गुरु! छवि बिगड़ने न पाए, बाकी सब चलता है

इस बात से कहां कोई फर्क पड़ता है कि आप असल में क्या हैं या आपका चरित्र क्या है? फर्क पड़ता है तो इससे कि आपकी छवि क्या है। इसलिए छवि पर ज़रा-सा बट्टा लगते ही ‘धंधेबाज़’ लोग कैसे परेशान हो जाते हैं!! लगते हैं लोगों से लेख लिखवाने, विज्ञापन देने कि फलाने जी तो अभी से नहीं, पैदाइशी महान हैं। लिखनेवाला आदेश मिलने पर लिखता है, सायास लिखता है, लेकिन बड़ी मासूमियम से कहता है कि अरे, फलाने जी इतने महान हैं, हमें तो आज ही पता चला है और इसे जानकर मैं पुलकित हो उठा हूं। इस तरह बड़ी बारीकी और कुशलता से चलता रहता है कुशाग्र लोगों का ‘छवि बचाओ, अभियान चलाओ, झांकी बनाओ’ अभियान।

सार्वजनिक जीवन में विजयी बनने और बने रहने का यही मंत्र है कि छवि चौचक बनाए रखी जाए। पुराने लोग पहले अंग्रेज़ी की कहावत सुनाते थे कि धन चला जाए तो समझो कुछ नहीं गया, स्वास्थ्य चला गया तो समझो कुछ चला गया, लेकिन चरित्र चला गया तो समझो सब कुछ चला गया। लेकिन आज का सूत्र यह है कि चरित्र चला गया तब भी कोई बात नहीं, बस आपकी छवि पर आंच नहीं आनी चाहिए। आपको याद होगा कि कोला ड्रिंक्स में कीटनाशक होने के खुलासे के बाद कोकाकोला और पेप्सी का क्या हाल हो गया था। कैसे ये कंपनियां शाहरुख से लेकर क्लीन छवि वाले आमिर खान से कहलवा रही थी कि ऐसा कुछ नहीं है और कोला ड्रिंक्स सबके लिए सही हैं।

सचमुच अब तो यही हो गया है कि आपकी छवि आपसे कहीं ज्यादा मायने रखती है। नेटवर्किंग की अपनी अहमियत है, लेकिन उससे भी ऊपर हो गई है इमेज बिल्डिंग। इमेज बनाने का बाकायदा धंधा चल निकला है। वह दौर और था जब गांव-जवार, गली-मोहल्ले में सब दूसरे को जानते थे। झांकी बनती थी, तारीफ होती थी तो असल की होती थी। झूठी झांकी बनाकर रखना तब मुमकिन नहीं था। लेकिन आजकल तो ज़माना बाज़ारू हो गया है।

फासले अंतहीन हद तक बढ़ गए हैं। ज्यादा से ज्यादा दूर रहकर लोग करीब से करीब होने का भ्रम बनाते हैं। आप दूर रहो, लेकिन अपनी छवि को लोगों के इतना पास पहुंचा दो कि उनके ख्वाबों की मंजिल बन जाओ। अमिताभ बच्चन, शाहरुख खान, सोनिया गांधी, राहुल गांधी, बाल ठाकरे, राज ठाकरे और मुलायम सिंह जैसे लोग यही तो करते-करवाते हैं। नेतागण पोस्टरो में ऐसे ललकारते और मुस्कुराते हुए नज़र आते हैं कि बस इनका दामन थाम लो तो सारे कष्ट दूर हो जाएंगे। ये सभी मसीहा हैं जो आपके उद्धार के लिए दिन-रात एक किए हुए हैं।

भ्रम बना रहता है तो इनका धंधा, इनका राज बदस्तूर चलता रहता है। लेकिन भ्रम के टूटते ही सारा मायाजाल बिखर सकता है। इसलिए भ्रम को बनाए रखने के लिए ये लोग किसी भी हद तक चले जाते हैं। शिबू सोरेन ने कितने शातिराना ढंग से अपने सचिव शशिनाथ झा की हत्या करवा दी। वो कहते हैं ना कि मरता क्या न करता। असल में छवि का बिगड़ना सार्वजनिक जीवन में सक्रिय लोगों के लिए मरने जैसा ही होता है। इसलिए वो अपनी छवि बचाए रखने के लिए कुछ भी करने पर उतारू हो जाते हैं। यह उद्योग और राजनीति का ही नहीं, साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र का भी कड़वा सच है।

छवि और हकीकत का रिश्ता कुछ उस तरह का है जिसे मार्क्स ने करीब डेढ़ सौ साल पहले fetishism कहा था। जैसे, हम खुद ही पत्थर लाकर स्थापित करते हैं। उसे शिव मानते हैं। उसे दूध से नहलाते हैं। बेल के पत्ते, धतूर और फूल उस पर चढ़ाते हैं। फिर अचानक वही पत्थर प्रलंयकारी शिव बन जाता है। वह है तो अब भी पत्थर, पर हमारे भीतर उसकी इतनी विराट छवि बन जाती है कि हम उससे भयभीत हो जाते हैं, उसे सिर नंवाते हैं। लेकिन हमें इस fetishism से बाहर निकलने की ज़रूरत है। नहीं तो दाग अच्छे हैं का स्लोगन चलता रहेगा क्योंकि दाग की धुलाई करके वो अपने होने की अहमियत साबित करते रहेंगे। भ्रम कायम रहेगा, मठाधीश डटे रहेंगे, चेहरों पर नकाब पडा रहेगा और हम परछाइयों को ही हकीकत समझते रहेंगे।
फोटो साभार: Tim Noonan

Comments

Anonymous said…
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azdak said…
सही बोलिन, महाराज..
एकदम सही!!
सारा खेल इमेज का ही है आज!!
कोई कित्ती भी नंगई करे बस इमेज बकिया सही रहे कोई वान्दा नई!! ;)
ठीक कह रहे हैं. तुम मेरा गा, मैं तेरा गाऊं, तू मेरी पीठ ठोंक, मैं तेरी ठोंकूं.
मार्क्स के संदर्भ में आप 'डेढ़ सौ साल' कहना चाह रहे होंगे, गलती से ढाई चला गया है। बाकी पोस्ट दुरुस्त है। छवि का असर बढ़ना टेक्नोलॉजी की अग्रगति का परिचायक है और इसे पीछे नहीं ले जाया जा सकता। लेकिन इसका हकीकत के विरोध में खड़ा हो जाना, अनिवार्यतः झूठ को ही प्रतिबिंबित करना वाकई चिंताजनक है। किसी को आखिर यह एहसास अब कैसे कराया जाए कि गलती के परिष्कार का अकेला तरीका गलती मान लेना और उसे ठीक कर लेना है, न कि छवि सुधारो अभियान चलाकर और भी भयानक गलतियों का आधार तैयार करना!
सहमत, अपना भी ऐसा ही मानना है. छवि बचाओ के चक्कर में रहते है सभी.
Udan Tashtari said…
इसी का जमाना है भाई-क्या करियेगा.
बात तो एकदम सही है।आज यही कुछ हो रहा है।लेकिन किया क्याअ जाए?कोई रास्ता भी तो नही है।
Uday Prakash said…
छवि-विग्यान (इमेजोलाजी) किसी भी प्रोड्क्ट के विक्रय,प्रोत्साहन, मांग और खपत का एक साधारण जरिया है. विग्यापन का प्रोफ़ेशन इसी पर आधारित रहता है. प्रोडक्ट से अधिक उसकी 'इमेज' (छवि)इसीलिये किसी भी उपभोक्ता 'मीडिया-समाज' मे ज़्यादा महत्वपूर्ण होती है.
राज्नीति, सिनेमा, व्यापार, संस्क्रिति वगैरह में भी इसीलिये 'इमेज-बिल्डिंग' (छवि-निर्माण) की भरपूर कोशिश होती है. अब यह उपभोक्ता के विवेक और समझ पर निर्भर है कि वह 'असल' और 'इमेज' के बीच फ़र्क करे. जार्ज बुश और अमेरिकी मीडिया द्वारा निर्मित उनकी इमेज के बीच के फ़र्क को हम अपनी समझ-बूझ के जरिये ही जान सकते हैं. चुनाव-प्रचार के दौरान हमारे यहां का हर प्रत्याशी भी ऐसा ही करता है.
इमेजोलोजी अब एक अच्छे-खासे पेशे में बदल चुका है.
Srijan Shilpi said…
सटीक डिकोड किए हैं इमेज-बिल्डिंग, पीआर कैम्पेन की असलियत को। हंसी उन पर आती है जो दूसरों की इमेज सुधारने-संवारने के लिए अपनी साख को दांव पर लगाते हुए बाजार में उतर आते हैं।
पूरे समाज में यह प्रवृत्ति व्याप्त है। इसे कहते हैं , तू मेरी पीठ खुजा , मैं तेरी पीठ खुजाऊं। इस पर और लिखा जाना चाहिये।
Unknown said…
अनिल जी - अभी कुछ दिन पहले एक कविता पढी थी - ब्लॉग पर ही - आपकी पोस्ट से उसकी याद हो आई - लिंक नीचे है - सादर - मनीष
http://manavaranya.blogspot.com/2008/02/blog-post_22.html

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