हँसो हँसो, जल्दी हँसो, कोई देख रहा है
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हँसो कि तुम पर निगाह रखी जा रही है
हँसो, मगर अपने पर मत हँसना क्योंकि उसकी कड़वाहट
पकड़ ली जाएगी और तुम मारे जाओगे
ऐसे हँसो कि बहुत खुश न मालूम हो, वरना शक होगा कि
यह शख्स शर्म में शामिल नहीं है और मारे जाओगे
हँसते-हँसते किसी को जानने मत दो कि किस पर हँसते हो
सबको मानने दो कि तुम सबकी तरह परास्त होकर
एक अपनापे की हँसी हँसते हो
जैसे सब हँसते हैं बोलने के बजाय
जितनी देर ऊंचा गोल गुंबद गूंजता रहे, उतनी देर
तुम बोल सकते हो अपने से, गूंज थमते-थमते फिस हँसना
क्योंकि तुम चुप मिले तो प्रतिवाद के जुर्म में फंसे
अंत में हँसे तो तुम पर सब हँसेंगे और तुम बच जाओगे
हँसो, पर चुटकुलों से बचो क्योंकि उनमें शब्द हैं
कहीं उनमें अर्थ न हों जो किसी ने सौ साल पहले दिए हों
बेहतर है कि जब कोई बात करो, तब हँसो
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ताकि किसी बात का कोई मतलब न रहे
और ऐसे मौकों पर हँसो जो कि अनिवार्य हों
जैसे गरीब पर किसी ताकतवर की मार
जहां कोई कुछ नहीं कर सकता
उस गरीब के सिवाय
और वह भी अक्सर हँसता है
हँसो हँसो जल्दी हँसो
इससे पहले कि वह चले जाएं
उनसे हाथ मिलाते हुए, नज़रें नीची किए
उनको याद दिलाते हुए हँसो
कि तुम कल भी हँसे थे...
Comments
हमारे देश में
पढ़ना अपने-आपमें
एक चुटकुला है
हंसो कि
बहुत लोग फिर भी इसे
बहुत गंभीरता से लेते हैं
हंसो कि
हंसने के लिए
इससे ज्यादा और क्या चाहिए।
ताकि किसी बात का कोई मतलब न रहे ।
ज़्यादातर लोग यही तो करते हैं……। पोस्ट अच्छी लगी ,अनिल जी
हे हे
हम कोई विश्वविद्यालय के वकील नहीं है, पर अध्यापक तो हैं ही, साफ कर दें कि रघुवीरजी ने ऐसी कोई भूमिका नहीं लिखी है और अगर किसी किताब में किसी टंडन-वंडन, अग्रवाल (ऐसे कई महामहिम आलोचक हमारे यहॉं कोने काने पर मिल जाते हैं) वगैरह ने ऐसा खुद लिख मारा भी तो भी यह ध्यान रखा जाए कि यह विश्वविद्यालय का प्रकाशन नहीं वरन प्रकाशक की निजी किताब होती है।
पर ये भी नहीं कि विश्वविद्यालय ऐस कोटि के चिरकुटई काम करता नहीं रहा है... :))