Wednesday 2 January, 2008

सोच में कहां, कभी अकेले होते हैं हम?!?

सोच और विचार को अगर आत्मा का चेहरा मान लें तो किसी एक देशकाल में हम एक ही चेहरा लेकर अनेक शरीरों में मौजूद रहते हैं; साथ ही एक जीवन में कई बार आत्माएं बदलते हैं। हमारे परमाणु की नाभि में न्यूट्रॉन, प्रोट्रॉन और दूसरे तत्व क्या होंगे, यह इस बात से तय होता है कि हमने किस देश में जन्म लिया है, हमारी सामाजिक-पारिवारिक परंपराएं क्या रही हैं और इतिहास की किस निरंतरता की मौजूदा कड़ी हैं हम। संस्कृति और संस्कार बनाते हैं हमारी बुनियाद। इसीलिए किसी हिंदुस्तानी और जर्मन या अमेरिकी का मूलाधार एक नहीं हो सकता। उनके मानस का परम-अणु एक नहीं हो सकता। हँसने और रोने का अंदाज एक हो सकता है, लेकिन हँसने और रोने की सारी वजहें एक नहीं हो सकतीं।

हां, भारतीय उपमहाद्वीप के ज्यादातर बाशिंदों के परमाणु की मोटा-मोटी संरचना एक होती है, उनके मन के नाभिक में एक जैसे प्रोट्रॉन, न्यूट्रॉन व दूसरे तत्व होते हैं। इनमें भी समान जीवन स्थितियों में रहनेवालों के मूलाधार में कुछ ज्यादा ही समानता होती है। लेकिन परमाणु में नाभिक के बाहर कितने ऑरबिट हैं और हर ऑरबिट में कितने इलेक्ट्रॉन कितनी रफ्तार से चक्कर काट रहे हैं, इससे तय होता है हमारा सोच-विचार, हमारी आत्मा का चेहरा। फिर अपनी कोशिशों से हम इस चेहरे को सारी ज़िंदगी बदलते भी रहते हैं। इलेक्ट्रॉन को एक ऑरबिट से दूसरे ऑरबिट में ले जाने में दम तो बहुत लगता है, लेकिन इंसानी फितरत हमें ऐसा करने को मजबूर किए रहती है। खासकर आज के तेज़ी से बदलते दौर में तो बहुत सारे लोग Orbital Jump कर रहे हैं।

ये सारा कुछ एक सामाजिक क्रिया है, सामूहिक यात्रा है। इसमें हम कभी भी अकेले नहीं होते हैं। सोच-विचार के एक खास ऑरबिट में रहते हैं तो थोड़े समय के लिए ज़रूर लग सकता है कि हम अनोखे हैं, लेकिन ज़रा-सा सिर उठाकर अपने कूचे से बाहर झांकते हैं तो पता चलता है कि हमारे जैसे बहुतेरे हैं और ये मोदी जैसे मुखौटों वाले नकली लोग नहीं, बल्कि खास अपने चेहरे वाले असली लोग हैं। आप मेहनत करते हैं, सोच का नया धरातल बनाते हैं, जबरदस्त दम लगाकर नए ऑरबिट में पहुंचते हैं तो वहां से भी बाहर झांकने पर पाते हैं कि आप जैसे लोगों का हुजूम जुलूस निकाले पड़ा है। यह अनुभूति मुझे पहले थोड़ी-थोड़ी सी थी। लेकिन पिछले 12 महीनों से हिंदी ब्लॉगिंग की दुनिया में विचरने के बाद यह बहुत गहरी हो गयी है। अपने अनोखेपन का भ्रम टूट गया है।

इसीलिए कभी-कभी लगता है कि हम तो निमित्त मात्र हैं। एक ही समय में सोच और विचार झुंड के झुंड में उड़ते-बहते हुए आते हैं। आपके सिर से गुजरकर आगे बढ़ जाते हैं। आपने पकड़ लिया और उन्हें अभिव्यक्त कर दिया तो ठीक, नहीं तो दूसरा कोई उन्हें शब्द दे देगा। शैली का अंतर यकीनन रहेगा, लेकिन अंतर्वस्तु समान रहेगी। एक ही तरह के ऑरबिट पर मौजूद लोगों की सोच एक जैसी होती है। यह भी होता है कि सालोंसाल तक हम एक ही ऑरबिट में भटकते रहते हैं, ठहराव का शिकार बने रहते हैं। लेकिन निरंतर अंतर्संघर्ष और मेहनत से हम अपने ऑरबिट बदल देते हैं। दिलचस्प बात ये है कि यह यात्रा नाभिक से बाहर ऊपर की तरफ ही होती है। जब भी यह यात्रा नीचे की तरफ होने लगती है तो हमारे विनाश का दौर शुरू हो जाता है और हम जल्दी ही मरखप जाते हैं।

यह भी ध्यान देने की बात है कि इस सारे सफर में हम कभी अकेले नहीं होते, हमारे जैसे अनेक होते हैं। लेकिन मान लीजिए, ऑरबिट बदलते-बदलते, उसकी गोलाकार सीढियां चढ़ते-चढ़ते हम सबसे बाहरी छोर पर पहुंच गए, तब भी क्या हम अकेले नहीं होंगे? मेरा मानना है कि हम उस सूरत में भी अकेले नहीं होंगे क्योंकि ऐसा अवस्था में पहुंचते ही हमारे पास अपने दौर के हरसंभव सवाल का हरसंभव जवाब होगा। हमारे पास वो सारे जवाब होंगे जिनकी तलाश में पहले ऑरबिट से लेकर ठीक हमारे पहले तक के ऑरबिट में फंसे लाखों-करोड़ों लोग अपने घुटने तोड़ रहे हैं। जैसे ही हम अपना हाथ उठाकर बताएंगे कि देखो मैं यहां पहुंच गया, वैसे ही उन करोड़ों लोगों के सामने बिजली चमक जाएगी। आपका वजूद उनके वजूद में मिल जाएगा। आपकी आवाज़ उनकी आवाज़ से मिलकर अनंत अनुनाद पैदा करेगी और आप कतई अकेले नहीं रह जाएंगे।

4 comments:

मीनाक्षी said...

हमारा चंचल मन कभी हमें नितांत अकेला कर देता है और कभी सबके साथ जोड़ देता है.
सब ऐसे ही चलता रहे... नव वर्ष पर शुभकामनाएँ.

नीरज गोस्वामी said...

"आपके सिर से गुजरकर आगे बढ़ जाते हैं। आपने पकड़ लिया और उन्हें अभिव्यक्त कर दिया तो ठीक, नहीं तो दूसरा कोई उन्हें शब्द दे देगा। शैली का अंतर यकीनन रहेगा, लेकिन अंतर्वस्तु समान रहेगी।"
अनिल जी बहुत सही लिखा है आपने. एक बहुत ही जटिल विषय को कितनी सरलता से व्यक्त किया है आप ने. आप के एक एक शब्द से सहमत हूँ मैं और आप के ज्ञान से अभिभूत भी.
लिखते रहिये.
नीरज

स्वप्नदर्शी said...

"ये सारा कुछ एक सामाजिक क्रिया है, सामूहिक यात्रा है। इसमें हम कभी भी अकेले नहीं होते हैं। सोच-विचार के एक खास ऑरबिट में रहते हैं तो थोड़े समय के लिए ज़रूर लग सकता है कि हम अनोखे हैं, लेकिन ज़रा-सा सिर उठाकर अपने कूचे से बाहर झांकते हैं तो पता चलता है कि हमारे जैसे बहुतेरे हैं"

बहुत सही लिखा है आपने, बस इतना जोडना चाहती हू, कि रोने हंसने के अन्दाज़ के अलावा भी इस दुनिया के सभी मनुष्य अमूमन एक जैसे है. बाहर से देखने मे सब अलग है, पर ज़रा सा भीतर से टटोलो तो एक सा है सब कुछ. हमारी अपनी सोच ही हमे सीमीत करती है,

ghughutibasuti said...

एक बहुत विचारणीय विषय और बहुत सहज तरीके से हमें भी अपने सोच से जोड़ लिया है । आपसे व स्वप्नदर्शी जी से बहुत सीमा तक सहमत हूँ ।
नववर्ष की शुभकामनाएँ ।
घुघूती बासूती