और, बढ़ता गया बेगानापन

भारत में सदियों तक जमीन का मामला एकदम बिखरा-बिखरा रहा। अकबर के खजाना मंत्री टोडरमल ने पहली बार जमीन की कायदे से नापजोख कराई और उर्वरता के आधार पर जमीन को चार श्रेणियों में बांटकर उसकी मालियत तय कर दी। गौर करने की बात ये है कि टोडरमल ने जमीन के सर्वेक्षण की जो तौर-तरीके अपनाए, वो आज भी भारत के ज्यादातर हिस्सों में अपनाए जाते हैं। अकबर के शासन में किसानों से उपज का एक तिहाई हिस्सा बतौर टैक्स लिया जाता था। बाद में मुगलों से लेकर मराठा शासन तक में कमोबेश इसी अनुपात में टैक्स लिया जाता रहा। लेकिन मुगल शासन के पतन के दौरान देश में राजस्व खेती लागू की गई। इस प्रणाली में कभी-कभी किसानों को फसल का 9/10वां हिस्सा तक बादशाह को देना पड़ता था।

अंग्रेजी शासन में भू-स्वामित्व की दूसरी प्रमुख व्यवस्था थी रैयतवारी, जिसे 1792 में मद्रास में और 1817-18 में बॉम्बे में लागू किया गया। इसमें रैयत या किसान को उसकी जमीन का मालिक माना गया। जब तक वह अंग्रेज कलेक्टर को समय पर तय मालगुजारी देता रहता था, उसकी जमीन को कोई आंच नहीं आ सकती थी। रैयतवारी व्यवस्था आज के महाराष्ट्र और कर्नाटक, तमिलनाडु, केरल, आंध्र प्रदेश, अधिकांश मध्य प्रदेश, असम और कमोबेश पूरे दक्षिण समेत देश के 38 फीसदी कृषि क्षेत्रफल में लागू थी। इस व्यवस्था की खासियत ये थी कि इसमें सरकार और किसानों के बीच कोई बिचौलिया नहीं था।

भू-स्वामित्व की इन तीनों ही व्यवस्थाओं के तहत किसान कभी अपनी मर्जी के मालिक नहीं रहे। ब्रिटिश सरकार जिंदा रहने भर का न्यूनतम अनाज छोड़कर उनसे बाकी हिस्सा छीन लिया करती थी। लेकिन किसानों की सबसे खराब हालत जमींदारी वाले इलाकों में थी। इन इलाकों के किसानों ने खेती पर ध्यान देना भी बंद कर दिया। जमीन को लेकर उनमें एक बेगानापन सा भर गया। जारी...
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