शास्त्रीजी सही कहते हैं आप, हम तो निमित्त भर हैं

आदरणीय शास्त्री जी ने कल मेरी एक पोस्ट पर टिप्पणी की कि, “मुझे कई बार ऐसा लगता है कि कोई दैवी शक्ति एक हिंदुस्तानी की डायरी लिखने में तुम्हारी मदद करती है. कारण? इस चिट्ठे का विश्लेषण सामान्य से अधिक सशक्त होता है, यह है मेरे सोचने का कारण!” इसे पढ़कर मन फूलकर कुप्पा हो गया। अगर मन में रह-रह के उठनेवाले आवेगों को दैवी शक्ति मानूं तो सच है कि यह दैवी शक्ति ही मुझसे बराबर हिंदुस्तानी की डायरी लिखा रही है और शायद मरते दम तक लिखवाती रहेगी।

सीखने-जानने की ललक है, अपने अधूरे होने का अहसास है तो मरते दम तक पढ़ता-सीखता-सोचता भी रहूंगा। वैसे, यह बात अभय ने आठ-नौ साल पहले मेरी कुंडली देखकर बताई थी, तभी से माने बैठा हूं कि मेरे सीखने की प्रक्रिया कभी थमेगी नहीं। क्या कमाल है साफ-साफ देखने-दिखाने की बात करता हूं। लेकिन मन की चादर को तानने के लिए ज्योतिष और कुंडली के रूप में एक्सटैसी जैसी ड्रग का भी सहारा लेता हूं। किसी दुविधा में फंसता हूं तो रामचरित मानस की श्रीरामशलाका-प्रश्नावली पर पेंसिल से निशान लगाकर समाधान भी खोजता हूं। इसीलिए तो कहता हूं कि मैं एक आम इंसान हूं। मुझसे कभी कोई गफलत मत पालिएगा, हमेशा आम हिंदुस्तानी की श्रेणी में ही रखिएगा।

लेकिन दैवी शक्ति की बात मुझे खटकती है। वैसे मेरे पिताजी, बड़े भाई साहब भी अपनी-अपनी विपत्तियों से उबरने का श्रेय दैवी शक्ति को ही देते हैं। मगर, मैं पसोपेश में तब पड़ गया जब ऐसी ही दैवी शक्ति की बात विस्फोट वाले संजय तिवारी ने कर डाली। उन्होंने साल 2007 की आखिरी पोस्ट में लिखा था, “पिछले दस सालों में जितना संघर्ष मैंने किया है दूसरा कोई भी होता तो टूट जाता. लेकिन कोई एक शक्ति है जो मुझे लड़ने का माद्दा देती है… सार्वजनिक अभिव्यक्ति के माध्यम के रूप में ब्लागर का माध्यम मिल जाना मेरे लिए किसी क्रांतिकारी घटना से कम नहीं था. मैं मानता हूं यह उसी पराशक्ति की इच्छा थी जिसने मुझे यह औजार और इसे चलाने का तरीका सिखाया।”

जब संजय भाई जैसा सॉलिड, सबल, सुलझा हुआ समझदार नौजवान पराशक्ति की बात कर रहा है तो मेरे लिए वाकई चौंकने की बात थी। वैसे, मैं भी मानने को मान सकता हूं कि कोई दैवी शक्ति ही मुझे संचालित कर रही है। वरना, एक पिछड़े गांव के मास्टर का बेटा सुपर-रिच परिवारों के बच्चों के साथ बोर्डिंग में कैसे पढ़ने जाता! फिर जिसे आईएएस ही बनना था, वह सब कुछ छोड़कर गांव-गांव, शहर-शहर क्यों भटका! जिसके हाथ में विदेश जाने की रेखा ही नहीं थी, वह अच्छी-खासी तनख्वाह पर दो साल विदेश कैसे रह आया! बचपन से ही मां के आंचल से दूर रहा, कम उम्र में ही कई अपनों की मौतों का साक्षी रहा। क्यों रहा? क्या इससे वह दैवी शक्ति मुझे एकदम निर्मोही नहीं बना देना चाहती?

मैं चाहूं तो इन सारी घटनाओं को जीवन का संयोग का न मानकर किसी दैवी शक्ति का प्रताप मान लूं। लेकिन मैं ऐसा मानने को कतई तैयार नहीं हूं। इसलिए नहीं कि इससे मेरे अहम को ठेस लगती है क्योंकि एक जीते-जागते इंसान को किसी दैवी शक्ति के हाथों की कठपुतली बना दिया जा रहा है। बल्कि इसलिए कि दैवी शक्ति का यह प्रताप उस ड्रग की तरह है जो कुछ पलों के लिए इंसान में हर दृष्टि से संपूर्ण होने का अहसास भर देता है, लेकिन नशा उतरते ही वह पहले से भी ज्यादा अशक्त और अशांति हो जाता है। मुझे अपनी बुद्धि, अपने विवेक और अपने अध्ययन के बल पर सबल बनना है। मुझे कमज़ोर करनेवाली किसी दैवी शक्ति का भ्रम पालने की ज़रूरत नहीं है।

लेकिन एक बात साफ कर दूं कि हम प्रकृति और समाज की संतुलनकारी शक्तियों से स्वतंत्र नहीं हैं। प्रदूषण बढ़ रहा है तो प्रकृति ने प्रूदषण तक को खानेवाले ऑर्गेनिज्म पैदा कर दिए। इसी तरह समाज का हर गतिरोध मनुष्यों में ऐसे विचार पैदा करता है जो उसे दूर सकते हैं। तमाम हिंदी ब्लॉगरों में चल रही बेचैनियां हमारे देश और समाज के इसी गतिरोध की प्रतिक्रिया को मुखरित कर रही हैं। इस मायने में कहें तो हम सभी लोग निमित्त भर हैं। लेकिन सामाजिक प्रवाह में संतुलन बनाने की इस गत्यात्मकता को हम दैवी शक्ति का असर मान लें तो इससे मिलेगा कुछ नहीं। हां, हमारी सकर्मकता ज़रूर कमज़ोर पड़ जाएगी।

हम हिंदुस्तानियों के साथ दिक्कत यह है कि करते सब कुछ हैं हम्हीं लोग, लेकिन श्रेय किसी और को दे देते हैं। बुद्ध को इंसान न मानकर विष्णु का अवतार मान लेते हैं। राम की छाया में बुद्ध का रूप न देखकर आज भी रामसेतु और लंका को लेकर ललकार रहे हैं। महाभारत के संघर्ष की सामाजिक अहमियत को खारिज कर देते हैं। कृष्ण की लीला का गुणगान करते हैं। आज भी यदा-यदाहि धर्मस्य का पारायण करते हुए किसी कल्की अवतार के इंतज़ार में लगे हैं। लेकिन यह नहीं समझ पाते कि सर्वशक्तिमान प्रभु की शरण में जाते ही इंसानी व्यवहार का तर्क खत्म हो जाता है, इस तर्क के खत्म होने से व्यवहार कमज़ोर पड़ जाता है और व्यवहार के कमज़ोर पड़ते ही यथास्थिति में मजे लूटनेवालों की मौज के जारी रहने की गारंटी हो जाती है।

Comments

गणितज्ञ रामानुजन गणित के हलों के बारे में अक्सर अनोखी बात कह जाते थे। उन्से पूछने पर कहते थे कि देवी मां ही उन्हें बताती है।
Pankaj Oudhia said…
दैवीय शक्ति तो नही पर आपकी आत्म शक्ति जो लेखो से झलकती है, का कायल हूँ मै। मेरी बात तो आप मानेगे ही, बरम बाबा जो घोषित कर रखा है आपने मुझे। :)
जनाब, हम तो आपकी विश्लेषण क्षमता के कायल हैं!!
आपकी यह सहायक शक्ति चाहे दैवीय हो अदैवीय हो या हो आपके मन की, हमारी कामना बस यही है कि उपरवाला आपका माद्दा बनाए रखे,हर मुद्दे के लिए!!
देवी शक्ति का मतलब कुछ और नहीं आपकी आत्म शक्ति ही है. हम हिन्दुस्तानियों और खास तौर से खुद को पढे-लिखे मानने वाले लोगों के साथ एक दिक्कत और है. वह यह कि हम भाव के बजाय शब्दों को पकड़ कर लटक जाते हैं. यह चीजों को सही ढंग से समझने में मुश्किल पैदा करती है. उपनिषदों से लेकर बुद्ध तक ने बार-बार अहम् ब्रह्मास्मि और अप्प दीपो भाव की ही बात की है. विवेकानन्द भी कहते हैं सबसे बड़ा नास्तिक वह जिसमें आत्मविश्वास न हो. फिर दैवी क्या और भागवात्ता क्या?
Unknown said…
kya kahoon raghurajji, aap to din par din nikharte ja rahe hain. maine kuchh din pehle hi blog padna shuru kiya hai aur aap ki diary to main poori pad gaya hoon. apka analysis to gazab ka hai. magar sirf ek chhoti si bat hai jo pasand nahin aati jis par ek bar maine comment bhi kiya tha. aap ke hi thru aaj visfot bhi dekha kafi dhamakedar hai.
CG said…
agnosticism-atheism के बीच झूलता हूं इसलिये दैवीय शक्ति पर पूर्ण भरोसा नहीं है, लेकिन आपकी आत्मिक शक्ति की बात विश्वास योग्य लगी.

आपके लेख हमेशा पढ़ने योग्य होते हैं.
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प्रिय छोटे भाई अनिल,

इष्ट देव सांकृत्यायन ने विषय और अधिक स्पष्ट कर दिया है अत: मुझे और कुछ कहने की जरूरत नहीं है. हां इस लेख के लिये आभार. इससे यह व्यक्त हो गया है कि कठिन परिश्रम, सकारात्मक दृष्टिकोण, स्पष्ट अभिव्यक्ति के लिये की गई मेहनता अदि उस दैवी शक्ति के अंश हैं जो एक हिन्दुस्तानी की डायरी को इतना सशक्त बना रहे हैं.
अनिल भाई , की दिनों बाद टिपिया रहे हैं। कमेंट बाक्स में पोस्टिंग आप्शन ही नहीं मिलता था। शास्त्रीजी की बात सौ फीसद सही है। हम आस्तिक हैं पर दैवी चमत्कार या शक्ति जैसा अनुभव तो नहीं हुआ । अलबत्ता जो भी अच्छा है उसे प्रभु की कृपा ही मानते हैं।

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