Wednesday 23 January, 2008

अभी तक तो मैं अंधा हो चुका होता

मेरे गांव में गजाधर नाम के एक पंडित हुआ करते थे। उन्होंने ही मेरी जन्मपत्री बनाई थी। पत्री बाकायदा संस्कृत में थी। कम से कम गज भर लंबी थी। लकड़ी की नक्काशीदार डंडी पर उसे लपेटकर रखा गया था। 20-22 साल का हुआ तो एक दिन मां की संदूक से निकालकर उसे पढ़ने लगा। पढ़कर मैं कई जगह अटका, कई जगह चौंका। उसके मुताबिक रावण के जैसे तमाम सर्वनाशी अवगुण मेरे अंदर थे। यथा - यह जातक घोर अहंकारी होगा। कुल का नाश करनेवाला है। माता-पिता को कष्ट पहुंचाएगा। और, सबसे बड़ी बात यह कि, “नेत्रो विहानो जात:”… समय और तिथि ऐसी थी कि मुझे समझ में आया कि मैं 35-36 साल का होते-होते अंधा हो जाऊंगा।

मैंने चिंतित होकर पिताजी को यह बात बताई तो उन्होंने कहा कि ऐसा हो नहीं सकता, गजाधर पंडित ने किसी और की जन्मपत्री दे दी होगी। मैंने कहा – नहीं, उसमें जन्म का समय और राशि का नाम बिलकुल मेरा ही दर्ज है। पिताजी ने तब खुद मेरी जन्मपत्री शुरू से लेकर आखिर तक बांची और बोले – सब बकवास है। लेकिन मेरे लिए वह भयंकर अनिश्चितता का दौर था। करियर और भावी जीवन को लेकर उहापोह जारी थी। इसलिए भविष्य की तनिक-सी आहट भी बेचैन कर देती थी। कुल का नाशक मैं बनने ही जा रहा था क्योंकि जात-पात कुछ नहीं मानता था। माता-पिता को मुझसे कष्ट भी पहुंचनेवाला था क्योंकि अपने लिए उनके देखे ख्वाब के खिलाफ जाने का फैसला मैं तब तक कर चुका था। और, दब्बू होने के बावजूद अहंकारी तो मैं बचपन से ही था। जब इतना कुछ सही था तो अंधा होने का लेखा कैसे मेटा जा सकता था?

मैं अपने अंधे होने को लेकर इतना आश्वस्त हो गया कि महीनों तक अक्सर सड़क पर आंखें मूंदकर चलने का अभ्यास करने लगा। हॉस्टल के कमरे में तो अकेला रहने पर ज्यादातर काम आंख मूंदकर करने की कोशिश करता। लेकिन 35-36 का भी हुआ और अब 46 के पार जा रहा हूं। अभी तक तो दोनों आंखें सही-सलामत हैं। औसत से ज्यादा ही दिखता है। उस दौर को याद करता हूं तो अपने भय के ऊपर हंसी आती है। वैसे व्याख्याकारों को बुला लिया जाए तो वे साबित कर सकते हैं कि मैं तो अंधा हो चुका हूं, क्योंकि आंख वाले भी अंधे हो सकते हैं। हज़ारों साल पहले महर्षि देवल की कन्या सुवर्चला ने अपने पति के बारे में यही शर्त रखी थी कि वह अंधा हो और आंख वाला भी हो।

सुवर्चला बला की खूबसूरत थी और सारे वेद-शास्त्रों का अध्ययन करने से ब्रह्मवादिनी बन चुकी थी। वैसे तो वह शादी करने की इच्छुक नहीं थी। लेकिन जब पिता देवल ने कहा कि कुछ विशेष कर्मों का अनुष्ठान मात्र कर्मक्षय के लिए करना पड़ता है, तब वह शादी के लिए सशर्त तैयार हो गई। स्वयंवर बुलाया गया। जिस बाह्मण ने भी खबर सुनी, वह तय तिथि पर महर्षि देवल के आश्रम में जा पहुंचा। कोने-कोने से आए ब्राह्मणों के जमावड़े में सुवर्चला ने सबको प्रणाम करने के बाद बड़ी विनम्रता से कहा – यद्यस्ति समितौ विप्रो हयंधोSनंध: स मे वर: अर्थात इस ब्राह्मण सभा में मेरा पति वही हो सकता है जो अंधा हो और अंधा न भी हो।

सारे ब्राह्मण यह सुनकर चौंक गए। सभी एक दूसरे का मुंह ताकने लगे और सुवर्चला को विक्षिप्त मानकर सभा से वापस लौट गए। लेकिन कई महीनों बाद ब्रह्मर्षि उद्दालक का बेटा श्वेतकेतु सुवर्चला का हाथ मांगने के लिए महर्षि देवल के पास जा पहुंचा। उसे सुवर्चला की शर्त पता थी। उसने महर्षि कन्या से कहा कि मैं वही हूं जिसकी तुम्हें तलाश है। मैं अंधा हूं क्योंकि मैं अपने मन में अपने को हमेशा ऐसा ही मानता हूं। फिर भी मैं संदेहरहित हूं, इसलिए अंधा नहीं हूं। जिस परमात्मा की शक्ति से जीवात्मा सब कुछ देखता, ग्रहण करता है, वह परमात्मा ही चक्षु कहलाता है। जो इस चक्षु से रहित हैं, वह प्राणियों में अंधा है। मैं यह जानता हूं अर्थात् मैं अंधा नहीं हूं।

श्वेतकेतु ने सुवर्चला से आगे कहा - लेकिन इस मायने में अवश्य अंधा हूं कि जगत जिन आंखों से देखता, जिस कान से सुनता, जिस त्वचा से स्पर्श करता, जिस नाक से सूंघता, जिस जीभ से रस ग्रहण करता है और जिस लौकिक चक्षु से सारा बर्ताव करता है, उससे मेरा कोई संबंध नहीं है। साथ ही मैं तुम्हारा भरण-पोषण करने में समर्थ हूं। इसलिए तुम मेरा वरण करो। सुवर्चला उसके उत्तर से संतुष्ट हो गई और उसने कहा – मनसासि वृतो विद्वान, शेषकर्त्ता पिता मम। अर्थात् हे विद्वान! मन से मैंने आपका वरण किया। बाकी विवाह करानेवाले मेरे पिता हैं। अब आप उनसे मुझे मांग लीजिए। फिर इस विद्वान और विदुषी की शादी हो गई। इति।

13 comments:

आनंद said...

"यह जातक घोर अहंकारी होगा। कुल का नाश करनेवाला है। माता-पिता को कष्ट पहुंचाएगा।”

इस आधार पर देखें तो आपकी जन्‍मकुंडली बिलकुल सही लगती है। अंधे होने की बात का उदाहरण भी आपने दे दिया है। अब पढ़कर यह बताइए कि आगे क्‍या-क्‍या लिखा है :) - आनंद

काकेश said...

सारी बातें अपने बारे में बता देंगे क्या ?

Pratyaksha said...

कुंडली की अच्छी बातों का क्या हुआ ?

जेपी नारायण said...

गजाधर की गज-भर कुंडली में ऋषिकन्या कहां से घुस आई?

Pankaj Oudhia said...

लगता है कुण्डली बनाने वाले के मन मे बहुत बडी नाराजगी रही होगी क्योकि विद्वान ऐसा जानकर भी नही लिखते। आप परेशान न हो और आगे बढते रहे।

कंचन सिंह चौहान said...

अरे सुश्री सुवर्चला ने तो मेरे कई वरिष्ठ कन्याओं के मन की बात कह दी...ऐसे ही पति की तलाश तो है जो अंधा न हो जिससे शापिंग में पूरी मदद मिल सके..लेकिन अंधक हो भी जिससे हमारी आग्याओं का अंधानुकरण कर सके...):

संजय बेंगाणी said...

सामान्यतः ऐसी घनघोर बाते कुण्डली में नही6 लिखी जाती, पता नहीं कैसे लिख दी गई...

चलो जी कौन सत्य होती है...आपकी आँखे सलामत रहे. :)

Sandeep Singh said...

अकसर आपके लेख में प्रेरक प्रषंग रोचकता बढ़ाने में मददगार साबित होते रहते हैं। किस्सागोई का मजबूत आधार हमेशा पूरा लेख पढ़ने को मजबूर करता है लेकिन इस बार प्रेरक प्रषंग की जगह बन नहीं रही थी क्योंकि केंद्रीय पात्र जो आप खुद थे बेहद दमदार दिख रहा था चरित्र में भरपूर ड्रामा था और उसका दोहन भी आपने ठीक ही किया है....काफी रोचक है।

Sanjeet Tripathi said...

कुंडलियों मे अक्सर कई विरोधाभासी बात देखने को मिलती है। एक ही व्यक्ति की कुंडली में एक जगह यह लिखा रहेगा तो एक जगह वह।

वैसे भी अपनी कुंडली पढ़ते समय "मीठा-मीठा गप-गप और कड़वा-कड़वा थू-थू" किया जाए बस और खुश हो लिया जाए ;)

विजय वडनेरे said...

अच्छा किस्सा था.

वैसे कुंडली या भविष्यफल की बात की जाय तो मैं भी बचपन से यह सब पढ़ने में बड़ा इन्टरेस्ट लेता था. बस फर्क ये था कि जहाँ जिस राशी में जो अच्छा लगता था वही अपना मान के खुश हो लेता था.

Gyan Dutt Pandey said...

आपने तो जिज्ञासा जगा दी। हमारी कुण्डली में तो पता नहीं क्या लिखा है। आधी से ज्यादा तो बिना जाने काट दी।
बाकी ब्रह्म ज्ञान का अन्धत्व तो हममें भी है। बहुतों में है।

Unknown said...

आँखें खोल कर पढ़ा [बहुरूपिया प्रवचन?] - वैसे इसे "खुलती कुंडली का दंश" [:-)] भी कह सकते थे -rgds- मनीष

Unknown said...

आँखें खोलती,पहेली बूझती कथा रोचक है।