Wednesday 9 January, 2008

कहीं आईसीसी का जनाजा न निकल जाए

अगले साल आईसीसी अपनी सौवीं जयंती मनाएगी। 15 जून 1909 को इसकी स्थापना इंपीरियल क्रिकेट कॉन्फ्रेंस के नाम से हुई, 1965 में इसका नाम इंटरनेशनल क्रिकेट कॉन्फ्रेंस हो गया और 1989 से यह इंटरनेशनल क्रिकेट काउंसिल बन गई। इस तरह बनने से लेकर अभी तक के 99 सालों में यह हमेशा आईसीसी ही रही। लेकिन इस समय क्रिकेट की यह केंद्रीय अंतरराष्ट्रीय संस्था जिस तरह के विवादों से घिरी है और जिस तरह के संकट से गुजर रही है, उसे देखते हुए एक खेल इतिहासकार ने अंदेशा जताया है कि कहीं अगले साल सौवीं जयंती मनाने के बजाय इसका क्रियाकर्म न हो जाए।

यूं तो आईसीसी के कुल 101 सदस्य हैं। लेकिन इसमें से केवल दस ही पूर्ण सदस्य हैं और यह सदस्यता देश की नहीं, उसकी चुनिंदा क्रिकेट संस्थाओं की होती है। जैसे भारत से बीसीसीआई इसकी सदस्य है, जबकि ज़ी समूह की तरफ से बनाई गई इंडियन क्रिकेट लीग (आईसीएल) को आईसीसी शायद कभी घास ही नहीं डालेगी। ऑस्ट्रेलिया, इंग्लैंड और दक्षिण अफ्रीका आईसीसी के संस्थापक सदस्य हैं। भारत, न्यूज़ीलैंड और वेस्ट इंडीज़ इसमें एक साथ 31 मई 1926 को शामिल हुए। पाकिस्तान साल 1953 में, श्रीलंका साल 1981 में, जिम्बाब्वे 1992 और बांग्लादेश सबसे बाद में साल 2000 के दौरान इसका सदस्य बना। यही दस देश हैं जिनके बीच साल भर क्रिकेट का खेल चलता रहता है। लेकिन आईसीसी के लिए इनमें से भारत की अहमियत सबसे ज्यादा है क्योंकि क्रिकेट मैचों से होनेवाली कमाई का 70 फीसदी हिस्सा भारत से आता है।

असल में क्रिकेट भले ही इस समय भारतीयों का सबसे प्यारा खेल बन गया हो, लेकिन असली मामला इसी कमाई और धंधे का है। इस खेल से जितना ही राष्ट्रीय उन्माद जुड़ा रहेगा, बीसीसीआई और आईसीसी का धंधा उतना ही चमकेगा। इसीलिए कितना भी हो-हल्ला मचा लिया जाए, बाल ठाकरे तक कहने लगें कि भारतीय टीम को वापस चले आना चाहिए, लेकिन 16 जनवरी से पर्थ में भारत-ऑस्ट्रेलिया के तीसरे टेस्ट मैच के टलने के कोई आसार नहीं हैं। कहा जा रहा है कि भारत का यह दौरा एक बिजनेस कॉन्ट्रैक्ट का हिस्सा है और बिजनेस कॉन्ट्रैक्ट भगवान की इच्छा से ही खारिज़ किए जा सकते हैं। आखिरकार बीसीसीआई धौंसपट्टी जमाने के बाद लाइन पर आ गई। दौरा जारी है और भारतीय टीम कैनबरा पहुच चुकी है।

अगर बीसीसीआई यह दौरा निरस्त कर देती तो उसे इस पूरी सीरीज़ को ब्रॉडकास्ट करनेवाले चैनलों को कम से कम 90 करोड़ रुपए का हर्जाना देना पड़ता। उसने टेस्ट मैचों के दौरान 10 सेकंड के विज्ञापन के लिए 50-60 हज़ार रुपए और वन-डे मैचों के दौरान 10 सेकंड के विज्ञापन के लिए 1.6 लाख रुपए की दर से एडवांस बुकिंग कर रखी है। दौरा रद्द होने की सूरत में यह सारी रकम उसके हाथ से निकल जाती क्योंकि कंपनियां तो विज्ञापन चलने पर ही पैसे देती हैं। भारत-ऑस्ट्रेलिया का मैच न होने से कंपनियों को कोई नुकसान नहीं होगा। जो भी नुकसान होगा, उसे ऑस्ट्रेलियाई क्रिकेट बोर्ड और बीसीसीआई को झेलना पड़ेगा। इसीलिए ऑस्ट्रेलियाई क्रिकेट बोर्ड भी किसी भी सूरत में यह दौरा रद्द नहीं होने देना चाहता।

धंधे के इसी स्वार्थ का नतीजा है कि ऑस्ट्रेलियाई टीम के कप्तान रिकी पॉन्टिंग ने जब चैंपियंस ट्रॉफी जीतने के बाद टीवी कैमरों के सामने हमारे कृषि मंत्री और बीसीसीआई के अध्यक्ष शरद पवार का अपमान किया था, तब भी पवार ने इसे तूल नहीं दिया। राष्ट्रीय भावना का तकाज़ा यही था कि पॉन्टिंग के खिलाफ सख्त से सख्त कार्रवाई की जाती। लेकिन महज मामूली-सी औपचारिक माफी से पॉन्टिंग बच निकले। यही वजह है कि आज पूरी ऑस्ट्रेलियाई टीम भारतीय खिलाड़ियों का अपमान करने से नहीं चूक रही। लेकिन सारे मामले में पेंच यही है कि अगर भारतीय टीम के ऐसे अपमान के बाद भी बीसीसीआई ने कारोबारी रवैया ही अपनाए रखा तो एक दिन उसके ‘खेल’ से जुड़ी राष्ट्रीय भावना खत्म हो जाएगी। और अगर उसने राष्ट्रीय भावना का ध्यान रखते हुए आईसीसी से पंगा ले लिया तो आईसीसी का वजूद ही खतरे में पड़ जाएगा। इसीलिए सचमुच आशंका इस बात की है कि कहीं शताब्दी वर्ष में आईसीसी का जनाजा न निकल जाए।

7 comments:

राजेश कुमार said...

अनिल जी आईसीसी को भारत से भले हीं 70 प्रतिशत की कमाई होती हो लेकिन आईसीसी के 70 प्रतिशत से अधिक सदस्य इंग्लैंड और आस्ट्रेलिया जैसे देश से आते हैं। इसलिये हरभजन सिंह की गलती नहीं होने पर भी उसे दोषी ठहराया गया और सजा सुनाई गई। राहत यह है कि क्रिकेट खेलने वाले 10 देशो में से चार भारतीय उपमहाद्वीप के है।

राजेश कुमार said...
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Gyan Dutt Pandey said...

क्रिकेट को राष्ट्रीय मान सम्मान से जोड़ना बन्द हो जाये, वही पर्याप्त है। बाकी आई सी सी मरे या जिये! :-)

समयचक्र said...

जिस तरह नस्लभेद के मुद्दे पर जिस दमदारी के साथ आई. आई .सी. ओर आस्ट्रेलिया के खिलाफ एसिया के देश जबरजस्त विरोध कर रहे है उससे आई. आई .सी. का आसन डोलने ज़रूर लगा है ओर वह दिन ज़रूर आएगा जब आई. आई .सी. भारत सहित एसिया सभी देशो को साष्टांग प्रणाम करेगा

भुवन भास्कर said...

आपकी आखिरी पंक्तियों से तो यही उम्मीद दिख रही है कि बीसीसीआई आखिरकार राष्ट्रीय भावना का ही ध्यान रखेगी और इसलिए आईसीसी का जनाजा निकल जाएगा। काश ऐसा होता...। मुझे शक है। रही बात क्रिकेट से जुड़ी राष्ट्रीय भावना की, तो वो तब तक इसी तरह क़ायम रहेगी जब तक हमें कुछ दूसरे ऐसे खेल न मिल जाएं, जिनके ज़रिए विश्व मंचों पर पहचान बनाने की हमारी राष्ट्रीय महत्वाकांक्षा पूरी हो सके।

रवीन्द्र प्रभात said...

हमें अपने होने का एहसास कराना ही हमारे लिए महत्वपूर्ण था , सो हमने करा दिया , भाई आई सी सी जाए भांड में , हमें क्या लेना . वैसे बहुत सुन्दरता के साथ आपने अपनी बात रखी है !

सागर नाहर said...

ज्ञानदत्त जी की टिप्पणी को कॉपी पेस्ट करलें। :)