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वाकई बहुत दुखद है ये कौआ-रोर। शनिवार-इतवार का दिन मैं अपने कुटुंब के लिए रखता हूं। लेकिन नारद पर जिस तरह से कई दिनों से पोस्ट पर पोस्ट दागे जा रहे हैं, उससे मेरा ये नियम टूट गया। मुझे बचपन में घर के आंगन के कटहल के पेड़ की याद आ गई। इस पेड़ पर कौओं ने बसेरा बना रखा था। शाम सात-आठ बजते ही वहां न जाने कहां से कई सैकड़ा कौए जुट जाते थे और सुबह तक इतनी बीट कर देते कि पूरा आंगन गंधाने लगता था। खासकर बारिश के दिनों में तो वहां से निकलना दूभर हो जाता था। ये कौआ-रोर तब भी होता था, जब कोई कौआ मर जाता था। सैकड़ों कौए मरे हुए कौए के चारों तरफ रार मचाने लगते थे।
मुझे तो नारद पर मची ये रार सचमुच कौआ-रोर जैसी लगती है। प्रतिरोध पर छपी असगर वजाहत की कहानी के अंश पर बेंगानी बंधुओं की टिप्पणियां bad taste में थी और राहुल ने
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जो लिखा, वह भी उसी दर्जे का था। लेकिन नारद मुनि ने जो किया वो किसी भी ब्लॉग एग्रीगेटर को शोभा नहीं देता। पहले भी बहुत से चिट्ठों में संभल जाओ और निपट लेने की बातें होती रही हैं। इसे भी उसी तरह नजअंदाज कर दिया जाता तो मामला कब का दम तोड़ चुका होता। क्रिया-प्रतिक्रिया का ये दौर नहीं चलता। खैर, बड़ों की बात है, बड़े लोग निपटें। अभी जिस तरह ताल ठोंककर कहा जा रहा है कि मुझे भी निकाल दो तो मैं भी ऐसा कह सकता हूं, लेकिन मुझे इसका तुक नहीं नजर आता। अरे, अपनी उंगलियों और दिलो-दिमाग का ही दम आखिरकार काम आएगा। चंद ब्लॉगरों की अतिरिक्त टिप्पणियां तो फौरी उत्साहवर्धन ही करती हैं।
लेकिन आखिर में एक बात मैं जोर देकर कहना चाहता हूं कि
आंदोलनकारियों (भले ही वो किसी भी विचारधारा के हों) को किसी न किसी बहाने गरियाने की जो अभद्र हरकत हिंदी ब्लॉग की दुनिया में चल रही है, वह जघन्य है, अमानवीय है, देशद्रोही है। इसे देखकर मेरे मन में बरबस उसी तरह के हिंसक भाव आ जाते हैं जैसे झूठ और प्रपंच में भरे नरेंद्र मोदी के रक्ताभ चेहरे को देखकर आते हैं। इति...
थोड़ा कहा, ज्यादा समझना...
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