...तो हमें देश की सुरक्षा से खतरा है
अपने यहां कुछ लोग व्यक्ति को ही देश मान लेते हैं। कभी ‘इंदिरा इज इंडिया’ कहा गया था तो कुछ लोग आज भी मोदी जैसे अदने-से नेता के विरोध को राष्ट्र-विरोध बता डालते हैं। लेकिन देश और उसकी सुरक्षा के लिए ज़रूरी शर्त है कि उसमें रह रहे आम लोग मान-सम्मान, मानवीय गरिमा के साथ निश्चिंत होकर सुंदर जीवन के लिए संघर्ष कर सकें। आज ज्यादा कुछ कहने-लिखने की स्थिति नहीं है तो पाश की एक कविता पेश है ताकि हम देश की धारणा की ज्यादा मानवीय सोच पर पहुंच सकें।
यदि देश की सुरक्षा यही होती है
कि बिना जमीर होना ज़िंदगी के लिए शर्त बन जाए
आंख की पुतली में ‘हां’ के सिवाय कोई भी शब्द अश्लील हो
और मन बदकार पलों के सामने दंडवत झुका रहे
तो हमें देश की सुरक्षा से खतरा है
हम तो देश को समझे थे घर-जैसी पवित्र चीज़
जिसमें उमस नहीं होती
आदमी बरसते मेंह की गूंज की तरह गलियों में बहता है
गेहूं की बालियों की तरह खेतों में झूमता है
और आसमान की विशालता को अर्थ देता है
हम तो देश को समझे थे आलिंगन-जैसे एक एहसास का नाम
हम तो देश को समझते थे काम-जैसा कोई नशा
हम तो देश को समझे थे कुर्बानी-सी वफा
लेकिन ‘गर देश आत्मा की बेगार का कोई कारखाना है
‘गर देश उल्लू बनने की प्रयोगशाला है
तो हमें उससे खतरा है
‘गर देश का अमन ऐसा होता है
कि कर्ज़ के पहाड़ों के फिसलते पत्थरों की तरह टूटता रहे अस्तित्व हमारा
और तनख्वाहों के मुंह पर थूकती रही कीमतों की बेशर्म हंसी
कि अपने ही रक्त में नहाना ही तीर्थ का पुण्य हो
तो हमें अमन से खतरा है
‘गर देश की सुरक्षा ऐसी होती है
कि हर हड़ताल को कुचलकर अमन को रंग चढ़ेगा
कि वीरता बस सरहदों पर मरकर परवान चढ़ेगी
कला का फूल बस राजा की खिड़की में ही खिलेगा
अक्ल, हुक्म के कुएं पर रहट की तरह धरती सींचेगी
मेहनत, राजमहलों के दर पर बुहारी ही बनेगी
तो हमें देश की सुरक्षा से खतरा है।।
यदि देश की सुरक्षा यही होती है
कि बिना जमीर होना ज़िंदगी के लिए शर्त बन जाए
आंख की पुतली में ‘हां’ के सिवाय कोई भी शब्द अश्लील हो
और मन बदकार पलों के सामने दंडवत झुका रहे
तो हमें देश की सुरक्षा से खतरा है
हम तो देश को समझे थे घर-जैसी पवित्र चीज़
जिसमें उमस नहीं होती
आदमी बरसते मेंह की गूंज की तरह गलियों में बहता है
गेहूं की बालियों की तरह खेतों में झूमता है
और आसमान की विशालता को अर्थ देता है
हम तो देश को समझे थे आलिंगन-जैसे एक एहसास का नाम
हम तो देश को समझते थे काम-जैसा कोई नशा
हम तो देश को समझे थे कुर्बानी-सी वफा
लेकिन ‘गर देश आत्मा की बेगार का कोई कारखाना है
‘गर देश उल्लू बनने की प्रयोगशाला है
तो हमें उससे खतरा है
‘गर देश का अमन ऐसा होता है
कि कर्ज़ के पहाड़ों के फिसलते पत्थरों की तरह टूटता रहे अस्तित्व हमारा
और तनख्वाहों के मुंह पर थूकती रही कीमतों की बेशर्म हंसी
कि अपने ही रक्त में नहाना ही तीर्थ का पुण्य हो
तो हमें अमन से खतरा है
‘गर देश की सुरक्षा ऐसी होती है
कि हर हड़ताल को कुचलकर अमन को रंग चढ़ेगा
कि वीरता बस सरहदों पर मरकर परवान चढ़ेगी
कला का फूल बस राजा की खिड़की में ही खिलेगा
अक्ल, हुक्म के कुएं पर रहट की तरह धरती सींचेगी
मेहनत, राजमहलों के दर पर बुहारी ही बनेगी
तो हमें देश की सुरक्षा से खतरा है।।
Comments
एक श्रीकांत वर्मा की कविता है (हालांकि वे कांग्रेसी थे, पर उन्हें कहां पता था कि उनकी कविता नरेंद्र मोदी के गुजरात में फिट बैठेगी... और कवि शायद मनुष्य पहले होता है, पार्टी मैंबर बाद में)
हस्तक्षेप
कोई छींकता तक नहीं
इस डर से
कि मगध की शान्ति
भंग न हो जाए
मगध को बनाये रखना है, तो,
मगध में शांति रहनी ही चाहिए
मगध है तो शांति है
कोई चीखता तक नहीं
इस डर से
कि मगध की व्यवस्था में
दखल न पड़ जाए
मगध में व्यवस्था रहनी ही चाहिए
मगध में न रही
तो कहां रहेगी ?
क्या कहेंगे लोग ?
लोगों का क्या ?
लोग तो यह भी कहते हैं
मगध अब कहने को मगध है
रहने को नहीं
कोई टोकता तक नहीं
इस डर से
कि मगध में टोकने का रिवाज न बन जाए
एक बार शुरू होने पर
कहीं नहीं रुकता हस्तक्षेप-
वैसे तो मगधवासियों
कितना भी कतराओ
तुम बच नहीं सकते हस्तक्षेप से-
जब कोई नहीं करता
तब नगर के बीच से गुजरता हुआ
मुर्दा
यह प्रश्न कर हस्तक्षेप करता है
मनुष्य क्यों मरता है ?
'आरंभ' छत्तीसगढ का स्पंदन
आपका लेखन बहुत दमदार है।
अच्छा है