
हम सौभाग्यशाली हैं कि हमने भारत में जन्म पाया है। हमारे पास दुनिया की सबसे उर्वर जमीन है। हमारे यहां कृषि-योग्य जमीन 55 फीसदी (32.90 करोड़ हेक्टेयर में से 18.20 करोड़ हेक्टेयर) है, जबकि अमेरिका में ये 19 फीसदी, यूरोप में 25 फीसदी और अपने ‘बैरी’ पड़ोसी पाकिस्तान में तो 28 फीसदी ही है। चीन के पास भी हमसे कम कृषि-योग्य जमीन है। लेकिन दिक्कत ये है हमारे नीति-नियामकों को ये बात परेशान नहीं करती कि हम अपने इस एडवांटेज का फायदा नहीं उठा पा रहे हैं। वो ज्यादा से ज्यादा कृषि को देशी-विदेशी कॉरपोरेट सेक्टर के मुनाफे को बढ़ाने के साधन के रूप में ही देख रहे हैं। ये नहीं देख रहे कि इससे कैसे 60 करोड़ लोगों की मायूस जिंदगी में मुस्कान लायी जा सकती है।
क्या ये संभव नहीं है कि हमारी जमीन जिस तरह झगड़ों में पड़ी हुई है, टुकड़ों में बंटी हुई है, उसे देखते हुए देश की सारी जमीन का राष्ट्रीयकरण कर दिया जाए और उन्हें ही जमीन दी जाए जो वाकई खुद खेती करते हों। वैसे भी जमीन राष्ट्रीय संपदा है। जिनके पास आज दसियों-हजारों एकड़ जमीन है, उनके बाप-दादा ने इसे अपनी मेहनत से नहीं, अंग्रेजों की दलाली से हासिल किया था। पहले चरण में सीलिंग कानूनों को धता बताते हुए डय्या और मांडा जैसी तमाम रियासतों से लेकर वो नेता जो सैकड़ों-हजारों एकड़ जमीन लिए बैठे हैं, उनकी जमीन का राष्ट्रीयकरण किया जाना चाहिए। यकीनन, ऐसा कदम बहुत बडा भूचाल ला सकता है। लेकिन सरकार चाहे तो इस भूचाल का अंदाजा कृषि आय को टैक्स के दायरे में लाकर लगा सकती है।
आप भी मानेंगे कि हर युग के कुछ कार्यभार होते हैं, जिनके लिए पूरी ताकत

इतना सारा लिखने का मेरा मकसद बस इतना था कि जब हम भ्रष्टाचार के बारे में सोचें, सांप्रदायिकता के बारे में सोचें, अपनी और राष्ट्र की समस्याओं के बारे में सोचें तो कृषि समस्या के बारे में भी सोचें क्योंकि उसमें देश की बहुत सारी समस्याओं के निदान की कुंजी है। मैं ये भी मानता हूं कि किसान-मजदूर, छात्र-नौजवान ही बदलाव नहीं लाते। हमारे-आप जैसे पढ़ने-लिखने वाले लोग साफ यथार्थपरक नजरिया बना लें तो वह भी बहुत बड़ी ताकत होती है। 30 करोड़ का मध्यवर्ग अगर देशी-विदेशी कंपनियों के लिए बेहद बड़ा बाजार है तो यही मध्यवर्ग कम से कम सोच के स्तर पर एक नई लहर पैदा कर सकता है।
अगर दस लेखों की कड़ी कल का कर्ज से मैं चंद लोगों को ही सही, कृषि और भूमि सुधार के मसले पर सेंसिटाइज कर पाया हूं, तो अपनी मेहनत को सार्थक समझूंगा। बाकी आप सभी समझदार हैं। वैसे, शायद आपको पता ही होगा कि इस साल 2 अक्टूबर को गांधी जयंती (अंतरराष्ट्रीय अहिंसा दिवस) के मौके पर भूमिहीनों को भूमि देने की मांग को लेकर देश भर के लाखों गरीब दिल्ली कूच करनेवाले हैं। .... समाप्त
5 comments:
आपके इन दस लेखों की श्रंखला ने हम सभी को कृषि और भूमि सुधार के मसले बार बार सोचने को विवश किया है.
अनिल जी, आपने खेत-खेती का पत्ता पत्ता समझा दिया। असरदार तरीक़े से। बधाई!
कोशिश करुंगा कि आपके इस लेख की प्रतियां निकाल चंद उन राजनेताओं को पढ़ाउं जो संसद में आकर किसान और कृषि हित की थोथी बात करते नज़र आते हैं।
आबादी पर भी आपसे ऐसी जानकारियों की उम्मीद लगा बैठा हूं क्योंकि मुझे लगता है कि इस तरह भी तनिक ध्यान नहीं है हमारे नीति निर्धारकों का।
शुक्रिया
उमाशंकर सिंह
आपकी तरह लिखने वाला हिन्दी चिट्ठा समुदाय में नज़र नहीं आता.विषयों की विविधता और पकड़ अदभुत है. क्या आप बहुत पढ़ते रहते हैं, क्या आप बहुत अनुभवी हैं? उमा जी के शब्दों का इस्तेमाल एकबार फिर करेंगे कि आपकी लेखनी की धार ही अलग है!
आपकी व्यस्तताएं होंगी पर आपसे ज़्यादा लेखन की उम्मीद के साथ.........
क्या आपको सच मे ऐसा लगता है कि जमीन को बराबर और जो उसपर खेती करता है उसे उसका अधिकार देने से कृषि के क्षेत्र मे सुधार आ जाएगा? मुझे आंकडे नही पता पर जितनी जमीन हमारे पास है और जितने लोग उसपर आश्रित हैं, यदि उनके बीच बराबर बाँट दी जाये तो शायद किसी के भी जिम्मे १ बीघा (acre) भी नही आएगा। शायद उससे भी कम। आपको लगता है कि एक पुरा परिवार उस एक बीघा के सहारे एक ठीक ठाक जिंदगी गुजार सकता है?
सामुहिक खेती से सभी का भला हो सकता है, इस बात मे कोई संदेह नही पर गांव के लोगों को इसके तैयार कर पाना असंभव है। मैं अपना निजी अनुभव आपको बताता हूँ। मेरे घर के सामने जो जमीन है वो जिस व्यक्ति की है उसके घर के पास एक हमारी जमीन है। पिछले कई सालों से उस व्यक्ति ने अपने जमीन पर कुछ भी नही उपजाया है और पिछले कई सालों से हमलोग उससे request कर रहे हैं कि जमीन आपस मे बदल लें तो दोनो को फायदा होगा। वैसे भी अभी आप इस जमीन का कोई ऊपयोग नही कर रहे पर आज तक वो बन्दा इसके लिए तैयार नही हुआ। कोई कारण नही । बस एक बेवाकूफानी जिद । और इस तरह कि मानसिकता लिए ना जाने कितने किसान हैं। गांव मे हर व्यक्ति को २ या ३ पम्प खुदवाने पड़ें है पर जरा कोशिश कीजिये कि सबकी जमीन एक जगह पर आ जाये ताकि रख रखाओ आसान हो और फ़ायदा ज्यादा , जिंदगी गुजर जायेगी।
मुझे नही पता कि इस बेवक़ूफ़ मानस्किता को कैसे बदला जा सकता है? यदि आपके पास कोई सुझाव हो तो कृपया share करें।
मनोज
अच्छी बात नहीं.. पता नहीं क्यों लग रहा है जैसे अभी काफी कुछ समझना था और कहानी खत्म हो गई..
Post a Comment