Saturday 13 October, 2007

बात एक, राय अनेक तो सच कित्ते हैं भाई?

कहते हैं कि सौंदर्य देखनेवालों की आंखों में होता है। सच है। खूबसूरती के मानदंड तो देश-काल ही नहीं, व्यक्ति सापेक्ष भी हैं। जैसे सारी दुनिया ऐश्वर्या रॉय पर फिदा है, लेकिन मुझे ऐश्वर्या की गर्दन की बुनावट और हंसने का तरीका ऐसा भद्दा लगता है कि वह मुझे कभी आकर्षक लगती ही नहीं। लेकिन क्या सच भी इतना व्यक्ति और देश-काल सापेक्ष होता है? मैं किसी सृष्टि के निर्माण और प्रकृति की भूमिका जैसे निरपेक्ष सत्य की बात नहीं, रोजमर्रा के व्यक्तिगत और सामाजिक मसलों की बात कर रहा हूं। क्या यहां भी मुंडे-मुडे मतिर्भिन्न: या हाथी और छह अंधों की कहानी चलेगी? लेकिन हम सभी तो अंधे हैं नहीं! हमारे आंख, कान, नाक और दिलोदिमाग सही-सलामत हैं।

फिर ऐसा क्यों है कि एक ही मुद्दे पर लोगों की राय अलग-अलग होती है। जैसे, भारत-अमेरिका परमाणु संधि को ही ले लिया जाए। इस संधि से जुड़ा कोई तथ्य न तो वामपंथियों से छिपा है, न ही मनमोहन सिंह या सोनिया गांधी से। लेकिन इन्हीं तथ्यों के अधार पर वामपंथी इसे राष्ट्रीय हित और संप्रभुता को चोट पहुंचाने वाला बता रहे हैं। जबकि सोनिया गांधी कह चुकी हैं कि जो संधि का विरोधी है, वह विकास का विरोधी है, जनता का विरोधी है। कपिल सिब्बल और मनमोहन सिंह कहते रहे हैं कि देश की भावी बिजली ज़रूरतों के लिए यह संधि अपरिहार्य है। वो क्या मान लिया जाए कि सोनिया गांधी से लेकर मनमोहन सिंह और उनकी पूरी सरकार ने अमेरिका से पैसे खाए हैं? या वामपंथी चीन के इशारे पर काम कर रहे हैं?

क्या सच को इस तरह साजिश से जोड़कर देखना सही है? मुझे लगता है कि सबकी सोच का एक पैटर्न होता है, जिसे उसका अचेतन मस्तिष्क बचपन से लेकर अभी तक की पढ़ाई-लिखाई, संस्कार, बातचीत और सामाजिक हितों के दबाव के हिसाब से ढालता है। विचारधारा किसी की सोच का निर्धारण करती है और विचारधारा किसी दलाली या पैसे के असर से नहीं, आपके अंदर से उमगती है। हां, इसके पीछे स्वार्थ ज़रूर काम करते हैं। लेकिन इतने स्थूल नहीं, बल्कि बेहद सूक्ष्म होते हैं।

इसी तरह व्यापार में संगठित रिटेल का मुद्दा ले लिया जाए। बहुत सारे लोग मानते हैं कि यह गांवों से शहर बनने और कृषि से उद्योग बनने जैसी विकास की अपरिहार्य कड़ी है। बच्चे के जन्म जैसी बात है। इसमें कष्ट तो बहुत है। लेकिन बाद में सबका फायदा है। दूसरी तरफ इसे पूरी तरह भारतीय अवाम के हितों के खिलाफ बताया जा रहा है। तो सच क्या है? क्या खुदरा व्यापार में बड़ी कंपनियों के आने का विरोध करनेवाले उसी तरह के लोग हैं जिन्होंने मशीनों के आने पर उन्हें तोड़फोड़ डाला था? और क्या कंपनियों का स्वागत करनेवाले लोग अपने तात्कालिक स्वार्थ के चक्कर में देशी-विदेशी कंपनियों की लपलपाती चीभ और सरकार की हिलती दुम को नहीं देख पा रहे हैं?

सबसे ज्यादा दिक्कत तो मुझे तब होती है जब वामपंथी कहते हैं कि संघ परिवार का राष्ट्रवाद सांप्रदायिक और देशविरोधी है। जवाब में पलट कर संघवाले कहते हैं कि वामपंथी तो शुरू से ही राष्ट्रद्रोही रहे हैं। ये 1942 से लेकर 1962 की बात करते हैं और वो आज़ादी की लड़ाई में संघ परिवार के ‘योद्धाओं’ की गिनती गिनाने लगते हैं। तो क्या दोनों बिके हुए हैं या किसी गुप्त साजिश के तहत काम कर रहे हैं?

यकीनन ऐसा नहीं है। प्राकृतिक सच तक पहुंचना विज्ञान के लिए चुनौती है। लेकिन सामाजिक सच पर तो कभी एक राय बन ही नहीं सकती क्योंकि मजदूर और मालिक या किसान और व्यापारी के हित कभी एक नहीं होते। सामाजिक सच तो हर हाल में सापेक्ष ही होता है। इसलिए बहस भी हमेशा चलती रहेगी। विचारों की मारकाट अपरिहार्य है। लेकिन इसके पीछे कोई साजिश नहीं होती। यह तो सामाजिक स्वार्थों की लड़ाई है। इसे बेरोकटोक चलने देना चाहिए क्योंकि इसी में देश और उसके लोकतंत्र की भलाई है।

अंत में डॉ. मनमोहन सिंह की एक मार्के की बात जो उन्होंने कल हिंदुस्तान टाइम्स लीडरशिप समिट के दौरान कही थी, "कोई भी स्थिर विचारधारा हमारे लोगों की सृजनात्मकता, उद्यमशीलता और कल्पना को फ्रीज नहीं कर सकती, उसे किसी अंधी गली में नहीं धकेल सकती।"

6 comments:

ghughutibasuti said...

आप की बात सही है और यह भी सच है कि सच के बहुत से शेड्स होते हैं । आपका सच मेरे सच से अलग हो सकता है । हमारे सच हमारी परवरिश, समाज व कुछ हद तक खुद हमारी विचारधारा, व्यक्तित्व व हमारे अनुभवों पर निर्भर करते हैं । बहुत सी बार हम जानते भी हैं कि जो हम कह रहे हैं वह गलत है किन्तु एक जिद या फिर अपने को सही सिद्ध करने के चक्कर में हम किसी भी तथ्य को नकार देते हैं ।
घुघूती बासूती

मीनाक्षी said...

"विचारधारा किसी की सोच का निर्धारण करती है और विचारधारा किसी दलाली या पैसे के असर से नहीं, आपके अंदर से उमगती है। "

बहुत सही कहा आपने.
लेकिन "बहस जो चलती रहेगी" "विचारों की मारकाट अपरिहार्य है" में अपने स्वार्थ के साथ साथ सामाजिक हित की सोच शामिल होना आवश्यक है. (यह मेरा विचार है)

बोधिसत्व said...

मेरा मानना है भाई कि विचारधारा भी एक तरह का संस्कार है जो व्यक्ति के मन के साथ ही उसके आसपास के माहौल से भी परिचालित होता है

Gyan Dutt Pandey said...

जितने भी वाद या महंत हैं समय के साथ परिवर्तित-परिवर्धित होंगे। अन्यथा बिला जायेंगे।
अखिर सब बदल तेजी से रहा है। बर्लिन की टूटी दीवार भी अब पुरानी पड़ गयी!

Udan Tashtari said...

बहुत गंभीर लिख गये भाई.

समय फुल स्पीड से बदलता जाता है.

अब तो सच का निर्धारण ही साजिशन हो रहा है. आधार तो स्वार्थ, हित और जरुरत ही है.

Anonymous said...

मनमोहनजी की बात सही है। अच्छी पोस्ट!