शाम से आंख में नमी-सी है
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ऐसी ही अवस्था में मैं भी अपने होने का मतलब तलाशने बैठ गया। तलाश यहां से शुरू की कि जहां मैं इस समय अवस्थित हूं, उसका समग्र स्वरूप क्या है। मैं किसी द्वीप पर हूं या आबादी और कोलाहल से भरे किसी समूचे भूखंड का हिस्सा हूं। मुझे अहसास हुआ कि नगरो-महानगरों से गुजरता हुआ जहां मैं इस समय मौजूद हूं, हिंदुस्तान की जिस तकरीबन तीस करोड़ की आबादी में मैं शामिल हूं, वह तो चारो तरफ से सत्तर करोड़ से ज्यादा ऐसी आबादी से घिरी हुई है, जहां जिंदगी तड़क गई है, जहां दिलों में त्राहिमाम-सा मचा हुआ है। जहां के बारे में कभी गांव के मेरे हरवाह नरायण ने गाकर सुनाया था कि सूखि गइली नदियां, झुराय गइल पानी हो मुए ला चिरई, कैसइ होइहैं मोर गुजारा हो मुए ला चिरई।
मैं लौट गया करीब तीस साल पहले। पहुंच गया अवध इलाके के अपने एक गांव में। उस दौरान जाड़ों की तीन महीने की छुट्टियों में बाबा-अइया के पास गांव आया करता था। खेती किसानी का पूरा चक्र मजे में चलता था। चार जोड़ी बैल, तीन भैंस, पांच गाय और उनके कूदते-फांदते बच्चे। उपले बनाने के बाद बचा हुआ गोबर और घर का कचरा पास के घूरे में डाल दिया जाता। जो कई महीनों तक सड़ने के बाद खाद बन जाता। खाद की डेरियां खेतों में डाल दी जातीं। फिर जुताई के बाद वो खाद खेत की मिट्टी का हिस्सा बन जाती। मिट्टी की उर्वरता बढ़ाने के लिए कुछ खेतों में साल भर के लिए अरहर बो दी जाती। गरमियों के दिनों में खेतों में रात भर के लिए भेड़ भी बैठायी जाती। गड़ेरियों की भेड़ें पूरे सीजन के लिए बुक रहतीं। कभी इस खेतिहर के यहां, तो कभी उस खेतिहर के यहां। खेतों में लहलहाती फसल उगती। बाबा-अइया का ही नहीं, हमारा भी कलेजा हरियाली से भरे खेतों को देखकर बाग-बाग हो जाता।
हमारे दो हलवाह थे। नरायण और सुखराम। उनका पूरा परिवार हमारे यहां जुताई से लेकर बोवाई और गोबर पाथने तक का काम करता। इसके बदले में उन्हें खाना-खुराकी और मजदूरी के अलावा दो-दो बीघा खेत भी मिला हुआ था। इसके अलावा हमारे घर से पांच घर नाई, दो घर कुम्हा
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लेकिन अब सारा तानाबाना बिखर गया है। खेती-किसानी की आत्मनिर्भर व्यवस्था टूट गई है। न हरवाह रहे, न परजा। अच्छा है। सभी अपने हुनर और काम से शहरों में पैसा कमाने लगे हैं। जो जमीनें उन्हें हमसे मिली थीं, ज्यादातर उन्हीं के नाम हो गई हैं। नरायण ने शादी नहीं की थी। छोटा भाई जगदीन दिल्ली में बाबा जर्दा फैक्टरी में काम करता था। फिर न जाने क्यों लौटकर घर आ गया। नरायण को उसने अपने घर से अलग कर दिया। नरायण का पीठ का फोड़ा इतना बढ़ा कि वह एक दिन भगवान को प्यारा हो गया। सुखराम के दोनों भाई बुधिराम और मुन्नी लखनऊ में माल लदाई का काम करते थे। बुधिराम ने सुल्तानपुर में कुछ दिन रिक्शा भी चलाया। फिर बुधिराम को टीबी हो गई और मेरी ही उम्र का बुधिराम एक दिन मर गया। खबर सुनकर लगा कि मेरा भाई मर गया है क्योंकि उसकी मां का दूध मैंने भी पिया था। मां जब बाहर ट्रेनिंग करने गई थी और महीनों तक बाहर रहती थी तो उस दौरान बुधिराम की माई मुझे अपनी गोंद में सुलाकर कभी-कभी दूध पिला दिया करती थी। मुन्नीराम को एक बार दिसंबर के महीने में तेज बुखार आया। बताते हैं कि डिग्री-विहीन डॉक्टर साहब ने उसे रात में ठंड़े पाने से नहाने को कह दिया। फिर उसे ऐसा जूड़ी-बुखार आया कि वो भी सुबह होते-होते इस दुनिया से कूच कर गया।
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Comments
लिखते रहे…।