हिसाब ज्यों का त्यों, कुनबा डूबा क्यों?

भूमि के सवाल पर मैं सोच ही रहा था कि प्रमोद का फोन आया। उनका कहना था कि इस जटिल सवाल पर प्यार से लिखना चाहिए। दिक्कत ये है कि इस मसले पर मेरी समझ और अध्ययन बहुत छिछला और अनुभवजन्य है। जैसे, जब कोई भूस्वामियों की जमीन छीनकर जोतनेवालों को जमीन देने की बात करता है तो मुझे उपहास करने का मन होता है। आखिर जिस देश में औसत जोत का आकार घटते-घटते तीन-साढ़े तीन एकड़ का रह गया हो, वहां जमीन के और टुकड़े करने का क्या तुक है। इलाके के इलाके छान मारिए, आपको 30-35 एकड़ से ज्यादा के किसान नहीं मिलेंगे। 10-12 एकड़ तक के किसान तो आपको हर तरफ रोते-बिलखते मिल जाएंगे। उनके लिए खेती घाटे का सौदा बन गई है। वो कोई ठीक-ठाक नौकरी पाकर शहर का रुख करना चाहते हैं। अच्छे दाम मिल जाए तो खेती की जमीन बेचकर निकल जाएंगे।
ये उत्तर भारत के किसानों का औसत हाल है। लेकिन औसत की बात चली तो एक साहूकार की कहानी याद आ गई। साहूकार महोदय अपनी बीवी और तीन बच्चों के साथ पास के शहर को जा रहे थे। रास्ते में एक नदी पड़ी। नांव का इंतजार किया। वो नहीं आयी तो साहूकार ने सोचा कि ये नदी तो घुसकर पार की जा सकती है। उन्होंने किनारे से लेकर बीच तक नदी की गहराई नापी – 1 फुट, 3 फुट, 7 फुट, 3 फुट और 1 फुट यानी नदी की औसत गहराई निकली 15/3=3 फुट। अब साहूकार ने अपने कुनबे में सभी की ऊंचाई नापी। वो खुद 5 फुट 10 इंच के, बीवी 5 फुट 2 इंच की, पहला बेटा 4 फुट 8 इंच का, छोटी बेटी 3 फुट 4 इंच की और गोद का बेटा 2 फुट का। उन्होंने गिना कि इस तरह कुनबे की औसत लंबाई हुई करीब 4 फुट ढाई इंच। यानी, कुनबे की औसत लंबाई नदी की औसत गहराई से पूरे 1 फुट ढाई इंच ज्यादा है। इसलिए कुनबा तो आसानी से नदी पार कर जाएगा। साहूकार बीबी-बच्चे समेत नदी में उतर गए। उन्हें तैरना आता था, सो नदी के उस पार पहुंच गए। बाकी सारा कुनबा बीच नदी में बह गया। साहूकार फेर में पड़कर कहने लगे – हिसाब ज्यों का त्यों, कुनबा डूबा क्यों...
देश में लघु और सीमांत किसानों के नाम पर, आर्थिक रूप से अव्यवहार्य जोत के आकार के नाम पर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से लेकर योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया ऐसे ही औसत का हल्ला मचाकर ‘कुनबे’ को डुबाने की तैयारी में लगे हुए हैं। उत्तर प्रदेश की बात करूं तो वी पी सिंह के खानदान से जुड़ी डय्या और मांडा रियासतों के पास अब भी हजारों एकड़ जमीन है। इनमें से कुछ जमीनें तो पीपल के पेड़ और कुत्तों तक के नाम पर है। राजा भैया उर्फ रघुराज प्रताप सिंह की भदरी रियासत के पास सैकड़ों एकड़ जमीन है। कालाकांकर रियासत का भी हाल यही है। विजयी नेताओं ने उत्तराखंड की तराई से लेकर उत्तर प्रदेश के तमाम इलाकों में सीलिंग कानून को धता बताते हुए सैकड़ों एकड जमीन हथिया रखी है। ऊपर से सहारा जैसे ग्रुप नए जमींदार बन गए हैं। एसईजेड की जमीनों को शुमार कर लें तो रिलायंस, टाटा, बजाज, महिंद्रा एंड महिद्रा, गोदरेज, आईटीसी और आदित्य बिड़ला जैसे समूह ढाई हजार से लेकर तीस हजार एकड़ जमीन के मालिक बनने की होड़ में लगे हुए हैं।
ये सच है कि जमींदारी उन्मूलन जैसे कदमों से दस-बीस हजार एकड़ के मालिक बड़े राजा-महाराजा और जमींदारों की औलादें विरासत में मिलने वाली संपत्ति से बेदखल हो गईं। लेकिन एक तो उनमें से बहुतों ने कानूनी नुक्तों का फायदा उठाकर आज भी सैकड़ों एकड़ जमीन पर कब्जा बरकरार रखा है। दूसरे उनके हाथ से निकली जमीन से ठीक उनके नीचे की हस्ती वाले किसानों को फायदा मिला, न कि जमीन जोतने वालों को। सरकारी आंकड़ा भले ही बताए कि पिछले पचास सालों में ज्यादातर बड़ी भू-जोतें गायब हो गई हैं, लेकिन सच्चाई कुछ और है। अंग्रेजों के राज में 1941 की जनगणना के मुताबिक उस साल अविभाजित हिंदुस्तान की आबादी 31 करोड़ 86 लाख 60 हजार 580 थी, जबकि इस समय इससे ज्यादा लोग ठीक से दो जून की रोटी भी नहीं जुटा पाते। जारी....

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अनिल जी, आपकी कलम की धार ही अलग है। पूरी टिप्पणी पूरा लेख पढ़ने के बाद करुंगा।
प्रतीक्षा में
उमाशंकर सिंह

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