ये कहां आ गए हम
देश के जीडीपी में कृषि का योगदान घटते-घटते 18 फीसदी पर आ गया है, जबकि देश की 60 फीसदी से ज्यादा आबादी अब भी कृषि से रोजी-रोटी जुटाती है। होना ये चाहिए था कि राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था में घटते योगदान के अनुपात में कृषि पर निर्भर आबादी का अनुपात भी घट जाता, लोग कृषि से निकलकर औद्योगिक गतिविधियों में शामिल हो जाते। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। ऐसा क्यों नही हुआ, ये पहला यक्ष प्रश्न है।
खैर, इसका नतीजा ये हुआ है कि जो योगदान 18 फीसदी लोगों को देना चाहिए था, उसमें 42 फीसदी अतिरिक्त आबादी फंसी हुई है। इसका प्रभाव-कुप्रभाव आप गांवों में ताश खेलते लोगों, गांव के पास के बाजार में सुबह से शाम तक पान और चाय की दुकानों पर मजमा लगाए लोगों में देख सकते हैं। खाली दिमाग शैतान का घर होता है तो यही खलिहर लोग आज अपहरण और वसूली जैसे अपराधों का रुख करने लगे हैं। उत्तरांचल की तराई से लेकर उत्तर प्रदेश और बिहार में बढ़ते अपहरण की एक वजह कृषि में बेकार उलझी पड़ी आबादी है।
लाल बहादुर शास्त्री ने जय जवान, जय किसान का नारा बहुत सोच-समझ कर दिया था। पूर्वी उत्तर प्रदेश के एक गरीब परिवार से आने के कारण शायद उनमें किसानों की बढ़ती दुर्दशा की अच्छी समझ थी। जानकार भी मानते हैं कि महत्व के लिहाज से देश के लिए कृषि का स्थान रक्षा के बाद दूसरे नंबर पर है। लेकिन संविधान में कृषि को राज्यों की सूची में डाल रखा गया है। और, कृषि के ‘स्टेट सब्जेक्ट’ होने के कारण इसमें केंद्र सरकार की स्थिति नीतिवचन या अनुदान जारी करने तक सीमित है। इसी बहाने अक्सर केंद्र सरकार कृषि के बुनियादी सवालों से कन्नी काट जाती है। हर साल के बजट में कृषि क्षेत्र के विकास का ढोल पीटनेवाले वित्त मंत्री कृषि को राज्यों की सूची से निकाल कर समवर्ती सूची में क्यों नहीं ला रहे, ये दूसरा यक्ष प्रश्न है।
वैसे, कृषि के राज्य-सूची में रहने के अपने फायदे हैं। वाममोर्चा इसी की बदौलत पश्चिम बंगाल में ऑपरेशन बर्गा और केरल में नए किस्म के भूमि सुधार लागू कर सका। ये अलग बात है कि उन्होंने भी जोतनेवालों को जमीन का बटाईदार बनाया, मालिक नहीं। और वो मालिक नहीं थे, इसीलिए नंदीग्राम और सिंगूर में कोहराम के हालात पैदा हो गए। और, ये सिलसिला थमने के बजाय बढ़ता ही जा रहा है। कृषि पर निर्भर 60 फीसदी आबादी के आधे से ज्यादा हिस्से (63% यानी 41 करोड़ लोगों) के पास एक हेक्टेयर (2.5 एकड़) से कम जमीन है, जबकि 10 हेक्टेयर (25 एकड़) से ज्यादा जमीन वाले किसानों की आबादी महज दो फीसदी है। भूमि सुधारों और जोतनेवालों को जमीन का नारा देनेवाले वामपंथी सरकारें कृषि के स्टेट सब्जेक्ट होने और बीसियों साल से सत्ता में रहने के बावजूद इस विसंगति को दूर क्यों नहीं कर पायीं, ये तीसरा यक्ष प्रश्न है।
मजे की बात ये है कि वामपंथी ही नहीं, वामपंथियों की जन्मजात दुश्मन विश्व बैंक जैसी अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थाएं भी भूमि सुधारों की पक्षधर हैं। ये अलग बात है कि उनके भूमि सुधार का मकसद भारत में कृषि जमीन का बाजार बनाना है, ताकि आसानी से उसकी खरीद-फरोख्त हो सके और बड़े कॉरपोरेट घराने जब चाहें तब आसानी से बेरोकटोक ढंग से हजारों एकड़ जमीन खरीद कर इस देश से लघु और सीमांत किसानों के ‘अभिशाप’ को खत्म कर सकें। वैसे, विश्व बैंक पंडित नेहरू के जमाने यानी पहली पंचवर्षीय योजना से ही खेती में घुसपैठ कर रहा है। तमाम सरकारी ट्यूबवेल उसी की आर्थिक सहायता से लगाए गए थे। यहां तक कि ट्यूबवेल की तरफ जानेवाली ज्यादातर सड़कों पर आप बोर्ड देख सकते हैं, जिन पर लिखा होता है, विश्व बैंक की आर्थिक सहायता से निर्मित। हरित क्रांति भी विश्व बैंक के संरक्षण में चलाई गई थी, लेकिन इसका कितना फायदा हुआ और कितना नुकसान, इसकी सच्चाई आप जानेंगे तो चौंक जाएंगे। जारी...
खैर, इसका नतीजा ये हुआ है कि जो योगदान 18 फीसदी लोगों को देना चाहिए था, उसमें 42 फीसदी अतिरिक्त आबादी फंसी हुई है। इसका प्रभाव-कुप्रभाव आप गांवों में ताश खेलते लोगों, गांव के पास के बाजार में सुबह से शाम तक पान और चाय की दुकानों पर मजमा लगाए लोगों में देख सकते हैं। खाली दिमाग शैतान का घर होता है तो यही खलिहर लोग आज अपहरण और वसूली जैसे अपराधों का रुख करने लगे हैं। उत्तरांचल की तराई से लेकर उत्तर प्रदेश और बिहार में बढ़ते अपहरण की एक वजह कृषि में बेकार उलझी पड़ी आबादी है।
लाल बहादुर शास्त्री ने जय जवान, जय किसान का नारा बहुत सोच-समझ कर दिया था। पूर्वी उत्तर प्रदेश के एक गरीब परिवार से आने के कारण शायद उनमें किसानों की बढ़ती दुर्दशा की अच्छी समझ थी। जानकार भी मानते हैं कि महत्व के लिहाज से देश के लिए कृषि का स्थान रक्षा के बाद दूसरे नंबर पर है। लेकिन संविधान में कृषि को राज्यों की सूची में डाल रखा गया है। और, कृषि के ‘स्टेट सब्जेक्ट’ होने के कारण इसमें केंद्र सरकार की स्थिति नीतिवचन या अनुदान जारी करने तक सीमित है। इसी बहाने अक्सर केंद्र सरकार कृषि के बुनियादी सवालों से कन्नी काट जाती है। हर साल के बजट में कृषि क्षेत्र के विकास का ढोल पीटनेवाले वित्त मंत्री कृषि को राज्यों की सूची से निकाल कर समवर्ती सूची में क्यों नहीं ला रहे, ये दूसरा यक्ष प्रश्न है।
वैसे, कृषि के राज्य-सूची में रहने के अपने फायदे हैं। वाममोर्चा इसी की बदौलत पश्चिम बंगाल में ऑपरेशन बर्गा और केरल में नए किस्म के भूमि सुधार लागू कर सका। ये अलग बात है कि उन्होंने भी जोतनेवालों को जमीन का बटाईदार बनाया, मालिक नहीं। और वो मालिक नहीं थे, इसीलिए नंदीग्राम और सिंगूर में कोहराम के हालात पैदा हो गए। और, ये सिलसिला थमने के बजाय बढ़ता ही जा रहा है। कृषि पर निर्भर 60 फीसदी आबादी के आधे से ज्यादा हिस्से (63% यानी 41 करोड़ लोगों) के पास एक हेक्टेयर (2.5 एकड़) से कम जमीन है, जबकि 10 हेक्टेयर (25 एकड़) से ज्यादा जमीन वाले किसानों की आबादी महज दो फीसदी है। भूमि सुधारों और जोतनेवालों को जमीन का नारा देनेवाले वामपंथी सरकारें कृषि के स्टेट सब्जेक्ट होने और बीसियों साल से सत्ता में रहने के बावजूद इस विसंगति को दूर क्यों नहीं कर पायीं, ये तीसरा यक्ष प्रश्न है।
मजे की बात ये है कि वामपंथी ही नहीं, वामपंथियों की जन्मजात दुश्मन विश्व बैंक जैसी अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थाएं भी भूमि सुधारों की पक्षधर हैं। ये अलग बात है कि उनके भूमि सुधार का मकसद भारत में कृषि जमीन का बाजार बनाना है, ताकि आसानी से उसकी खरीद-फरोख्त हो सके और बड़े कॉरपोरेट घराने जब चाहें तब आसानी से बेरोकटोक ढंग से हजारों एकड़ जमीन खरीद कर इस देश से लघु और सीमांत किसानों के ‘अभिशाप’ को खत्म कर सकें। वैसे, विश्व बैंक पंडित नेहरू के जमाने यानी पहली पंचवर्षीय योजना से ही खेती में घुसपैठ कर रहा है। तमाम सरकारी ट्यूबवेल उसी की आर्थिक सहायता से लगाए गए थे। यहां तक कि ट्यूबवेल की तरफ जानेवाली ज्यादातर सड़कों पर आप बोर्ड देख सकते हैं, जिन पर लिखा होता है, विश्व बैंक की आर्थिक सहायता से निर्मित। हरित क्रांति भी विश्व बैंक के संरक्षण में चलाई गई थी, लेकिन इसका कितना फायदा हुआ और कितना नुकसान, इसकी सच्चाई आप जानेंगे तो चौंक जाएंगे। जारी...
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