कहना अच्छा तो नहीं लगता, फिर भी कहता हूं
“लिखने वालों के लिए दुनिया की सबसे कठिन कहानी आत्मकथा ही होती है। … ध्यान रहे, इस अदालत में आप ही जज हैं, आप ही मुलजिम और आप ही वकील। हम जैसे श्रोतागण अभी सुन रहे हैं, अभी उठकर कहीं और चले जाएंगे, लेकिन यह अदालत आपकी आखिरी सांस तक आपके भीतर लगी रहेगी।” कल अपने चंदू की यह टिप्पणी पढ़ने के बाद मैं सोचने लगा कि मैं क्या लिख रहा हूं, क्यों लिख रहा हूं? दस दिन पहले तक कितना मस्त था! रोज़ दफ्तर से आते-जाते मन ही मन कुछ गाता-गुनता रहता और सुबह होते-होते लिख देता था। लगता था कि रोज़मर्रा की ज़िंदगी में हम जिन छोटे-बड़े सवालों से जूझ रहे हैं, मैं उनके समाधान का कोई सूत्र निकाल रहा हूं।
मुझे नहीं पता था कि मेरा यूं गुनना-गुनगुनाना भी किसी के खलल में बाधा डाल सकता है। एक मामूली-सी बात न जाने क्यों उन्हें गैर-मामूली लग गई। उनका पत्थर कलेजा भावुक हो गया। वे बौखला गए। मैं भी दुखी हो गया और गुजरे वक्त के जख्मों को कुरेद-कुरेद कर ताज़ा करने लगा। पुराने लिखे गए रुक्के ढूंढे गए और मैं लिखने लगा। काश, उनका यही पत्थर कलेजा बीस साल पहले पिघला होता तो शायद योगी बनने की राह पर निकल चुका मैं दुबारा सांसारिक नहीं हुआ होता। खैर, अपने तईं किसी काम को पूरा किए बिना उसे बीच में छोड़ देना मेरी फितरत नहीं है। मानस की कथा शुरू कर दी है, तो उसे बीच भंवर में मैं छोड़ नहीं सकता। हां, इतना ज़रूर है कि इसे कहने में खुशी कम, तकलीफ ज्यादा हो रही है तो इसे जितना जल्दी हो सकेगा, खत्म कर दूंगा।
बात कल जहां छोड़ी थी, वहीं से आगे बढ़ाते हैं। साथी विष्णु की सीमाएं थीं। हर समाज और संगठन में ऐसे लोग होते हैं। लेकिन जब पार्टी के राज्य सचिव वर्मा जी उनसे भी चार कदम आगे निकले, तब मानस की घुटन बढ़ने लगी। वर्मा जी दो-चार महीने पर आते तो वह उनसे किसी अमूर्त दर्शन नहीं, बल्कि सोचने के ठोस तरीके के बारे में बात करने की कोशिश करता। लेकिन वर्मा जी झल्ला जाते। कहते – और जगहों के साथी संगठन और संघर्ष की बातें करते हैं। आप हैं कि अपनी ही लेकर बैठ जाते हैं। मानस शांति से कहता – वर्मा जी, संगठन और संघर्ष की बातें तो मैं जनता के बीच में बैठकर सुलझा लेता हूं। क्या करना है ये तय है, तो कैसे करना है, यह तो जहां काम हो रहा है, जो इसे कर रहे हैं, उन्हीं की सहमति से तय होगा। आप और मैं थोड़े ही ऊपर से संघर्ष का कोई तरीका थोप सकते हैं।
मानस एक-दो बार वर्मा जी को किसान और मजदूर साथियों के बीच ले गया। लेकिन वर्मा जी ने जैसी बातें की, जो नुस्खे बताए उससे लगा जैसे चार उम्रकैद काटकर लौटा कोई शख्स पहली बार बाहर के लोगों से बात कर रहा हो। बात का न कोई सिर, न कोई पैर, व्यावहारिक संघर्ष से जिसका दूर-दूर तक कोई नाता नहीं। इसी बीच मानस ने मार्क्स-एंगेल्स की एक किताब, जर्मन आइडियोलॉजी पढ़ी। गौर से पढ़ी, बार-बार पढ़ी। वह जितना पढ़ता, उतना ही आश्चर्य में डूबता जाता क्योंकि मार्क्स-एंगेल्स ने अपने समकालीन चिंतकों और दार्शनिकों की जिन बातों पर खिंचाई की थी, उन्हें द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के खिलाफ बताया था, वही सोच, वही बातें पार्टी के वरिष्ठ साथियों-नेताओं में साफ-साफ नज़र आ रही थीं।
उसे यकीन होने लगा कि जिसे वह क्रांतिकारी पार्टी मान रहा है, उसके कुछ नेताओं के अचेतन में सार्थक बदलाव नहीं, बल्कि जैसा है, उसे वैसा ही बचाए रखने की किसान सोच ज्यादा हावी हो गई है। इसी बीच पटना के एक वरिष्ठ साथी ने जब ये विचार रखा कि भारत के सभी मार्क्सवादी-लेनिनवादी गुट दरअसल सर्वहारा की नहीं, किसानों की पार्टियां हैं, तो उसे इसमें काफी दम नज़र आया। लेकिन उन साथी को विलोपवादी बताकर पार्टी से रुखसत किया गया। और, वह जबरदस्त संत्रास में फंसने लगा। किसी भी सूरत में उसे घर लौटकर जाना गवारा नहीं था। लेकिन उलझे हुए सूत्रों को सुलझाए बिना रुकना भी संभव नहीं था।
अभी बाकी है मानस की अंतर्कथा
मुझे नहीं पता था कि मेरा यूं गुनना-गुनगुनाना भी किसी के खलल में बाधा डाल सकता है। एक मामूली-सी बात न जाने क्यों उन्हें गैर-मामूली लग गई। उनका पत्थर कलेजा भावुक हो गया। वे बौखला गए। मैं भी दुखी हो गया और गुजरे वक्त के जख्मों को कुरेद-कुरेद कर ताज़ा करने लगा। पुराने लिखे गए रुक्के ढूंढे गए और मैं लिखने लगा। काश, उनका यही पत्थर कलेजा बीस साल पहले पिघला होता तो शायद योगी बनने की राह पर निकल चुका मैं दुबारा सांसारिक नहीं हुआ होता। खैर, अपने तईं किसी काम को पूरा किए बिना उसे बीच में छोड़ देना मेरी फितरत नहीं है। मानस की कथा शुरू कर दी है, तो उसे बीच भंवर में मैं छोड़ नहीं सकता। हां, इतना ज़रूर है कि इसे कहने में खुशी कम, तकलीफ ज्यादा हो रही है तो इसे जितना जल्दी हो सकेगा, खत्म कर दूंगा।
बात कल जहां छोड़ी थी, वहीं से आगे बढ़ाते हैं। साथी विष्णु की सीमाएं थीं। हर समाज और संगठन में ऐसे लोग होते हैं। लेकिन जब पार्टी के राज्य सचिव वर्मा जी उनसे भी चार कदम आगे निकले, तब मानस की घुटन बढ़ने लगी। वर्मा जी दो-चार महीने पर आते तो वह उनसे किसी अमूर्त दर्शन नहीं, बल्कि सोचने के ठोस तरीके के बारे में बात करने की कोशिश करता। लेकिन वर्मा जी झल्ला जाते। कहते – और जगहों के साथी संगठन और संघर्ष की बातें करते हैं। आप हैं कि अपनी ही लेकर बैठ जाते हैं। मानस शांति से कहता – वर्मा जी, संगठन और संघर्ष की बातें तो मैं जनता के बीच में बैठकर सुलझा लेता हूं। क्या करना है ये तय है, तो कैसे करना है, यह तो जहां काम हो रहा है, जो इसे कर रहे हैं, उन्हीं की सहमति से तय होगा। आप और मैं थोड़े ही ऊपर से संघर्ष का कोई तरीका थोप सकते हैं।
मानस एक-दो बार वर्मा जी को किसान और मजदूर साथियों के बीच ले गया। लेकिन वर्मा जी ने जैसी बातें की, जो नुस्खे बताए उससे लगा जैसे चार उम्रकैद काटकर लौटा कोई शख्स पहली बार बाहर के लोगों से बात कर रहा हो। बात का न कोई सिर, न कोई पैर, व्यावहारिक संघर्ष से जिसका दूर-दूर तक कोई नाता नहीं। इसी बीच मानस ने मार्क्स-एंगेल्स की एक किताब, जर्मन आइडियोलॉजी पढ़ी। गौर से पढ़ी, बार-बार पढ़ी। वह जितना पढ़ता, उतना ही आश्चर्य में डूबता जाता क्योंकि मार्क्स-एंगेल्स ने अपने समकालीन चिंतकों और दार्शनिकों की जिन बातों पर खिंचाई की थी, उन्हें द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के खिलाफ बताया था, वही सोच, वही बातें पार्टी के वरिष्ठ साथियों-नेताओं में साफ-साफ नज़र आ रही थीं।
उसे यकीन होने लगा कि जिसे वह क्रांतिकारी पार्टी मान रहा है, उसके कुछ नेताओं के अचेतन में सार्थक बदलाव नहीं, बल्कि जैसा है, उसे वैसा ही बचाए रखने की किसान सोच ज्यादा हावी हो गई है। इसी बीच पटना के एक वरिष्ठ साथी ने जब ये विचार रखा कि भारत के सभी मार्क्सवादी-लेनिनवादी गुट दरअसल सर्वहारा की नहीं, किसानों की पार्टियां हैं, तो उसे इसमें काफी दम नज़र आया। लेकिन उन साथी को विलोपवादी बताकर पार्टी से रुखसत किया गया। और, वह जबरदस्त संत्रास में फंसने लगा। किसी भी सूरत में उसे घर लौटकर जाना गवारा नहीं था। लेकिन उलझे हुए सूत्रों को सुलझाए बिना रुकना भी संभव नहीं था।
अभी बाकी है मानस की अंतर्कथा
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सुनीता(शानू)