Sunday 28 October, 2007

एक भूमिगत कार्यकर्ता की पहली दीक्षा

मानस के लिए ये जिंदगी का सबसे बड़ा फैसला था। एक ऐसा फैसला जो अतीत से उसके सारे रिश्तों को तोड़ देनेवाला था। यहां तक कि यूनिवर्सिटी में जिन छह लोगों की मंडली के साथ उसने समाज को बदलने के सपने देखे-दिखाए थे, ज़िंदगी के गीत गाए थे, उनसे भी उसका नाता टूट रहा था। रह-रह कर मन में कबीर के दोहे का भाव तारी हो जाता था कि पत्ता टूटा डारि से, ले गइ पवन उड़ाइ, अबके बिछुड़े कब मिलैं, दूरि परे हैं जाइ। ऐसा लगता था जैसे एक दुनिया को छोड़कर वह किसी दूसरी अनजान दुनिया में जा रहा हो। हां, ये उसके लिए पूरी तरह से एक अनजान, अपरिचित दुनिया थी क्योंकि वह एक क्रांतिकारी पार्टी का अंडरग्राउंड कार्यकर्ता बनने जा रहा था।

मां-बाप और घर परिवार से तो वह पहले ही विदा ले चुका था। अब उन छह दोस्तों से विदाई लेनी थी, जिनके निजी दायरे पिघलकर एक-दूसरे से मिल चुके थे। शायद ही किसी का कोई राज़ हो जो दूसरा न जानता हो। एकदम पारदर्शी रिश्ता। उन्हें आज की कोई सुविधा, सहूलियत या समझौते ने नहीं जोड़ा था, बल्कि उन्हें कल के सपनों ने जोड़ रखा था। उन्हें ‘जिंदगी नई महान आत्मा नई’ रचने की ख्वाहिश ने बांध रखा था। ऐसे में छह के बीच से एक का निकल जाना शरीर के किसी अंग को बिना एनेस्थीसिया लगाए काटकर अलग कर देने जैसा था। सो बिछुड़ते समय गज़ब का रोना-धोना हुआ।

मानस का दिल बहुत भारी था। ऊपर के साथी ने जहां बताया था, वहां कल तक पहुंचना था। लेकिन किसी को यह नहीं बताना था कि वह कहां जा रहा है तो मित्र-मंडली से छिटक कर वह अकेला ही निकला। कई किलोमीटर पैदल ही पैदल चलकर बस स्टैंड पहुंचा, उसी तरह जैसे वह बचपन में बकइयां-बकइयां चलकर तालाब के किनारे जाकर अकेले बैठ जाया करता था। बस स्टैंड पर विदा करने के लिए न किसी का होना तय था और न ही कोई आया था अलविदा कहने। अगली जो भी बस थी, उसमें बैठकर वह साथी की बताई मंजिल के लिए रवाना हो गया। साथ में एक झोला था जिसमें तौलिया था, लुंगी थी, टूथ-ब्रश था, एक कॉपी और कोई किताब थी।

बस 8-10 घंटे में नियत शहर में पहुंच गई। सुबह के यही कोई नौ-साढ़े नौ बजे होंगे। वह बताए पते पर पहुंचा तो पता चला कि वो शख्स ऑफिस जा चुके हैं। दिन भर जहां-तहां घूमने टहलने के बाद रात आठ बजे फिर वहां पहुंचा तब भी दरवाज़े पर ताला लगा हुआ था। नीचे जाकर मकान-मालिक से पूछा तो उन्होंने बताया कि अखिलेश मिश्रा हो सकता है अपने गांव चले गए हों और अब सोमवार की शाम तक ही यहां आएंगे।

शनिवार, इतवार और सोमवार... मानस ने पूरे तीन दिन शहर के पार्कों वगैरह में बिताए। रात को जाकर रेलवे स्टेशन की बेंच पर सो जाया करता था। इस बीच रविवार की रात एक पुलिस वाले ने पूछ ही लिया, “कल से देख रहा हूं। यहां आकर सो रहे हो। या तो तुम जेबकतरे हो या घर से भागे हुए।” उसने बताया कि वह अपने चाचा के यहां आया हुआ है, लेकिन चाचा बाहर गए हुए हैं, कल रात तक आएंगे। उसने चाचा का नाम और पता भी लिखाया। तब जाकर पुलिसवाले को तसल्ली हुई। हां, यह सच था कि उसी शहर में उसके चाचा-चाची रहते थे और कई सांस्कृतिक दोस्त भी थे। लेकिन उसे किसी से भी मिलने की मनाही थी तो वह कैसे किसी के घर जा सकता था?

सोमवार रात नौ बजे से सब सामान्य हो गया। एक हफ्ते तक खाना-पीना-सोना और पढ़ना-पढ़ाना चलता रहा। अखिलेश ने बताया कि उसे तो पार्टी के किसी साथी ने बताया ही नहीं था कि कोई आनेवाला है और वह भी पूर्णकालिक कार्यकर्ता बनकर। पता होता तो वह कहीं नहीं जाता। खैर, इस इलाके के इंचार्ज साथी विष्णु दो-चार दिन में आएंगे। वहीं बता सकते हैं कि काम कैसे और क्या करना है। इस बीच मानस का प्रारंभिक रोमांटिसिज्म दरकने लगा था। उसे ऊब होने लगी थी।

फिर एक दिन रात के करीब दस बजे साथी विष्णु आ ही गए। खाना-वाना खाकर बोले – मुझे सुबह ही 5 बजे की गाड़ी से निकल लेना है तो चलिए छत पर चलते हैं, वहीं बात होगी। अखिलेश ने छत पर दरी-चटाई बिछा दी। एक टेबल लैंप खींचकर लगा दिया। अखिलेश चले गए क्योंकि गोपनीयता बरती जानी थी। साथी विष्णु आ गए, मानस भी आलथी-पालथी मारकर बैठ गया। भूमिगत कार्यकर्ता की पहली दीक्षा शुरू हो गई।

विष्णु जी ने लोकयुद्ध पत्रिका उठाई। उल्टी तरफ से शुरू किया। बोले ये साथी थे पंजाब के जो कुछ महीने पहले गुजर गए, शहीद हो गए। इसके बाद विष्णु जी को झपकी आ गई और वे बैठे ही बैठे करीब पांच मिनट तक सोते रहे। फिर उठे तो उसी भाव में उल्टी तरफ से पत्रिका का अगला पन्ना खोला। बताते गए। बीच-बीच में दस से लेकर बीस मिनट तक बैठे-बैठे सो जाते थे। मानस उसी तरह ध्यानमग्न मुद्रा में जिज्ञासु शिष्य की तरह बैठा रहा। साथी को ऊंधी हुई अवस्था में सोते-उठते देखता रहा, उनकी बातों को ध्यान से सुनता रहा। उसने सोचा कि साथी कहीं से बहुत काम करके आए होंगे। थके होंगे तो इस तरह ऊंधना स्वाभाविक है।

करीब पांच घंटे बीत चुके थे। सुबह के चार बजने वाले थे। अब साथी को तैयार होकर निकलना था। उन्होंने बताया कि इस पत्रिका को लेकर वह ज़िले के साथियों से जाकर मिले। उनसे प्रारंभिक परिचय अखिलेश जी करा देंगे। फिर जैसा उन्होंने बताया है कि उसी तरह वह साथियों को इस पत्रिका के लेखों को पढ़कर समझाए। इस तरह भूमिगत कार्यकर्ता बने मानस की पहली दीक्षा संपन्न हुई। लेकिन उसे उसी दिन लग गया कि क्रांति इतनी उबाऊ और रूटीन तरीके से नहीं हो सकती है। उसने अगले कुछ महीनों में ज़िले के 22 में से 18 पार्टी सदस्यों से कह दिया कि वे केवल सिम्पैथाइजर बनने लायक हैं, उन्हें पार्टी सदस्य बनाए रखने का कोई तुक नहीं है।

अभी बाकी है मानस के मोहभंग की यात्रा

4 comments:

Gyan Dutt Pandey said...

अदहन गरम हो रहा है। खिचड़ी बनने का इंतजार है!

Rajeev (राजीव) said...

रोचकता और रहस्य बढ़ रहा है। प्रतीक्षा है अगले भाग की।

बोधिसत्व said...

मेरा बेटा मानस बहुत खुश है आपके यहाँ अपना नाम पा कर.....मैं पढ़ रहा हूँ....गति पकड़ने की आस है..

Asha Joglekar said...

बडी रोचक कहानी है, आगे की कथा का इंतजार है ।