बड़ी हत्यारी और बेरहम है तुम्हारी दिल्ली

पश्चिम बंगाल की दालिया बीवी अपने शौहर के साथ दिल्ली आई थी नई ज़िंदगी और भविष्य का ख्वाब लेकर कि जहां लाखों लोगों को रोज़ी-रोज़गार का ज़रिया मिल ही जाता है, वहां वह भी अपना कुनबा बसा लेगी। लेकिन चार दिन में ही दिल्ली ने अपना असली जौहर दिखा दिया। पहले तो उतरते ही सारा माल-असबाब कोई लेकर भाग गया। फिर जहां भी गई, गिद्धों की निगाहें उसके जवान जिस्म को नोंचने के फिराक में लगी रहीं। हद तो तब हो गई जब बेरहम दिल्ली ने उसके शौहर की ही जान ले ली। अब तो एकदम तन्हा हो गई वह। इनकी तन्हा कि गोद के तीन महीने के बच्चे रज़ीबुल का भी ख्याल नहीं आया। बाथरूम के फर्श पर रज़ीबुल को रोता छोड़कर उसने खिड़की से लटककर फांसी लगा ली।
चार दिन पहले ही वह जलपाईगुड़ी से कोलकाता और फिर कोलकाता से ट्रेन पकड़कर अपने शौहर अवकीद और तीन महीने के बच्चे के साथ दिल्ली पहुंची थी। अवकीद आठ साल पहले दिल्ली में सोहना रोड की एक फैक्टरी में काम कर चुका था। लेकिन दालिया पहली मर्तबा दिल्ली आई थी। उन्होंने सोचा था कि चंद रोज़ अवकीद के छोटे भाई मस्तूल के यहां रुक लेंगे। फिर कोई काम धंधा मिलते ही अलग बंदोबस्त कर लेंगे। लेकिन स्टेशन पर ही किसी ने उनके बक्से पर हाथ साफ कर दिया। ये तो कहिए कि नकद पैसे कंधों पर रखे थैलों में थे, नहीं तो बच्चे को दूध पिलाना तक दूभर हो जाता। खैर, सामान चोरी हो जाने के बाद उन्होंने मस्तूल के यहां जाने का इरादा छोड़ दिया क्योंकि हो सकता था कि मस्तूल कहता कि आते ही सामान चोरी का बहाना बनाकर गले पड़ने की कोशिश कर रहे हैं।
फिर दालिया और अवकीद दो दिन तक बच्चे को गोद में उठाए जहां-तहां काम के सिलसिले में भटकते रहे। नई-नई बिल्डिंगों के आसपास मंडराते। खुदी सड़क के इर्दगिर्द भटकते। शायद कहीं काम मिल जाए। काम नहीं मिला। उल्टे लोगों की घूरती आंखों से दालिया एकदम बिदक गई। अवकीद से कहने लगी – मैं दिल्ली में नहीं रह सकती। यहां तो हर कोई आपको जिंदा निगलने की घात लगाए बैठा है। अवकीद ने किसी तरह उसे शांत कराया। दो दिन किसी तरह जहां-तहां भटकते, फुटपाथ या पार्क में सोते बीत गए। अंटी में रखे 300 रुपए अब आधे हो चुके थे। वो निजामुद्दीन इलाके में सड़क के किनारे खड़े थे। अकरीद थोड़ा बेचैन था। थोड़ा आगे खड़ा था। तभी रफ्तार से आती एक ब्लू लाइन बस उसको उड़ा ले गई। अवकीद ने मौके पर ही दम तोड़ दिया।
दालिया का सारा संसार अब दिल्ली की सड़क पर खून बनकर बिखर चुका था। आधे घंटे में पुलिस आई। अवकीद की लाश को उठाकर ले गई। सदमे की शिकार दालिया को उसके तीन महीने के रज़ीबुल के साथ दिल्ली के मशहूर अस्पताल एम्स के ट्रामां सेंटर में पहुंचा दिया गया। वह बेहद डरी-सहमी हुई थी। नर्स से बार-बार यही कहती, “मैं दिल्ली में नहीं रह सकती। यहां का हर दूसरा आदमी मुझे खाना चाहता है। ये लोग मुझे बेच डालेंगे दीदी, मुझे बचा लो सिस्टर।” नर्स और डॉक्टर उसे समझाते रहे। लेकिन उसका मन अशांत रहा। दिक्कत यह भी थी कि वह सिर्फ बांग्ला ही बोल और समझ सकती थी। कुछ भी समझ में नहीं आया तो वह मर गई। तीन महीने का रज़ीबुल अपने चाचा के साथ वापस जलपाईगुड़ी अपनी दादी के पहुंच चुका है।
नोट - इस कहानी के सभी पात्र और घटनाएं असली हैं, लेकिन तस्वीर किसी और की है।
तस्वीर साभार: ozymiles
Comments
दिल्ली अब दिलवालों की नही रह गई लगती है।
घटना के वक्त हम सब निर्जीव हो जाते है . हम सब जिंदा कहाँ हैं ?
ऐसी घटनाएं जब भी होती है हमें सोचने को मजबूर कर देती है हम सोचते ही रहते हैं और इस बीच और न जाने कितनी ही घटनाएं हो जाती है।
हम सोचने के अलावा क्या कुछ और करेंगे!
लेकिन क्या, यही तो समझ नही आता,
कृषक मेघ की रानी दिल्ली
अनाचार, अपमान, व्यंग्य की
चुभती हुई कहानी दिल्ली।