Saturday 27 October, 2007

इस बार विदा कर मां, फिर आऊंगा लौटकर

यह एक ऐसे नौजवान की दास्तां है जिसके लिए समाज बदलने की राजनीतिक लड़ाई महज सामाजिक सम्मान की लड़ाई नहीं थी। वह ठीक सामने दिखनेवाले किसी वर्ग-शत्रु से लड़ने के लिए राजनीति में नहीं उतरा था। वह न तो किसी दलित जाति से था और न ही किसी उभरती पिछड़ी जाति से। एक सामान्य सवर्ण किसान परिवार का बच्चा था वह। उसके मां-बाप ने संयुक्त परिवार के टूटने और बंटवारे के बाद यहां-वहां हाथ मारकर सम्मानजनक गुजर-बसर के लिए सरकारी ट्यूबवेल की ऑपरेटरी और मिडिल स्कूल की मास्टरी जैसी नौकरियां पकड़ी थीं। इसके लिए उन्हें तमाम पुरानी सामाजिक मान्यताएं तोड़नी पड़ी थीं।

मां घर की दहलीज लांघ कर मास्टराइन बनी तो पूरे इलाके में हर तरफ से थू-थू हुई कि देखो लंबरदार अब अपनी पतोहू की कमाई खाएंगे। मानस के मां-बाप के संघर्ष और सर्वग्रासी गंवई समाज में खुद को स्थापित कर ले जाने की लंबी दास्तां है। बाप कैसे ट्यूबवेल ऑपरेटर बने, कैसे अपनी 50 रुपए की तनख्वाह में से हर महीने 48 रुपए अपने छोटे भाई को बेचकर पंतनगर यूनिवर्सिटी से बीएससी-एजी कराया, फिर कैसे बॉम्बे आर्ट की डिग्री लेकर लालसाहब की रियासत के स्कूल में गणित के मास्टर बने, कैसे बड़ी बेटी को डॉक्टर बनाया, इस सबका दायरा बीस-तीस सालों से ज्यादा फैला हुआ है। उसकी बात कभी तफ्सील से बाद में। अभी तो हम केवल मानस की बात करेंगे और वो भी बस वहीं तक कि कैसे उसने राजनीति में छलांग लगाई।

धर्म, नैतिकता और आदर्श के उसूल उसमें कूट-कूट कर भरे थे। ऐसी ही किताबें उसने पढ़ी थीं। इनके ही किस्से उसने अपनी मां से सुने थे। इलाहाबाद विश्वविद्यालय में पहुंचा तो मन की अमूर्त चीजों को एक आकार मिला। यकीन हो गया कि कोई भी बदलाव राजनीति के जरिए ही हो सकता है। उसने नए किस्म की छात्र राजनीति में कदम रख दिया। घर आता तो पिता अपनी सीमित समझ और नेकनीयती की भावना के साथ उसे समझाते कि खुद को बदलने से समाज बदलेगा। व्यक्ति के बदलने से ही समाज बदलेगा। और यह कि आज देश को भगत सिंह या चंद्रशेखर आज़ाद की ज़रूरत नहीं है।

मानस अपने पिता को कभी अपने रास्ते का यकीन नहीं दिला सका। लेकिन मां को वह समझाने में कामयाब रहा। मां ने उसकी बातें सुनने के बाद कहा कि भोला (इसी नाम से उसे उसकी दादी और बुआ बुलाती थीं और मां ने पहली बार उसके लिए यह संबोधन इस्तेमाल किया था), तुम तो वैसी बात कर रहे हो कि मुझे एक किस्सा याद आ गया। किसी विधवा औरत का एक ही बेटा था। बेटा बार-बार उससे कहता – मां मुझे देश के लिए दे दो। मां बार-बार यही कहती – बेटा तुम्ही मेरा इकलौता सहारा हो, मैं ऐसा कैसे कर सकती हूं।

एक बार मां-बेटा गंगा नहाने गए। बेटा नहाते-नहाते डूबने लगा। पहली डूब के बाद बेटे ने फिर वही कहा – मां मुझे देश के लिए दे दो। मां ने पुराना जवाब दोहराया। दूसरी डूब पर भी यही हुआ। लेकिन तीसरी डूब तो आखिरी होती है। तीसरी बार जब बेटा पानी के अंदर से निकलकर बोला कि मां, मुझे देश के लिए दे दो तो मां ने कहा – जाओ बेटा, मैंने तुम्हें देश को दे दिया। और फिर गंगा की धारा ने बेटे को उठाकर बाहर रख दिया। मां उसे निहारती रही, लेकिन बेटा मां की तरफ देखे बिना दूर चला गया। मानस की मां यह कहानी सुनाने के बाद चुप हो गई। लेकिन मानस चहक उठा क्योंकि उसे मां की स्वीकृति मिल चुकी थी। फिर क्या था, असली बंधन तो यही था। बाप का क्या है? उन्हें तो मां समझा ही लेगी।

और फिर मानस चला गया। उसने राजनीति में छलांग लगा दी। वह एक ऐसे सफर पर निकल गया जो उसकी आगामी ज़िंदगी पर बड़ा भारी पड़ा। बाद में उसे यह भी पता चला कि मां ने जो कहानी सुनाई थी, वह शायद किसी शंकराचार्य के घर छोड़ने की कहानी थी। वह एक ऐसी कहानी थी जो इस देश में चंदू जैसे बहुत से नौजवानों के साथ दोहराई गई थी। वह कोई अनोखा नहीं था। न ही उसके मां-बाप अनोखे थे। ये सब उस आम हिंदुस्तानी जमात का हिस्सा थे, जो नए सामाजिक ख्वाबों के लिए, औरों के लिए सरलता में अपनी प्यारी से प्यारी चीज़ बलिदान करने को तैयार रहती है।

आगे है – एक भूमिगत कार्यकर्ता की पहली दीक्षा

8 comments:

काकेश said...

बहुत अच्छा.

आपने याद दिला दी.

एक बार विदाई दे माँ घुरे आशी..

Anonymous said...

वाह....वाह....वाह....वाह....वाह.....क्या खूब....बहुत खूब.....अदभूत.....मेरे भी ब्लॉग पर आइए...क्या खूब लिखते हैं ....वाह....वाह ....हमें ज्ञान मिला....वाह....वाह.....कांव....कांव....

Unknown said...

आपका लेखन बरबस ही आकर्षित कर लेता है। अभिव्‍यक्ति में भी आपकी कहानी पढ़ी थी। अच्‍छी लगी

पारुल "पुखराज" said...

माँ-पुत्र का संबन्ध ही अद्भुत होता है । अनुशासन के साथ प्यार की घुट्टी ……।

Gyan Dutt Pandey said...

आप खतरनाक बात कर रहे हैं। इस बेसिस पर कोई आज की टुच्ची राजनीति को ग्लोरीफाइड न समझले!
मेरे ख्याल से अगला समाजबदल राजनीति से नहीं आने वाला।

बोधिसत्व said...

अनिल भाई आपसे बहुत कुछ सीखा जा सकता है और मैं सीख रही हूँ....

Anonymous said...

ज्ञानदत्त जी आप और आपके साथी अनुनाद जी बड़े मजेदार जीव हैं...पीस हैं आप लोग...आप ही लोग तो हैं जिससे थोड़ा गंभीर बहसों में भी हंसने को मिल जाता है...नहीं तो ये दुनिया कितनी सूनी होती।

Rajeev (राजीव) said...

कहानी तो रोचक किंतु मुझे तो रहस्यमयी लगी। इस दासतां में प्रस्तुत दृष्टांत भी अच्छा लगा।