Monday 28 January, 2008

बचत की नई परिभाषा, बाबा का सच्चा किस्सा

एक रोचक किस्सा याद आया। मैं सुल्तानपुर में कमला नेहरू इंस्टीट्यूट से बीएससी कर रहा था। हफ्ते के अंत में गांव जाता था। एक दिन जैसे ही गांव के बस स्टैंड पर उतरा तो बगलवाले गांव के एक बाबा जी साइकिल पैदल लेकर जाते हुए मिल गए। इन बाबा जी का इलाके में बहुत सम्मान था। बताया जाता था कि पुराने ज़माने के इंटरमीडिएट हैं। उनको देखते ही खुद ब खुद अंदर से आदर भाव छलक आता था। पैलगी के बाद मैंने पूछा क्या हुआ बाबा? कैसे पैदल?

बोले – क्या बताऊं बच्चा, गया था गोसाईंगंज। जैसे ही गोसाईंगंज से निकला, मड़हा पुल डांका कि साइकिल ससुरी पंक्चर हो गई। मैंने सवाल दागा कि फिर बनवाया क्यों नहीं? बाबा बोले – अरे, बच्चा, बनवाता कैसे? पुल से उतरकर पंक्चर बनानेवाले के पास गया। पूछा कितने पैसे लोगे। बताया 75 पैसे एक पंक्चर के। मोलतोल करके 65 पैसे पर मामला पट गया। एक ही पंक्चर था। बनाकर चक्का कस दिया। मैंने उसके साठ पैसे दिए। उसने मना कर दिया। कहने लगा – वाह, बाबा! बहुत चालाक हो। एक तो दस पैसे छुड़वा लिए, ऊपर से पांच पैसे भी कम दे रहे हो।

बाबा जी का किस्सा जारी था। बोले – हमहूं ठान लिहे कि बच्चा अब देब तो साठय पैसा देब। फिर बच्चा, ऊ ससुर मनबय न करय। हम कहे कि ऐसा है मिस्त्री, तुम अपना लगाया पंक्चर खोल दो। मैं घर जाकर खुद ही बना लूंगा। मैं साठ से एक पैसा भी ज्यादा नहीं दूंगा। बच्चा, वो ससुर मिस्त्री बड़ा जिद्दी निकला। पांच पैसा कम नहीं किया और लगा पंक्चर खोलने। लगा तो बहुत बुरा। लेकिन मैंने कहा – खोलने दो स्याले को। उसने पंक्चर खोल डाला, चक्का कस दिया। मैं साइकिल लेकर चल पड़ा। उधर से टाटा (मिनी बस) आ रही थी। लाद दिया और यही अब जाकर पहुंचा हूं।

मैंने पूछा – बाबा, टाटा पर तो आपके साथ साइकिल का अलग से किराया लगा होगा। बहुत ही स्वाभिमान से बाबा ने सीना चौड़ा करके जवाब दिया – हां, बच्चा, पांच रुपया अपना किराया दिया और साइकिल का मांग तो रहा था तीन रुपया, लेकिन दिया दो ही रुपया। अब घर पहुंच गया हूं। सब सामान है ही, कुछ खरीदना तो है नहीं। पंक्चर जोड़ लेंगे।

मैंने कहा – ठीक है बाबा, आपको देर हो रही होगी। अब घर जाइए। बाबा ने हां में हां भरी। मैंने कहा – पायलागी बाबा। बाबा आशीर्वाद बच्चा आशीर्वाद कहते हुए निकल चुके थे। और मैं बचत की नई परिभाषा से जूझ रहा था।
- यह अनुभव और विवरण दिल्ली से अरविंद चतुर्वेदी ने एक टिप्पणी में लिख भेजा था। अरविंद मेरे गांव के पास के हैं और मेरे छोटे भाई की तरह हैं। खुद ब्लॉग बनाने की पहल कर चुके हैं। अनुभव उनका रोचक था और टिप्पणी में किसी को नज़र नहीं आता तो उसे मैंने अलग से लगा दिया। उम्मीद है बचत की यह परिभाषा आपको भी अच्छी लगी होगी।

7 comments:

Sanjay Tiwari said...

बिल्कुल सच है. वे ऐसा ही करते हैं. पांच पैसा बचाने के लिए पांच रूपया खर्च कर देंगे और कोई अफसोस नहीं होगा. यही तो जिंदगी के रंग हैं.

देशज शब्दों का प्रयोग बहुत अच्छा है.

anuradha srivastav said...

भैय्या हमहूं एसी बचत ना करिबे........

Gyan Dutt Pandey said...

अब बाबा को छील लें इकनॉमिक प्र्यूडेंस पर; पर बाबा रहे होंगे कलरफुल पर्सनालिटी।
हम लोग बतायेंगे नहीं - पर ऐसी बाबागीरी तो हम सब ने यदाकदा की होगी! जिसपर कभी मन ही मन पछताते होंगे और कभी अन्दर ही अन्दर हंसते होंगे!

mamta said...

ये नयी परिभाषा खूब पसंद आई।
और ऐसा अक्सर होता भी है।

Sanjeet Tripathi said...

मस्त लगते है ऐसे लोग

अनिल रघुराज said...

ज्ञान जी, सही कहा आपने। हम में से बहुतों ने यदा-कदा ऐसी बाबागिरी की है। एक बार शाम को मैं दिल्ली में मंडी हाउस से घर (पटपड़गंज) जा रहा था। पत्नी ने कहा - ऑटो से चलते हैं। लेकिन मैंने पैसे बचाने के चक्कर में बस का सहारा लिया। घर पहुंचा तो किसी ने जेब से 8000 रुपए का मोबाइल निकाल लिया था। पत्नी ने कहा - देख लिया ना, 80 रुपए बचाने के चक्कर में 8000 चले गए। इसीलिए मुझे लगता है कि अपरिग्रह की इस सोच से आज बाहर निकलने की ज़रूरत है।

अविनाश वाचस्पति said...

बचत
चपत
लगाती है
फिर भी
न जाने
कैसे
सुहाती है
पर
हमारी थाती है
जैसे दिया
संग बाती है.