याद आ गया, जब मैं गोरखपुर में राजनीतिक काम करता था। मुझे पता चला कि मेरे पहले वहां पर पार्टी में एक साथी काम करते थे, जिन्हें इस आरोप के पुख्ता होने के बाद निकाल दिया गया कि उन्होंने पार्टी सिम्पैथाइजर की अस्पताल में भर्ती गर्भवती पत्नी से बलात्कार की कोशिश की थी। उस वक्त भी मुझे भयंकर आश्चर्य हुआ था कि नया समाज बनाने की बात करनेवाला कोई शख्स इतना असंवेदनशील कैसे हो सकता है?

मैं इसे पशुवत व्यवहार नहीं मानता क्योंकि पशुओं में हमेशा मादा की इच्छा से ही नर आगे बढ़ता है। यह कहीं से प्राकृतिक भी नहीं है क्योंकि स्त्री-पुरुष संबंध की बुनियाद में होता है संतति को आगे बढ़ाना। दोनों के आकर्षित होने का मतलब ही होता कि वह आपसी संबंध बनाकर संतान प्राप्त करें। गर्भवती स्त्री क्योंकि पहले से संतान को धारण कर चुकी होती है, इसलिए प्रकृति पुरुषों को उससे दूर फेंकती है। पुरुषों में उसके प्रति आदर का भाव बड़ी नैसर्गिक चीज़ है। अगर किसी पुरुष के अंदर यह एहसास मर गया है तो वह तो जघन्य अपराध का दोषी है ही, हमारा समाज भी कहीं न कहीं अंदर से बीमार हो गया है।

मुझे यह भी नहीं समझ में आता कि पुरुष बाज़ारू औरतों के पास कैसे चले जाते हैं। बाज़ारू औरतों की कोई सहमति तो होती नहीं। वे तो पैसों के लिए दिखावा करती हैं। जहां सहमति नहीं है, वहां कैसे प्राकृतिक संसर्ग बनाया जा सकता है? यह भी तो एक तरह का बलात्कार होता है, औरत के साथ भी और अपने साथ भी। ऐसा तो कोई मानसिक रोगी या नशे में अंधा व्यक्ति ही कर सकता है।

मुझे मासूम बच्चियों के साथ हुए बलात्कार भी नहीं समझ में आते। कहीं-कहीं तो बाप ही बेटी को अपनी हवस का शिकार बनाता है। ध्यान देनेवाली बात यह है कि ऐसी वारदातें ज्यादातर झुग्गी-झोपड़ियों या गरीब बस्तियों में ही होती हैं। तो क्या हम ये मान लें कि इन लोगों में परिवार का तानाबाना और सामाजिक नैतिकता के सूत्र इतने टूट चुके हैं कि इन्हें सिर्फ इनकी पशु-वृत्तियां ही संचालित करती हैं?

आखिर में एक और बात पर मैं आपका ध्यान खींचना चाहूंगा। आप किसी स्त्री से पूछकर देखें कि अगर उसे पब्लिक ट्रांसपोर्ट से ही आना-जाना हो तो वह दिल्ली रहना पसंद करेगी या कोलकाता और मुंबई। मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि सौ फीसदी स्त्रियां कोलकाता और मुंबई को पसंद करेंगी, दिल्ली को नहीं। वजह यह है कि दिल्ली की बसों में महिलाओं के साथ जिस तरह की छेड़छाड़ होती है, वह उनके लिए बेहद दमघोंटू होती है। मुंबई और कोलकाता में ऐसी घटनाएं अपवाद हैं, जबकि दिल्ली में रोज़ की बात। देश की राजधानी में ऐसा क्यों हैं? इस सवाल पर बहुत गंभीरता से सोचे जाने की ज़रूरत है।

16 comments:

अनूप शुक्ल said...

विचारशील पोस्ट! मानव व्यवहार में इतनी गिरावट कैसे आ गई?

Gyan Dutt Pandey said...

मानव स्वभाव में भयानक गर्त हैं और उत्तुंग ऊंचाइयां भी। दोनो के दर्शन होते हैं और दोनो से आश्चर्य होता है।
और मजे की बात है कभी-कभी एक ही व्यक्ति में दोनो छोर पाये जाते है!

Anonymous said...

अगर किसी पुरुष के अंदर यह एहसास मर गया है तो वह तो जघन्य अपराध का दोषी है ही, हमारा समाज भी कहीं न कहीं अंदर से बीमार हो गया है।
you have said sometingh astonishingly right and soulfull
Rachna

Srijan Shilpi said...

हमारे समाज का समष्टि मन बीमार हो गया है। उसके परिष्कार और परिमार्जन के लिए अत्यंत गहरे आध्यात्मिक प्रयोगों की जरूरत है।

समाज में नैतिक आचरण के प्रति घटता आदर, अनैतिकता और आपराधिक मानसिकता को प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से दिया जाने वाला प्रोत्साहन, क़ानून के प्रति खत्म हो रहा डर, जीवन में सही मार्गदर्शन और अपनत्व की कमी आदि ऐसे कई कारण हैं जो इस तरह की अनुचित प्रवृत्तियों को बढ़ावा देते हैं।

कहीं कुछ अनुचित, अन्याय, अपराध हो रहा हो तो आसपास के समाज, समूह में जिस तरह की संवेदनशील प्रतिक्रिया होनी चाहिए, उसका भयंकर ह्रास हो गया है। शायद हमारा समाज नैतिक रूप से पतनशील और मृतप्राय हो रहा है।

गरीब परिवारों में ही नहीं, अमीर और अभिजात्य परिवारों में भी 'इनसेस्ट' की घटनाएं बढ़ रही हैं, भले ही उनमें जबरदस्ती का तत्व न हो।

व्यक्तियों की प्रज्ञा शक्ति क्षीण और निष्क्रिय होती जा रही है। शायद यही घोर कलियुग के लक्षण हैं। सबसे अधिक जरूरी है मन की सफाई। गायत्री मंत्र का मानसिक और सामूहिक जप इसमें काफी हद तक मददगार हो सकता है, लेकिन मुख्य बात है संवेदनशीलता और आत्म-सुधार की भावना।

Sagar Chand Nahar said...

बहुत ही विचारशील लेख है यह आपका। पढ़ने के बाद यह महसूस हो रहा है कि क्या वाकई इन्सान पशुओं से भी गया गुजरा है?

namita said...

aapne sahii kahaa anilji ,jaroorat sochane ki hai .par kabhi kabhi mein to sochate sochate thak jaati hun .jaanate hain kyon ?har baar jab bhi kisi aisi ghatna se do char hoti hun to andar jo akrosh umadta hai vah apraadh karane walon se adhik apne upar hota hai kyon ki hame maloom hai ki yadi mere saamne sadak par aisi koi ghatna ho rahi hogi to main udvailit to jaroor hungi par use rokne ke liye kuchh nahi kar paayongi balki muh doosari taraf fer kar nikal jaaungi .khud ko bacha le jaane ki garaj se .yun khuli aankho gandhari hona bahut kachotata hai,sach

हरिराम said...

"पशुवत व्यवहार" कहकर बेचारे पशुओं को बदनाम करने का घोर विरोध करते हैं हम। पशु तो सिर्फ अपनी ऋतु (Mating season) में और परस्पर स्वीकृति से ही मिलते हैं। रजोगुणी होते हैं। यह "दानवी" या "राक्षसी" आचरण "तमोगुणी" प्रवृत्ति है। रावण और सूपर्णखा दोनों भी भरे हैं अभी समाज में।

Unknown said...

मार्मिक
स्थिति यदि यही रही तो एक दिन यह कहने के लिए विवश होना पडेगा- मनुष्‍यों को पशुओं से सीखना चाहिए।

Sanjeet Tripathi said...

मार्मिक, चिंतनीय!!

Udan Tashtari said...

अति विचारशील आलेख. हमारा समाज भी कहीं न कहीं अंदर से बीमार हो गया है. सत्य है. ज्ञान जी की बात से सहमत हूँ. बधाई इस मुद्दे पर बातचीत करने के लिये.

Rajesh Roshan said...

हमारे समाज से बलात्कार जैसे शब्दो को हमेशा के लिए मिटा दिया जाना चाहिए. इस शब्द की बुनियाद ही मॅन को विचलित कर देने के लिए काफी है. रही बात बाजारू औरतो के साथ सोने की बात तो मैं इसे बलात्कार तो नही लेकिन चारित्रिक क्षरण जरुर मानता हु. एक बात और शिक्षा के साथ सामाजिक जिम्मेदारी का भाव ही हमलोगो को इससे ऊपर कर सकता है.

ePandit said...

इस तरह के राक्षसी प्रवृति के लोग समाज के नाम पर एक कलङ्क हैं। इनको हर मुमकिन सजा मिलनी चाहिए।

राजेश कुमार said...

यदि यही हाल रहा तो मनुष्य का अर्थ जानवर और जानवर का अर्थ मनुष्य हो जायेगा।

Asha Joglekar said...

यह विकृत मानसिकता की निशानी है । ऐसा व्यक्ती अक्सर इनफिरियोरिटी कॉंम्पलेक्स से ग्रसित होता है । पर ये कोई नई वात भी नही है । इसका मूल कारण इनके लालन पालन या उसके अभाव में छिपा होता है । डरने वाली बात तो यह है कि नाभिकीय परिवारों में नोकरों के साथ या अकेले बडे होते हमारे बच्चों की मानसिकता क्या होगी ?

L.Goswami said...

gande logon ki gandi mansikta..jitni bhi aalochan ki jaye kam hai.


aapke blogroll me apni sanchika dekhi..add karne ka dhanyawad.

Unknown said...

me ye kehna chahti hu ki agar ladki kisi ke sath apni marji se saririk sambandh bnati h to uske ma bap unki ladki ko galat samajhte h or ladke ko blatkar ke case me jel karwa di jati h par me ye janna chahti hu ki jb ma bap apni beti ki jabar dasti sadi kar dete h or na chahte huye bhi ladki ko apna sarir us admi ko dena padta h to kya ye jabardasti nhi kya ye blatkar nhi h me ye is liye puchna chahti hu kyu ki ye mere sath hone wala h mere mami papa meri jabardasti sadi karwana chahte h