कहानी से कहीं ज्यादा घुमावदार है ज़िंदगी

जी हां, गुजरात के भावनगर ज़िले का मूल निवासी भूपत कानजी भाई कोळी लंबे अरसे से भयानक विभ्रम और सिजोफ्रेनिया का मरीज़ है। डॉक्टरों के मुताबिक उसकी ये हालत बचपन से ही है। उसका मामला भावनगर के ज़िला एवं सत्र न्यायालय में 1990 से ही अनिश्चितकाल के लिए बंद पड़ा था। अब इसी न्यायालय ने उसे करीब दो महीने पहले 14 अगस्त को ज़मानत दे दी है। लेकिन वह जाए तो कहां जाए? घर वाले 17 साल पहले हुई वारदात के बाद ही उसे छोड़ चुके हैं। खुद उसे न तो अपनी पहचान याद है और न ही अपना गुनाह।
सरकारी वकील भी मानते हैं कि भूपत मानसिक रूप से बीमार है और मुकदमे का सामना करने लायक नहीं हैं। लेकिन मामला चलता रहेगा क्योंकि कानून के प्रावधानों के तहत उसे छोड़ा नहीं जा सकता। जबकि इस बीच डॉक्टर घोषित कर चुके हैं कि भूपत मुकदमे के लिए पूरी तरह अनफिट है। इसी 13 अगस्त को मेंटल हॉस्पिटल के तीन मनोचिकित्सकों ने लिखकर दिया है कि सालों के इलाज़ के बाद वो इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि भूपत कभी भी मुकदमे का सामना करने के काबिल नहीं हो सकता। लेकिन सरकारी वकील कहते हैं, “हो सकता है कोई दैवी कृपा हो जाए और उसकी हालत सुधर जाए। इसलिए उसका केस अनिश्चितकाल तक खुला रखा जाएगा।”
कैसी विडंबना है कि भूपत कानजी भाई कोळी 16 सालों से लगातार न्यायिक हिरासत में है और इस हालत के बावजूद कानून उसे सज़ा दिलाने पर आमादा है। हॉस्पिटल वाले उसे बाहर घुमाने ले जाते हैं। कभी-कभार पिकनिक पर भी ले जाते हैं। लेकिन उनकी पक्की राय है कि उसके समझने और तर्क करने की क्षमता शायद कभी भी सामान्य नहीं हो सकती है। भारतीय दंड संहिता में पागलपन के तहत आरोपी को छोड़ने का प्रावधान है। खुद सुप्रीम कोर्ट भी कह चुका है कि अगर कोई व्यक्ति मुकदमे की कार्यवाही को समझने में अक्षम है तो उसके खिलाफ मुकदमा चलाना अनुचित है।
भूपत कानजी भाई कोळी के छूटने की एक ही सूरत है और वह यह कि सरकार उस पर चल रहा केस वापस ले ले। लेकिन जिस देश में हत्या के आरोपी शिबू सोरेन को बाइज्जत बरी किया जा सकता है, जहां बहुत से लोग पागलपन का नाटक करके बड़े से बड़े गुनाह से बरी हो जाते हैं, उस देश में असली पागल के ठीक होने के दैवी चमत्कार का इंतज़ार किया जा रहा है क्योंकि हमारी ‘न्यायप्रिय’ सरकार मानती है कि दोषी को हर हाल में गुनाह की सज़ा मिलनी ही चाहिए। शुक्र मनाइए कि भूपत कोळी संज्ञाशून्य है। उसे न तो अपने गुनाह की संजीदगी का एहसास है और न ही सज़ा की तकलीफ का। लेकिन हम तो संज्ञाशून्य नहीं हैं। और, प्रजावत्सल नरेंद्र मोदी तो कतई संज्ञाशून्य नहीं हो सकते क्योंकि यह उन्हीं के गुजरात की एक हिंदू प्रजा का मामला है।
खबर का स्रोत : इंडियन एक्सप्रेस
Comments
किन्तु इस प्रसंग में नरेन्द्र मोदी का जिक्र देखकर जरा अचरज में हूँ, अनिल भाई.
मुख्य मंत्री की हैसियत से अगर वो उसके इलाज में कौतोही बरतते तब तो बात समझ में आती-इसमें नहीं समझ आ पा रही.
ऐसा कोई प्रावधान है क्या कानून में, जिसमें मुख्यमंत्री को यह अधिकार प्राप्त हों कि वो न्यायपालिका को आदेश दें कि इन्हें छोड़ दिया जाये?
मुझे कानून का विशेष ज्ञान नहीं बस इसलिये जिज्ञासावश पूछ रहा हूँ.
इसे किसी भी तरह विवाद का विषय न मानें. बस एक जिज्ञासा है जानने की.
मैं भी समीरलाल जी से सहमत होते हुए प्रार्थना करता हूँ कि न्यायपालिका कानजी भाई जैसे सभी पीड़ितों के साथ न्याय करे।
समीर भाई, यह न्यायपालिका में दखल नहीं, बल्कि सरकार के मुखिया की संवेदनशीलता का सवाल है।
आपके मोदी के उल्लेख को मैं भी कटाक्ष ही मान रहा था, जब तक खुलासा दिया। वैसे, बदलाव तो प्रणाली में होना चाहिए, और ऐसे उदाहरण ही प्रणाली में बदलाव प्रेरित कर सकते हैं।
आलोक
बात केवल गुजरात की नहीं है, ऐसा पूरे देश भर में है। जेलों में सजा भोग रहे मानसिक रोगों से ग्रस्त ऐसे कैदियों बहुत बड़ी संख्या है।