Saturday 5 January, 2008

तय करें आप किस खेमे में हैं? इधर या उधर

इस समय हमारे ब्लॉग जगत में दो तरह के लोग हैं। एक वो जो अपने अनुभवों की रोशनी में जीवन-जगत-समाज की गुत्थियों को सुलझाना चाहते हैं। ये लोग बेहद संजीदगी और ईमानदारी से लिखते हैं। इनके लिखे में कोई बनावट नहीं होती। कठिन से कठिन विषयों में भी गोता लगाते हैं तो कुछ ऐसा निकाल कर लाते हैं कि मामला सरल होता दिखता है। तकनीकी और दूसरी तरह की जानकारियां देनेवाले ब्लॉगर भी इसी श्रेणी में आते हैं। इस श्रेणी के ब्लॉगर निर्मोही होकर लिखते हैं।

दूसरी तरफ वो ब्लॉगर हैं जो किसी न किसी मोह से ग्रस्त हैं। यह मोह विचारधारा से भी हो सकता है, व्यक्ति से हो सकता है और खुद से भी। इन लोगों का व्यवहार से खास लेना-देना नहीं होता। इनको किसी नई चीज़ की तलाश नहीं होती। इनके पास बने-बनाए फॉर्मूले होते हैं। जो बातें व्यवहार में सुलझ रही होती हैं, उन्हें भी किताबों को उद्धृत करके इस अंदाज़ में पेश करते हैं कि सारा मामला और उलझ जाता है।

दिलचस्प बात ये है कि बोलने-लिखने वालों में यह खेमेबंदी, यह विभाजन आज से नहीं, सदियों से है। मुझे लगता है कि हमें साफ कर लेना चाहिए कि हम किस श्रेणी में आते हैं? कौन-सा खेमा हमारा है और कौन-सा उनका? क्योंकि दोनों का मन कभी एक नहीं हो सकता है।

संत कबीर यह बात बहुत पहले कह चुके हैं। अपने खिलाफ ज़बरदस्त लामबंदियों से शायद परेशान होकर उन्होंने लिखा था :

तेरा मेरा मनवा कैसे इक होई रे।
मैं कहता तू जागत रहियो, तू जाता है सोई रे।।

मैं कहता निर्मोही रहियो, तू जाता है मोही रे।
जुगन-जुगन समुझावत हारा, कहा न मानत कोई रे।।

मैं कहता आँखिन की देखी, तू कहता कागद की लेखी।
मैं कहता सुलझावन हारी, तू राख्यो उलझाई रे।।

सतगुरु धारा निर्मल बाहे, वा मय काया धोई रे।
कहत कबीर सुनो भई साधो, तब ही वैसा होई रे।।

17 comments:

Dr Parveen Chopra said...

रघुराज जी, आप की पोस्ट पढ़ कर बहुत अच्छा लगा , लेकिन एक छोटी सी चिंता यह भी हुई कि पता नहीं मेरा लेखन किस कैटेगरी की तरफ रेंग रहा है। Anyway, Raghurajji, what you have mentioned in your profile that we endeavor to live one thousand lives simultaneously is absolutely truthful and quite thought-provoking,sir !!
Keep it up !!

गार्गी said...

आपके लेखन में तो सरस्वती विराजती है। बँधाई ।
आज आपनें जो ब्लाग जगत का classification किया है वह बेजोड़ है। आशा है वह उलझे हुए विचारों के एकालाप bloggers को आपकी दिखाई राह में ला पायेगा।
धन्यवाद.

Gyan Dutt Pandey said...

क्या ख्याल है अनिल जी, अपन तो दोनो कइती हैं! या यूं कहें तो दोनो तरफ से बहरियाये हुये! :-)

Batangad said...

अनिल सर, मेरी बतंगड़ किस खेमे में दिख रही है सर।

संजय बेंगाणी said...

सबकी अपनी डफली (चिट्ठा) है, सब अपना राग अलपेगें ही. चिट्ठा है ही इसलिए. :)

dpkraj said...

आपने कबीर जी के रचना दिखाकर दिल खुश कर दिया. में समयाभाव तथा ब्लोग की आवश्यकताओं को देखते हुए अधिक नहीं लिख पाता पर आज यह भी संयोग बन गया की कबीर जी का एक दोहा मैंने लिया

पहिले यह मन काग था, करता जीवन घात
अब तो मन हंसा, मोती चुनि-चुनि खात
-----------------------------------
ऐसा लगा मेरे मन की बात है.
आपकी पोस्ट बहुत अच्छी लगी.
दीपक भारतदीप

Ashish Maharishi said...

मुझे किस खेमे में देखते हैं आप

पारुल "पुखराज" said...

लेख पसंद आया,बात पसंद आयी……मगर क्या करें मन एक सा नही रहता कभी आँखो देखी कहता है तो कभी हृदय की कोरी उठा पटक लिख डालता है। गुलज़ार का शेर है …

ये दिल भी दोस्त ज़मीं की तरह
हो जाता है डावां डो्ल कभी

चंद्रभूषण said...

मेरे ख्याल से इतनी छोटी कम्यूनिटी में ऐसे विभाजनों का कोई लाभ नहीं है। यहां कौन, कितने लोग हैं, जिन्हें आंखन देखी के बजाय कागद लेखी पर यकीन करने वाला, बात-बात पर कोट उगलने वाला किताबी कीड़ा समझा जाए। मैं तो यही सोचकर दुखी रहता हूं कि किताबों का जिक्र यहां इतना कम क्यों होता है...

नीरज गोस्वामी said...

मैं कहता आँखिन की देखी, तू कहता कागद की लेखी।
मैं कहता सुलझावन हारी, तू राख्यो उलझाई रे।।
कबीर के इस दोहे को ही विस्तार दिया है आपने अपनी पोस्ट में...बहुत बढ़िया भाई वाह.... ये बताईये की लोग अपने को लेकर इतने शंकित क्यों हैं जो आप से पूछ रहे हैं की वो किस खेमें में हैं...
नीरज

डा.अरविन्द चतुर्वेदी Dr.Arvind Chaturvedi said...

यूं तो 'बीच' वाला कहलाना अच्छा नहीं माना जाता, परंतु यहां मुझे लगता है कि यदि कोई 'बीच' का है तो भी कोई बुराई नहीं.आप क्या कहते हैं ?

मीनाक्षी said...

अग्नि-कण हूँ ज्योति ज्ञान की
मैं गहरी छाया भी अज्ञान की !

सरल मुस्कान हूँ मैं शैशव की
कुटिलता भी हूँ मैं मानव की !!

मानव प्रवृति के और भी कई रूप हैं, खेमों में बाँटना मुश्किल है... सब रूपों को सराहते हुए अपनी लेखनी को आनन्द लेने दीजिए. कवीर के दोहे पढ़कर अच्छा लगा.

दिनेशराय द्विवेदी said...

अब लगे हाथ खेमे भी एलॉट कर ही दो। है न मुश्किल काम?

Unknown said...

बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलया कोय।
जो दिल खोजा आपना, मुझसा बुरा न कोय॥

सागर नाहर said...

कभी लगता है मैं इस खेमे का हूँ कभी इसका, पर मुझे लगता है है मैं हर खेमे का हूँ और शायद किसी का भी नहीं।
चंद्रभूषण जी सही कहते हैं खेमे बाजी करने जितनी संख्या शायद नहीं हमारी।

ghughutibasuti said...

:) बढ़िया लिखा है , कबीर ने भी व आपने भी !
घुघूती बासूती

अजित वडनेरकर said...

अवधू, माया तजि न जाय.... और ये खेमों की माया। अपन तो कबीरपंथी ही हैं। किसी खेमें में नहीं जाना । खेमें तो आखिरकार हाशियों पर ही लगते हैं। सबसे बड़ा खेमा तो ऊपर वाले ने तान रखा है, आसमानी खेमा। अपन उसमें खुश हैं।
पोस्ट अच्छी है। मज़ेदार है । आनंददायक है।