Tuesday 9 October, 2007

चे ग्येवारा का अंतिम विदाई पत्र

वाकई मैं समझ नहीं पाता कि चे ग्येवारा में वो कौन-सी मास अपील है कि आज भी वे उत्साही नौजवानों के कमरों और टीशर्ट पर ब्रूसली से ज्यादा नज़र आते हैं। जो भी छात्र-नौजवान खुद को रेडिकल दिखाना चाहता है वह चे ग्येवारा की मशहूर तस्वीर से खुद को जोड़ लेता है। वैसे, शायद अपने देहाती मूल के कारण मैं कभी भी चे ग्येवारा से इस तरह अभिभूत नहीं हो पाया। फिर भी आज चे का शहीदी दिवस है (9 अक्टूबर 1967 को बोलिविया के सैनिकों ने उन्हें गोलियों से भून दिया था) तो उनका आखिरी पत्र पेश कर रहा हूं जो उन्होंने क्यूबा छोड़ते वक्त फिडेल कास्त्रो को लिखा था।

फिडेल,
(विदाई के) इस पल मुझे बहुत सारी बातें याद आ रही हैं। जब मैं तुमसे मार्फा एंटोनिया के घर पर मिला था, जब उन्हें तुमने मेरे आने की बात बताई थी और फिर तैयारियों को लेकर कैसा तनाव हुआ था।

एक दिन उन्होंने पूछा कि हमारी मौत होने की सूरत में किसको इत्तला देनी होगी और इस बात की सच्ची संभावना ने हम पर कैसा असर डाला था। बाद में हमने जाना कि यह कितना सच है, कि क्रांति में या तो कोई जीतता है या मर जाता है। हमारे बहुत से साथी जीत की राह में ही हमसे जुदा हो गए।

आज हर चीज़ कम नाटकीय लगती है क्योंकि हम अब ज्यादा परिपक्व हो गए हैं। लेकिन मुझे लगता है कि आज मैंने अपना वह कर्तव्य पूरा कर लिया है जिसने क्यूबा की क्रांति और इसके भूगोल से मुझे जोड़ रखा था, और मैं तुम्हें, अपने साथियों और तुम्हारे अवाम, जो कि मेरे भी हैं, सभी को अलविदा कह रहा हूं।

मैं औपचारिक रूप से पार्टी के राष्ट्रीय नेतृत्व में अपनी हैसियत, मंत्री के पद, मेजर की रैंक और अपनी क्यूबाई नागरिकता को छोड़ रहा हूं। अब मैं कहीं से भी कानूनन क्यूबा से बंधा हुआ नहीं हूं। जो बंधन हैं वो दूसरी तरह के हैं और उन्हें किसी एप्वॉइंटमेंट की तरह नहीं तोड़ा जा सकता।

अपनी पिछली ज़िंदगी को याद करते हुए मुझे लगता है कि मैंने क्रांति की जीत को मजबूत बनाने के लिए पर्याप्त भावना और समर्पण के साथ काम किया। मैंने तुम्हारे साथ रहते हुए शानदार दिन गुजारे हैं। मुझे इस बात का भी फख्र है कि मैंने बगैर किसी हिचक के तुम्हारे सोचने के तरीके और खतरों व सिद्धांतों की परख में तुम्हारा अनुसरण किया।

आज सब कुछ छोड़ते वक्त मैं जता देना चाहता हूं कि मेरे अंदर सुख और दुख की मिलीजुली भावनाएं आ रही हैं। मैं अपनी सबसे पवित्र आशाएं छोड़ रहा हूं, उन्हें छोड़ रहा हूं जो मुझे सबसे प्रिय रहे हैं। और मैं उन लोगों को छोड़कर जा रहा हूं जिन्होंने मुझे अपने बेटे जैसा समझा। इन भावनाओं के जख्म बड़े गहरे हैं। मैं यु्द्ध के नए मोर्चे पर वह विश्वास साथ लेकर जा रहा हूं जो तुमने मुझे सिखाया था, अपने लोगों की क्रांतिकारी भावना साथ लिए जा रहा हूं। जहां कहीं भी साम्राज्यवाद है, उससे लड़ने जा रहा हूं। यह मकसद एक गहरा सुकून देता है और गहरे से गहरे जख्म को भी भर देता है।

मैं एक बार फिर कहता हूं कि क्यूबा को अपनी हर ज़िम्मेदारी से मैंने मुक्त कर दिया है। वैसे, दूसरी जगह पहुंचकर भी मेरी आखिरी सोच क्यूबा के अवाम और खासकर तुम्हारे बारे में होगी। मुझे इस बात का दुख नहीं है कि मैं अपने बच्चों और बीवी के लिए कुछ छोड़कर नहीं जा रहा हूं। मैं खुश हूं कि ऐसा ही है। मैं उनके लिए कुछ नहीं मांग रहा क्योंकि मुझे पता है कि सरकार उनके खर्चों और पढ़ाई के लिए पर्याप्त बंदोबस्त कर देगी।

मैं तुमसे और अपनी जनता से बहुत कुछ कहना चाहता था, लेकिन मुझे लगता है कि यह ज़रूरी नहीं है। शब्द उसे बयां नहीं कर सकते, जो मैं तुम सबसे कहना चाहता हूं और मैं घिसे-पिटे जुमले फेंकना वाज़िब नहीं समझता।
Ever onward to victory! Our country or death!
चे ग्येवारा

3 comments:

अनुराग द्वारी said...

इस महान क्रांतिकारी की बातें कितनी आम थी ... हर एक लफ्ज ऐसा लगता है कि किसी बिछड़न की हमारी आपकी दास्तां को कैद किए हुए है ... सर चे कि इस चिठ्ठी को छापने के लिए शुक्रिया

राजेश कुमार said...

क्यूबा में साम्यवादी आंदोलन के प्रतीक अर्नस्टो (चे ग्येवारा) की आज 40 वीं पुण्यतिथि है। 1959 में साम्यवादी क्रांति के माध्यम से चे ग्येवारा ने फिदल कास्त्रो को सत्ता में लाने के लिये महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। साम्राज्यवादी शक्तियां इन्हें मारने के लिये हमेशा षडयंत्र करते रहे और अंतत: बोलिविया में सीआईए समर्थक सैनिकों ने इन्हें 8 अक्टूबर 1967 को पकड़ लिया और 9 अक्टूबर को उनकी हत्या कर दी । श्रमिकों और छात्रों के हितेषी इस महान योद्धा को नमन।

Gyan Dutt Pandey said...

मित्र चे को तो पूरी चेतना लगा कर पढ़ने-समझने से दूर रखा। अब क्या कमेण्ट दें! इसके लिये मैं दोषी अपने साम्यवादी मित्रों को मानता हूं जो अपनी इण्टेलेक्चुआलिटी हम पर जबरन ठेलना चाहते थे।