Wednesday 9 January, 2008

खूबसूरत चेहरे बहुतेरे याद हैं, लेकिन खूबसूरत लोग?

महिलाओं के बारे में मेरा कुछ कहने का हक नहीं बनता क्योंकि उनके अंतर्मन को मैं जानता-समझता नहीं। हां, अपने अल्प-अनुभव से मुझे यही लगता है कि महिलाएं चेहरे की नहीं, व्यक्तित्व की खूबसूरती को तरजीह देती हैं। लेकिन हम पुरुष लोग चेहरे की खूबसूरती को बहुत ज्यादा तवज्जो देते हैं, ऐसा मैं दावे के साथ कह सकता हूं। मैं अपने बंधुओं से पूछूं कि आपको अभी तक की जीवन-यात्रा में कितने खूबसूरत चेहरे याद हैं तो वे बचपन से लेकर किशोरावास्था और जवानी की किताबों के पन्नों में रखी तमाम सूखी पंखुड़ियों को ढूंढकर निकाल लाएंगे। गली के नुक्कड़ वाली लड़की, वो जो सब्जी की दुकान पर मिली थी, वो जो बड़े भाई की शादी में थोड़ी देर के लिए आई थी, वो बंजारन या वो जो ट्रेन में सामनेवाली सीट पर अपनी मां के साथ बैठी थी। पचासों किस्से, पचासों चेहरे। हर किसी पर आह-वाह! क्या चीज़ थी।

लेकिन अगर मैं पूछूं कि आप अब तक की ज़िंदगी में कितने खूबसूरत लोगों से मिले हैं तो गिनती दो-चार से आगे ही नहीं बढ़ती। ज़रा अपने अंदर झांककर बताइए कि क्या मैं झूठ बोल रहा हूं। मुझे नहीं लगता कि मैं चीज़ों को अंतिरंजित कर रहा हूं। ऐसा नहीं है कि दुनिया में अच्छे और भले लोगों का अकाल पड़ गया है, हर तरफ बुरे, नीच और स्वार्थी लोगों की भरमार है। ऐसा भी नहीं है कि कदम-कदम पर हमें अच्छे लोगों की ज़रूरत नहीं पड़ती। लेकिन हम तो ओस चाटकर प्यास बुझाने की फिराक में लगे रहते हैं।

इसी के चलते अच्छे और अंदर से खूबसूबरत लोगों को हम पहचान ही नहीं पाते। लोगों को अंदर से परखते ही नहीं। सब धान बाइस पसेरी ही तौलते हैं। सौंदर्य की प्यास और ललक में यकीनन कुछ भी गलत नहीं है, लेकिन सौंदर्य बाहरी ही नहीं होता, अंदरूनी भी होता है। फिर बाहरी सौंदर्य के तो हम कुछ ही दिनों में इतने आदी हो जाते हैं कि पता ही नहीं चलता कि उसमें खास क्या है। जैसे, अक्सर मिलने वाले के बारे में पूछ लिया जाए कि उसकी मूंछें हैं कि नहीं तो हम फेर में पड़ जाते हैं।

मेरे साथ इलाहाबाद विश्वविद्यालय में पढ़ने के दौरान हॉस्टल में एक लड़का था जिसे हम लोग नुकीला कहते थे। किसी जन्मजात विकृति की वजह से उसका शरीर एकदम सूखी हुई ममी जैसा हो चुका था। मुंह में सामने के दांत थे ही नहीं, बोलने पर किनारे के त्रिभुजाकार कुत्ता दांत ही चमकते थे। बोलता भी कुछ अजीब तरीके से था। लेकिन दो साल साथ रहने के बाद अहसास ही नहीं होता था कि वो औरों से अलग है क्योंकि उसका स्वभाव और बुद्धिमत्ता औरों जैसी ही थी। दूसरी तरफ, जिन्हें हम जांच-परखकर, खूबसूरती के हर पैमाने पर तौलकर अपने घर में बहू बनाकर लाते हैं, वही हमारे लिए कुछ सालों में असहनीय हो जाती हैं। बीवियों के भाग जाने या मरने पर कितने चुटकले बनते हैं!!!

मैं नहीं समझ पाता कि स्वभाव के बजाय सुंदरता के पीछे भागना पुरुष का स्वभाव क्यों है? वैसे अपने बचपन का मज़ेदार किस्सा सुनाऊं। तब मैं मुश्किल से आठ-नौ साल का रहा हूंगा। रामलीला के मौके पर पिताजी अपने स्कूल में हम सभी भाई-बहनों को फिल्म दिखाने ले गए। फिल्म थी, वीर भीमसेन। उसमें हिडिम्बा के मोहित करनेवाले रूप पर मैं इतना फिदा हुआ कि सारा कुछ पता कर लिया कि फिल्मों में अभिनेत्रियां ये रोल करती हैं और वे सब मुंबई में रहती हैं। फिर तो कम से कम छह महीने तक मैं सोते-जागते इसी उधेड़बुन में रहता कि कैसे मुंबई पहुंच कर ‘हिडिम्बा’ से मिल लूं। और कुछ नहीं, बस उसे देखते रहने और पास बैठने की इच्छा थी। शादी वगैरह की तो तब तक बात ही पता नहीं थी।

बड़े होने पर भी काफी समय तक खूबसूरत चेहरे मुझे भटकाते रहे। यहां तक कि जब मैं राजनीतिक काम करने के लिए पढ़ाई-लिखाई बीच में ही छोड़कर गांवों में गया था, तब भी शुरुआती सालों में खूबसूरती की छटाएं देखकर मैं मुदित हो जाया करता था। लेकिन बस उतना ही, उसके आगे नहीं क्योंकि संत का बाना ओढ़ा नहीं था, अंदर से पहना था। इलाहाबाद आता तो अपने एक मित्र को हा-हा करके बताता कि आदिवासियों और पासियों के चेहरे और आंखों में क्या चमक होती है। बाद में किशोर मन जैसे-जैसे सम होता गया, जीवन की सच्चाइयां दिमाग की बंद खिड़कियां खोलती गईं, मुझे लगा कि खूबसूरत चेहरों की नहीं, खूबसूरत लोगों की तलाश करनी चाहिए। जो अंदर से खूबसूरत हैं, वही आपके सफर की उपलब्धि बनेंगे। जो बाहर से सुंदर और अंदर से काइयां हैं, उनसे पल्ला छुड़ा लेने में भी भलाई है। मेरा तो यही अनुभव है। आप क्या अनुभव है आप जानें। लेकिन मुझे लगता है कि शायद आपका अनुभव भी ऐसा ही रहा होगा। ज़रा याद करके देखिएगा।

4 comments:

मीनाक्षी said...

अनिल जी, आपका हर लेख एक नई खूबसूरती के साथ होता है, पढ़ने में आनन्द आता है. मेरे विचार में पहले हम अपनी बाहरी आँखों से बाहरी रूप को देखते हैं फिर धीरे धीरे मन की आँखों से अन्दर का रूप दिखने लगता है तो बाहरी रूप को भूल कर हम अंतर्मन के रूप के दीवाने हो जाते हैं. मेरे ख्याल में स्त्री-पुरुष दोनो ही देर-सवेर अन्दर के रूप को मानने लगते हैं.

स्वप्नदर्शी said...

इसीलिये कहते है, कुछ लोग तभी तक खूबसुरत है जब तक ज़बान नही खुलती. पर असली खूबसुरती की पहचान कई सालो मे होती है.

Sanjeet Tripathi said...

आपकी विश्लेषण क्षमता गज़ब की है यह तो मानना पड़ेगा!!

Unknown said...

डायरी का यह पेज सुन्दरता से लिखा गया है उस पर पढ़नें वालों के विचारों से एक-मत भी।
हिडिम्बा वाला किस्सा पढ़कर बचपन याद हो आया।