Tuesday 8 January, 2008

जब तक है आलाकमान, लड़खड़ाता रहेगा लोकतंत्र

पहले कांग्रेस में ही आलाकमान हुआ करता था। अब तो कार्यकर्ता-आधारित पार्टी होने के बावजूद बीजेपी में भी आलाकमान बन चुका है। अंसतुष्ट नेता आलाकमान के पास अपनी शिकायतें लेकर पहुंचते रहते हैं। कांग्रेस में सोनिया और राहुल गांधी जो कहें, वही नीति है। बीजेपी में कभी संघ की चलती है तो कभी आडवाणी या अटल जी का फैसला अंतिम होता है। कम्युनिस्ट पार्टियों में तो वैसे भी डेमोक्रेटिक सेंट्रलिज्म के नाम पर हमेशा पार्टी महासचिव की ही चलती है। हालांकि वहां कुछ तो ज़रूर ऐसा है कि ज्योति बसु, बुद्धदेव भट्टाचार्य और केरल के मुख्यमंत्री वी एस अच्युतानंदन अलग-अलग आवाज़ में बोल सकते हैं।

बाकी पार्टियों में तो बस आलाकमान ही आलाकमान है। एक की संख्या के पीछे सभी ज़ीरो लगे हुए हैं। मायावती, मुलायम सिंह यादव, लालू यादव, नीतीश, करुणानिधि, प्रकाश सिंह बादल, ओमप्रकाश चौटाला, चंद्रबाबू नायडू...सब के सब पार्टी के अंदरूनी लोकतंत्र में कोई यकीन नहीं रखते। सर्वोच्च नेता जो कहे, वही अंतिम नीति और फैसला होता है। अमर सिंह या सतीश अग्रवाल जैसे चंगू-मंगू बस दिखावे की चीज़ होते हैं। नेता जिस दिन चाहेगा, इन्हें दूध की मक्खी की तरह निकालकर फेंक देगा और इनकी औकात दो कौड़ी की भी नहीं रहेगी।

आलाकमान की स्थिति तभी पैदा होती है, जब पार्टी में कोई आंतरिक लोकतंत्र नहीं होता। दिलचस्प तथ्य यह है कि हमारी राजनीतिक व्यवस्था, खासकर कांग्रेस पार्टी में आलाकमान की धारणा और अंदरूनी लोकतंत्र के खात्मे की शुरुआत महात्मा गांधी ने की थी।

आलाकमान की स्थिति तभी पैदा होती है, जब पार्टी में कोई आंतरिक लोकतंत्र नहीं होता। दिलचस्प तथ्य यह है कि हमारी राजनीतिक व्यवस्था, खासकर कांग्रेस पार्टी में आलाकमान की धारणा और अंदरूनी लोकतंत्र के खात्मे की शुरुआत महात्मा गांधी ने की थी। हुआ यह था कि 1938 में इंडियन नेशनल कांग्रेस के हरिपुरा अधिवेशन में नेताजी सुभाषचंद्र बोस को पहली बार पार्टी का अध्यक्ष चुना गया। गांधी जी इससे कतई खुश नहीं थे। लेकिन 1939 में जब बोस त्रिपुरी कांग्रेस में गांधी के उम्मीदवार पट्टाभि सीतारमैया को 1375 के मुकाबले 1580 वोटों से हराकर दोबारा पार्टी अध्यक्ष चुन लिए गए तो संत माने जानेवाले गांधी जी इतने परेशान हो गए कि उन्होंने इसे निजी हार करार दिया। स्थितियां ऐसी बना दीं कि बोस को इस्तीफा देना पड़ा। वहीं से कांग्रेस में सभी कार्यकर्ताओं और नेताओं से ऊपर अघोषित आलाकमान की संस्था जड जमाने लगी। फिर नेहरू-गांधी खानदान ने इसे औपचारिक जामा पहना दिया। आज स्थिति यह है कि सोनिया या राहुल गांधी के बिना कांग्रेस विलुप्त हो जाने को अभिशप्त है।

लोकतंत्र का मतलब सिर्फ संसदीय या विधानसभा चुनाव नहीं होते। ऐसा ही है तो भारत में अंग्रेज़ों के शासन के दौरान ही लोकतंत्र आ चुका था। 1937 में हुए आम चुनावों के बाद देश के सात राज्यों में कांग्रेस की सरकार बनी थी और उसी के साल भर बाद सुभाषचंद्र बोस को कांग्रेस का अध्यक्ष चुना गया था। असल में 1935 के जिस गवर्मेंट ऑफ इंडिया एक्ट के आधार पर हमारा संविधान बना है, उसी के संघीय प्रावधानों को लेकर बोस ने गांधी का विरोध किया था, जिसके बाद गांधी ने पार्टी के अंदरूनी लोकतंत्र को ताक पर रखते हुए बोस को इस्तीफा देने के लिए मजबूर कर दिया।

हमने लोकतंत्र की संसदीय प्रणाली ब्रिटिश पद्धति से उधार ली है। लेकिन ब्रिटेन में यह पद्धति आज भी इसलिए मजबूत है क्योंकि वहां की पार्टियों का ढांचा काफी लोकतांत्रिक है। कोई भी व्यक्ति पार्टी पर हावी नहीं हो पाता। यही वजह है कि मारग्रेट थैचर जैसी आम मध्यवर्गीय महिला टोरी पार्टी और सरकार के सर्वोच्च पद पर आ सकी और लेबर पार्टी में भी टोनी ब्लेयर की जगह आसानी से ‘गोवर्धन’ ब्राउन आ जाते हैं। ज़ाहिर-सी बात है कि अगर हम देश में संसदीय लोकतंत्र के मौजूदा ढांचे को ही मजबूत बनाना चाहते हैं तो इसके लिए ज़रूरी और अनिवार्य शर्त है कि देश की सभी राजनीतिक पार्टियों में आंतरिक लोकतंत्र को मजबूत किया जाए। नहीं तो मायावती चिल्लाती रहेंगी कि कांग्रेस उन्हें मरवाना चाहती है। सोनिया गांधी से लेकर राहुल गांधी और नरेंद्र मोदी तक हमेशा आतंकवादियों के निशाने पर रहेंगे क्योंकि इन्हें पता है कि भारतीय लोकतंत्र की जान नेताओं के शरीर में कैद है।
सूचनाओं का आधार: इंडियन एक्सप्रेस में छपा जयतीर्थ राव का लेख

3 comments:

इष्ट देव सांकृत्यायन said...

इतने ईमानदार विश्लेषण के लिए बधाई अनिल भाई.

Gyan Dutt Pandey said...

बापू के जमाने में आलाकमान में वैल्यूज रही होंगी। वैल्यज हों तो मैं उसे लोकतन्त्र से ज्यादा तरजीह दूंगा। पर जब आलाकमान आज के पैदाइशी नेताओं की तर्ज पर हो तो मुझे लोकतन्त्र ज्यादा महत्वपूर्ण लगता है।
शायद कुछ दशक तक हमें परमानेण्ट और पारिवारिक नेतृत्व को और झेलना होगा।

राजेश कुमार said...

आपने बढिया विषय उठाया है। हर राजनीतिक दल आंतरिक लोकतंत्र की बात जरुर करता है लेकिन व्यवहार में ऐसा होता नहीं हैं। राष्ट्रीय पार्टियां हो या क्षेत्रीय सभी के नेता अपनी अपनी पार्टी को मनमाने तरीके से चलाने की कोशिश करते हैं। लेकिन मुझे लगता है वर्तमान दौर में इस तानाशाही का कोई हल नहीं है।