Monday 24 March, 2008

बड़ी हत्यारी और बेरहम है तुम्हारी दिल्ली

बीस साल की दालिया बीवी अब इस दुनिया में नहीं हैं, लेकिन उसके ये शब्द अब भी दिल्ली की हवाओं में, फिज़ाओं में गूंज रहे हैं। उसने मरने के कुछ ही घंटे पहले एम्स में अपनी देखभाल कर रही नर्स से ठेठ देहाती बांग्ला में कहा था – बड़ी बेरहम और हत्यारी है तुम्हारी दिल्ली। लेकिन जो लोग कुरुक्षेत्र में अब भी गीता के श्लोकों की गूंज सुनने का दावा करते हैं, उनके कान दालिया के दिल से निकली आवाज़ को नहीं सुन सकते क्योंकि वे मिथकीय सिज़ोफ्रेनिया के शिकार हैं। गाज़ा में हो रही मौतों पर आंसू बहानेवाले दिल्ली के लोगों के लिए भी दालिया के ये शब्द मायने नहीं रखते क्योंकि वे दिमागी हाइपरमेट्रोपिया के शिकार हैं।

पश्चिम बंगाल की दालिया बीवी अपने शौहर के साथ दिल्ली आई थी नई ज़िंदगी और भविष्य का ख्वाब लेकर कि जहां लाखों लोगों को रोज़ी-रोज़गार का ज़रिया मिल ही जाता है, वहां वह भी अपना कुनबा बसा लेगी। लेकिन चार दिन में ही दिल्ली ने अपना असली जौहर दिखा दिया। पहले तो उतरते ही सारा माल-असबाब कोई लेकर भाग गया। फिर जहां भी गई, गिद्धों की निगाहें उसके जवान जिस्म को नोंचने के फिराक में लगी रहीं। हद तो तब हो गई जब बेरहम दिल्ली ने उसके शौहर की ही जान ले ली। अब तो एकदम तन्हा हो गई वह। इनकी तन्हा कि गोद के तीन महीने के बच्चे रज़ीबुल का भी ख्याल नहीं आया। बाथरूम के फर्श पर रज़ीबुल को रोता छोड़कर उसने खिड़की से लटककर फांसी लगा ली।

चार दिन पहले ही वह जलपाईगुड़ी से कोलकाता और फिर कोलकाता से ट्रेन पकड़कर अपने शौहर अवकीद और तीन महीने के बच्चे के साथ दिल्ली पहुंची थी। अवकीद आठ साल पहले दिल्ली में सोहना रोड की एक फैक्टरी में काम कर चुका था। लेकिन दालिया पहली मर्तबा दिल्ली आई थी। उन्होंने सोचा था कि चंद रोज़ अवकीद के छोटे भाई मस्तूल के यहां रुक लेंगे। फिर कोई काम धंधा मिलते ही अलग बंदोबस्त कर लेंगे। लेकिन स्टेशन पर ही किसी ने उनके बक्से पर हाथ साफ कर दिया। ये तो कहिए कि नकद पैसे कंधों पर रखे थैलों में थे, नहीं तो बच्चे को दूध पिलाना तक दूभर हो जाता। खैर, सामान चोरी हो जाने के बाद उन्होंने मस्तूल के यहां जाने का इरादा छोड़ दिया क्योंकि हो सकता था कि मस्तूल कहता कि आते ही सामान चोरी का बहाना बनाकर गले पड़ने की कोशिश कर रहे हैं।

फिर दालिया और अवकीद दो दिन तक बच्चे को गोद में उठाए जहां-तहां काम के सिलसिले में भटकते रहे। नई-नई बिल्डिंगों के आसपास मंडराते। खुदी सड़क के इर्दगिर्द भटकते। शायद कहीं काम मिल जाए। काम नहीं मिला। उल्टे लोगों की घूरती आंखों से दालिया एकदम बिदक गई। अवकीद से कहने लगी – मैं दिल्ली में नहीं रह सकती। यहां तो हर कोई आपको जिंदा निगलने की घात लगाए बैठा है। अवकीद ने किसी तरह उसे शांत कराया। दो दिन किसी तरह जहां-तहां भटकते, फुटपाथ या पार्क में सोते बीत गए। अंटी में रखे 300 रुपए अब आधे हो चुके थे। वो निजामुद्दीन इलाके में सड़क के किनारे खड़े थे। अकरीद थोड़ा बेचैन था। थोड़ा आगे खड़ा था। तभी रफ्तार से आती एक ब्लू लाइन बस उसको उड़ा ले गई। अवकीद ने मौके पर ही दम तोड़ दिया।

दालिया का सारा संसार अब दिल्ली की सड़क पर खून बनकर बिखर चुका था। आधे घंटे में पुलिस आई। अवकीद की लाश को उठाकर ले गई। सदमे की शिकार दालिया को उसके तीन महीने के रज़ीबुल के साथ दिल्ली के मशहूर अस्पताल एम्स के ट्रामां सेंटर में पहुंचा दिया गया। वह बेहद डरी-सहमी हुई थी। नर्स से बार-बार यही कहती, “मैं दिल्ली में नहीं रह सकती। यहां का हर दूसरा आदमी मुझे खाना चाहता है। ये लोग मुझे बेच डालेंगे दीदी, मुझे बचा लो सिस्टर।” नर्स और डॉक्टर उसे समझाते रहे। लेकिन उसका मन अशांत रहा। दिक्कत यह भी थी कि वह सिर्फ बांग्ला ही बोल और समझ सकती थी। कुछ भी समझ में नहीं आया तो वह मर गई। तीन महीने का रज़ीबुल अपने चाचा के साथ वापस जलपाईगुड़ी अपनी दादी के पहुंच चुका है।
नोट - इस कहानी के सभी पात्र और घटनाएं असली हैं, लेकिन तस्वीर किसी और की है।
तस्वीर साभार: ozymiles

9 comments:

mamta said...

सुबह -सुबह इतनी मार्मिक कहानी पढ़कर दिल भर आया।
दिल्ली अब दिलवालों की नही रह गई लगती है।

संजय शर्मा said...

भागती दुनिया मे क्या दिल्ली ,क्या मुम्बई की परख हो , आदमी सिकुड़ गया है या फ़िर चलता फिरता लाश है . हम रोज आंसू निकाल सकते हैं लेकिन दर्द भरी दास्ताँ सुनकर ,टीवी ,सिनेमा ,अखबार ,ब्लॉग पढ़ कर .पर सजीव
घटना के वक्त हम सब निर्जीव हो जाते है . हम सब जिंदा कहाँ हैं ?

Jagdish Bhatia said...

दर्दनाक!

Sanjeet Tripathi said...

क्या कहूं अनिल जी,
ऐसी घटनाएं जब भी होती है हमें सोचने को मजबूर कर देती है हम सोचते ही रहते हैं और इस बीच और न जाने कितनी ही घटनाएं हो जाती है।
हम सोचने के अलावा क्या कुछ और करेंगे!
लेकिन क्या, यही तो समझ नही आता,

राज भाटिय़ा said...

हम सब के बीच मे ही ऎसे भी लोग हे,जो थोडी सी खुशी के लिये दुसरो का घर भी उजाडने मे हिचक मह्सुस नही करते,ओर पता नही केसे किसी के दुख पर यह कह्कहे लगा कर हसंते हे, ओर जशन मनाते हे,

Pankaj Parashar said...

वैभव की दीवानी दिल्ली
कृषक मेघ की रानी दिल्ली
अनाचार, अपमान, व्यंग्य की
चुभती हुई कहानी दिल्ली।

दिनेशराय द्विवेदी said...

ब्लॉगवाणी पर उपर नीचे चक्कर लगाते आप की पोस्ट दर्जन बार देखी। विवरण देख कर खोलने की हिम्मत नहीं हुई। फिर देखा हम भी तो इन्हीं चीजों के बारे में लिखते हैं और लोग कैसे पढ़ते होंगे। यही सोच कर पोस्ट खोली। अब जमाने पर गुस्सा सातवें आसमान पर है। इस पूंजीवाद ने दुनियाँ को इतना जालिम बना दिया है कि इस के अवसान के अलावा कोई चारा नहीं। अपने छल कपट से इस ने अपनी उम्र जरुर बढ़ा ली है पर यह भी अमर तो नहीं है। जो पैदा हुआ है वह मरेगा। अब तो जमाने का खोल बदलने का वक्त शायद नजदीक ही है?

vikas pandey said...

क्या कहे आज तो कुछ प्रतिक्रिया नही दी जा सकती. बस अफ़सोस जनक घटना है, दिल्ली की आत्मा मर चुकी है.

रामेन्द्र सिंह भदौरिया said...

हम कहा तनी चकिया पीसौ,उइ लै बैठी सिंगारुदान,मुंह कीन्ह चौथि के करवा जस,ककुआ अजग्यवी द्याखो तो,हम कहा तनि दै देउ नौनु,उन्ह बक्का अस मुंह बाइ दीन्हि,हम रूखी सूखी धमकि गयिन,ककुआ अजग्यवी द्याखो तो,अनिल कहें तौ आगि लगे,और राम कहें रघुराज जगें,इन दौनो को साथ लीन्ह,इनका ब्लगवा द्याखो तो !!!