‘बाल-विवाह’ कराते हैं संघी और कम्युनिस्ट
पहले भी लड़की के रजस्वला होने से पहले उसकी शादी कराना वर्जित था। आज भी 18 साल से कम उम्र की लड़की शादी करना अपराध है। लेकिन राजस्थान से लेकर मध्य प्रदेश और दूसरे कई राज्यों के ग्रामीण इलाकों में अब भी ऐसा होता है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जैसे हिंदुवादी संगठन और सभी कम्युनिस्ट यकीनन इसके खिलाफ हैं। लेकिन दूसरी तरफ वो खुद एक तरह का बाल-विवाह कराते रहे हैं। अधकचरी उम्र के आदर्शवादी लड़कों को वो जिस तरह शुरू में अपना आंशिक और बाद में पूर्णकालिक कार्यकर्ता बनाते हैं, मेरी नज़र में वह बाल-विवाह के अपराध से किसी तरह कम नहीं है।
सोचिए, 16 से 20 साल की उम्र में जब ज्यादातर नौजवानों को देश के नाम और अपनी जातीय-धार्मिक पहचान के अलावा समाज की बुनावट, उसके इतिहास के बारे में ठोस कुछ नहीं पता होता, तब संघी और कम्युनिस्ट दोनों ही इनकी बलिदानी मानसिकता का फायदा उठाकर इन्हें अपनी तरफ आकर्षित करते हैं। प्राकृतिक रूप से जो आदर्शवादी भावना इनके अंदर इसलिए पैदा हुई होती है ताकि वे जीवन की आगे आनेवाली ऊबड़-खाबड़ सच्चाइयों से टकरा सकें, उन पर विजय हासिल करने का हुनर सीख सकें, उसे संघी और कम्युनिस्ट एक वायवी, कृत्रिम संसार में ले जाकर खड़ा कर देते हैं। रीयल वर्ल्ड के बजाय वर्चुअल वर्ल्ड में ले जाकर उन्हें एक तरह का वीडियो गेम खेलने का आदी बना देते हैं।
फिर होता यह है कि वह आदर्शवादी नौजवान अपनी तार्किक मेधा का इस्तेमाल करने के बजाय इनकी बनी-बनाई स्थापनाओं को ही वास्तविक दुनिया मान बैठता है। संघी घुट्टी पिलाते हैं कि हम आर्य हैं और म्लेच्छों (मुसलमानों) ने हमारी सभ्यता और संस्कृति को नष्ट कर दिया। कम्युनिस्ट घुट्टी पिलाते हैं कि सामंतवाद और पूंजीवाद ने देश को जकड़ रखा है। हमें वर्ग-संघर्ष के जरिए सर्वहारा अधिनायकवाद की स्थापना करनी है। उत्पादक शक्तियों और उत्पादक संबंधों का द्वंद्वात्मक संघर्ष ही नए समाज की बुनियाद रखेगा। ये सारे जुमले और धारणाएं अनुभव के कच्चे नौजवान के सिर के मीलों ऊपर से गुजरती हैं। लेकिन उसे भरोसा दिलाया जाता है कि वह महान काम करने जा रहा है और वह आंखें मूंदकर भरोसा कर भी देता है। अपना सब कुछ होम करने को तैयार हो जाता है।
वैसे, वयस्क जीवन की शुरुआत में ही यह हादसा गंवई और कस्बाई पृष्ठभूमि से आए किशोरों के साथ ही होता है। जो शहरों के पढ़े-लिखे, संपन्न परिवारों से आते हैं, देश ही नहीं, विदेश तक के अच्छे संस्थानों से डिग्रियां लेकर आते हैं, उनके लिए देश, समाज और वर्ग संघर्ष या द्वंद्वात्मक भौतिकवाद की धारणा वायवी नहीं, यथार्थ होती हैं। वो इन्हें अच्छी तरह से जज्ब कर लेते हैं। इसीलिए वो कम्युनिस्ट पार्टी की विचारधारा को पचा ले जाते हैं। फिर, यही लोग इन पार्टियों के नेता बनते हैं। सीपीएम के सीताराम येचुरी, प्रकाश करात या माले के महासचिव दीपंकर भट्टाचार्य गांव या कस्बे से पढ़कर नहीं निकले हैं।
अब ऐसे लोग तो नेतृत्व की कमान संभाल लेते हैं, लेकिन आदर्श की झोंक में बहकर आए कार्यकर्ता या तो जीवन की सच्चाइयों से टकराते ही वापस लौट जाते हैं या वहीं रहते हुए सांसारिक चालाकी पर अमल करने लगते हैं। बाहर निकल गए तो गज़ब के गीटबाज़ और दुनियादार बन जाते हैं और अंदर रहे तो दुनियादारी के हर फॉर्मूले को पिछले दरवाज़े से पार्टी या संगठन के भीतर ले आते हैं।
निष्कर्ष यह है कि कम उम्र के नौजवानों को आदर्शवाद के नाम पर किसी भी रंग की विचारधारा का गुलाम बनाना समाज की अग्रिम गति के लिए घातक है। इसे आदर्श के तथाकथित ठेकेदारों को भी समझ लेना चाहिए और हमें भी उनकी इस छापामारी को रोकने की हरचंद कोशिश करनी चाहिए।
सोचिए, 16 से 20 साल की उम्र में जब ज्यादातर नौजवानों को देश के नाम और अपनी जातीय-धार्मिक पहचान के अलावा समाज की बुनावट, उसके इतिहास के बारे में ठोस कुछ नहीं पता होता, तब संघी और कम्युनिस्ट दोनों ही इनकी बलिदानी मानसिकता का फायदा उठाकर इन्हें अपनी तरफ आकर्षित करते हैं। प्राकृतिक रूप से जो आदर्शवादी भावना इनके अंदर इसलिए पैदा हुई होती है ताकि वे जीवन की आगे आनेवाली ऊबड़-खाबड़ सच्चाइयों से टकरा सकें, उन पर विजय हासिल करने का हुनर सीख सकें, उसे संघी और कम्युनिस्ट एक वायवी, कृत्रिम संसार में ले जाकर खड़ा कर देते हैं। रीयल वर्ल्ड के बजाय वर्चुअल वर्ल्ड में ले जाकर उन्हें एक तरह का वीडियो गेम खेलने का आदी बना देते हैं।
फिर होता यह है कि वह आदर्शवादी नौजवान अपनी तार्किक मेधा का इस्तेमाल करने के बजाय इनकी बनी-बनाई स्थापनाओं को ही वास्तविक दुनिया मान बैठता है। संघी घुट्टी पिलाते हैं कि हम आर्य हैं और म्लेच्छों (मुसलमानों) ने हमारी सभ्यता और संस्कृति को नष्ट कर दिया। कम्युनिस्ट घुट्टी पिलाते हैं कि सामंतवाद और पूंजीवाद ने देश को जकड़ रखा है। हमें वर्ग-संघर्ष के जरिए सर्वहारा अधिनायकवाद की स्थापना करनी है। उत्पादक शक्तियों और उत्पादक संबंधों का द्वंद्वात्मक संघर्ष ही नए समाज की बुनियाद रखेगा। ये सारे जुमले और धारणाएं अनुभव के कच्चे नौजवान के सिर के मीलों ऊपर से गुजरती हैं। लेकिन उसे भरोसा दिलाया जाता है कि वह महान काम करने जा रहा है और वह आंखें मूंदकर भरोसा कर भी देता है। अपना सब कुछ होम करने को तैयार हो जाता है।
वैसे, वयस्क जीवन की शुरुआत में ही यह हादसा गंवई और कस्बाई पृष्ठभूमि से आए किशोरों के साथ ही होता है। जो शहरों के पढ़े-लिखे, संपन्न परिवारों से आते हैं, देश ही नहीं, विदेश तक के अच्छे संस्थानों से डिग्रियां लेकर आते हैं, उनके लिए देश, समाज और वर्ग संघर्ष या द्वंद्वात्मक भौतिकवाद की धारणा वायवी नहीं, यथार्थ होती हैं। वो इन्हें अच्छी तरह से जज्ब कर लेते हैं। इसीलिए वो कम्युनिस्ट पार्टी की विचारधारा को पचा ले जाते हैं। फिर, यही लोग इन पार्टियों के नेता बनते हैं। सीपीएम के सीताराम येचुरी, प्रकाश करात या माले के महासचिव दीपंकर भट्टाचार्य गांव या कस्बे से पढ़कर नहीं निकले हैं।
अब ऐसे लोग तो नेतृत्व की कमान संभाल लेते हैं, लेकिन आदर्श की झोंक में बहकर आए कार्यकर्ता या तो जीवन की सच्चाइयों से टकराते ही वापस लौट जाते हैं या वहीं रहते हुए सांसारिक चालाकी पर अमल करने लगते हैं। बाहर निकल गए तो गज़ब के गीटबाज़ और दुनियादार बन जाते हैं और अंदर रहे तो दुनियादारी के हर फॉर्मूले को पिछले दरवाज़े से पार्टी या संगठन के भीतर ले आते हैं।
निष्कर्ष यह है कि कम उम्र के नौजवानों को आदर्शवाद के नाम पर किसी भी रंग की विचारधारा का गुलाम बनाना समाज की अग्रिम गति के लिए घातक है। इसे आदर्श के तथाकथित ठेकेदारों को भी समझ लेना चाहिए और हमें भी उनकी इस छापामारी को रोकने की हरचंद कोशिश करनी चाहिए।
Comments
'आरंभ' छत्तीसगढ का स्पंदन
बाल विवाह की कुरीति में वे ही लोग जकड़े हुए हैं जो या तो गरीब हैं या अशिक्षित।
बालकों पर एक ही विचारधारा थोंप देना बालविवाह
से कम जंघन्य नहीं है, उन्हें स्वतन्त्र रुप से
सोंचने का अवसर न देना या छिन लेना उनकी
नैसर्गीक शक्तियों की ह्त्या है