एक तकनीकी कृषि विशेषज्ञ का ‘महिला-प्रेम’
डॉ. एम एस स्वामीनाथन जबरदस्त कृषि विशेषज्ञ हैं। देश में हरित क्रांति के जनक रहे हैं। उनके नाम पर रिसर्च फाउंडेशन बना हुआ है और अभी राज्यसभा के सदस्य हैं। कृषि के तकनीकी पहलुओं पर पूरी दुनिया में उनका कोई सानी नहीं है। वे मानते हैं कि हमारी कृषि इस समय चौराहे पर खड़ी हुई है और इसे यहां से निकालना ज़रूरी है। लेकिन इसके लिए वे किसान समुदाय को समग्रता में देखने के बजाय उसमें से महिलाओं को अलग करके देखते हैं। और ऐसे-ऐसे समाधान पेश करते हैं कि लगता है कहां का उजबक आ गया। दो दिन पहले ही मिंट अखबार में लिखे एक लेख में उन्होंने अपनी कुछ ऐसी ही झलक दिखलाई है।शुरुआत इस तथ्य से की है कि भारत दस करोड़ टन सालाना दूध उत्पादन के साथ दुनिया में पहले नंबर पर है। इसके बाद अमेरिका का नंबर है जहां साल भर में सात करोड़ टन दूध उत्पादन होता है। लेकिन जहां अमेरिका में महज एक लाख डेयरी फार्मर इस काम में लगे हैं, वहीं भारत में 7.5 करोड़ महिलाएं डेयरी उद्योग के लिए पशु-आहार और चारा इकट्ठा करने का काम करती हैं। स्वामीनाथन भारत की तारीफ करते हुए कहते हैं, “इसे कहते हैं प्रोडक्शन बाई मासेज और मास प्रोडक्शन का अंतर।” क्या सचमुच श्रम-शक्ति का इतना अपव्यय पीठ थपथपाने लायक है?
डॉ. स्वामीनाथ की दूसरी स्थापना है कि कि कृषि और गरीबी का महिलाकरण धीरे-धीरे एक हकीकत बनता जा रहा है। इसलिए महिलाओं के कल्याण के लिए खास प्रयास किए जाने चाहिए। जैसे, महिला किसानों और खेत मजदूरों के बच्चों की देखभाल के लिए गांवों में क्रेच और डे-केयर सेंटर बनाए जाने चाहिए। महिलाओं को हाइब्रिड सीड प्रोडक्शन, मछलियों की इंड्स्यूस्ड ब्रीडिंग, सूचना-संप्रेषण प्रौद्योगिकी (आईसीटी) की जानकारी व्यावहारिक इस्तेमाल से दी जानी चाहिए। स्वामीनाथन ने इस तरीके को ‘टेक्नीक्रेसी’ का नया नाम दिया है। भारत के गांवों में क्रेच, डे-केयर सेंटर और टेक्नीक्रेसी की बात वही कर सकता है जिसने किताबों और प्रयोगशालों में ही गांवों को देखा-समझा हो।
डॉ. स्वामीनाथन एकदम सही फरमाते हैं कि ज्ञान सामाजिक और आर्थिक विकास की कुंजी है। उनकी राय में सरकारी और निजी क्षेत्र की भागीदारी से गांवों में सूचना तकनीक और ज्ञान को पहुंचाया जाना चाहिए। गांवों का डिजिटल इम्पावरमेंट किया जाना चाहिए। हर पंचायत के कम से कम एक पुरुष और महिला सदस्य को ‘ज्ञान-प्रबंधक’ के रूप में प्रशिक्षित किया जाना चाहिए। ‘ज्ञान-प्रबंधन’ सुनने में काफी अच्छा शब्द लगता है, लेकिन जहां पंचायतों की ही व्यवस्था दुरुस्त न हो, वहां ऐसे प्रबंधक एक सजावटी सोच से ज्यादा कुछ नहीं हो सकते।
किसानों में बढ़ती आत्महत्या से भी स्वामीनाथन चिंतित हैं। लेकिन उनका कहना है कि हमें पीछे बच गई किसानों की विधवाओं पर ध्यान देना चाहिए। किसानों की ज्यादातर विधवाएं जवान हैं। उनके पास 2 से 10 एकड़ ज़मीन है। स्वामीनाथन के मुताबिक उन्होंने ऐसी महिलाओं से व्यापक बातचीत के बाद फेडरेशन ऑफ वीमेन फार्मर्स फॉर सस्टेनेबल लाइवलीहुड्स नाम का एक संगठन बनाया है। करीब 1000 महिलाएं इसकी सदस्य बन चुकी हैं।
वो बताते हैं कि फेडरेशन इन महिलाओं को सेल्फ-हेल्प ग्रुप (एसएचजी) बनाने में मदद करेगा। हर महिला एसएचजी को गांव के ज्ञान चौपाल की मदद मिलेगी और उसे एक पासबुक दी जाएगी जिसमें सभी सरकारी व गैर-सरकारी और बैंकों की स्कीमों का पूरा ब्यौरा होगा। इन ज्ञान चौपालों का संचालन मुख्यतया आत्महत्या कर चुके किसानों की विधवाओं और बच्चों द्वारा किया जाएगा। वरधा (महाराष्ट्र) में वीमेन फार्मर कैपेसिटी बिल्डिंग एंड मेंटरिंग सेंटर बनाया जाएगा।
कैपेसिटी बिल्डिंग, मेंटरिंग, आईसीटी, ज्ञान प्रबंधक, ज्ञान चौपाल... ये सारे शब्द डॉ. स्वामीनाथन ने चबा-चबाकर ऐसे उगले हैं जैसे वे कृषि समस्या के निदान का कोई रामबाण पेश कर रहे हों। और, इन सभी के केंद्र में उन्होंने महिलाओं को रखा है। मुझे नहीं समझ में आता कि किसान परिवारों के महिला सदस्यों को अलग करके कैसे देखा जा सकता है? मुझे वाकई उनके इस ‘महिला-प्रेम’ का रहस्य नहीं समझ में आता। कृषि और गरीबी का महिलाकरण भी मुझे एक आरोपित झूठ से ज्यादा कुछ नहीं लगता।
Comments
सच कहा आपने, शब्द तो पहले ही बहुत सारे हैं, एक से बढ़कर एक हैं। पर इनके साथ न्याय करने वाले प्रयासों की कमी है। हज़ारों-लाखों शब्द मिलकर भी छोटे-से-छोटे से कार्य की बराबरी नहीं कर सकते। विडंबना है कि कार्यों की अल्पता को नए शब्द गढ़कर पूरा करना चाहते हैं। - आनंद
क्या ये लोग किसानो की आत्महत्या की बाट जोह रहे थे जो उनके जाते ही संगठन बनाने की सुध आई?
ऐसे विषयो पर लिखते रहे क्योकि इस पर लिखने वाले कम है। इसीलिये लोगो के हौसले बुलंद है।
बहुत सम्भव है स्वामीनाथन जी कॉस्मैटिक या लिप सर्विस कर रहे हों. पर महिला सशक्तिकरण के मामले को बिना तार्किक निष्कर्ष तक सम्बोधित किये भला नहीं है.