
लेकिन एनिस्थीसिया लगे अंग को दर्द भले ही न महसूस हो, पता तो चलता ही है कि कुछ चुभोया जा रहा है, कुछ काटा जा रहा है। दिख तो रहा ही है कि साथ वाले लोग बढ़ने के प्रयास कर रहे हैं, अपने हुनर दिखा रहे हैं तो बढ़े जा रहे हैं। लेकिन सब चलता है, क्या फर्क पड़ता है के भाव के साथ मानस जहां पड़ जाता है, वहां देर तक पड़ा रहता है। किसी की नज़र पड़ जाए और वह उसे उठाकर कहीं और बैठा दे तो चला जाता है। उसे रह-रहकर कचोट होती है कि उसकी काबिलियत कोई समझ नहीं रहा। उसमें संगठन बनाने का हुनर है। जटिल से जटिल चीजों को समझने का कौशल है। बिगड़ी हुई बात को बनाने का सलीका उसे आता है।
नीचे से, लोगों के बीच से नेतृत्व विकसित करने में किसी का यकीन ही नहीं है। न राजनीति में ऐसा है, न कॉरपोरेट सेक्टर में, न पब्लिक सेक्टर में, न सरकार में और न ही मीडिया में। हर जगह नेता को ऊपर से थोपा जाता है।
यह सच है कि बहुत सारी बातें वह भूल चुका है, लेकिन किसी ज़माने का ग्रुप-लीडर आज भी टीम बनाने की दक्षता और धैर्य रखता है। उसमें टीम को लीड करने की क्षमता अब भी है। लेकिन यहां तो जिसे ऊपर से आरोपित कर दिया जाए, लोग उसी को लीडर मानते हैं। नीचे से, लोगों के बीच से नेतृत्व विकसित करने में किसी का यकीन ही नहीं है। न राजनीति में ऐसा है, न कॉरपोरेट सेक्टर में, न पब्लिक सेक्टर में, न सरकार में और न ही मीडिया में। हर जगह नेता को ऊपर से थोपा जाता है।
आप कह सकते हैं कि उसकी यह हालत उसकी अपनी वजह, अपनी सोच से हुई है। किसी पार्टी या राजनीतिक विचारधारा ने अपने से जुड़नेवाले हर कार्यकर्ता का ठेका तो ले नहीं रखा है?!? बिलकुल सही बात है। मानस पार्टी से जुड़नेवाला एक अदना कार्यकर्ता ही था। लेकिन पार्टी उसके लिए सब कुछ थी। वह एक ऐसी महत्वाकांक्षा थी, जिसके लिए उसने अपना करियर, अपना घर, यहां तक कि अपना प्यार तक छोड़ दिया था। आज के नौजवान शायद इसकी कल्पना भी न कर सकें। लेकिन यह तो कल्पना कर ही सकते हैं कि इन चीज़ों को त्यागने में कितनी तकलीफ होती है। मानस ने एक संसार को छोड़कर दूसरे संसार को अपनाया था। इसलिए जब दूसरे संसार से उसकी बेदखली हुई तो उसका सब कुछ लुट गया। हालत न खुदा ही मिला, न बिसाले सनम की हो गई। उसकी सारी दुनिया ही उजड़ गई।
उसने मरने की भी कोशिश की, लेकिन बच गया तो जीवन बायोलॉजिकल फैक्ट बन गया। वह मरा-मरा जीने लगा, लेकिन जिनसे रिश्तों की डोर बंधी, वो सभी पूरी तरह सही-सलामत थे। उन्होंने उसके ‘कोमा’ में रहने का भरपूर फायदा उठाया। उसके स्वार्थ से ऊपर उठ जाने का पूरा दोहन किया। दफ्तर में बॉस ने यही किया और घर में बीवी ने यही किया। फिर ऐसा कुछ हुआ कि दोनों ही एक्सपोज़ होने की हालत में आ गए तो उन्होंने इसे निकाल फेंकना ही उचित समझा। लेकिन कहते हैं न कि ऊपर वाले की लाठी में आवाज़ नहीं होती। आज बॉस की हालत खस्ता है। और, पत्नी तो अपने ही बुने जाल में ऐसी उलझी कि वही जाल एक दिन उसके गले में चुनरी की तरह लिपट गया और वह कई-कई बार झूल गई।
इन झंझावातों में मानस की चेतना और ज्यादा डूबती गई। वह जगते हुए भी सोता रहा। संज्ञाशून्य हो गया। ऐसी हालत में वह जमाने के दस्तूर के हिसाब से महत्वाकांक्षा लाए तो कहां से? इस बीच उसने की नहीं, लेकिन उसकी दूसरी शादी हो गई। नई पत्नी भली है। कहती है कि इस तरह नहीं चलेगा, तुम्हें किसी अच्छे साइकोलॉजिस्ट को दिखाना चाहिए। वह कहता है, “साइकोलॉजिस्ट को दिखाओ या सोसियालॉजिस्ट हो, मेरी समस्या का हल किसी के पास नहीं है। अगर इसका कोई हल है तो मैं ही निकाल सकता हूं, कोई दूसरा नहीं।”
मानस की कथा की पिछली कड़ी : जीवन बायोलॉजिकल फैक्ट नहीं तो और क्या है? कहानी की सारी कड़ियां आप जिंदगी का यू-टर्न लेबल पर क्लिक करके पढ़ सकते हैं।
3 comments:
यह एक अत्यंत कठिन काम है, लेकिन आपकी क्षमताओं को देखते हुए असंभव नहीं है। महत्वाकांक्षाएं लौटें या नहीं- इस बारे में मैं ज्यादा चिंतित नहीं हूं, न ही आपको होना चाहिए- लेकिन जिंदगी की रवानी को किसी भी सूरत में लौटाल लाने की कोशिश जरूर की जानी चाहिए।
हर मुश्किल का हल होता है
तिनके का संबल होता है
जो पथ में ठोकर ख़ाता है
अक्सर वही सफल होता है .
मुझे लगता है आपकी पोस्ट के अन्त में
उस आगाज़ की आहट भी तो है जिसके सामने
हर चुनौती को झुकना पड़ता है !
स्वयं से बाहर ,दुनिया में किसी भी समस्या का हल
मुमकिन नहीं !
बहरहाल आज के दौर में
कामयाबी का जो फलसफा.......नहीं ...नहीं.....बाज़ार है
उसका अनावरण भी तो करता है आपका आलेख .
शुक्रिया !
हाँ मानस ही निकाल सकता है इसका हल - शत प्रतिशत - एक वाकया याद आया - मेरे एक दिवंगत मित्र (जिनका एक दुर्घटना में जवान उम्र में दुखद निधन हो गया था) - कक्षा दस के बाद पढ़ाई लिखाई के क्षेत्र में थोड़ा ग़मगीन हो गए थे - ईविंग क्रिश्चियन कालेज में थे - जैसा भी माहौल हो उनका कहना था कि "एक बार सैनिक स्कूल प्रवेश परीक्षा तोड़ रक्खी है "पोटेंसिअल" तो हईये न " - लेकिन आपकी कहानी का नायक थोड़ा अलग है - पार्टी से लेकर परिवार और ऑफिस तक हर जगह समस्याएँ उसका पीछा नहीं छोड़ती - ये तो नेता की ही निशानी है - किसी के नीचे/ मातहत काम नहीं कर सकते - अब वह अपना ही कुछ उद्यम भी कर सकता है - क्या पता धीरू भाई ही बन जाय - मनीष
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