Friday 29 June, 2007

स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो...

जीवन में कुछ ऐसी अवस्थाएं आती हैं, जब स्मृति का लोप होने लगता है, बुद्धि का नाश होने लगता है। वैसे गीता में इसकी कुछ और भी वजहें बताई गई हैं।
ध्यायतो विषयान् पुंस: संगस्तेषूपजायते।
संगात्संजायते काम: कामात्क्रोधोञंभिजायते।।
क्रोधाद्भवति सम्मोह: सम्मोहात्स्मृति विभ्रम:।
स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति।।
जब भी किन्हीं वजहों से स्मृति विभ्रमित होने लगे, बुद्धि का नाश होने लगे तो उसे वापस लाने का मेरे पास एक आजमाया हुआ सूत्र है। रामचरित मानस की इस शिव वंदना को जिस दिन आप कंठस्थ कर लेंगे, उसी दिन आपकी स्मृति का लोप होना थम जाएगा। तो आइए, इसका पारायण पाठ करें...
नमामिशमीशान निर्वाण रूपं।
विभुं व्यापकं ब्रह्म वेदस्वरूपं।।
निजं निर्गुणं निर्किल्पं निरीहं।
चिदाकाशमाकाशवासं भजेहं।।
निराकारमोंकारमूलं तुरीयं।
गिरा ज्ञान गोतीतमीशं गिरीशं।।
करालं महाकाल कालं कृपालं।
गुणागार संसारपारं नतोहं।।
तुषाराद्रि संकाश गौरं गंभीरं।
मनोभूत कोटि प्रभा श्री शरीरं।।
स्फुरन्मौलि कल्लोलिनी चारु गंगा। लसद्भालबालेंदु कंठे भुजंगा।।
चलत्कुंडलं भ्रू सुनेत्रं विशालं। प्रसन्नाननं नीलकंठ दयालं।।
मृगाधीशचर्माम्बरं मुण्डमालं। प्रियं शंकरं सर्वनाथं भजामि।।
प्रचंडं प्रकृष्टं प्रगल्भं परेशं। अखंडं अजं भानुकोटिप्रकाशं।।
त्रय:शूल निर्मूलनं शूलपाणिं। भजेहं भवानीपतिं भावगम्यं।।
कलातीत कल्याण कल्पान्तकारी। सदा सज्जनानन्ददाता पुरारी।।
चिदानंदसंदोह मोहपहारी। प्रसीद प्रसीद प्रभो मन्मथारी।।
न यावद् उमानाथ पादारविन्दं। भजंतीह लोके परे वा नराणां।।
न तावत्सुखं शांति सन्तापनाशं। प्रसीद प्रभो सर्वभूताधिवासं।।
न जानामि योगं जपं नैव पूजां। नतोहं सदा सर्वदा शंभु तुभ्यं।।
जरा जन्म दु:खौघ तातप्यमानं। प्रभो पाहि आपन्नमाशीश शंभो।।
छात्र जीवन में मेरे एक मित्र आदित्य बाजपेयी इसको इतनी लय-ताल में सुनाते थे कि मैं इसकी ध्वन्यात्मकता से अभिभूत हो जाता था। वो ध्वनि बराबर मेरे मन में गूंजती रहती थी। तो इसे एक दिन मैंने रामचरित मानस से खोज निकाला और अब आपके सामने प्रस्तुत कर रहा हूं। इसके लिए आपके आस्तिक होने की जरूरत नहीं है। बस इसकी ध्वन्य़ात्मकता का आनंद लीजिए और देखिए कि कैसे आपकी खोई स्मरण-शक्ति वापस आने लगती है।

Thursday 28 June, 2007

फर्क भीमराव और पंडित जी का

भूमि के राष्ट्रीयकरण की बात करते हुए एक संदर्भ छूट गया था। वो यह कि भूमि के राष्ट्रीयकरण की बात सबसे पहले बाबा साहब डॉ. भीमराव अंबेडकर ने की थी। ये तथ्य मुझे आज ही सुबह गोरखपुर के एक मित्र अशोक चौधरी ने फोन पर बताया। बाबा साहब ने व्यापक भूमि सुधारों पर जोर दिया था। उनका कहना था कि कृषि जोत का छोटा या बड़ा होना उसके आकार से नहीं, बल्कि इससे तय होता है कि उस पर कितनी सघन खेती हो रही है, श्रम और दूसरी लागत सामग्रियों समेत उस पर कितना उत्पादक निवेश किया गया है। उन्होंने कृषि में भारी पूंजी निवेश के साथ ही औद्योगिकीकरण पर जोर देते हुए कहा था कि इससे कृषि से अतिरिक्त श्रमिकों को खपाने में मदद मिलेगी।
बाबा साहब ने भूमि के राष्ट्रीयकरण की वकालत की थी और कहा था कि जोतनेवालों के समूह को जमीन लीज पर दी जाए और कृषि को आगे बढ़ाने के लिए उन्हें को-ऑपरेटिव बनाने के लिए प्रोत्साहित किया जाए। बॉम्बे लेजिस्लेटिव काउंसिल में 10 अक्टूबर 1927 को बहस में हस्तक्षेप करते हुए उन्होंने कहा था, “कृषि समस्या का समाधान खेत के आकार को बढ़ाने में नहीं, बल्कि सघन खेती में है जिसमें ज्यादा पूंजी और श्रम को नियोजित किया जाए ...बेहतर तरीका ये है कि को-ऑपरेटिव खेती शुरू की जाए और छोटी-छोटी जोत के किसानों पर संयुक्त खेती के लिए दबाव बनाया जाए।”
अंबेडकर संवैधानिक सरकारी समाजवाद और मजबूत केंद्र के पक्षधर थे। वो एक ऐसा आर्थिक कार्यक्रम चाहते थे, जिसमें भूमि का राष्ट्रीयकरण किया जाए और सामूहिक खेती के लिए इसका वितरण किसानों में कर दिया जाए।
आधुनिक भारत पर वे पंडित जवाहर लाल नेहरू के विचारों से सहमत तो थे, लेकिन राष्ट्र निर्माण के बारे में नेहरू से अलग विचार रखते थे। नेहरू ‘भारत की खोज’ में यकीन रखते थे। उनको लगता था कि भारत पहले से ही एक महान राष्ट्र है जिसको पुनर्स्थापित करने की जरूरत है। इसके विपरीत बाबा साहब अंबेडकर का कहना था कि भारत को एक राष्ट्र मानना दरअसल एक भारी भ्रांति का पीछा करने जैसा है। हम अभी तो एक राष्ट्र बनने की कोशिश भर कर सकते हैं। जाहिर है जब नेहरू पीछे देख रहे थे, तब अंबेडकर आगे बढ़कर नए राष्ट्र के निर्माण के तानेबाने तलाश रहे थे। नेहरू प्रगतिशील दिखते हुए भी अतीतजीवी थे, जबकि अंबेडकर अतीत के अभिशाप से भारत को मुक्त कराने की जद्दोजहद में लगे थे।

चलो अब शंख बजाएं

इतना कह चुकने के बाद अब आखिरी शंख बजाया जाए, संघर्ष का नहीं, समापन का। बात को वैसे अभी और फैलाया जा सकता था, लेकिन उपसंहार जरूरी है। इंटरनेट पर तो भारत के कृषि सवाल पर सामग्रियों का अंबार अटा पड़ा है। और, ऐसा नहीं है कि मैंने कोई अनोखी चीज लिख दी है। कई साल पहले सिद्धार्थ दुबे ने प्रतापगढ़ के बाबा का पुरवा गांव के दलित किसान रामदास, उनकी पत्नी प्रयागा देवी, उनके बेटे श्रीनाथ और नाती हंसराज की सच्ची कहानी के जरिए शानदार किताब (Words Like Freedom : Memoirs of an Impoverished Indian Family 1947-1997) लिखी थी, जिसका पेपरबैक संस्करण हार्पर कॉलिंस ने साल 2000 में छापा था।
हम सौभाग्यशाली हैं कि हमने भारत में जन्म पाया है। हमारे पास दुनिया की सबसे उर्वर जमीन है। हमारे यहां कृषि-योग्य जमीन 55 फीसदी (32.90 करोड़ हेक्टेयर में से 18.20 करोड़ हेक्टेयर) है, जबकि अमेरिका में ये 19 फीसदी, यूरोप में 25 फीसदी और अपने ‘बैरी’ पड़ोसी पाकिस्तान में तो 28 फीसदी ही है। चीन के पास भी हमसे कम कृषि-योग्य जमीन है। लेकिन दिक्कत ये है हमारे नीति-नियामकों को ये बात परेशान नहीं करती कि हम अपने इस एडवांटेज का फायदा नहीं उठा पा रहे हैं। वो ज्यादा से ज्यादा कृषि को देशी-विदेशी कॉरपोरेट सेक्टर के मुनाफे को बढ़ाने के साधन के रूप में ही देख रहे हैं। ये नहीं देख रहे कि इससे कैसे 60 करोड़ लोगों की मायूस जिंदगी में मुस्कान लायी जा सकती है।
क्या ये संभव नहीं है कि हमारी जमीन जिस तरह झगड़ों में पड़ी हुई है, टुकड़ों में बंटी हुई है, उसे देखते हुए देश की सारी जमीन का राष्ट्रीयकरण कर दिया जाए और उन्हें ही जमीन दी जाए जो वाकई खुद खेती करते हों। वैसे भी जमीन राष्ट्रीय संपदा है। जिनके पास आज दसियों-हजारों एकड़ जमीन है, उनके बाप-दादा ने इसे अपनी मेहनत से नहीं, अंग्रेजों की दलाली से हासिल किया था। पहले चरण में सीलिंग कानूनों को धता बताते हुए डय्या और मांडा जैसी तमाम रियासतों से लेकर वो नेता जो सैकड़ों-हजारों एकड़ जमीन लिए बैठे हैं, उनकी जमीन का राष्ट्रीयकरण किया जाना चाहिए। यकीनन, ऐसा कदम बहुत बडा भूचाल ला सकता है। लेकिन सरकार चाहे तो इस भूचाल का अंदाजा कृषि आय को टैक्स के दायरे में लाकर लगा सकती है।
आप भी मानेंगे कि हर युग के कुछ कार्यभार होते हैं, जिनके लिए पूरी ताकत झोंक देने की जरूरत होती है। प्रकृति का भी यही नियम है। पतझड़ में पेड़ों से गिरी पुरानी पत्तियों को या तो हवा उड़ा ले जाती है या वो वहीं दबकर खाद बन जाती हैं। प्रकृति मृत पदार्थों को सोख लेती है ताकि हमारी धरती शाश्वत ताजगी और जवानी से भरी रहे। लाशों को ढोते रहने से कोई फायदा नहीं, उन्हें जलाकर राख बनाना जरूरी है क्योंकि लाशों से भूत निकलते हैं, जबकि राख से फीनिक्स निकलता है जो सब कुछ नया करने का माद्दा रखता है।
इतना सारा लिखने का मेरा मकसद बस इतना था कि जब हम भ्रष्टाचार के बारे में सोचें, सांप्रदायिकता के बारे में सोचें, अपनी और राष्ट्र की समस्याओं के बारे में सोचें तो कृषि समस्या के बारे में भी सोचें क्योंकि उसमें देश की बहुत सारी समस्याओं के निदान की कुंजी है। मैं ये भी मानता हूं कि किसान-मजदूर, छात्र-नौजवान ही बदलाव नहीं लाते। हमारे-आप जैसे पढ़ने-लिखने वाले लोग साफ यथार्थपरक नजरिया बना लें तो वह भी बहुत बड़ी ताकत होती है। 30 करोड़ का मध्यवर्ग अगर देशी-विदेशी कंपनियों के लिए बेहद बड़ा बाजार है तो यही मध्यवर्ग कम से कम सोच के स्तर पर एक नई लहर पैदा कर सकता है।
अगर दस लेखों की कड़ी कल का कर्ज से मैं चंद लोगों को ही सही, कृषि और भूमि सुधार के मसले पर सेंसिटाइज कर पाया हूं, तो अपनी मेहनत को सार्थक समझूंगा। बाकी आप सभी समझदार हैं। वैसे, शायद आपको पता ही होगा कि इस साल 2 अक्टूबर को गांधी जयंती (अंतरराष्ट्रीय अहिंसा दिवस) के मौके पर भूमिहीनों को भूमि देने की मांग को लेकर देश भर के लाखों गरीब दिल्ली कूच करनेवाले हैं। .... समाप्त

Wednesday 27 June, 2007

खंड-खंड जमीन पर जारी है पाखंड

कर्ज माफी के मेले चल ही रहे थे कि नब्बे के दशक से देश में उदारीकरण, निजीकरण और ग्लोबीकरण की आंधी आ गई। हर चीज की तरह कृषि को भी आंखों पर परदा डालकर बाजार में ला खड़ा किया गया। सरकार की नजर में भूमि सुधारों के मायने बदल गए। लेकिन लिप-सर्विस जारी रही। अभी साल भर पहले ही 18 अप्रैल 2006 को प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने सीआईआई (कनफेडरेशन ऑफ इंडियन इंडस्ट्री) के सालाना सम्मेलन में कहा था, “भूमि सुधार भले ही स्टेट सब्जेक्ट हो, लेकिन एक राष्ट्रीय प्राथमिकता है, जिस पर राष्ट्रीय सर्वसम्मति की जरूरत है।” देश भर में खंड-खंड होती जमीन का हवाला देकर राष्ट्रीय प्राथमिकता और सर्वसम्मति का ये पाखंड जारी है।
इस पाखंड के पीछे खेती का कॉरपोरेटाइजेशन अभियान चल रहा है। सालों साल से कई कंपनियां कई राज्यों में कांट्रैक्ट फार्मिंग कर रही हैं। आईटीसी समूह आंध्र प्रदेश में तंबाकू की खेती कर रहा है। पेप्सिको पंजाब, महाराष्ट्र, कर्नाटक और पश्चिम बंगाल तक में आलू, मिर्च और धान की खेती कर रही है। मित्तल समूह ने ब्रिटेन के बैंक रॉथ्सचाइल्ड के साथ मिलकर भारत में बड़े पैमाने पर कई फसलों की खेती शुरू कर दी है। तमिलनाडु सरकार ने एक हजार एकड़ बंजर जमीन कंपनियों को कपास, फूलों, सब्जियों और मसालों की खेती के लिए 30 साल की लीज पर दे दी है। गुजरात सरकार ने भी 2000 एकड़ से ज्यादा बंजर जमीन कंपनियों को लीज पर दी है।
लेकिन किसानों की जमीन लेने में सरकारों को काफी परेशानी हो रही है। इसके उदाहरण हैं नंदीग्राम और सिंगूर। पहले भी सड़कें वगैरह बनाने के लिए सरकार को काफी थुक्का-फजीहत झेलनी पड़ती रही है। इसकी बड़ी वजह है खेती की जमीन पर मालिकाने की स्थिति का साफ न होना। गांवों में हालत ये है कि किसान को अपनी ही जमीन के मालिकाने का प्रमाणपत्र पाने के लिए पटवारी की जेब में पांच सौ से लेकर हजार रुपए डालने पड़ते हैं।
छह साल पहले कंसल्टेंसी फर्म मैकेंजी ग्लोबल ने भारत में जमीन के स्वामित्व पर विशद अध्ययन किया था। उसने ‘इंडिया : द ग्रोथ इम्परेटिव – अंडरस्टैंडिंग द बैरियर्स टू रैपिड ग्रोथ एंड एम्प्लॉयमेंट’ शीर्षक से तीन खंडों में पेश की गई अपनी रिपोर्ट में कहा है कि भारत की 90 फीसदी जमीन कानूनी पचड़ों में फंसी हुई है। पता ही नहीं कि इनका असली मालिक कौन है। जमीन-जायदाद के बाजार की इस विसंगति के चलते भारत की आर्थिक विकास दर को हर साल 1.3 फीसदी का नुकसान हो रहा है। मजे की बात ये है कि हमारी सरकारों ने भू-रिकॉर्ड को दुरुस्त किए बगैर उनका कंप्यूटरीकरण भी शुरू कर रखा है।
इधर केंद्र सरकार ने अब भूमि शेयर कंपनियों का नया शगूफा छोड़ दिया है। इसके तहत किसान किसी कंपनी को अपनी जमीन लीज पर दे सकते है, जिसके बदले उन्हें जोत के आकार के हिसाब से कंपनी के शेयर मिल जाएंगे यानी कंपनी के स्वामित्व में उनकी अंशधारिता हो जाएगी। इन शेयरों पर किसान को कंपनी के लाभ में हिस्सा मिलेगा। सरकार कहती है कि किसान चाहें तो वो अपनी जमीन के साथ-साथ कंपनी की भी जमीन निश्चित किराया देकर खेती के लिए ले सकते हैं। प्रस्ताव के मुताबिक कंपनी की चुकता पूंजी का 25 फीसदी हिस्सा ही कॉरपोरेट सेक्टर का होगा, बाकी 75 फीसदी इक्विटी पूंजी जमीन के रूप में किसानों की होगी। कंपनी अगर डूब गई तो किसान को उसकी जमीन वापस मिल जाएगी। खैर, इसमें और भी कई पेंच हैं। लेकिन है ये अभी प्रस्ताव के ही स्तर पर। वैसे, जो शेयर बाजार में पैसे लगाते हैं, उनको अच्छी तरह पता है कि भले ही रिलायंस के 23 लाख शेयरधारक हों, लेकिन मालिक तो अंबानी परिवार ही है। ऐसे में अपनी जमीन देकर शेयरधारक बन गए किसान को पंजीरी ही मिलेगी, शांति, सुख और समृद्धि का प्रसाद नहीं। जारी...

नहीं मालूम, कहां ठहरा है पानी

दुष्यंत कुमार ने लिखा था : यहां तक आते-आते सूख जाती हैं कई नदियां, हमे मालूम है पानी कहां ठहरा हुआ होगा। लेकिन ईमानदारी से मुझे नहीं मालूम कि पानी कहां ठहरा हुआ है। इसे 1857 के पहले स्वाधीनता संग्राम में किसानों की भागीदारी का असर कहिए या बाद में लगातार होते रहे किसान आंदोलनों का, हमारे नेताओं को आजादी से पहले ही भूमि सुधारों का महत्व समझ में आ गया था। यही वजह है कि आजादी के तुरंत बाद वरिष्ठ कांग्रेसी नेता जे सी कुमारप्पा की अगुआई में बनी कृषि सुधार समिति ने सिफारिश की थी कि खेती से सभी बिचौलियों को खत्म कर दिया जाए और जमीन जोतनेवालों को दे दी जाए; विधवाओं, नाबालिग और अपाहिजों के अलावा बाकी लोगों के लिए ज़मीन को बटाई पर देने पर रोक लगा दी जाए; छह साल से किसी जमीन पर खेती करनेवाले हर कास्तकार को उसका मालिक बना दिया जाए; कास्तकार को भूमि ट्राइब्यूनल द्वारा तय वाजिब कीमत पर जमीन को खरीदने का अधिकार दिया जाए और कृषि अर्थव्यवस्था ऐसी होनी चाहिए जिससे किसानों को विकास का मौका मिले।
पहली पंचवर्षीय योजना से ही जमींदारी उन्मूलन का सिलसिला शुरू हो गया। ज्यादातर राज्यों ने इस बाबत कानून बना दिए। 1948 में शुरुआत मद्रास से हुई। धीरे-धीरे सारे राज्यों में जमींदारी, महलवारी, जागीर, ईनाम जैसी व्यवस्थाएं खत्म कर दी गईं। नतीजतन करीब 46 लाख किसान जमीन के मालिक बन गए। उनकी सामाजिक और माली हालत में सुधार हुआ। राज्य सरकारों को खेती की जमीन से मालगुजारी भी पहले से ज्यादा मिलने लगी। साथ ही भूमि सुधार कानूनों को संविधान की नौवीं अनुसूची में डाल दिया, ताकि कोई इन्हें अदालत में चुनौती न दे सके। बल्कि नेहरू के जमाने में नौवीं अनुसूची भूमि सुधार कानूनों को अदालत की समीक्षा से बाहर रखने के लिए ही लाई गई थी।
भूमि सुधारों के अगले चरण में 1960 के दशक के दौरान सीलिंग कानून बना दिए गए। इसके लिए संविधान के निदेशक सिद्धांतों का सहारा लिया गया जिसमें कहा गया है कि संसाधनों का मालिकाना इस तरह तय किया जाना चाहिए जिससे आम हितों के खिलाफ संपत्ति और उत्पादन के साधन कुछ लोगों के हाथों में केंद्रित न हो जाएं। जब भूमि सुधार कानूनों से संपत्ति के मौलिक अधिकार को तोड़ने की बात हुई तो सरकार ने 42वां संविधान संशोधन लाकर संपत्ति के अधिकार को मौलिक अधिकारों की सूची से हटाकर महज एक वैधानिक अधिकार बना दिया।
आप कह सकते हैं कि जोतने वालों को जमीन देने के लिए इससे ज्यादा पुख्ता कानूनी इंतजाम और क्या हो सकते थे और अगर हकीकत में ये लागू नहीं हो सके तो समस्या इसके क्रियान्वयन की है। लेकिन भूमि सुधार कानूनो पर अमल न होने की समस्या की जड़ हमारे कानून में ही है। और इसका बीज ब्रिटिश शासन में ही 1935 में तब पड़ गया था जब तत्कालीन भारत सरकार ने भूमि को ‘स्टेट सब्जेक्ट’ बना दिया। आजादी के बाद अपना संविधान बना तो धारा 31-ए, बी, सी के तहत कृषि सुधारों का जिम्मा राज्यों को ही दिया गया। इस नीति में एक मूलभूत अंतर्विरोध था। वह यह कि अगर कृषि सुधारों की राष्ट्रीय नीति राष्ट्रीय स्तर पर केंद्र सरकार तय कर रही थी तो क्या इस नीति का अमल राज्यों पर छोड़ देना उचित था, ये अच्छी तरह जानते हुए कि राज्यों की राजनीतिक सत्ता पर ताकतवर भूस्वामियों की लॉबी का नियंत्रण है?
असल में कांग्रेस ने कृषि को लेकर शुरू से ही दोगली नीति अपनाई। एक तरफ तो इसने सिंचाई, कृषि अनुसंधान और मशीनीकरण के जरिए गांवों की समस्या हल करने की कोशिश की, दूसरी तरफ इसने भूमि सुधारों के अपने ही एजेंडे को लागू करने के लिए आधी-अधूरी कोशिश की क्योंकि ऐसा करने से किसानों का दमन करनेवाले सामंती और व्यापारिक बिचौलियों के हितों को चोट लगती।
जन संघर्ष तेज हो गए तो इसने थोड़ा कुछ किया। फिर मामला शांत होते ही कदम पीछे खींच लिए। यह साठ के दशक के उत्तरार्ध में फैले नक्सल आंदोलन का ही असर था कि इंदिरा गांधी ने राजाओं-महाराजाओं के प्रिवी पर्स खत्म कर दिए, गरीबी हटाओ का नारा दिया। नक्सल आंदोलन का निर्ममता से दमन किया गया, लेकिन बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया गया, उन्हें ग्रामीण इलाकों में शाखाएं खोलने का निर्देश दिया गया ताकि किसानों को महंगी लागत सामग्रियों के लिए आसान कर्ज मुहैया कराया जा सके। फिर किसान आंदोलन तेज हुए तो कर्ज माफ करने के मेले भी लगाए गए। जारी...

Sunday 24 June, 2007

तुम जीती रहोगी, जीता जी!

अनिल भाई, जीता जी की मृत्यु हो गई। कैंसर से, आज ही सुबह, जालंधर में। यदि संभव हो तो आप उनके बारे में भी कुछ लिखें, आखिर- मेरी जानकारी के मुताबिक- उन्हें आंदोलन की धारा में लाने वाले आप ही रहे हैं... रात के लगभग एक बज रहे हैं। शनिवार से रविवार हुए अभी एक घंटे भी नहीं बीते कि ब्लॉग देखा, कमेंट में चंदू भाई की ये सूचना पढ़ी तो मुझे लगा कि लिखने में कुछ भी विलंब किया तो जीता जी मुझे झड़प देंगी। करीब सात साल पहले दिल्ली की लू भरी दोपहर में बस स्टैंड के पास जीता ने देखा था तो पास आकर छोटे भाई की तरह डांटते हुए पूछा, कैसे हो बीवी-बच्चों का ख्याल रखते हो कि वैसे ही लापरवाह हो।
हां! चंदू भाई, मैं ही वह शख्स हूं जो एक बेहद बहादुर जिंदादिल लड़की को क्रांतिकारी आंदोलन में लाने का जरिया बना था। जीता जी उस समय गोरखपुर के एक सम्मानित सिख परिवार की सामान्य लड़की थीं। लेकिन घर में उनका छोटा भाई ही नहीं, सभी उन्हें ही एक तरह से घर का मुखिया मानते थे। गजब की नेतृत्व क्षमता थी उनमें। जीता के दृढ़ रवैये के भीतर एक भावुक लड़की भी बसती थी जो किसी से बेहद प्यार करती थी, लेकिन प्यार में गद्दारी उसे कुबूल नहीं थी। ऐसी ही कोई चोट थी जिसने जीता को अंदर से झकझोर कर रख दिया था। तभी एक दिन गोरखपुर के एक साथी के यहां मेरी उनसे मुलाकात हुई। दूसरे साथियों ने उन्हें समझा दिया था कि दुख तुम्हें क्या तोड़ेगा, तुम दुख को तोड़ दो, बस अपनी आंखें औरों के सपने से जोड़ दो। मैंने तो जीता जी की क्रांतिकारी भावना को बस एक शक्ल दी थी, एक ठोस आकार दिया था। एक बार अपनी समझ से क्रांति को जज्ब करने के बाद जीता जी ने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। वैसे, जीता जी को भारतीय क्रांति की सही समझ पैदा करने में पंजाब के ऑपरेशन ब्लू स्टार और उसके बाद आम सिख परिवारों पर हुए जुल्मों का भी हाथ रहा।
जीता पूरी तरह हमारे साथ आ गईं। इंडियन पीपुल्स फ्रंट की प्रमुख जननेता बन गईं। जो गोरखपुर में रामगढ़ ताल परियोजना के आंदोलन से वाकिफ होंगे, उन्हें जीता कौर का नाम जरूर याद होगा। उस दौरान जीता जी इतनी साख बन गई थी कि पूर्वांचल के बाहुबली नेता वीरेंद्र शाही तक उन्हें देखकर खड़े हो जाते थे। जीता जी, इस परियोजना से विस्थापित हो रहे गांवों में इतनी लोकप्रिय हो गई थीं कि सैकड़ों जवान उन्हें बचाने के लिए पुलिस की लाठियां खाने को तैयार रहते थे।
जब मैं कुछ वजहों से पार्टी छोड़ने लगा तो जीता जी के चेहरे पर कोई शिकन नहीं थी। उन्होंने कहा कि अरे, आपने हमें इतना छोटा समझा कि अपनी दिक्कतें हमसे नहीं बताईं, एक बार बता दिया होता तो हम यकीनन उन्हें दूर कर देते। जीता जी का यही क्रांतिकारी विश्वास था कि एक दिन वो गोरखपुर से घर-परिवार छोड़कर क्रांति के मकसद को आगे बढ़ाने के लिए दिल्ली चली आईं।
उनके बारे में मुझे ज्यादा कुछ पता नहीं है। लेकिन इतना जरूर पता है कि ऐसी आत्मविश्वास से भरी कोई महिला मैंने आज तक नहीं देखी है। ज्यादा कुछ लिखने को नहीं है। लेकिन मैं जीता जी से ये वादा जरूर करना चाहूंगा कि क्रांतिकारी कभी मरते नहीं हैं, क्रांति के सपने कभी मरते नहीं है, क्रांति एक ऐसी धारा है जो कभी रुकती नहीं, कभी थमती नहीं। पाश के शब्दों में...
कत्ल हुए जज्बात की कसम खाकर
बुझी हुई नजरों की कसम खाकर
हाथों पर पड़ी हुई गांठों की कसम खाकर
हम लड़ेंगे साथी...
हम लड़ेंगे अपनी सजा कबूलने के लिए
लड़ते हुए मर जानेवालों की याद जिंदा रखने के लिए
हम लड़ेंगे साथी...

Friday 22 June, 2007

एक तो चोरी, ऊपर से जमींदारी!!

तथ्यों की दलदली जमीन पर दिमाग की गाड़ी धंसी जा रही है। इतिहास लिखू, अनुभव लिखूं या किसी रटी-रटाई सोच को दोहरा दूं। कोई एकल पैटर्न ही नहीं उभर रहा। कभी सोचता हूं कि कैसा नीरस विषय पकड़ लिया, न कमेंट, न अमेंट, न ही कोई आवाजाही। फिर सोचता हूं कि जब मैं किसी के लिखे पर कमेंट नहीं करता तो कोई मेरे लिखे पर क्यों कमेंट करे। फिर भी पांच-दस लोगों को आह-वाह तो कर ही देना चाहिए ना! खैर, हम सभी लोगों की अपनी दुनिया है, जिसमें मैं भी शामिल हूं। सब सहे, मस्त रहे के अंदाज में कामधेनु सरिया जैसा जीवन जीते हैं।
वैसे, सचमुच सोचता हूं कि क्या मतलब है इस तरह जमीन और कृषि के सवाल पर लगातार लिखते जाने का? फिलहाल तो मन को यही सोचकर दिलासा देना पड़ रहा है कि ये मेरे स्वाध्याय का हिस्सा है। लेकिन इसे स्वांत: सुखाय लेखन भी तो नहीं कह सकते है? खैर, चलिए आगे बढते हैं...
तो, मैं जिस महलवारी प्रथा की बात कर रहा था, उसी प्रथा के तहत हमारा गांव भी आता था। इस महलवारी व्यवस्था को शायद जजमानी और पट्टीदारी प्रथा भी कहा जाता था, जो भारत की पुरानी व्यवस्था का ही नैरंतर्य थी। बाबा के परबाबा गांव के लंबरदार थे, गांव भर से मालगुजारी जुटाकर साहब बहादुर तक पहुंचाते थे। आजादी के बाद जमींदारी से लेकर रैयतवारी और महलवारी व्यवस्था खत्म कर दी गई। लेकिन मेरे अपने बाबा भी मरते दम तक लंबरदार कहलाते रहे। वैसे, बताते हैं कि इलाके के नवाब के यहां वो सुबह-सुबह घंटा बजाने की ड्यूटी भी करते थे। कहने का मतलब है कि अवध के इलाके में गिनी-चुनी रियासतें पहले भी थीं और अब भी उनकी कोठियों के खंडहर नजर आ जाते हैं। लेकिन ज्यादातर किसानों में जमींदार होने का कोई गुरूर नहीं था। क्या ठाकुर, क्या ब्राह्मण सभी अपने खेतों में मजदूरों की तरह मेहनत करते थे।
लेकिन कभी-कभी मुझे लगता है कि आज की तारीख में जमींदारी का इलाके और समय से कोई लेनादेना नहीं है। खून-पसीना गलानेवाले किसान का कुछ भी हो जाए, सूखा पड़ जाए, अकाल पड़ जाए, चाहे घर में मरनी हो जाए, जमींदार को तो अपनी पूरी मालगुजारी चाहिए थी, जिसे उसे अंग्रेज बहादुर के दरबार तक पहुंचाना था। क्या यही सोच और तरीका आज भी हमारे इर्दगिर्द नहीं चल रहा है। मैं हिंदी अखबारों या न्यूज चैनलों में काम करनेवाले पत्रकार बंधुओं से पूछना चाहता हूं कि जब आपका बॉस आपसे कहता है कि मुझे कुछ नहीं सुनना है, मुझे आपका आउटपुट चाहिए तो आपको कैसा लगता है? आप देखते हैं कि बॉस से लेकर ऊपर के सभी चेलेचापट धेले भर का काम नहीं करते, बस अपने से ऊपर वाले को काम करते दिखाते रहते हैं, मीटिंग करते हैं, लडकियों की कंधा-मालिश करते हैं तो आपको कैसा लगता है? किसी दिन जनखे जैसी चाल चलनेवाला बॉस का कोई पट्ठा आपसे न्यूज का मतलब पूछता है और कहता है कि आप कहीं अपने लिए क्लर्की ढूंढ लीजिए तो आपको कैसा लगता है? सरकारी और कुछ प्राइवेट दफ्तरों में भी जमींदारी की यही संस्कृति चलती होगी, ऐसा मेरा अनुभव नहीं, अनुमान है।
वैसे, मेरे इलाके में जमींदारों का क्या हुआ, इस पर एक किस्सा सुनाना चाहता हूं। पुराने जमाने के जमींदार साहब एक किसान के खेत से मटर चुरा रहे थे। किसान ने उन्हें रंगेहाथों पकड़ लिया और मामला गांव की पंचायत में ले गया। पंचों ने पूछा तो जमींदार साहब ने कहा कि वो तो मटर के खेत में झाड़ा फिरने गए थे। इस पर किसान ने कहा, ‘मैंने इनको जहां से पकड़ा था, वहां तो सूखी टट्टी पड़ी हुई थी।’ इस पर जमींदार साहब का जवाब गौर करने लायक है। बोले – हम हई जमींदार, झूर (सूखी) हगी चाहे ओद (गीली)...तू सारे कैसे समझि पउब्या। तो पढ़नेवाले बंधुओं, शायद इसी को कहते हैं एक तो चोरी, ऊपर से जमींदारी। जारी...
(अगली किश्त सोमवार, 25 जून 2007 को)

और, बढ़ता गया बेगानापन

अभी तक इधर की बातें हुईं। अब जरा उधर की भी बात कर ली जाए, भूस्वामित्व के इतिहास में झांक लिया जाए। जमीन तो हमेशा राजा, बादशाह या सरकार की रही है और किसानों को उस पर खेती करने के लिए टैक्स देना पड़ा है। मनु ने उपज का छठां हिस्सा राजा को देने का नियम बनाया था, जो युद्ध जैसे विपत्तिकाल में एक चौथाई हो जाता था। हालांकि टैक्स का अंतिम फैसला राजा की मनमर्जी से ही होता था।
भारत में सदियों तक जमीन का मामला एकदम बिखरा-बिखरा रहा। अकबर के खजाना मंत्री टोडरमल ने पहली बार जमीन की कायदे से नापजोख कराई और उर्वरता के आधार पर जमीन को चार श्रेणियों में बांटकर उसकी मालियत तय कर दी। गौर करने की बात ये है कि टोडरमल ने जमीन के सर्वेक्षण की जो तौर-तरीके अपनाए, वो आज भी भारत के ज्यादातर हिस्सों में अपनाए जाते हैं। अकबर के शासन में किसानों से उपज का एक तिहाई हिस्सा बतौर टैक्स लिया जाता था। बाद में मुगलों से लेकर मराठा शासन तक में कमोबेश इसी अनुपात में टैक्स लिया जाता रहा। लेकिन मुगल शासन के पतन के दौरान देश में राजस्व खेती लागू की गई। इस प्रणाली में कभी-कभी किसानों को फसल का 9/10वां हिस्सा तक बादशाह को देना पड़ता था।
वैसे, आज हम खेती में जो कुछ भी देख रहे हैं, वह अंग्रेजों के पाप का नतीजा है। उन्हें खेती-किसानी की हालत से कोई फर्क नहीं पड़ता था। उनका मकसद सिर्फ इतना था कि उन्हें टैक्स देने से कोई किसान बच न पाए। देश में स्थाई बंदोबस्त या जमींदारी प्रथा लागू करने का पापी था लॉर्ड कॉर्नवालिस। उसने 1793 में इसकी शुरुआत पश्चिम बंगाल से की, जो बाद में उड़ीसा, उत्तर प्रदेश (आगरा और अवध को छोड़कर), बिहार, राजस्थान (जयपुर और जोधपुर को छोड़कर) समेत देश के कुल कृषि क्षेत्रफल के लगभग 57 फीसदी हिस्से पर लागू हो गई। इसके तहत रियासतों को गांव के गांव मुफ्त में दे दिए गए। बस, उनका जिम्मा ये था कि वो किसानों से टैक्स वसूल कर अंग्रेजों तक पहुंचाएं। किसान बटाईदार बना दिए गए। बिचौलिये जमींदारों और उनके कारिंदों की मौज हो गई।
अंग्रेजी शासन में भू-स्वामित्व की दूसरी प्रमुख व्यवस्था थी रैयतवारी, जिसे 1792 में मद्रास में और 1817-18 में बॉम्बे में लागू किया गया। इसमें रैयत या किसान को उसकी जमीन का मालिक माना गया। जब तक वह अंग्रेज कलेक्टर को समय पर तय मालगुजारी देता रहता था, उसकी जमीन को कोई आंच नहीं आ सकती थी। रैयतवारी व्यवस्था आज के महाराष्ट्र और कर्नाटक, तमिलनाडु, केरल, आंध्र प्रदेश, अधिकांश मध्य प्रदेश, असम और कमोबेश पूरे दक्षिण समेत देश के 38 फीसदी कृषि क्षेत्रफल में लागू थी। इस व्यवस्था की खासियत ये थी कि इसमें सरकार और किसानों के बीच कोई बिचौलिया नहीं था।
जमीन के मालिकाने की तीसरी प्रथा थी महलवारी। इसे विलियम बेनटिन्क ने साल 1820 में आगरा और अवध में लागू किया, जो 1840 तक मध्य प्रदेश के कुछ हिस्सों और संयुक्त पंजाब तक फैला दी गई। इसके तहत अंग्रेजों को जमीन का टैक्स पहुंचाने की जिम्मेदारी गांव (महल) के मुखिया की थी, जिसे लंबरदार कहा जाता था। किसान अपनी जोत के हिसाब से तय मालगुजारी (जो उपज का दो तिहाई से लेकर तीन चौथाई तक थी) लंबरदार के पास जमा कराते थे, जो इसे परगना के अंग्रेज कलेक्टर तक पहुंचाता था। महलवारी देश की कृषि जमीन के पांच फीसदी पर लागू थी।
भू-स्वामित्व की इन तीनों ही व्यवस्थाओं के तहत किसान कभी अपनी मर्जी के मालिक नहीं रहे। ब्रिटिश सरकार जिंदा रहने भर का न्यूनतम अनाज छोड़कर उनसे बाकी हिस्सा छीन लिया करती थी। लेकिन किसानों की सबसे खराब हालत जमींदारी वाले इलाकों में थी। इन इलाकों के किसानों ने खेती पर ध्यान देना भी बंद कर दिया। जमीन को लेकर उनमें एक बेगानापन सा भर गया। जारी...

Tuesday 19 June, 2007

और, तूँ हमार हड्डी चिचोरत हया

आप बीएसपी के दूसरे मतलब बिजली-सड़क-पानी से तो वाकिफ होंगे। लेकिन क्या आप जानते हैं कि एलपीजी यानी लिक्विफाइड पेट्रोलियम गैस का दूसरा मतलब क्या होता है? मैं भी नहीं जानता था। वो तो जमीन के सवाल पर इंटरनेट में गोता लगा रहा था तो इसका भेद खुला। लिबरलाइजेशन, प्राइवेटाइजेशन, ग्लोबलाइजेशन। बड़ा अफसोस हुआ कि नब्बे के दशक से देश में जारी इस सर्वव्यापी प्रक्रिया का संक्षिप्त रूप ही मुझे पता नहीं था। खैर, देश में जब से ये एलपीजी आई है, तभी से हम शहरी पढ़े-लिखे लोगों की नजर में जमीन हाउसिंग, पूंजी निवेश और इंफ्रास्ट्रक्चर बनाने का साधन भर रह गई है।
हम भूल गए हैं कि जमीन महज अनाज, दलहन और तिलहन उपजाने का साधन नहीं है, बल्कि इसका गहरा नाता आजीविका, समता, सामाजिक न्याय और मानवीय गरिमा से है। असल में जमीन सभी आर्थिक गतिविधियों का आधार है। इसका इस्तेमाल या तो देश के आर्थिक विकास और सामाजिक समता के लिए जरूरी परिसंपत्ति के रूप में किया जा सकता है या यह कुछ लोगों के हाथों में देश की आर्थिक आजादी का गला घोंटने और सामाजिक प्रगति को रोकने का साधन बन सकती है।
अंग्रेजों ने दो सौ सालों के शासन में भारत के साथ यही किया। वैसे, यही पर एक प्रसंग याद आ गया जो इलाहाबाद की बारा तहसील के मेरे एक मित्र शिवशंकर मिश्र ने सुनाया था। सन् साठ के आसपास की बात है। शिवशंकर के गांव के पास जवाहर लाल नेहरू एक जनसभा में भाषण दे रहे थे कि अंग्रेजों ने हमारा खून पी लिया, तभी भीड़ में से सुमेरू पंडित नाम के एक सज्जन ने चिल्ला कर अवधी में कहा – और तूँ हमार हड्डी चिचोरत हया। फिर तो सुमेरू पंडित को पकड़कर पुलिस वालों ने ऐसी धुनाई की कि पूछिए मत। खैर, इसके बाद सुमेरू इलाके में अपनी दबंगई के लिए सन्नाम (विख्यात) हो गए।
नेहरू के दौर से ही हमारी सरकारें आर्थिक सुधारों के लिए विश्व बैंक जैसी अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं के शरण में चली गईं। नब्बे के दशक से तो ये रफ्तार कुछ ज्यादा ही तेज हो गई है। आपको याद ही होगा कि साठ के दशक में इसी विश्व बैंक के निर्देशन में देश में हरित क्रांति लागू की गई थी। इसमें उसका साथ दिया था अमेरिका की बदनाम एजेंसी यूएसएड (यू एस एजेंसी फॉऱ इंटरनेशनल डेवलपमेंट) ने। खाद, बीज, कीटनाशक और ट्रैक्टर जैसी मशीनरी का इस्तेमाल इसके केंद्र में था। विश्व बैंक ने इनके आयात के लिए जमकर कर्ज मुहैया कराया। बहुत से अर्थशास्त्रियों ने भारत सरकार को इस ‘क्रांति’ के जोखिम से आगाह किया। लेकिन सरकार ने बिना कोई परवाह किए 1966-71 की चौथी पंचवर्षीय योजना में हरित क्रांति के लिए 2.8 अरब डॉलर की विदेशी मुद्रा मुहैया कराई, जो ठीक इससे पहले की तीसरी पंचवर्षीय योजना में समूचे कृषि क्षेत्र के लिए किए गए आवंटन के बनिस्बत छह गुना से भी अधिक थी।
हरित क्रांति ने यकीनन देश में खाद्यान्नों की उपलब्धता बढ़ा दी। भारत अनाज के आयातक से निर्यातक में बदल गया। लेकिन इसने हमारे किसानों को सब्सिडी, कर्ज, मशीनरी, हाई यील्डिंग वेरायटी के बीज और रासायनिक उर्वरकों जैसी बाह्य लागत सामग्रियों का मोहताज बना दिया। इस पर ज्यादा विवरण आप चौखंभा पर देख सकते हैं।
लेकिन यहां मैं वर्ल्ड रिसोर्सेज इंस्टीट्यूट के द्वारा 1994 में प्रकाशित एक अध्ययन रिपोर्ट का जिक्र करना चाहूंगा। इसके मुताबिक हरित क्रांति में अपनाए गए तौर-तरीकों से भारत का खाद्य उत्पादन 5.4 % बढ़ गया, लेकिन साथ ही इससे देश की तकरीबन 85 लाख हेक्टेयर यानी 6 % फसली जमीन अतिशय जलभराव, लवणता या क्षारीयता के चलते हमेशा-हमेशा के लिए बरबाद हो गई। हरित क्रांति से गेहूं का उत्पादन बीस सालों में दोगुना और धान का उत्पादन डेढ़ गुना हो गया। इसके तहत गन्ने और तंबाकू जैसी व्यावसायिक फसलों पर खूब जोर दिया गया। लेकिन ज्वार, बाजरा, सांवा और कोदो जैसे अनाजों का बंटाधार हो गया, जबकि ये अनाज गरीब किसानों-खेतिहर मजदूरों के मुख्य आहार हुआ करते थे। जारी...

ये कहां आ गए हम

देश के जीडीपी में कृषि का योगदान घटते-घटते 18 फीसदी पर आ गया है, जबकि देश की 60 फीसदी से ज्यादा आबादी अब भी कृषि से रोजी-रोटी जुटाती है। होना ये चाहिए था कि राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था में घटते योगदान के अनुपात में कृषि पर निर्भर आबादी का अनुपात भी घट जाता, लोग कृषि से निकलकर औद्योगिक गतिविधियों में शामिल हो जाते। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। ऐसा क्यों नही हुआ, ये पहला यक्ष प्रश्न है।
खैर, इसका नतीजा ये हुआ है कि जो योगदान 18 फीसदी लोगों को देना चाहिए था, उसमें 42 फीसदी अतिरिक्त आबादी फंसी हुई है। इसका प्रभाव-कुप्रभाव आप गांवों में ताश खेलते लोगों, गांव के पास के बाजार में सुबह से शाम तक पान और चाय की दुकानों पर मजमा लगाए लोगों में देख सकते हैं। खाली दिमाग शैतान का घर होता है तो यही खलिहर लोग आज अपहरण और वसूली जैसे अपराधों का रुख करने लगे हैं। उत्तरांचल की तराई से लेकर उत्तर प्रदेश और बिहार में बढ़ते अपहरण की एक वजह कृषि में बेकार उलझी पड़ी आबादी है।
लाल बहादुर शास्त्री ने जय जवान, जय किसान का नारा बहुत सोच-समझ कर दिया था। पूर्वी उत्तर प्रदेश के एक गरीब परिवार से आने के कारण शायद उनमें किसानों की बढ़ती दुर्दशा की अच्छी समझ थी। जानकार भी मानते हैं कि महत्व के लिहाज से देश के लिए कृषि का स्थान रक्षा के बाद दूसरे नंबर पर है। लेकिन संविधान में कृषि को राज्यों की सूची में डाल रखा गया है। और, कृषि के ‘स्टेट सब्जेक्ट’ होने के कारण इसमें केंद्र सरकार की स्थिति नीतिवचन या अनुदान जारी करने तक सीमित है। इसी बहाने अक्सर केंद्र सरकार कृषि के बुनियादी सवालों से कन्नी काट जाती है। हर साल के बजट में कृषि क्षेत्र के विकास का ढोल पीटनेवाले वित्त मंत्री कृषि को राज्यों की सूची से निकाल कर समवर्ती सूची में क्यों नहीं ला रहे, ये दूसरा यक्ष प्रश्न है।
वैसे, कृषि के राज्य-सूची में रहने के अपने फायदे हैं। वाममोर्चा इसी की बदौलत पश्चिम बंगाल में ऑपरेशन बर्गा और केरल में नए किस्म के भूमि सुधार लागू कर सका। ये अलग बात है कि उन्होंने भी जोतनेवालों को जमीन का बटाईदार बनाया, मालिक नहीं। और वो मालिक नहीं थे, इसीलिए नंदीग्राम और सिंगूर में कोहराम के हालात पैदा हो गए। और, ये सिलसिला थमने के बजाय बढ़ता ही जा रहा है। कृषि पर निर्भर 60 फीसदी आबादी के आधे से ज्यादा हिस्से (63% यानी 41 करोड़ लोगों) के पास एक हेक्टेयर (2.5 एकड़) से कम जमीन है, जबकि 10 हेक्टेयर (25 एकड़) से ज्यादा जमीन वाले किसानों की आबादी महज दो फीसदी है। भूमि सुधारों और जोतनेवालों को जमीन का नारा देनेवाले वामपंथी सरकारें कृषि के स्टेट सब्जेक्ट होने और बीसियों साल से सत्ता में रहने के बावजूद इस विसंगति को दूर क्यों नहीं कर पायीं, ये तीसरा यक्ष प्रश्न है।
मजे की बात ये है कि वामपंथी ही नहीं, वामपंथियों की जन्मजात दुश्मन विश्व बैंक जैसी अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थाएं भी भूमि सुधारों की पक्षधर हैं। ये अलग बात है कि उनके भूमि सुधार का मकसद भारत में कृषि जमीन का बाजार बनाना है, ताकि आसानी से उसकी खरीद-फरोख्त हो सके और बड़े कॉरपोरेट घराने जब चाहें तब आसानी से बेरोकटोक ढंग से हजारों एकड़ जमीन खरीद कर इस देश से लघु और सीमांत किसानों के ‘अभिशाप’ को खत्म कर सकें। वैसे, विश्व बैंक पंडित नेहरू के जमाने यानी पहली पंचवर्षीय योजना से ही खेती में घुसपैठ कर रहा है। तमाम सरकारी ट्यूबवेल उसी की आर्थिक सहायता से लगाए गए थे। यहां तक कि ट्यूबवेल की तरफ जानेवाली ज्यादातर सड़कों पर आप बोर्ड देख सकते हैं, जिन पर लिखा होता है, विश्व बैंक की आर्थिक सहायता से निर्मित। हरित क्रांति भी विश्व बैंक के संरक्षण में चलाई गई थी, लेकिन इसका कितना फायदा हुआ और कितना नुकसान, इसकी सच्चाई आप जानेंगे तो चौंक जाएंगे। जारी...

Monday 18 June, 2007

अच्छा नहीं है ये कौआ-रोर

वाकई बहुत दुखद है ये कौआ-रोर। शनिवार-इतवार का दिन मैं अपने कुटुंब के लिए रखता हूं। लेकिन नारद पर जिस तरह से कई दिनों से पोस्ट पर पोस्ट दागे जा रहे हैं, उससे मेरा ये नियम टूट गया। मुझे बचपन में घर के आंगन के कटहल के पेड़ की याद आ गई। इस पेड़ पर कौओं ने बसेरा बना रखा था। शाम सात-आठ बजते ही वहां न जाने कहां से कई सैकड़ा कौए जुट जाते थे और सुबह तक इतनी बीट कर देते कि पूरा आंगन गंधाने लगता था। खासकर बारिश के दिनों में तो वहां से निकलना दूभर हो जाता था। ये कौआ-रोर तब भी होता था, जब कोई कौआ मर जाता था। सैकड़ों कौए मरे हुए कौए के चारों तरफ रार मचाने लगते थे।
मुझे तो नारद पर मची ये रार सचमुच कौआ-रोर जैसी लगती है। प्रतिरोध पर छपी असगर वजाहत की कहानी के अंश पर बेंगानी बंधुओं की टिप्पणियां bad taste में थी और राहुल ने जो लिखा, वह भी उसी दर्जे का था। लेकिन नारद मुनि ने जो किया वो किसी भी ब्लॉग एग्रीगेटर को शोभा नहीं देता। पहले भी बहुत से चिट्ठों में संभल जाओ और निपट लेने की बातें होती रही हैं। इसे भी उसी तरह नजअंदाज कर दिया जाता तो मामला कब का दम तोड़ चुका होता। क्रिया-प्रतिक्रिया का ये दौर नहीं चलता। खैर, बड़ों की बात है, बड़े लोग निपटें। अभी जिस तरह ताल ठोंककर कहा जा रहा है कि मुझे भी निकाल दो तो मैं भी ऐसा कह सकता हूं, लेकिन मुझे इसका तुक नहीं नजर आता। अरे, अपनी उंगलियों और दिलो-दिमाग का ही दम आखिरकार काम आएगा। चंद ब्लॉगरों की अतिरिक्त टिप्पणियां तो फौरी उत्साहवर्धन ही करती हैं।
लेकिन आखिर में एक बात मैं जोर देकर कहना चाहता हूं कि आंदोलनकारियों (भले ही वो किसी भी विचारधारा के हों) को किसी न किसी बहाने गरियाने की जो अभद्र हरकत हिंदी ब्लॉग की दुनिया में चल रही है, वह जघन्य है, अमानवीय है, देशद्रोही है। इसे देखकर मेरे मन में बरबस उसी तरह के हिंसक भाव आ जाते हैं जैसे झूठ और प्रपंच में भरे नरेंद्र मोदी के रक्ताभ चेहरे को देखकर आते हैं। इति...
थोड़ा कहा, ज्यादा समझना...

Friday 15 June, 2007

हिम्मत है तो कर के दिखाओ

आगे बढ़ने से पहले दो बातें साफ कर देना चाहता हूं। एक तो मैं अर्थशास्त्री नहीं हूं, न ही किसी विकासशील अर्थव्यवस्था में ज़मीन के सवाल की समग्र समझ रखता हूं। बल्कि लेखों की इन कड़ियों के ज़रिए खुद भारत में ज़मीन के सवाल को समझने की कोशिश कर रहा हूं। इसके लिए मेरे पास एकमात्र स्रोत एकमात्र इंटरनेट पर मौजूद सामग्रियां हैं। इसलिए ज़मीनी कार्यकर्ताओं और इस मुद्दे पर जानकारी रखनेवाले ब्लॉगर बंधुओं से मेरी अपील है कि जहां भी मैं गलत डगर पर भटकता नजर आऊं, मुझे फौरन दुरुस्त कर दें।
दूसरी बात जमीन का सवाल भू-दक्षिणा या भू-दान का मसला नहीं है। निर्धन सुदामा को किसी श्रीकृष्ण का उपहार नहीं चाहिए, न ही किसी बिनोबा भावे का यज्ञ। असल में भूमि सुधार का सवाल गरीबों को दो जून की रोटी मुहैया कराने तक सीमित नहीं है। न ही ये महज वंचित तबकों के हक़ का मसला है। बल्कि ये देश के तेज़ औद्योगिक विकास की ज़रूरी शर्त है। ऐसा मेरा नहीं, नोबेल विजेता अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन का कहना है।
हैदराबाद में पिछले साल 93वीं इंडियन साइंस कांग्रेस की बैठक में अमर्त्य सेन ने चेतावनी भरे लफ्ज़ों में कहा था कि भारत तब तक दुनिया की प्रमुख ताक़त नहीं बन सकता, जब तक वह भूमि सुधारों की प्रक्रिया को पूरा नहीं करता। अगर भारत को चीन जैसी स्थिति हासिल करनी है, (उत्पादक) शक्तियों को मुक्त करना है तो देश में भूमि सुधारों को लागू करना बेहद ज़रूरी है। इस बैठक में खुद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी मौजूद थे। ज़ाहिर है मनमोहन सिह ने खुद अर्थशास्त्री होने के नाते अमर्त्य सेन की बातों के मर्म को अच्छी तरह समझा होगा। लेकिन ‘भक्तवत्सल’ मनमोहन ने अपनी आंखों पर उद्धव के निष्ठुर ज्ञान की ऐसी पट्टी बांध रखी है कि उन्हें इसमें अर्थ तो नज़र आया होगा, इंसानी प्रेम और गरिमा नहीं।
भूमि का सवाल सामाजिक न्याय के पैरोकारों को भी हजम नहीं होता, जबकि सामाजिक न्याय की पूर्णाहुति भूमि सुधारों के बिना हो ही नहीं सकती। मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू करनेवाले वी पी सिंह से पूछा जाना चाहिए कि क्या वो डय्या और मांडा रियासतों की हजारों एकड़ ज़मीन इलाके के कोल आदिवासियों और भूमिहीन दलितों को देने को तैयार हैं? उच्च शिक्षा में 27 फीसदी ओबीसी आरक्षण का शिगूफा उछालने वाले अर्जुन सिंह से पूछा जाना चाहिए कि क्या वे मध्य प्रदेश में अपनी रियासत की सैकड़ों एकड़ ज़मीन गरीब पिछड़ों को देने को तैयार हैं? और, दलितों के सम्मान की वाहक मायावती से पूछा जाना चाहिए कि राजा भैया और उनके बाप उदय सिंह को जेल की हवा खिलाकर उन्होंने यकीनन दलितों का हौसला बढाया है, लेकिन क्या भदरी रियासत की तीन-चार सौ एकड़ ग़ैरक़ानूनी ज़मीन को वो इलाके के पासियों में बांटने को तैयार हैं? कहां दस-बीस हज़ार नौकरियों के लिए लड़ते दो-चार लाख नौजवानों की बात और कहां मेहनत से जिंदगी जीने को लालायित करोड़ों बे-जमीन किसानों की बात। आप ही तय कीजिए कि सामाजिक न्याय को व्यापक आधार देने का रास्ता क्या हो सकता है।
वैसे, हमारे संविधान के तहत कृषि एक ‘स्टेट सब्जेक्ट’ है। इसीलिए मुख्यमंत्री मायावती चाहें तो उत्तर प्रदेश में भदरी जैसी रियासतों की जमीनें भूमिहीन किसानों में बांटकर देश के इतिहास में अपना नाम स्वर्णाक्षरों में लिखा सकती हैं। वो साबित कर सकती हैं कि वामपंथियों ने तो पश्चिम बंगाल और केरल में भूमि सुधार का कैरिकेचर ही लागू किया है, असली काम तो उन्होंने किया है।
लेकिन ये एक खूबसूरत ख्याल के अलावा कुछ नहीं है क्योंकि राजा भैया को जेल भिजवाना मौजूदा सत्ता के बांट-बखरे का निर्मम खेल है, जबकि उनकी जमीनें लेकर पासियों में बंटवाने से सत्ता के मौजूदा तंत्र में ही भूचाल आ सकता है। असल में कृषि का मामला इतना विस्फोटक है कि राज्यों से लेकर केंद्र सरकार तक इसके पास आने से घबराती है। इसीलिए वो दलितों और पिछड़ों को आरक्षण जैसे झुनझुनों में उलझाए रखना चाहती हैं। लेकिन सच तो ये है कि ओस की बूंदों से प्यास बुझाने की हिमायत करनेवाले लोग ही आरक्षण पर तालियां बजा कर नाच सकते हैं। वो चाहें तो सामने के तालाब से मन भर के पानी पी सकते हैं। लेकिन शर्त ये है कि इससे पहले इनको कई यक्ष प्रश्नों के उत्तर देने पड़ेंगे, जिसके लिए वो कतई तैयार नहीं हैं। जारी...

Thursday 14 June, 2007

हिसाब ज्यों का त्यों, कुनबा डूबा क्यों?

भूमि के सवाल पर मैं सोच ही रहा था कि प्रमोद का फोन आया। उनका कहना था कि इस जटिल सवाल पर प्यार से लिखना चाहिए। दिक्कत ये है कि इस मसले पर मेरी समझ और अध्ययन बहुत छिछला और अनुभवजन्य है। जैसे, जब कोई भूस्वामियों की जमीन छीनकर जोतनेवालों को जमीन देने की बात करता है तो मुझे उपहास करने का मन होता है। आखिर जिस देश में औसत जोत का आकार घटते-घटते तीन-साढ़े तीन एकड़ का रह गया हो, वहां जमीन के और टुकड़े करने का क्या तुक है। इलाके के इलाके छान मारिए, आपको 30-35 एकड़ से ज्यादा के किसान नहीं मिलेंगे। 10-12 एकड़ तक के किसान तो आपको हर तरफ रोते-बिलखते मिल जाएंगे। उनके लिए खेती घाटे का सौदा बन गई है। वो कोई ठीक-ठाक नौकरी पाकर शहर का रुख करना चाहते हैं। अच्छे दाम मिल जाए तो खेती की जमीन बेचकर निकल जाएंगे।
ये उत्तर भारत के किसानों का औसत हाल है। लेकिन औसत की बात चली तो एक साहूकार की कहानी याद आ गई। साहूकार महोदय अपनी बीवी और तीन बच्चों के साथ पास के शहर को जा रहे थे। रास्ते में एक नदी पड़ी। नांव का इंतजार किया। वो नहीं आयी तो साहूकार ने सोचा कि ये नदी तो घुसकर पार की जा सकती है। उन्होंने किनारे से लेकर बीच तक नदी की गहराई नापी – 1 फुट, 3 फुट, 7 फुट, 3 फुट और 1 फुट यानी नदी की औसत गहराई निकली 15/3=3 फुट। अब साहूकार ने अपने कुनबे में सभी की ऊंचाई नापी। वो खुद 5 फुट 10 इंच के, बीवी 5 फुट 2 इंच की, पहला बेटा 4 फुट 8 इंच का, छोटी बेटी 3 फुट 4 इंच की और गोद का बेटा 2 फुट का। उन्होंने गिना कि इस तरह कुनबे की औसत लंबाई हुई करीब 4 फुट ढाई इंच। यानी, कुनबे की औसत लंबाई नदी की औसत गहराई से पूरे 1 फुट ढाई इंच ज्यादा है। इसलिए कुनबा तो आसानी से नदी पार कर जाएगा। साहूकार बीबी-बच्चे समेत नदी में उतर गए। उन्हें तैरना आता था, सो नदी के उस पार पहुंच गए। बाकी सारा कुनबा बीच नदी में बह गया। साहूकार फेर में पड़कर कहने लगे – हिसाब ज्यों का त्यों, कुनबा डूबा क्यों...
देश में लघु और सीमांत किसानों के नाम पर, आर्थिक रूप से अव्यवहार्य जोत के आकार के नाम पर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से लेकर योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया ऐसे ही औसत का हल्ला मचाकर ‘कुनबे’ को डुबाने की तैयारी में लगे हुए हैं। उत्तर प्रदेश की बात करूं तो वी पी सिंह के खानदान से जुड़ी डय्या और मांडा रियासतों के पास अब भी हजारों एकड़ जमीन है। इनमें से कुछ जमीनें तो पीपल के पेड़ और कुत्तों तक के नाम पर है। राजा भैया उर्फ रघुराज प्रताप सिंह की भदरी रियासत के पास सैकड़ों एकड़ जमीन है। कालाकांकर रियासत का भी हाल यही है। विजयी नेताओं ने उत्तराखंड की तराई से लेकर उत्तर प्रदेश के तमाम इलाकों में सीलिंग कानून को धता बताते हुए सैकड़ों एकड जमीन हथिया रखी है। ऊपर से सहारा जैसे ग्रुप नए जमींदार बन गए हैं। एसईजेड की जमीनों को शुमार कर लें तो रिलायंस, टाटा, बजाज, महिंद्रा एंड महिद्रा, गोदरेज, आईटीसी और आदित्य बिड़ला जैसे समूह ढाई हजार से लेकर तीस हजार एकड़ जमीन के मालिक बनने की होड़ में लगे हुए हैं।
ये सच है कि जमींदारी उन्मूलन जैसे कदमों से दस-बीस हजार एकड़ के मालिक बड़े राजा-महाराजा और जमींदारों की औलादें विरासत में मिलने वाली संपत्ति से बेदखल हो गईं। लेकिन एक तो उनमें से बहुतों ने कानूनी नुक्तों का फायदा उठाकर आज भी सैकड़ों एकड़ जमीन पर कब्जा बरकरार रखा है। दूसरे उनके हाथ से निकली जमीन से ठीक उनके नीचे की हस्ती वाले किसानों को फायदा मिला, न कि जमीन जोतने वालों को। सरकारी आंकड़ा भले ही बताए कि पिछले पचास सालों में ज्यादातर बड़ी भू-जोतें गायब हो गई हैं, लेकिन सच्चाई कुछ और है। अंग्रेजों के राज में 1941 की जनगणना के मुताबिक उस साल अविभाजित हिंदुस्तान की आबादी 31 करोड़ 86 लाख 60 हजार 580 थी, जबकि इस समय इससे ज्यादा लोग ठीक से दो जून की रोटी भी नहीं जुटा पाते। जारी....

Wednesday 13 June, 2007

शाम से आंख में नमी-सी है

नगरों-महानगरों में हम सभी अपनी दुनिया में मस्त हैं। सांप्रदायिकता पर चिंतित होते हैं, मोदी को लेकर गालीगलौज तक कर डालते हैं, इराक में बुश की दादागिरी से खफा होते हैं, वेनेजुअला के राष्ट्रपति शावेज को शाबासी देते हैं, देश के भ्रष्टाचार पर परेशान होते हैं, यौन शिक्षा पर बहस करते हैं, चीनी-कम पर चर्चा करते हैं, व्यवस्था न बदलने पर शोक करते हैं। काम या दफ्तर से लौटकर घर पहुंचते हैं, खाते-पीते और सो जाते हैं। अगले दिन फिर चिंता और काम के चक्र में रम जाते हैं। दुख-सुख, चिंता, मोहमाया सबसे रू-ब-रू होते हैं, दार्शनिक भाव से जिंदगी जीते हैं। अवसाद की हालत में कभी-कभी अपने होने का मतलब तलाशने लग जाते हैं। वैसे, अवसाद की स्थिति होती है बड़ी मजेदार। मन नम-सा हो जाता है, अजीब शीतलता छा जाती है, निराशा में डूबते-उतराते हुए अक्सर स्थितिप्रज्ञता का भाव आ जाता है।
ऐसी ही अवस्था में मैं भी अपने होने का मतलब तलाशने बैठ गया। तलाश यहां से शुरू की कि जहां मैं इस समय अवस्थित हूं, उसका समग्र स्वरूप क्या है। मैं किसी द्वीप पर हूं या आबादी और कोलाहल से भरे किसी समूचे भूखंड का हिस्सा हूं। मुझे अहसास हुआ कि नगरो-महानगरों से गुजरता हुआ जहां मैं इस समय मौजूद हूं, हिंदुस्तान की जिस तकरीबन तीस करोड़ की आबादी में मैं शामिल हूं, वह तो चारो तरफ से सत्तर करोड़ से ज्यादा ऐसी आबादी से घिरी हुई है, जहां जिंदगी तड़क गई है, जहां दिलों में त्राहिमाम-सा मचा हुआ है। जहां के बारे में कभी गांव के मेरे हरवाह नरायण ने गाकर सुनाया था कि सूखि गइली नदियां, झुराय गइल पानी हो मुए ला चिरई, कैसइ होइहैं मोर गुजारा हो मुए ला चिरई।
मैं लौट गया करीब तीस साल पहले। पहुंच गया अवध इलाके के अपने एक गांव में। उस दौरान जाड़ों की तीन महीने की छुट्टियों में बाबा-अइया के पास गांव आया करता था। खेती किसानी का पूरा चक्र मजे में चलता था। चार जोड़ी बैल, तीन भैंस, पांच गाय और उनके कूदते-फांदते बच्चे। उपले बनाने के बाद बचा हुआ गोबर और घर का कचरा पास के घूरे में डाल दिया जाता। जो कई महीनों तक सड़ने के बाद खाद बन जाता। खाद की डेरियां खेतों में डाल दी जातीं। फिर जुताई के बाद वो खाद खेत की मिट्टी का हिस्सा बन जाती। मिट्टी की उर्वरता बढ़ाने के लिए कुछ खेतों में साल भर के लिए अरहर बो दी जाती। गरमियों के दिनों में खेतों में रात भर के लिए भेड़ भी बैठायी जाती। गड़ेरियों की भेड़ें पूरे सीजन के लिए बुक रहतीं। कभी इस खेतिहर के यहां, तो कभी उस खेतिहर के यहां। खेतों में लहलहाती फसल उगती। बाबा-अइया का ही नहीं, हमारा भी कलेजा हरियाली से भरे खेतों को देखकर बाग-बाग हो जाता।
हमारे दो हलवाह थे। नरायण और सुखराम। उनका पूरा परिवार हमारे यहां जुताई से लेकर बोवाई और गोबर पाथने तक का काम करता। इसके बदले में उन्हें खाना-खुराकी और मजदूरी के अलावा दो-दो बीघा खेत भी मिला हुआ था। इसके अलावा हमारे घर से पांच घर नाई, दो घर कुम्हार, दो घर कोंहार, एक घर बढ़ई और एक घर लोहार का जुड़ा हुआ था। ये लोग खुद को हमारी परजा (प्रजा) बताते थे। शादी-ब्याह हर मौके पर हाजिर रहते थे। फसल का एक हिस्सा ये लोग भी ले जाते थे। साथ ही खेत का टुकड़ा भी इन सभी को मिला हुआ था। नाइयों के परिवार तो हमारे संयुक्त परिवार की जमीन पर ही बसे हुए थे। जाड़ों में उनके घर के मर्द और बच्चे हमारे ओसारे में तपता सेंकने आते थे और खाने के समय ही बुलौवा आने पर ही वहां से उठते थे। शायद परजा की इस व्यवस्था को जजमानी कहते हैं, जो अंग्रेजों द्वारा 1793 में स्थायी बंदोबस्त के तहत लागू की गई जमींदारी व्यवस्था से अलग थी।
लेकिन अब सारा तानाबाना बिखर गया है। खेती-किसानी की आत्मनिर्भर व्यवस्था टूट गई है। न हरवाह रहे, न परजा। अच्छा है। सभी अपने हुनर और काम से शहरों में पैसा कमाने लगे हैं। जो जमीनें उन्हें हमसे मिली थीं, ज्यादातर उन्हीं के नाम हो गई हैं। नरायण ने शादी नहीं की थी। छोटा भाई जगदीन दिल्ली में बाबा जर्दा फैक्टरी में काम करता था। फिर न जाने क्यों लौटकर घर आ गया। नरायण को उसने अपने घर से अलग कर दिया। नरायण का पीठ का फोड़ा इतना बढ़ा कि वह एक दिन भगवान को प्यारा हो गया। सुखराम के दोनों भाई बुधिराम और मुन्नी लखनऊ में माल लदाई का काम करते थे। बुधिराम ने सुल्तानपुर में कुछ दिन रिक्शा भी चलाया। फिर बुधिराम को टीबी हो गई और मेरी ही उम्र का बुधिराम एक दिन मर गया। खबर सुनकर लगा कि मेरा भाई मर गया है क्योंकि उसकी मां का दूध मैंने भी पिया था। मां जब बाहर ट्रेनिंग करने गई थी और महीनों तक बाहर रहती थी तो उस दौरान बुधिराम की माई मुझे अपनी गोंद में सुलाकर कभी-कभी दूध पिला दिया करती थी। मुन्नीराम को एक बार दिसंबर के महीने में तेज बुखार आया। बताते हैं कि डिग्री-विहीन डॉक्टर साहब ने उसे रात में ठंड़े पाने से नहाने को कह दिया। फिर उसे ऐसा जूड़ी-बुखार आया कि वो भी सुबह होते-होते इस दुनिया से कूच कर गया।
अतीत की इन गलियों से गुजरते हुए मैं सोचने लगा कि हमारे गांवों की इतनी बदतर हालत क्यों हुई जा रही है। तभी मुझे याद आया कि महात्मा गांधी ने 1942 में अंग्रेजों भारत छोड़ो के साथ Land to Tiller यानी जमीन जोतनेवालों की...का नारा भी दिया था। फिर ऐसा क्यों है कि आज भी हमारे गांव के 43 फीसदी लोग या तो भूमिहीन हैं या उनके पास आधे एकड़ से भी कम जमीन है। और, मैं भूमि सुधार के सवाल का जवाब और प्रासंगिकता तलाशने में जुट गया। जारी...

Saturday 9 June, 2007

विजयी कौन, सुखी कौन

प्रमोद ने पूछा है कि ये बताइये, ये विजयी कहाए हुए जो दूसरों का लहू पिए जा रहे हैं इनकी कोई पहचान हुई? कहते हैं कि इनकी शिनाख़्त करने के चक्‍कर में रोज रोज़ थकते रहते हैं। तो, साफ बता दूं कि इनकी शिनाख्त को लेकर इधर मैं भी काफी कन्फ्यूज चल रहा हूं, क्योंकि आज मैं ऐसे तमाम ईमानदार लोगों को जानता हूं जो अपनी मेहनत और काबिलियत से शानदार कामयाबी तक पहुंचे हैं। जैसे, मुझे कुछ ही दिन पहले पता चला कि मेरे गांव के एक लड़के ने आईआईटी-बॉम्बे से बी.टेक. और एम.टेक करने के बाद आईआईएम-बैंगलोर से एमबीए किया और 28 साल की उम्र में ही मैकेंजी में एसोसिएट है। उसकी सालाना तनख्वाह 28 लाख रुपए है यानी महीने में 2.33 लाख की पगार। जिस गांव का मैं पहला शख्स था जो विदेश नौकरी करने गया था, वहां के एक पंडित जी अभी नीदरलैंड में और एक बाबू साहब जापान में नौकरी कर रहे हैं।
मेरे मां-बाप की पीढ़ी में लोग रिटायर होने पर पेंशन और दूसरे फंड के पैसों से घर बनवाते थे। आज तो 30-35 साल के लड़के-लड़कियां ही मुंबई और दिल्ली जैसे महानगरों में अच्छा-खासा फ्लैट खरीद ले रहे हैं। इनमें से शायद ही कोई ऐसा होगा, जिसके बारे में कहा जा सकता है कि उसकी विजय के पीछे दूसरों का लहू है। उदारीकरण के बाद आज निजी क्षेत्र में लाखों की तनख्वाह पाने वाले और कुछ हो सकते हैं, लेकिन भ्रष्ट नहीं। लेकिन यही बात आईएएस, आईपीएस, पीसीएस या इनकम टैक्स अफसरों के बारे में नहीं कही जा सकती। मंत्रियों, मुख्यमंत्रियों और नेताओं के बारे में यही बात नहीं कही जा सकती है। आईएएस, आईपीएस वगैरह की तनख्वाह 30-35 हजार से ज्यादा नहीं होती, लेकिन उनके महीने के खर्च लाखों में होते हैं, लखनऊ से लेकर मुंबई तक में शीशमहल होते हैं। जाहिर है ऊपर के लाखों-करोंड़ों भ्रष्टाचार से आते हैं। नेताओं की तो बात ही निराली है। मनमोहन सिंह जैसे चंद लोग भले ही ईमानदार हों, बाकी नेता तो पांच सालों में ही सात पुश्तों का इंतजाम कर लेते हैं। इनके बारे में निराला की लाइनें यकीनन सही हैं।
साहित्य और पत्रकारिता में भी कहा जा सकता है कि खुला भेद विजयी कहाए हुए जो लहू (हक) दूसरों का पिए जा रहे हैं। साहित्य में मठाधीशों की कृपा हो तो कहां-कहां के जुगाड़ू, शब्दों के परमुटेशन-कॉम्बीनेशन से खेलनेवाले अद्री-बद्री और देवी-वोबी, आधि-व्याधि महान कवि बन जाते हैं। अच्छी बात ये है कि कहानीकारों पर मठाधीशों का ठप्पा नहीं चलता। पत्रकारों में भी हालत यही है कि खुदा मेहरबान तो गधा पहलवान।
कॉरपोरेट सेक्टर में कोटा-परमिट राज खत्म होने के बाद भ्रष्टाचार काफी घट गया है। जोड़-तोड़ और नेटवर्किंग अब भी चलती है। अंबानी और सुब्रतो राय अब भी हैं, लेकिन नारायण मूर्ति से लेकर अजीम प्रेमजी अपनी काबिलियत से ही ऊपर उठे हैं। इसलिए संक्षेप में मैं यही सकता हूं कि क्योंकि उदारीकरण के बाद से देश में भ्रष्टाचार अपेक्षाकृत घटा है, इसलिए लहू पिये बिना भी विजयी होने के अवसर खुल गए हैं।

Friday 8 June, 2007

एक अल्हड़-अक्खड़ गुजराती गीत

एक गुजराती गीत, जिसके रचयिता है उमा शंकर जोशी। गीत का अंग्रेजी अनुवाद यहां देख सकते हैं। भोमियो एक गुजराती शब्द है, जिसका मतलब होता है गाइड। कल ब्लॉग पर भोमियो का लिंक लगाने के बाद मुझे इस गीत का पता चला।

भोमिया विना मारे भमवा'ता डुंगरा,
जंगल नी कुंज-कुंज जोवी हती;
जोवी'ती कोतरो ने जोवी'ती कंदरा,
रोता झरणा नी आँख ल्होवी हती.

सूना सरवरियानी सोनेरी पाळे,
हंसोनी हार मारे गणवी हती;
डाळे झुलंत कोक कोकिला ने माळे,
अंतर नी वेदना वणवी हती.

एकला आकाश तळे उभीने एकलो,
पड़घा उरबोलना झीलवा गयो;
वेराया बोल मारा, फेलाया आभमां,
एकलो अटूलो झांखो पड्यो.

आखो अवतार मारे भमवा डुंगरिया,
जंगल नी कुंज-कुंज जोवी फरी;
भोमिया भूले एवी भमवा रे कंदरा,
अंतर नी आँखड़ी ल्होवी जरी.

महाकवि निराला की एक गज़ल

मुझे नहीं पता कि तकनीकी रूप से ये गज़ल है या नहीं। लेकिन हम इसे पुराने दिनों में नुक्कड़ों और मंचों पर खूब गाया करते थे। शायद ये पंक्तियां आज भी बहुतों के दिलों को छू सकती हैं, अंतिम पंक्तियां खासकर कि खुला भेद विजयी कहाए हुए जो, लहू दूसरों का पिए जा रहे हैं।


किनारा वो हम से किए जा रहे हैं।
दिखाने को दर्शन दिए जा रहे हैं।।
जुड़े थे सुहागन के मोती के दाने।
वही सूत तोड़े लिए जा रहे हैं।।
ज़माने की रफ्तार में कैसा तूफां।
जिए जा रहे हैं मरे जा रहे हैं।।
छिपी चोट की बात पूछी तो बोले।
निराशा के डोरे सिये जा रहे हैं।।
खुला भेद विजयी कहाए हुए जो।
लहू दूसरों का पिए जा रहे हैं।।

Thursday 7 June, 2007

सड़क बनाओ, नक्सली मिटाओ

अगर आप देश के किसी दूरदराज के ऐसे इलाके में रहते हैं, जहां तक पक्की सड़क नहीं पहुंची है और वहां तक आप सड़क पहुंचाना चाहते हैं तो इसके लिए मेरे पास एक आजमाया हुआ नुस्खा है। आप खबर फैला दीजिए कि उस इलाके में नक्सली सक्रिय हो गए हैं। फिर आपसी झगड़े में हुई मौतों के बारे में खबर छपवा दीजिए कि ये नक्सलियों की करतूत है। ये सिलसिला कुछ महीनों तक चलाते रहिए। फिर देखिए कि वहां पक्की सड़क कैसे नहीं पहुंचती।
ये मेरा देखा-परखा नुस्खा है, बिहार से लेकर उत्तर प्रदेश के कई इलाकों का अनुभव मैं जानता हूं। और, शायद मेरी राय से प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी इत्तेफाक रखते हैं। तभी तो पीएमओ ने तीन राज्यों, आंध्र प्रदेश, उड़ीसा और झारखंड के नक्सल प्रभावित इलाकों को जोड़नेवाली 1,729 किलोमीटर की सड़क परियोजना को हरी झंडी दे दी है। ये सड़क आंध्र प्रदेश में विजयवाड़ा से शुरू होकर उड़ीसा में मलकागिरी, कोरापुट, रायगडा, गजपति, गंजम, कांधामाल, बोलांगीर, अनुगुल, संभलपुर, देवगढ़, क्योंझर और मयूरभंज होते हुए झारखंड में रांची तक पहुंचेगी। रास्ते में पड़नेवाले तमाम आदिवासी इलाके नक्सली हिंसा से प्रभावित हैं। इसमें से 1,219 किलोमीटर सड़क उड़ीसा में पड़ेगी और दो लेन की होगी, जिसका 104.5 किलोमीटर हिस्सा गांवों से होकर गुजरेगा। उड़ीसा की नवीन पटनायक सरकार का दावा है कि इससे आदिवासी इलाके राज्य के दूसरे इलाकों के करीब आ जाएंगे और उनका विकास होगा।
नक्शे से आप देख सकते हैं कि इस ‘कॉरीडोर’ से एक और नक्सल प्रभावित राज्य छत्तीसगढ़ सटा हुआ है। इसलिए वहां के भी आदिवासी इलाकों को इससे जोड़ने में शायद ज्यादा देर न लगे। इसके बाद किसी दिन महाराष्ट्र के गढ़चिरौली और मध्य प्रदेश के बालाघाट, मांडला, डिनडोरी और सिधि इलाकों को भी इस कॉरीडोर से जोड़ दिया जाएगा। इस अभियान के पूरा होने पर नक्सल प्रभावित इलाकों तक विकास की गाड़ी पहुंचे या न पहुंचे, अर्द्धसैनिक बलों की गाड़ियां जरूर आसानी से पहुंचने लगेंगी।
उम्मीद है कि दूरदराज के इलाकों तक पक्की सड़कें पहुंचाने का ये नुस्खा आपको जरूर पसंद आएगा।
(खबर का स्रोत : इंडियन एक्सप्रेस, 6 जून 2007)

Wednesday 6 June, 2007

डॉन का प्रेम-पत्र

ये खत अंडरवर्ल्ड डॉन अबू सलेम ने आर्थर रोड जेल से इसी साल 21 जनवरी को अपनी एक खास वकील दोस्त को लिखा है। खत से लगता है कि ये वकील साहिबा के किसी खत का जवाब है। रोमन लिपि में हिंदी-उर्दू जुबान में लिखे गए दस पन्नों के इस खत के कुछ अंश पेश कर रहा हूं।
अस सलाम आले कुम......
हाय, मेम साहब। कैसी हैं? वैसे आप ठीक होंगी, उम्मीद करता हूं। आपका बहुत हसीन लेटर मिला। पढ़कर एक उम्दा खुशी मिली। जैसी कि उम्मीद थी, आप अच्छा लिखती हैं, सचमुच मेम साहब। आपको समझ में नहीं आ रहा कि आपके लेटर मुझे कैसे अच्छे लगे और इतने? मेम साहब, एक तो उसमें एक अपनापन झलकता है, प्यारी-प्यारी बातें, प्यारे-प्यारे अंदाज। मुझे तो बेहद अच्छे लगते हैं। इस तनहाई में ऐसी प्यार भरी बातें मेरे लिए अनमोल खजाना हैं, जिसे हर पल याद करता रहता हूं। वो भी आपका लेटर मेरे लिए तो एक जिंदगी है। काश आप समझ सकतीं ऐसे हालात को। खैर, मेम साहब, मैं झूठ नहीं बोलता हूं। आप कसम से अच्छी हैं और आपका लेटर भी बहुत सुंदर है।
...आपको लिखते समय आपको ही सोचा करता हूं। एक उम्दा सी फीलिंग आ जाती है कि काश बाहर होता तो कितनी बातें करता। न जाने क्यों आपसे हर चीज बताने का दिल करता है। जिंदगी में क्या-क्या हुआ, कैसे-कैसे होता गया, सब कुछ बताने का मन करता है। फिर कभी सोचता हूं कि आपको मेरी क्या जरूरत पड़ेगी। आप सोच रही होंगी कि मैं अंदर हूं, इसलिए लिखता हूं।....मैं वाकई आपको पसंद करता हूं और एक अच्छी दोस्त मानता हूं, लेकिन कोई गलत रीजन से नहीं। कसम से मेरा यकीन करें सिर्फ यही कि हम कभी कोई गलतफहमी का शिकार न बनें। यानी आपस में। सच तो ये है कि मैं समझ नहीं पा रहा हूं, कैसे क्या कहूं आपको, बात है चाहत की, रिश्ते की। मेरी खुद भी समझ में नहीं आ रहा है। अब वक्त ही बताएगा कि क्या है, इन दो-तीन चीजों का क्या कहें।
...मेरा दिल अभी हुआ कि आपका निकनेम लिख दूं। फिर सोचा बाद में लिखूंगा। खैर, जिंदगी में कुछ लोग ऐसे मिल जाते हैं जो चलते-फिरते, उठते-बैठते, सोते, खाते-पीते हर वक्त याद आते हैं। ऐसे में से एक आप हैं जो हर वक्त याद आती रहती हैं। आप में क्या बात है, वो मैं भी नहीं जानता, लेकिन आप में कुछ न कुछ तो जरूर है रीयली।
...अच्छा अब इजाजत चाहता हूं। लिखने में जो गलती हो, उसके लिए माफी चाहता हूं। कभी थोड़ा टाइम निकाल लिया करें। मेरे लिए आपकी बहुत वैल्यू है। वैसे भी आपकी बहुत वैल्यू है। सलाम। अपना ख्याल रखें। ओ.के.

ये जो देश है मेरा, परदेस है मेरा

एक भारत देश हमारे बाहर है। एक देश हमारे अंदर है। लेकिन दोनों का दरमियानी फासला काफी ज्यादा है। आबादी के अलग-अलग हिस्सों के लिए ये फासला अलग-अलग है। मुंबई, कोलकाता और दिल्ली में काम करनेवाला कामगार जब अपने गांव जाता है तो बोलता है हम अपने मुलुक जा रहे हैं। गांवों के औसत खाते-पीते किसान के लिए देश कश्मीर से कन्याकुमारी और अटक से कटक तक फैला एक भूखंड है, जिसके नो-मेंस लैंड या बर्फ से ढंके सियाचिन के किसी कोने पर भी अगर चीन या पाकिस्तान की हरकत होती है तो उसका खून खौल उठता है। उसे बचपन से प्रार्थना सिखाई जाती है – वह शक्ति हमें दो दयानिधे, कर्तव्य मार्ग पर डट जाएं, जिस देश-जाति में जन्म लिया, बलिदान उसी पर हो जाएं। वह या तो जाति पर कुर्बान होता है या देश की सीमाओं की रक्षा करते हुए शहीद हो जाता है। काबिल हुआ और किसी पब्लिक स्कूल में पढ़ने के लिए स्कॉलरशिप मिल गई तो स्कूल का मोटो होता है – स्वधर्मे निधनं श्रेय: ...
स तरह भारत देश से इतर हमारे अंदर के देश में धर्म, जाति और इलाके की अस्मिता भी नत्थी हो जाती है। बाहर के देश में 28 राज्य, 14 सरकारी भाषाएं, साढ़े आठ सौ से ज्यादा बोलियां, छह बड़े धर्म, 29 बड़े त्योहार और छह जनजातीय समूह हैं। विविधता की ऐसी चुनौती दुनिया की किसी केंद्र सरकार ने नहीं झेली है, न तो यूरोपीय संघ ने, न संयुक्त राज्य अमेरिका ने और न ही अब खंड-खंड बिखर गए सोवियत संघ ने। हम अपनी पीठ थपथपाते हुए कह सकते हैं कि नगालैंड से लेकर पंजाब और कश्मीर तक अलगाव के स्वर उठे हैं, फिर भी साठ सालों से भारतीय संघ एकजुट रहा है और इस पर संसदीय लोकतंत्र का लेबल चस्पा रहा है।
लेकिन बाहर के इस भारत और हमारे अंदर के देस में इतना भयानक फासला क्यों है? क्यों पाश जैसे कवि को कहना पड़ता है कि अगर उनका कोई अपना खानदानी भारत है, तो मेरा नाम उसमें से अभी खारिज कर दो। एक समय इंदिरा इज इंडिया के नारे की नायिका इंदिरा गांधी ने हिंदू वोट बैंक बनाने की गरज से उस पंजाब में हिंदू-सिख का विभाजन खड़ा कर दिया, जहां हिंदू घरों का भी बड़ा बेटा सिख होता है। जवाहरलाल नेहरू ने 1956 में नगालैंड में जो सेना भेजी, वह वहां ऐसी जमी और उसने ऐसे जुल्मो-सितम किये कि नगा लोगों में हिंदुस्तान से ही नफरत सी हो गई। क्या केंद्र सरकार और भारतवासियों के देस में कभी तादात्म्य बन सकता है?
कभी-कभी ये भी लगता है कि कहीं किसान पृष्ठभूमि से आने के कारण मेरे अंदर ही कोई जकड़बंदी तो नहीं है कि मैं एक सीमा से आगे बढ़कर देश को देख नहीं पाता हूं। लेकिन ये भी सच है कि 15 अगस्त, 26 जनवरी या 23 मार्च को एक सघन अवसाद में आंखें पसीज जाती हैं कि हम अपराधी हैं कि हमने शहीदों के सपनों को आगे नहीं बढ़ाया। फिर कभी-कभी लगता है कि इस भावुकता भरी देशभक्ति के मायने क्या हैं। लेकिन ये सच है कि मैं आज के भारत को जज्ब नहीं कर पाता और शायद इस देश में मेरे जैसे लाखों लोग होंगे।
आज के भारत ने यकीनन विदेश में रह रहे भारतीयों को पहचान दी है। आई लव माई इंडिया, ये मेरा इंडिया उनके दिल की आवाज है। ये उनकी भी आवाज है जिनका एक पांव देश में और एक पांव विदेश में रहता है। ये लोग टाटा के कोरस या लक्ष्मी मित्तल के आर्सेलर अधिग्रहण में भारत की शान को बढ़ता देखते हैं। बाकी लोग तो कभी अमिताभ बच्चन तो कभी सचिन तेंदुलकर में अपनी राष्ट्रीय अस्मिता पाने के धोखे में जीते रहते हैं।
खास बात ये है कि मैं या मेरे जैसे लोग ही नहीं, कॉरपोरेट सेक्टर से जुड़े लोग भी चिंतित हैं कि उन्होंने राष्ट्रव्यापी वितरण तंत्र तो बना लिया, लेकिन कोई राष्ट्रव्यापी ब्रांड उन्हें खोजे नहीं मिल रहा है। पेप्सी और कोक के ‘राष्ट्र-निर्माण’ प्रयास मार्केटिंग विशेषज्ञों को अधूरे लगते हैं। उनको लगता है कि भारत के इतिहास और संस्कृति में एकीकरण का कोई तत्व नहीं है और एकीकरण का जो भी तत्व मिलेगा, वह भारत के भावी स्वरूप में मिलेगा।
कहीं ऐसा तो नहीं कि भाषाई आधार बने राज्य हमें जो अस्मिता देते हैं, वही हमारी असली राष्ट्रीय पहचान है। बाकी देश का तो यूरोपीय संघ जैसा स्वरूप होना चाहिए। जिस तरह फ्रांस, नीदरलैंड, स्विटजरलैंड, जर्मनी या ऑस्ट्रिया जैसे देशों के निवासियों के लिए यूरोपीय संघ किसी राष्ट्रीय पहचान का प्रतीक नहीं है, भारत भी एक दिन हमारे लिए वैसी ही गति को प्राप्त हो जाएगा? खैर राष्ट्र की एक कसक सालोंसाल से ही दिल में कसकती रही है। ये कब शांत होगी, पता नहीं।

Friday 1 June, 2007

लो, लौट आई पहली दुल्हिन

इतनी उम्र हो गई। बाल सफेद होने लगे। लेकिन अंदर का बच्चा अब भी वैसा ही है जैसा चार-पांच साल की उम्र में था। तभी तो आज मनहर की बालकनी में अचानक एक लंगड़ी गौरैया आकर फुदक-फुदक करने लगी तो वह बिना कुछ सोचे-समझे शरमा गया, उसी तरह जैसे बचपन में गांव के आंगन के मुंडेर पर लगड़ी गौरैया आकर बैठती थी तो अइया कहती थी कि लो आ गई तुम्हारी दुल्हिन और उसका चेहरा हल्का-सा लाल हो जाता था। उंकड़ू-मुकड़ू होकर वह अपनी दुल्हिन की तरफ देखता। फिर कूदता-फांदता आंगन के बाहर निकल घर की ड्यौढ़ी से बाहर दरवाजे पर निकल जाता।
ये खेल तब शुरू हुआ था कि चाचा की शादी में वह सहबाला बनकर घोड़ी पर बैठा था। वहां से लौटते ही उसने अइया और बुआ से जिद कर डाली कि उसकी भी शादी फौरन की जानी चाहिए। उसने जिद की तो एक साल बड़े भाई कहां चुप रहने वाले थे। दोनों अड़ गए कि शादी अभी और तुरंत होनी चाहिए। फिर एक दिन अइया ने शुभ संदेश दिया कि दोनों के लिए दुल्हिन ढूंढ़ ली गई है। मनहर की शादी आंगन में बराबर धान चुगने और पानी पीने आनेवाली लंगड़ी गौरैया से कर दी गई, जबकि बड़े भाई के लिए दुल्हिन चुनी गई छछूनरिया, वो छंछूदर जो बराबर घर के पंडोह (नाले) से बाहर-भीतर करती रहती थी। मनहर और अजहर में खूब लड़ाई होती कि तुम्हारी तो दुल्हिन लंगडी है कि तुम्हारी दुल्हिन तो छछूनर है।
मनहर के जेहन में यादों का झोंका हिलोरें मारने लगा। लेकिन उसने खुद को संभाला और किसी तरह नॉस्टैल्जिक न होने की कोशिश करने लगा। आखिर अब पुरानी यादों का करना क्या है! अइया को गुजरे 27 साल हो चुके हैं। बुआ पांच साल पहले विधवा हो गईं। वह अब खुद दो बेटियों और एक बेटे का बाप है। लेकिन गौरैया का आना उसे महज संयोग भर नहीं लगा। उसने कुछ दिन पहले ही अखबार में खबर पढ़ी थी कि गौरैया 1993 के बाद अब जाकर मुंबई में वापस आ रही हैं। उसे याद आया कि वह पहली बार 1993 में ही मुंबई आया था, नये काम धंधे की तलाश में। लेकिन बात नहीं बन पाई तो वह दिल्ली लौट गया।
दिल्ली में काम भी मिला, नाम भी और पैसा तो फिर मिलना ही था। लेकिन मुंबई आने की ललक उसे बराबर खींचती रही क्योंकि यहां उसके कुछ ऐसे सखा थे जिनको वह तहेदिल से अपना मानता था, उनमें अपना ही विस्तार देखता था। आखिरकार करीब पांच महीने पहले वह किसी तरह जुगाड़ करके मुंबई आ पहुंचा। तो, लो अब मुंबई में गौरैया भी वापस आ गई। क्या बात है।
वैसे, बताते हैं कि महानगर में बढ़ते प्रदूषण, घटते पेड़ों और बिना मुंडेरों की ऊंची-ऊंची इमारतों की भरमार हो जाने के कारण गौरैया कहीं दूर गांवों की तरफ निकल गई थी। लेकिन सब चीजें तो वैसी ही हैं, फिर क्यों गौरैया वापस मुंबई लौट आई? क्या उसके मुंबई आने और लंगड़ी गौरैया के बालकनी पर फुदकने में कोई रिश्ता नहीं है?
कोई तो रिश्ता है, नहीं तो ऐसा क्यों होता कि उसके मुंबई आने के बाद अब दिल्ली से गौरैया के गायब होने की खबरें आने लगी हैं। बताते हैं कि दिल्ली में गौरैया का दिखना ईद के चांद जैसा हो गया है। जानकार बताते हैं कि गाड़ियों में अन-लेडेड पेट्रोल के इस्तेमाल से ऐसी गैसें निकलती हैं जिनसे छोटे-छोटे कीड़े मर जाते हैं और गौरैया अपनी खुराक से महरूम हो जाती है। दूसरी बड़ी वजह है कि राजधानी में अब ऐसे घर बनने लगे हैं कि गौरैया को घोंसला बनाने का कोई ठौर ही मिलता। ठौर मिलता है तो अंग्रेज़ों के जमाने के बने नेताओं के बंगलों में। लेकिन जहां नेता जैसे बाज हों, वहां मासूम गौरैया कैसे टिक सकती है।
दिक्कत ये है कि अपने यहां गौरैया के इस तरह मिटते जाने की कोई खोज-खबर लेनेवाला नहीं है। उनकी गिनती तक किसी के पास नहीं है तो उसे गायब होने की फिक्र कौन करेगा। कुछ सालों पहले यूरोप में भी ऐसा हुआ था जब वहां की करीब 85 फीसदी गौरैया गायब हो गई थीं। उन्होंने बिना वक्त गंवाए फौरन इसे रोकने का इंतजाम किया। लेकिन अपने यहां जहां हर साल 45,000 इंसानी बच्चे गायब हो रहे हैं, वहां गायब हो रही चिड़िया का पता कौन लगाएगा।
खैर, इन बौद्धिक बातों को छोड़िए। फिलहाल मुंबई में बारिश शुरू हो गई है। लंगड़ी गौरैया के आने से मनहर के मन का गीलापन और तर हो गया है, मीठा हो गया है। वैसे भी मनहर को बारिश का मौसम बहुत अच्छा लगता है। ऊपर से पहली दुल्हिन की वापसी। लगता है आगे सब कुछ शुभ-शुभ ही होनेवाला है।