अंश के साथ समग्र को देखता है मार्क्सवाद
मैंने साम्यवाद की कमियां बताई, लेकिन अपनी टिप्पणी में यह भी लिख दिया कि ये इकलौता दर्शन है जो ठहराव के दलदल से निकाल कर गति का रास्ता दिखाता है। मुश्किल इसे अपनाने वालों से है जो इसके विज्ञान को समझने के बजाय इसे बोलकर अपनी दुकान चलाने लगते हैं। तो इस पर संजय बेंगानी का कहना है कि, “अपन भी गतिशील होना चाहता है। समझाया जाए कि कैसे मार्क्सवाद राह दिखाता है।" अनुनाद सिंह ने फरमाइश की कि, “कभी लिखकर हमारा ज्ञानवर्धन करें कि मार्क्सवाद कैसे यह 'एकलौता' दर्शन है जो दलदल से निकालकर गति का रास्ता दिखाता है?”
मैं सहज विश्वासी आदमी हूं। मुझे नहीं पता कि इन बंधुओं ने अपनी बात चुटकी लेने के लिए कही है या गंभीरता में। अगर गंभीरता से जानना चाहते हैं तो राहुल सांकृत्यायन की किताब दर्शन-दिग्दर्शन पढ़ सकते हैं जिसमें सारे भारतीय और विश्व दर्शनों पर विस्तार से बात करते हुए वैज्ञानिक/द्वंद्वात्मक भौतिकवाद यानी मार्क्सवाद को आसान तरीके से पेश किया गया है। फिलहाल मार्क्सवाद को जैसा मैंने समझा है, वैसा प्रस्तुत कर रहा हूं।
हम अपने आसपास की चीजों को अक्सर विपरीत जोड़े में देखते हैं। दुख-सुख, हानि-लाभ, जीवन-मरण, धन-ऋण। हम यह भी जानते हैं कि सृष्टि की हर चीज़ सतत परिवर्तनशील है। यहां तक कि नए-नए अनुभवों के साथ हमारे विचार भी बदलते रहते हैं। लेकिन हमारी सोच के साथ समस्या यह है कि हम एक समय पर जोड़े की केवल एक चीज़ को देखते हैं। दुख तो देखते हैं पर सुख को नहीं देखते। स्थिरता को देखते हैं तो गति को नहीं देखते। पेड़ को देखते हैं तो जंगल को नहीं देखते। व्यक्ति को देखते हैं तो समाज को नहीं देखते। अंश को देखते हैं तो समग्र को नहीं देखते।
मार्क्सवाद कहता है कि ऐसा ठीक नहीं है। अंश के साथ समग्र को देखो और इन्हें स्थिर रूप में मत देखो, गतिशील रूप में देखो। पेड़ पर बैठी चिड़िया पर निशाना लगाना और उड़ती हुई चिड़िया पर निशाना लगाने में फर्क है। हर चीज़ को हमेशा बदलाव के संदर्भ में ही देखो, तब आप वास्तविकता के ज्यादा करीब पहुंच सकते हो। दूसरे, बदलाव सिर्फ मात्रात्मक नहीं होता, बल्कि एक सीमा के बाद यह गुणात्मक हो जाता है। मिट्टी से पौधा, पौधे से कली, कली से फूल और फूल से बीज बनने की प्रक्रिया इसके उदाहरण हैं।
ज़ाहिर है मार्क्सवाद ईश्वर में यकीन नहीं रखता। लेकिन वह प्रकृति की रहस्यमयी शक्तियों को ठुकराता भी नहीं। इंसान भी प्रकृति का हिस्सा है और इंसान अपनी सामाजिक उत्पादक गतिविधियों से प्रकृति पर वश ही नहीं करता, उसे बदलता भी है।
अब सबसे खास बात, जिसे मैंने कहा कि यह इकलौता दर्शन है जो ठहराव के दलदल से निकाल कर गति का रास्ता दिखाता है। मार्क्सवाद ही एकमात्र दर्शन है जिसने दर्शन को इंसान के मस्तिष्क से निकालकर समाज पर लागू किया, निष्क्रिय बहसों से निकालकर उसे संघर्षों को सक्रियता दी। उसने बताया कि घोड़े और घास के रिश्तों की तरह समाज में वर्ग होते हैं; और वर्ग संघर्ष ही समाज की अग्रिम गति को संभव बनाता है। समाज के विकास के क्रम में एक वक्त पर किसी एक वर्ग का हित ही उस समय पूरे समाज का हित बन जाता है। पूंजी ने जिस तरह करोड़ों लोगों से सब कुछ छीनकर मजदूर बना दिया है, उन्हीं मजदूरों में, सर्वहारा वर्ग में पूरे समाज का हित है।
लेकिन सच्चाई हमेशा विचार और दर्शन से चार कदम आगे चलती है। पूंजी की संरचना, उसके मालिकाने का बदलता स्वरूप, विश्व राजनीति के बदलाव... इन सबके बीच कम्युनिस्ट देश हकीकत को नहीं समझ सके। गलत मूल्यांकन किए, गलत नीतियां बनाईं। नतीज़तन जिस व्यापक अवाम और समाज के हितों की बात वो कर रहे थे, उन्हीं का अहित होने लगा और उनका साम्राज्य चिंदी-चिंदी होकर बिखर गया। एक बात साफ है कि जिन लोगों का हित मौजूदा राजनीतिक, सामाजिक हालात से सधता है, वे न तो पहले और न ही कभी आगे मार्क्सवाद को पचा सकते हैं। लेकिन जिन्हें नया चाहिए, बेहतर चाहिए, उनके पास हकीकत को समझने और बदलने का आज भी एक ही दर्शन है और वह है मार्क्सवाद।
मैं सहज विश्वासी आदमी हूं। मुझे नहीं पता कि इन बंधुओं ने अपनी बात चुटकी लेने के लिए कही है या गंभीरता में। अगर गंभीरता से जानना चाहते हैं तो राहुल सांकृत्यायन की किताब दर्शन-दिग्दर्शन पढ़ सकते हैं जिसमें सारे भारतीय और विश्व दर्शनों पर विस्तार से बात करते हुए वैज्ञानिक/द्वंद्वात्मक भौतिकवाद यानी मार्क्सवाद को आसान तरीके से पेश किया गया है। फिलहाल मार्क्सवाद को जैसा मैंने समझा है, वैसा प्रस्तुत कर रहा हूं।
हम अपने आसपास की चीजों को अक्सर विपरीत जोड़े में देखते हैं। दुख-सुख, हानि-लाभ, जीवन-मरण, धन-ऋण। हम यह भी जानते हैं कि सृष्टि की हर चीज़ सतत परिवर्तनशील है। यहां तक कि नए-नए अनुभवों के साथ हमारे विचार भी बदलते रहते हैं। लेकिन हमारी सोच के साथ समस्या यह है कि हम एक समय पर जोड़े की केवल एक चीज़ को देखते हैं। दुख तो देखते हैं पर सुख को नहीं देखते। स्थिरता को देखते हैं तो गति को नहीं देखते। पेड़ को देखते हैं तो जंगल को नहीं देखते। व्यक्ति को देखते हैं तो समाज को नहीं देखते। अंश को देखते हैं तो समग्र को नहीं देखते।
मार्क्सवाद कहता है कि ऐसा ठीक नहीं है। अंश के साथ समग्र को देखो और इन्हें स्थिर रूप में मत देखो, गतिशील रूप में देखो। पेड़ पर बैठी चिड़िया पर निशाना लगाना और उड़ती हुई चिड़िया पर निशाना लगाने में फर्क है। हर चीज़ को हमेशा बदलाव के संदर्भ में ही देखो, तब आप वास्तविकता के ज्यादा करीब पहुंच सकते हो। दूसरे, बदलाव सिर्फ मात्रात्मक नहीं होता, बल्कि एक सीमा के बाद यह गुणात्मक हो जाता है। मिट्टी से पौधा, पौधे से कली, कली से फूल और फूल से बीज बनने की प्रक्रिया इसके उदाहरण हैं।
ज़ाहिर है मार्क्सवाद ईश्वर में यकीन नहीं रखता। लेकिन वह प्रकृति की रहस्यमयी शक्तियों को ठुकराता भी नहीं। इंसान भी प्रकृति का हिस्सा है और इंसान अपनी सामाजिक उत्पादक गतिविधियों से प्रकृति पर वश ही नहीं करता, उसे बदलता भी है।
अब सबसे खास बात, जिसे मैंने कहा कि यह इकलौता दर्शन है जो ठहराव के दलदल से निकाल कर गति का रास्ता दिखाता है। मार्क्सवाद ही एकमात्र दर्शन है जिसने दर्शन को इंसान के मस्तिष्क से निकालकर समाज पर लागू किया, निष्क्रिय बहसों से निकालकर उसे संघर्षों को सक्रियता दी। उसने बताया कि घोड़े और घास के रिश्तों की तरह समाज में वर्ग होते हैं; और वर्ग संघर्ष ही समाज की अग्रिम गति को संभव बनाता है। समाज के विकास के क्रम में एक वक्त पर किसी एक वर्ग का हित ही उस समय पूरे समाज का हित बन जाता है। पूंजी ने जिस तरह करोड़ों लोगों से सब कुछ छीनकर मजदूर बना दिया है, उन्हीं मजदूरों में, सर्वहारा वर्ग में पूरे समाज का हित है।
लेकिन सच्चाई हमेशा विचार और दर्शन से चार कदम आगे चलती है। पूंजी की संरचना, उसके मालिकाने का बदलता स्वरूप, विश्व राजनीति के बदलाव... इन सबके बीच कम्युनिस्ट देश हकीकत को नहीं समझ सके। गलत मूल्यांकन किए, गलत नीतियां बनाईं। नतीज़तन जिस व्यापक अवाम और समाज के हितों की बात वो कर रहे थे, उन्हीं का अहित होने लगा और उनका साम्राज्य चिंदी-चिंदी होकर बिखर गया। एक बात साफ है कि जिन लोगों का हित मौजूदा राजनीतिक, सामाजिक हालात से सधता है, वे न तो पहले और न ही कभी आगे मार्क्सवाद को पचा सकते हैं। लेकिन जिन्हें नया चाहिए, बेहतर चाहिए, उनके पास हकीकत को समझने और बदलने का आज भी एक ही दर्शन है और वह है मार्क्सवाद।
Comments
आपकी बात ठीक है.. मैं काफ़ी हद तक मनोगत हूँ.. गलतियाँ भी करता हूँ.. हो सकता है यहाँ भी कर रहा हूँ..
मगर भाई दर्शन का राजनीति से रिश्ता होने से इंकार नहीं कर रहा.. उनके एकरूप होने की असम्भावना की बात की थी..
बात आप जहाँ से चाहें करें.. मेरे क्यों अपने ही भगोड़ेपन के दर्शन से करें..
नाम देने से तो आप बच रहे हैं..नहीं?
कोई विचार या दर्शन कितना प्रामाणिक और कारगर है, यह तो इसी से साबित होगा कि उस पर अमल करने से इंसान व्यक्तिगत रूप से और समाज सामूहिक रूप से कितना खुशहाल महसूस कर सकता है, उसके भीतर का असंतोष किस हद तक दूर हो सकता है, और लोगों के बीच आपसी सौहार्द कितना बढ़ पाता है। मार्क्सवाद को कितना वक्त और चाहिए दुनिया में अपनी सार्थकता साबित करने के लिए?
vipin
हमारे यहां किसी पेंशनधारी कम्युनिस्ट को अगर कॉमरेड या साथी कह दीजिए तो भागने लगेगा। शर्म आती है उन्हें क्योंकि इससे विचारधारा मालूम होती है और ऐसी विचारधारा जो गरीब और फटेहाल लोगों की लड़ाई का औजार हैं और वो समझ उन्हें अपराधबोध में ले जाती है तो बेहतर है कि इसके खिलाफ ही कोई तर्क मिले उसे पकड़ लिया जाए।
दर्शन तक तो ठीक है ..लेकिन राजनीति नहीं ... वैसे इनके तर्क बड़े मजेदार होते हैं .. जैसे ये मार्क्सवादी दर्शन को सही मानेंगे लेकिन इस विचारधारा वाले संगठन उन्हे पसंद नहीं होंगे। यानी उन्हे "राजनीतिक प्रतिबद्धता" (हा-हा-हा) पसंद नहीं। अब आप सोचिए कि राजनीतिक प्रतिबद्धता नाम के किसी शब्द की गलती है या उसके अर्थ की। अब क्या करिए मार्क्स ऐसी कैटेगरी ही बना देते हैं कि विचारधारा पर दिया गया तर्क व्यक्ति की वर्गीय स्थिति बताता है। अब इसे भाषा के दोहराव के रूप में देखिए या फिर आइने के रूप में।
आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के बाद शून्य ही हाथ लगगा। आईन्स्टीन ने कभी कहा था कि यदि आपको कोई चीज समझ में आती है तो उसे अपनी दादी को समझा कर अपनी समझ की परख कीजिये। लगता नहीं है कि आपने गम्भीरता पूर्वक लिखा है। कितना बड़ा मजाक है कि आपने समझाने के बजाय एक किताब का नाम बता दिया। राहुल सांकृत्यायन को क्या पता था कि मार्क्सवाद की ऐसी दुर्गति होगी? आप उनसे अधिक जानते हैं क्योंकि आपने उनसे अधिक देख लिया है। किताबों का नाम गिनाना हो तो मै भी आठ-दस गिना सकता हूँ।
anil ji to samjha na sake, chaliye main koshish karta hu.kahte hai , farishte jahan jate darte hain ,baune wahin daud lagaate hain.farishte to yahan aayenge nahi, khaksaar hazir hai.
adhikansh marxwaadi mante hain ki---
1.duniya badalti hai.uski arthik ,samajik, sanskritk vyavasthayen badalti rahti hain.
2.yah badlao duniya ke bahar ki kisi takat, kisi bhagwan ya allah ki , marji se nahi hota, balki duniya kee bhitari tanaon aur sangharshon kr karan hota hai.
3.duniya ke bheetar sabse buniyadi sangharsh saadhan-sampann aur saadhanheen logon ke beech hota hai.ameer aur garib ke ladayi sabse buniyadi ladayi hai.
4. jo saadhansampann hai we saadhno par apna kabja banay rakhna chahte hai . jo vipann hai we un saadhno ko unse chheen lena chahte hain.
5 garibon ke khilaf duniya ke sab amir ek hote hain, we chahe hidu hon ya musalman ,hindustani ho ya amariki, mard ho ya aurat.we aapas me lad sakte hain ,lekin garibon ke khilaf ekjut hote hai.
6 amiron ko unke saadhno se bedakhal karne ke liye garibon ko ekjut ho jana chahiye.duniya ke saadhano se niji malkiyat khatm kar ke sarvjanik swamitwa kayam karna chahiye.isi tarike se duniya se amiri aur garibi khatm ki ja sakti hai.
7.vyaktigat pratibha. mehnat aur sanyog ke sahare garibon me se koyi ek kabhi amiron ki mandali me shamil ho sakta hai lekin amiri aur garibi ki vywastha khatm nahi ho sakti.wah kewal garibon ke samajik rajnitik sangharsh se khatm ho sakti hai.
8 . duniya ke sabhi dharm amiron aur garibo ke beech ki ladayi ko chhupane ke liye tarah tarah ke pakhand rachte hain . we antatah garibon ke khilaf amiron ka pakkah lete hai .
media mein such to kab ka halak ho chuka hai. ap blogvale kuch bharpayi karen to kya kahna. sahyog se hi sanskriti ka pahla akhar niklta hai , isi bhavna se kah raha hoon.
vipin
vipin
आपके इस सँक्षिप्त से लेख ने काफी प्रभावित करा,इण्टरनेट पर बहुत सा कचरा हिन्दी भाषा में भी भ्ररा पडा है, ऐसे में आपका लेख में मार्क्सवाद को सरलीक्रुत कर आज के जनमानस के दिमागी स्तर तक पहुंचाने की कोशिश वाकई काबिले तारिफ थी।
आपका
विप्लव
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