खंड-खंड जमीन पर जारी है पाखंड

कर्ज माफी के मेले चल ही रहे थे कि नब्बे के दशक से देश में उदारीकरण, निजीकरण और ग्लोबीकरण की आंधी आ गई। हर चीज की तरह कृषि को भी आंखों पर परदा डालकर बाजार में ला खड़ा किया गया। सरकार की नजर में भूमि सुधारों के मायने बदल गए। लेकिन लिप-सर्विस जारी रही। अभी साल भर पहले ही 18 अप्रैल 2006 को प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने सीआईआई (कनफेडरेशन ऑफ इंडियन इंडस्ट्री) के सालाना सम्मेलन में कहा था, “भूमि सुधार भले ही स्टेट सब्जेक्ट हो, लेकिन एक राष्ट्रीय प्राथमिकता है, जिस पर राष्ट्रीय सर्वसम्मति की जरूरत है।” देश भर में खंड-खंड होती जमीन का हवाला देकर राष्ट्रीय प्राथमिकता और सर्वसम्मति का ये पाखंड जारी है।
इस पाखंड के पीछे खेती का कॉरपोरेटाइजेशन अभियान चल रहा है। सालों साल से कई कंपनियां कई राज्यों में कांट्रैक्ट फार्मिंग कर रही हैं। आईटीसी समूह आंध्र प्रदेश में तंबाकू की खेती कर रहा है। पेप्सिको पंजाब, महाराष्ट्र, कर्नाटक और पश्चिम बंगाल तक में आलू, मिर्च और धान की खेती कर रही है। मित्तल समूह ने ब्रिटेन के बैंक रॉथ्सचाइल्ड के साथ मिलकर भारत में बड़े पैमाने पर कई फसलों की खेती शुरू कर दी है। तमिलनाडु सरकार ने एक हजार एकड़ बंजर जमीन कंपनियों को कपास, फूलों, सब्जियों और मसालों की खेती के लिए 30 साल की लीज पर दे दी है। गुजरात सरकार ने भी 2000 एकड़ से ज्यादा बंजर जमीन कंपनियों को लीज पर दी है।
लेकिन किसानों की जमीन लेने में सरकारों को काफी परेशानी हो रही है। इसके उदाहरण हैं नंदीग्राम और सिंगूर। पहले भी सड़कें वगैरह बनाने के लिए सरकार को काफी थुक्का-फजीहत झेलनी पड़ती रही है। इसकी बड़ी वजह है खेती की जमीन पर मालिकाने की स्थिति का साफ न होना। गांवों में हालत ये है कि किसान को अपनी ही जमीन के मालिकाने का प्रमाणपत्र पाने के लिए पटवारी की जेब में पांच सौ से लेकर हजार रुपए डालने पड़ते हैं।
छह साल पहले कंसल्टेंसी फर्म मैकेंजी ग्लोबल ने भारत में जमीन के स्वामित्व पर विशद अध्ययन किया था। उसने ‘इंडिया : द ग्रोथ इम्परेटिव – अंडरस्टैंडिंग द बैरियर्स टू रैपिड ग्रोथ एंड एम्प्लॉयमेंट’ शीर्षक से तीन खंडों में पेश की गई अपनी रिपोर्ट में कहा है कि भारत की 90 फीसदी जमीन कानूनी पचड़ों में फंसी हुई है। पता ही नहीं कि इनका असली मालिक कौन है। जमीन-जायदाद के बाजार की इस विसंगति के चलते भारत की आर्थिक विकास दर को हर साल 1.3 फीसदी का नुकसान हो रहा है। मजे की बात ये है कि हमारी सरकारों ने भू-रिकॉर्ड को दुरुस्त किए बगैर उनका कंप्यूटरीकरण भी शुरू कर रखा है।
इधर केंद्र सरकार ने अब भूमि शेयर कंपनियों का नया शगूफा छोड़ दिया है। इसके तहत किसान किसी कंपनी को अपनी जमीन लीज पर दे सकते है, जिसके बदले उन्हें जोत के आकार के हिसाब से कंपनी के शेयर मिल जाएंगे यानी कंपनी के स्वामित्व में उनकी अंशधारिता हो जाएगी। इन शेयरों पर किसान को कंपनी के लाभ में हिस्सा मिलेगा। सरकार कहती है कि किसान चाहें तो वो अपनी जमीन के साथ-साथ कंपनी की भी जमीन निश्चित किराया देकर खेती के लिए ले सकते हैं। प्रस्ताव के मुताबिक कंपनी की चुकता पूंजी का 25 फीसदी हिस्सा ही कॉरपोरेट सेक्टर का होगा, बाकी 75 फीसदी इक्विटी पूंजी जमीन के रूप में किसानों की होगी। कंपनी अगर डूब गई तो किसान को उसकी जमीन वापस मिल जाएगी। खैर, इसमें और भी कई पेंच हैं। लेकिन है ये अभी प्रस्ताव के ही स्तर पर। वैसे, जो शेयर बाजार में पैसे लगाते हैं, उनको अच्छी तरह पता है कि भले ही रिलायंस के 23 लाख शेयरधारक हों, लेकिन मालिक तो अंबानी परिवार ही है। ऐसे में अपनी जमीन देकर शेयरधारक बन गए किसान को पंजीरी ही मिलेगी, शांति, सुख और समृद्धि का प्रसाद नहीं। जारी...

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फैल रहा है धीरे धीरे ज्ञान का उजाला..

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