Tuesday 19 June, 2007

और, तूँ हमार हड्डी चिचोरत हया

आप बीएसपी के दूसरे मतलब बिजली-सड़क-पानी से तो वाकिफ होंगे। लेकिन क्या आप जानते हैं कि एलपीजी यानी लिक्विफाइड पेट्रोलियम गैस का दूसरा मतलब क्या होता है? मैं भी नहीं जानता था। वो तो जमीन के सवाल पर इंटरनेट में गोता लगा रहा था तो इसका भेद खुला। लिबरलाइजेशन, प्राइवेटाइजेशन, ग्लोबलाइजेशन। बड़ा अफसोस हुआ कि नब्बे के दशक से देश में जारी इस सर्वव्यापी प्रक्रिया का संक्षिप्त रूप ही मुझे पता नहीं था। खैर, देश में जब से ये एलपीजी आई है, तभी से हम शहरी पढ़े-लिखे लोगों की नजर में जमीन हाउसिंग, पूंजी निवेश और इंफ्रास्ट्रक्चर बनाने का साधन भर रह गई है।
हम भूल गए हैं कि जमीन महज अनाज, दलहन और तिलहन उपजाने का साधन नहीं है, बल्कि इसका गहरा नाता आजीविका, समता, सामाजिक न्याय और मानवीय गरिमा से है। असल में जमीन सभी आर्थिक गतिविधियों का आधार है। इसका इस्तेमाल या तो देश के आर्थिक विकास और सामाजिक समता के लिए जरूरी परिसंपत्ति के रूप में किया जा सकता है या यह कुछ लोगों के हाथों में देश की आर्थिक आजादी का गला घोंटने और सामाजिक प्रगति को रोकने का साधन बन सकती है।
अंग्रेजों ने दो सौ सालों के शासन में भारत के साथ यही किया। वैसे, यही पर एक प्रसंग याद आ गया जो इलाहाबाद की बारा तहसील के मेरे एक मित्र शिवशंकर मिश्र ने सुनाया था। सन् साठ के आसपास की बात है। शिवशंकर के गांव के पास जवाहर लाल नेहरू एक जनसभा में भाषण दे रहे थे कि अंग्रेजों ने हमारा खून पी लिया, तभी भीड़ में से सुमेरू पंडित नाम के एक सज्जन ने चिल्ला कर अवधी में कहा – और तूँ हमार हड्डी चिचोरत हया। फिर तो सुमेरू पंडित को पकड़कर पुलिस वालों ने ऐसी धुनाई की कि पूछिए मत। खैर, इसके बाद सुमेरू इलाके में अपनी दबंगई के लिए सन्नाम (विख्यात) हो गए।
नेहरू के दौर से ही हमारी सरकारें आर्थिक सुधारों के लिए विश्व बैंक जैसी अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं के शरण में चली गईं। नब्बे के दशक से तो ये रफ्तार कुछ ज्यादा ही तेज हो गई है। आपको याद ही होगा कि साठ के दशक में इसी विश्व बैंक के निर्देशन में देश में हरित क्रांति लागू की गई थी। इसमें उसका साथ दिया था अमेरिका की बदनाम एजेंसी यूएसएड (यू एस एजेंसी फॉऱ इंटरनेशनल डेवलपमेंट) ने। खाद, बीज, कीटनाशक और ट्रैक्टर जैसी मशीनरी का इस्तेमाल इसके केंद्र में था। विश्व बैंक ने इनके आयात के लिए जमकर कर्ज मुहैया कराया। बहुत से अर्थशास्त्रियों ने भारत सरकार को इस ‘क्रांति’ के जोखिम से आगाह किया। लेकिन सरकार ने बिना कोई परवाह किए 1966-71 की चौथी पंचवर्षीय योजना में हरित क्रांति के लिए 2.8 अरब डॉलर की विदेशी मुद्रा मुहैया कराई, जो ठीक इससे पहले की तीसरी पंचवर्षीय योजना में समूचे कृषि क्षेत्र के लिए किए गए आवंटन के बनिस्बत छह गुना से भी अधिक थी।
हरित क्रांति ने यकीनन देश में खाद्यान्नों की उपलब्धता बढ़ा दी। भारत अनाज के आयातक से निर्यातक में बदल गया। लेकिन इसने हमारे किसानों को सब्सिडी, कर्ज, मशीनरी, हाई यील्डिंग वेरायटी के बीज और रासायनिक उर्वरकों जैसी बाह्य लागत सामग्रियों का मोहताज बना दिया। इस पर ज्यादा विवरण आप चौखंभा पर देख सकते हैं।
लेकिन यहां मैं वर्ल्ड रिसोर्सेज इंस्टीट्यूट के द्वारा 1994 में प्रकाशित एक अध्ययन रिपोर्ट का जिक्र करना चाहूंगा। इसके मुताबिक हरित क्रांति में अपनाए गए तौर-तरीकों से भारत का खाद्य उत्पादन 5.4 % बढ़ गया, लेकिन साथ ही इससे देश की तकरीबन 85 लाख हेक्टेयर यानी 6 % फसली जमीन अतिशय जलभराव, लवणता या क्षारीयता के चलते हमेशा-हमेशा के लिए बरबाद हो गई। हरित क्रांति से गेहूं का उत्पादन बीस सालों में दोगुना और धान का उत्पादन डेढ़ गुना हो गया। इसके तहत गन्ने और तंबाकू जैसी व्यावसायिक फसलों पर खूब जोर दिया गया। लेकिन ज्वार, बाजरा, सांवा और कोदो जैसे अनाजों का बंटाधार हो गया, जबकि ये अनाज गरीब किसानों-खेतिहर मजदूरों के मुख्य आहार हुआ करते थे। जारी...

4 comments:

मैथिली गुप्त said...

आने वाली किश्त की बेसब्री से प्रतीक्षा है.

उमाशंकर सिंह said...

जारी रखें। हम पढ़ रहे हैं। आंखें खोलने वाला है

अभय तिवारी said...

बी ए अर्थशास्त्र हमारा विषय था.. देखिये..फिर भी हम अनपढ़ ही रहे इन मामलों में.. अब हम शिक्षित हो रहे हैं दुबारा..

azdak said...

कहानी ठीक से शुरू भी नहीं होती कि आप खत्‍म कर देते हैं? हद है!..