Sunday 24 June, 2007

तुम जीती रहोगी, जीता जी!

अनिल भाई, जीता जी की मृत्यु हो गई। कैंसर से, आज ही सुबह, जालंधर में। यदि संभव हो तो आप उनके बारे में भी कुछ लिखें, आखिर- मेरी जानकारी के मुताबिक- उन्हें आंदोलन की धारा में लाने वाले आप ही रहे हैं... रात के लगभग एक बज रहे हैं। शनिवार से रविवार हुए अभी एक घंटे भी नहीं बीते कि ब्लॉग देखा, कमेंट में चंदू भाई की ये सूचना पढ़ी तो मुझे लगा कि लिखने में कुछ भी विलंब किया तो जीता जी मुझे झड़प देंगी। करीब सात साल पहले दिल्ली की लू भरी दोपहर में बस स्टैंड के पास जीता ने देखा था तो पास आकर छोटे भाई की तरह डांटते हुए पूछा, कैसे हो बीवी-बच्चों का ख्याल रखते हो कि वैसे ही लापरवाह हो।
हां! चंदू भाई, मैं ही वह शख्स हूं जो एक बेहद बहादुर जिंदादिल लड़की को क्रांतिकारी आंदोलन में लाने का जरिया बना था। जीता जी उस समय गोरखपुर के एक सम्मानित सिख परिवार की सामान्य लड़की थीं। लेकिन घर में उनका छोटा भाई ही नहीं, सभी उन्हें ही एक तरह से घर का मुखिया मानते थे। गजब की नेतृत्व क्षमता थी उनमें। जीता के दृढ़ रवैये के भीतर एक भावुक लड़की भी बसती थी जो किसी से बेहद प्यार करती थी, लेकिन प्यार में गद्दारी उसे कुबूल नहीं थी। ऐसी ही कोई चोट थी जिसने जीता को अंदर से झकझोर कर रख दिया था। तभी एक दिन गोरखपुर के एक साथी के यहां मेरी उनसे मुलाकात हुई। दूसरे साथियों ने उन्हें समझा दिया था कि दुख तुम्हें क्या तोड़ेगा, तुम दुख को तोड़ दो, बस अपनी आंखें औरों के सपने से जोड़ दो। मैंने तो जीता जी की क्रांतिकारी भावना को बस एक शक्ल दी थी, एक ठोस आकार दिया था। एक बार अपनी समझ से क्रांति को जज्ब करने के बाद जीता जी ने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। वैसे, जीता जी को भारतीय क्रांति की सही समझ पैदा करने में पंजाब के ऑपरेशन ब्लू स्टार और उसके बाद आम सिख परिवारों पर हुए जुल्मों का भी हाथ रहा।
जीता पूरी तरह हमारे साथ आ गईं। इंडियन पीपुल्स फ्रंट की प्रमुख जननेता बन गईं। जो गोरखपुर में रामगढ़ ताल परियोजना के आंदोलन से वाकिफ होंगे, उन्हें जीता कौर का नाम जरूर याद होगा। उस दौरान जीता जी इतनी साख बन गई थी कि पूर्वांचल के बाहुबली नेता वीरेंद्र शाही तक उन्हें देखकर खड़े हो जाते थे। जीता जी, इस परियोजना से विस्थापित हो रहे गांवों में इतनी लोकप्रिय हो गई थीं कि सैकड़ों जवान उन्हें बचाने के लिए पुलिस की लाठियां खाने को तैयार रहते थे।
जब मैं कुछ वजहों से पार्टी छोड़ने लगा तो जीता जी के चेहरे पर कोई शिकन नहीं थी। उन्होंने कहा कि अरे, आपने हमें इतना छोटा समझा कि अपनी दिक्कतें हमसे नहीं बताईं, एक बार बता दिया होता तो हम यकीनन उन्हें दूर कर देते। जीता जी का यही क्रांतिकारी विश्वास था कि एक दिन वो गोरखपुर से घर-परिवार छोड़कर क्रांति के मकसद को आगे बढ़ाने के लिए दिल्ली चली आईं।
उनके बारे में मुझे ज्यादा कुछ पता नहीं है। लेकिन इतना जरूर पता है कि ऐसी आत्मविश्वास से भरी कोई महिला मैंने आज तक नहीं देखी है। ज्यादा कुछ लिखने को नहीं है। लेकिन मैं जीता जी से ये वादा जरूर करना चाहूंगा कि क्रांतिकारी कभी मरते नहीं हैं, क्रांति के सपने कभी मरते नहीं है, क्रांति एक ऐसी धारा है जो कभी रुकती नहीं, कभी थमती नहीं। पाश के शब्दों में...
कत्ल हुए जज्बात की कसम खाकर
बुझी हुई नजरों की कसम खाकर
हाथों पर पड़ी हुई गांठों की कसम खाकर
हम लड़ेंगे साथी...
हम लड़ेंगे अपनी सजा कबूलने के लिए
लड़ते हुए मर जानेवालों की याद जिंदा रखने के लिए
हम लड़ेंगे साथी...

7 comments:

मैथिली गुप्त said...

साहिर के शब्दों में....

जिस्म की मौत कोई मौत नहीं होती है
जिस्म मिट जाने से इन्सान नहीं मर जाते
धड़कनें रुकने से अरमान नहीं मर जाते.
सांस थम जाने से एलान नहीं मर जाते.
होठ सिलजाने से फरमान नहीं मर जाते
..क्योंकि जिस्म की मौत कोई मौत नहीं होती है,

azdak said...

अरे! तो यह भी हो गया!.. बड़े दुख की बात है!

अभय तिवारी said...

मैं भी मिला था जीता कौर से.. वाकई बहुत ज़िन्दादिल व्यक्ति थीं.. पर मृत्य से कौन बचा है? देर सवेर सब को ग्रसती है..

Bhupen said...

कई सालों से जीता जी को देखता रहा हूं. उनकी ज़िंदगी के कई पहलुओं के बारे में उनके जाने के बाद ही आपसे जान पाया.

VIMAL VERMA said...

जीता जी से मैं भी मिल चुका हूं.इलाहाबाद के पी.एस.ओ कार्यालय मे पहळी बार मुलाकात हुई थी. वो एक बेहतर इंसान थी.वाकई सुन कर बडी तकलीफ़ हुई.

चंद्रभूषण said...

हजारों साथियों के साथ कॉमरेड जीता कौर को मेरा भी लाल सलाम! क्रांतिकारी कम्युनिस्ट आंदोलन में अस्सी दशक के मध्य में शामिल हुई पीढ़ी के नजदीकी जान-पहचान वाले लोगों में दुनिया से विदा होने वाली वह पहली साथी हैं। पूर्वी दिल्ली की झुग्गियों में हम लोगों ने कुछ दिन साथ-साथ काम किया। इस दौरान एक-दूसरे का दुख-सुख बांटा, तो खूब झगड़े भी किए। उनके व्यक्तित्व में एक खास रूखापन था जो हमेशा बतौर क्रांतिकारी उनके लिए नुकसानदेह साबित होता था। कार्यकर्ता जल्द ही उनसे खिंचे-खिंचे रहने लगते थे और जनता के बीच भी वह ज्यादा लोकप्रिय नहीं हो पाती थीं। यह क्यों था, इसका कुछ अंदाजा आप द्वारा दी गई जानकारियों से मिलता है। ये बातें पता होतीं तो शायद एक बेहद दुखद प्रसंग हमारे बीच बनने से रह जाता। बहरहाल, अब इस अफसोस का कोई मतलब नहीं है। मन खिन्न है, कहने को अपने पास कुछ भी नहीं है...

Anonymous said...

जीता जी की लड़ाई अमर रहे ।