बरहमन ने नहीं कहा, फिर भी ये साल अच्छा है

इस साल फरवरी में कई सालों से टलते आ रहे लेखन की शुरुआत हुई। प्रमोद के कहने पर ब्लॉग बना डाला। फिर अप्रैल में किराएदार से मालिक-मकान बन गया। हालांकि किश्तें हर महीने किराएदार होने जैसा ही एहसास दिलाती हैं। ऊपर से जब से फुरसतिया जी ने अपने घर की शानदार फोटुएं पेश की हैं, तब से तो हम और हीनतर महसूस करने लगे थे। लेकिन आज कोई गिला-शिकवा नहीं क्योंकि आज से अपुन तो ब्लॉगर से कहानीकार भी बन गया! आज ही अभिव्यक्ति में मेरी पहली कहानी ‘मियां तुम होते कौन हो’ छपी है। वैसे तो यह कहानी मैं अपने ब्लॉग पर पहले ही लिख चुका हूं, लेकिन इसे लेकर इतने उत्साह में था कि शनिवार के दिन हर घंटे-दो घंटे में अंतराल पर इसकी सारी किश्तें चढ़ा डालीं। ज़ाहिर है आप इसे पढ़ने की बात तो दूर, ठीक से देख भी नहीं पाए होंगे।

यह कहानी एक हिंदुस्तानी मुस्लिम नौजवान की है जो अपनी पहचान को लेकर बहुत परेशान है। इसी परेशानी में वह अचानक एक दिन हिंदू बनने का फैसला ले लेता है। वह धर्म बदलने की सारी औपचारिकता पूरी कर लेता है। लेकिन पुराने रिश्ते बार-बार उसे पीछे खींचते हैं। नए रिश्तों का अभाव उसे सालता है। एक अजीब-सी रिक्तता उसके भीतर छा जाती है। रागात्मक संबंधों की तलाश में उसका गला सूख जाता है। उसकी इस पूरी यात्रा को मैंने इस कहानी में दर्शाने की कोशिश की है। यह मेरी पहली कहानी है। बताइएगा कैसी लगी। कथाकार बनने की कोई गुंजाइश है भी, या बस यूं ही खाली-पीली की-बोर्ड की खट-खिट चल रही है?

Comments

Batangad said…
बढ़िया है सर, पहले चिट्ठाकार, फिर कहानीकार। काफी कुछ आकार ले रहा है।
Srijan Shilpi said…
वाह, बधाई.
अनर्गल आलोचकों की परवाह न करें अनिल भाई..आप में अनन्त सम्भावनाऎं हैं.. उन्हे विकसित होने दें.. मेरी बधाईयां.. शुभकामनाऎं..
काकेश said…
बधाई कहानीकार जी. अभी पूरी नहीं पढ़ी है पर जितनी पढ़ी उतनी अच्छी लगी.
Pratyaksha said…
सही जा रहे हैं । कहानी पढ़्कर शेष ।
मुझे लगता है, कहानी आपका क्षेत्र हो सकती है। आपको इसे गंभीरता से लेना चाहिए।
मज़हब तो अपने अंदर की आस्था की चीज़ है, निजी विश्वास की बात है। --
उन्हें आज की हकीकत से जूझना सिखाओ, ज़िंदगी का मुकाबला करना सिखाओ, आगे की चुनौतियों से वाकिफ़ कराओ। ---
फिलहाल हालत ये है कि न तो वह कौओं की ज़मात में शुमार है और न ही हंसों के झुंड का हिस्सा बन पा रहा है।
धर्म उसे कोई पहचान नहीं दे सका। पेशे और काबिलियत ने ही उसे असली पहचान दी। --
कहानी पढ़नी शुरु की तो अंत तक प्रवाह मे ले जाती है... मार्मिक चित्रण
कुछ किश्तें पढ़ी थी मैने और टिप्पणियां भी छोड़ी थी पर निरंतरता न बनाए रख सका!! मुआफ़ी,
फ़िर से पढ़ता हूं
कथाकार बनने की गुंजाइश है सर, बशर्तें लिखते रहें। और पाठकों को संदेश सदा की तरह देते रहें।
Anonymous said…
बहुत अच्छी कहानी .

सिर्फ़ बड़ी बहन से तर्क-वितर्क या बहसबाजी वाले प्रसंग की अनुपात से अधिक लम्बाई कहानी के संतुलन को थोड़ा-सा प्रभावित करती है

चंदू भाई की बात पर गौर करिए . कहानी ज़रूर लिखिए . अगर सचमुच यह आपकी पहली कहानी है तो मुझे कहने का हक दीजिए कि यह बेहतरीन कहानी है .
आप सभी का शुक्रिया। चंद्रभूषण और प्रियंकर जी के उत्साहवर्धन का अलग से आभार। मीनाक्षी जी, काकेश, अभय भाई सभी से यही कहना है कि कोशिश करूंगा कि समय और आपकी अपेक्षाओं पर खरा उतर सकूं।
Udan Tashtari said…
भाई, वाह वाह, बधाई. आप तो कहानीकार हो लिये. आपकी लेखनी देखकर मुझे पहले ही डाऊट था कि आप एक न एक दिन ऐसी हरकत करोगे. अब फिर लगने लगा है कि जल्द ही उपन्यासकार न हो लो.

बहुत शुभकामनायें. और हाँ जी, लाख कुछ कहें, मकान मालिक बनने की पार्टी तो ड्यू रहेगी ही. :)
बहुत ही सुंदर. मैंने पूरी कहानी पढी. अंत बहुत ही जोरदार लगा. आपने एक ज्वलंत सामाजिक मसले पर अपनी बात बहुत ही प्रभावी ढंग से कही. और मे कुछ कहू तो सूरज को चिराग दिखाने वाली बात होगी.
यह मानने को मन नहीं करता कि यह आपकी पहली कहानी है!!
बढ़िया कहानी और सबसे बड़ी बात यह है कि कहीं भी विषय से भटकी नहीं। बधाई स्वीकार करें।
प्रथम कहानी के प्रकाशन पर बधाई।

आपकी यह कहानी बहुत अच्छी लगी। इतिहास विषय के बारे में कही गयी कुछ बातें भी सही जान पड़ीं।
बधाई है। कहानी कल् पढेंगे। तब् फ़िर् से बतायेंगे।
आनंद said…
बहुत बढि़या कहानी है। मुझे लगता है इसे खत्‍म नहीं होना चाहिए। इसे ही बढ़ाकर उपन्‍यास बना दीजिए। - आनंद

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