Monday 1 October, 2007

पेड़, पत्ते, प्रकृति और महात्मा

कल गांधी जयंती है। इस साल से 2 अक्टूबर को अंतरराष्ट्रीय अहिंसा दिवस भी घोषित कर दिया गया है। गांधी जी राजनीति और अहिंसा के दर्शन के प्रचार में इतने व्यस्त रहे कि प्रकृति पर उन्होंने कम ही लिखा है। लेकिन 1917 से 25 सालों तक उनके सचिव रहे महादेव देसाई ने अपनी किताब, Day-to-Day with Gandhi : A Secretary’s Diary में एक पत्र का हवाला दिया है, जिसमें गांधी जी ने दक्षिण अफ्रीका के अपने अभिन्न मित्र कालेनबाख को लिखा है कि वो प्रकृति को कैसे देखते हैं। गांधी जी ने इस पत्र में लिखा है :

कल मैं हवा की सनसनाहट सुन रहा था और पेड़ों को देख रहा था तो मेरी नज़र नीचे ज़मीन पर पड़ी। मैंने पाया कि ये शक्तिशाली पेड़ हर दिन कैसे परिवर्तन से गुजरते हैं, कुछ थोड़ा-सा रहता है जो कायम रहता है। हर पत्ते का अपना अलग जीवन होता है। वह गिरता है और नष्ट हो जाता है। लेकिन पेड़ बचा रहता है, जिंदा रहता है।
(कल सुबह – गांधी के बारे में गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर गांधी की राय)

5 comments:

राजेश कुमार said...

पौधे लगाने होंगे ताकि पेडों की सनसनाहट सुन सकें। नहीं तो कंकरीट के जंगल ही देखने को मिलेंगे। ऐसा जारी रहा तो जीवन जीवन नहीं रहेगा।

Udan Tashtari said...

महानगरों में पेड़ लगाने की जगह कहाँ बची?

बेहतर है कि पेड़ों की सनसनाहट के बदले कंकरीट की गड़गड़ाहट को ही संगीत मान लिया जाये.

ठीक वही तो हमने शास्त्रीय संगीत से हट कर रॉक म्यूजिक और री-मिक्सेस के साथ समझौता किया है.

Gyan Dutt Pandey said...

सही है मित्र - समग्रता में हम जीवित रहेंगे. अंश में भले ही समाप्त हो जायें.
झरते हैं झरने दो पत्ते, डरो न किंचित. रक्त पूर्ण मांसल होंगे फिर जीवन रंजित!
बापू को नमन.

Anonymous said...

सही है। पेड़ लगाओ जीवन् बचाओ।

Dr Prabhat Tandon said...

प्रकृति के साथ छेडछाड हमको आने वाले दिनों मे रुलायेगी ।